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श्रद्धा और अश्रद्धा


संत श्री आसाराम जी बापू के सत्संग-प्रवचन से

जैसे लोहे और अग्नि के संयोग से तमाम प्रकार के औजार बन जाते हैं, ऐसे ही श्रद्धा और एकाग्रता से मानसिक योग्यताएँ विकसित होती हैं, आध्यात्मिक अनुभूतियाँ होती हैं तथा सभी प्रकार की सफलताएँ और सिद्धियाँ मिलती हैं।

श्रद्धा सही होती है तो सही परिणाम आता है और गलत हो तो गलत परिणाम आता है। किसी को रोग तो थोड़ा-सा होता है लेकिन ‘हाय ! मैं रोगी हूँ…. मैं बीमार हूँ….’ करके गलत श्रद्धा करता है तो उसका रोग बढ़ जाता है। थोड़ी सी मुसीबत होती है और उस पर श्रद्धा करता है तो उसकी श्रद्धा के प्रभाव से मुसीबत बढ़ जाती है।

अगर रोग तथा मुसीबत के वक्त भी सही श्रद्धा करे कि ‘रोग शरीर को होता है और मुसीबत मन की कल्पना है, मैं तो परमात्मा का सनातन सपूत हूँ। रोग-बीमारी मुझे छू नहीं सकती है, मैं इनको देखने वाला, साक्षी अमर द्रष्टा हूँ ॐ… ॐ…ॐ… ‘ तो रोग का प्रभाव भी कम होता है और रोग जल्दी ठीक हो जाता है।

श्रद्धालु, संयमी जितना स्वस्थ जीवन गुजार सकता है, उतना अश्रद्धालु-असंयमी नहीं गुजार सकता। भक्त जितना सुख-दुःख में सम रह सकता है, उतना अभक्त नहीं रह सकता। श्रद्धालु थोड़ा सा पत्रं-पुष्प-फलं-तोयं देकर भ जो लाभ पा सकता है वह श्रद्धाहीन व्यक्ति नहीं पा सकता।

जितने व्यक्ति कथा-सत्संग में आये हैं उतने यदि क्लबों में जायें तो सुखी होने के लिए तरह-तरह के सामान-सुविधा की जरूरत होगी। फिर भी देखो तो सत्यानाश ही हाथ लगता है और यहाँ सत्संग में कोई भी ऐहिक सुविधा नहीं है फिर भी कितना लाभ हो रहा है !

क्लबों में जाकर तामसी आहार, डिस्को आदि करके भी लोग तलाक ले लेते हैं और तलाक की नौबत तक आ जाने वाले भी अगर भगवद्कथा में पहुँच जाते हैं तो वे भी भगवान के रास्ते चल पड़ते हैं।

पति-पत्नी में झगड़ा हो गया। पत्नी ने कहाः “मैं मायके चली जाऊँगी, तब तुम्हें पता चलेगा कि पत्नी का क्या महत्व है ? खाना तैयार मिलता है तभी इतना रुआब मार रहे हो। मैं चली जाऊँगी तो फिर कभी वापस नहीं आऊँगी।”

पतिः “कभी नहीं आयेगी तो दूसरा करेगी क्या ?”

पत्नीः “दूसरा क्यों करूँगी ? मैं तो वृंदावन चली जाऊँगी। मीरा बनूँगी।”

पतिः “जा, जा। तू क्या मीरा बनेगी ? ये मुँह और मसूर की दाल ? मैं ही चला जाऊँगा।”

पत्नीः “तुम चले जाओगे तो क्या करोगे ? दूसरी शादी करोगे ?”

पतिः “शादी क्यों करूँगा ? शादी करके तो देख लिया। एक मुसीबत कम पड़ी क्या, जो फिर दूसरी मुसीबत में पड़ूँगा ? मैं तो साधु बन जाऊँगा।”

पास से एक महात्मा गुजर रहे थे। महात्मा ने देखा कि दोनों लड़ तो रहे हैं किन्तु पति कह रहा है कि मैं साधु बन जाऊँगा और पत्नी कह रही है कि मैं मीरा बन जाऊँगी। दोनों श्रद्धालु हैं। इनमें श्रद्धा का सदगुण है तो क्यों न इनका घर स्वर्ग बना दिया जाय ?

महात्मा अनजान होकर आये और बोलेः

“नारायण हरि…। किस बात की लड़ाई हो रही है ?”

दोनों चुप हो गये। पति ने कहाः

“महाराज ! इस घर में रोज-रोज खटपट होती है इसलिए लगता है संसार में कोई सार नहीं है। मैं अकेला था, तब बड़े मजे में था परन्तु जबसे शादी हुई तबसे सब गड़बड़ हो गयी है। मैं तो अब गंगा-किनारे जाकर साधु बन जाऊँगा।”

पत्नी ने कहाः “महाराज ! मैं भी पहले तो बड़े मजे से रहती थी। जबसे शादी हुई है तबसे सारी खटपट शुरु हो गयी है। मैं तो अब मीरा बन जाऊँगी।”

महात्मा ने कहाः “देख, तुझमें भी श्रद्धा है और इसमें भी है। कोई वृंदावन जाकर मीरा बने, ऐसा आजकल का जमाना नहीं है। अभी तो घर में ही गिरधर गोपाल की मूर्ति बसा ले। अपने पति में ही गिरधर गोपाल की भावना कर। श्रद्धा से उसके लिए भोजन बना और सेवा कर। जो मीरा को वृंदावन में मिला वही तुझे घर बैठे मिल जायेगा।

अरे भैया ! तू गंगा किनारे जाकर साधु बनेगा तो किस सेठ का बढ़िया भंडारा होता है और कौन-सा सेठ बढ़िया दान करता है ? इस झमेले में पड़ेगा। इससे अच्छा है कि तू घर में ही संन्यासी हो जा। आसक्तिरहित होकर सत्कर्म कर और उन सत्कर्मों का फल भी भगवान को अर्पित कर दे। इससे तेरे हृदय में ज्ञान की प्यास जगेगी। ज्ञान की प्यास होगी तो तू ज्ञानी गुरु को खोज लेगा और सदगुरु से सत्संग सुनकर कभी-कभार एकांत अन्तर्मुखता की यात्रा करके परमात्मा को पा लेगा।

दोनों में श्रद्धा का सदगुण तो है ही। फिर क्यों ऐसा सोचते हो कि मैं वृंदावन चली जाऊँगी या मैं गंगा किनारे चला जाऊँगा ? तुम तो अपने घर को ही नंदनवन बना सकते हो।”

महात्मा की बात का दोनों पर बड़ा प्रभाव पड़ा। उनका झगड़ा भक्ति में बदल गया और दोनों महात्मा को प्रणाम करते हुए बोलेः

“महाराज ! हमने ऐसा कौन-सा पुण्य किया है कि आप जैसे ज्ञानवान महापुरुष के घर बैठे ही दर्शन हो गये ? महाराज ! आइये, विराजिये। कुछ प्रसाद पाकर जाइये।”

अगर किसी में श्रद्धा है और श्रद्धा सही जगह पर है तो वह देर-सवेर परमात्म-ज्ञान तक  पहुँचा ही देती है। श्रद्धापूर्वक किया गया थोड़ा सा भी सत्कार्य बड़ा फल देता है और अश्रद्धापूर्वक किया गया हवन, तप और दान भी व्यर्थ हो जाता है।

भगवान श्री कृष्ण कहते हैं-

अश्रद्धया हुतं दत्तं तपस्तप्तं कृतं च यत्।

असदित्युच्यते पार्थ न च तत्प्रेत्य नो इह।।

‘हे अर्जुन ! बिना श्रद्धा के किया हुआ हवन, दिया हुआ दान तथा तपा हुआ तप और जो कुछ भी किया हुआ शुभ कर्म है – वह समस्त ‘असत्’ कहा जाता है। इसलिए वह न तो इस लोक में लाभदायक है और न मरने के बाद ही।’ (गीताः 12.27)

तप क्या है ? पीडोत् भवति सिद्धयः।

केवल जंगल में जाकर देह को सुखाना ही तप नहीं है वरन् अच्छे काम के लिए कष्ट सहना भी तप है। घर में तो एयरकंडीशनर है लेकिन सत्संग में गये तो की छोटी-मोटी असुविधाएँ सहनी पड़ती हैं, जमीन पर बैठना पड़ता है, गर्मी सहनी पड़ती है… ये सारे कष्ट सहने पड़ते हैं किन्तु किसके नाते ? ईश्वर के नाते सहन करते हैं तो तप का फल मिल जाता है। उपवास किया, भूख सहन की तो हो गया तप।

ऐसे ही केवल अग्नि में आहूति देना ही यज्ञ नहीं है वरन् भूखे को रोटी देना, प्यासे को पानी पिलाना, हारे को हिम्मत देना, निगुरे को गुरु के पास ले जाना, अभक्त को भक्ति के रास्ते ले चलना भी यज्ञ है।

‘क्या करें, माँ के पैर दबाने पड़ते हैं।’ इस भाव से माँ की सेवा की तो यह यज्ञ नहीं है। ‘माँ के अन्दर मेरे भगवान हैं’ – इस भाव से माँ की सेवा की तो यह यज्ञ हो जायेगा।

अगर कोई सकाम भाव से दान, तप और यज्ञ करता है तो उसे इहलोक और परलोक में सुख, सफलता और वैभव मिलता है परन्तु कोई अश्रद्धा से कर्म करता है तो उसे न यहाँ फल मिलता है और न ही परलोक में फल मिलता है। किंतु यदि कोई निष्काम भाव से श्रद्धापूर्वक कर्ण करता है तो उसका अंतःकरण शुद्ध होता है और परमात्मा को पाने की प्यास बढ़ती है। परमात्म-प्राप्ति की प्यास सत्संग में ले जाती है और वह देर-सवेर परमात्मा को पाने में भी कामयाबी दिला देती है।

सनत्कुमार जी कहते हैं-

श्रद्धापूर्वाः सर्वधर्मा मनोरथफलप्रदाः।

श्रद्धया साध्यते सर्वं श्रद्धया तुष्यते हरिः।।

‘श्रद्धापूर्वक आचरण में लाये हुए ही सब धर्म मनोवांछित फल देने वाले होते हैं। श्रद्धा से सब कुछ सिद्ध होता है और श्रद्धा से ही भगवान श्रीहरि संतुष्ट होते हैं।

श्रद्धा एक ऐसा सदगुण है कि वह जिसके हृदय में रहती है वह रसमय हो जाता है। उसकी निराशा-हताशा, पलायनवादिता नष्ट हो जाती है। श्रद्धा अंतःकरण में रस पैदा कर देती है और हारे हुए को हिम्मत दे देती है।

मरीज में भी अगर अपने चिकित्सक के प्रति श्रद्धा होती है कि ‘इनके द्वारा मैं ठीक हो जाऊँगा’ तभी वह ठीक हो पाता है। अगर मरीज के मन में होता है कि ‘मैं ठीक नहीं हो सकता’ तब चिकित्सक भी उसे ठीक नहीं कर पाता है। इसी प्रकार जिनका लक्ष्य पैसा लूटना है, आडंबर से रोगों की लंबी-चौड़ी फाईल बनाकर प्रभावित करना है – ऐसे मरीजों के शोषक और आडंबर करने वाले चिकित्सक उतने सफल नहीं होते, जितने मरीजों का हित चाहने वाले मरीजों में श्रद्धा संपादन करके उन्हें ठीक करने में सफल होते हैं।

भगवान पर, भगवत्प्राप्त महापुरुषों पर, शास्त्र पर, गुरुमंत्र पर अपने-आप पर श्रद्धा परम सुख पाने की अमोघ कुंजियाँ हैं।

अगर अपने-आप पर श्रद्धा नहीं है कि ‘मैं ठीक नहीं हो सकता… मैं कुछ नहीं कर सकता… मेरा कोई नहीं है….’ तो योग्यता होते हुए भी, मददगार होते हुए भी वह कुछ नहीं कर पायेगा। संशयात्मा विनश्यति….. जिसको संशय बना रहता है समझो वह गया काम से।

नेपोलियन बोनापार्ट सेना में भर्ती होने के लिए गया। भर्ती करने वाले अधिकारी ने कहाः

“फलानी जगह पर शत्रुओं की छावनी में जाना है और वहाँ के गुप्त रहस्य लेकर आना है। आधी रात का समय है, बरसात और आँधी भी चल रही है। पगडंडी पानी से भर गयी होगी। क्या तुम यह काम कर सकते हो ?”

नेपोलियनः “क्यों नहीं?”

अधिकारीः “रास्ता नहीं मिला तो ?”

नेपोलियनः “सर ! आप चिंता न करें। अगर रास्ता नहीं मिला तो मैं अपना रास्ता स्वयं बनाऊँगा। मैं अपना काम करके ही आऊँगा।”

नेपोलियन की अपने-आप पर श्रद्धा थी तो वह ऐहिक जगत में प्रसिद्ध हो गया।

ऐसे ही लिप्टन नामक लड़के को कोई काम धंधा नहीं मिल रहा था। वह एक होटल में नौकरी खोजने गया।

होटलवाले ने कहाः “मेरी होटल चलती ही नहीं है, तुझे नौकरी पर क्या रखूँ। फिर भी तू गरीब है। नाश्ता वगैरह कर ले और कोई ग्राहक हो तो यहाँ बुला ला।”

लिप्टनः “मैं पहले ग्राहक लेकर आता हूँ। वह जहाज आया है।”

होटलवालाः “पास में भी एक होटल है। सब उसी होटल में चले जायेंगे, यहाँ कोई नहीं आयेगा।”

लिप्टनः “आप चिन्ता न करें। मैं ग्राहकों को लेकर आता हूँ, बाद में नाश्ता करूँगा।”

लिप्टन गया और कई ग्राहकों को लेकर आ गया। फिर उसी होटल में नौकरी करने लगा और धीरे-धीरे उस होटल का मैनेजर बन गया। बाद में उसने चाय का व्यापार शुरु किया और केवल अपने देश में ही नहीं, वरन् विदेशों में भी उसके नाम की चाय बिकने लगी। भारत में भी ‘लिप्टन चाय’ का नाम लोग जानते हैं।

कहाँ तो एक छोटा-सा गरीब लड़का, जो नौकरी के लिए भटक रहा था और कहाँ लिप्टन या कम्पनी का मालिक बन गया।

उसको तो पता भी नहीं होगा कि बापू जी मेरी बात कथा में करेंगे परन्तु उसे अपने-आप पर श्रद्धा थी। इसलिए वह सफल व्यापारी बन पाया। अगर उसकी भगवान पर श्रद्धा होती और भक्ति के रास्ते पर तत्परतापूर्वक चलता तो भगवान को पाने में भी सफल हो जाता।

श्रद्धा के बल पर ही मीरा, शबरी, ध्रुव, प्रह्लाद, धन्ना जाट, नामदेव आदि ने परमेश्वर को पा लिया था। एकलव्य की श्रद्धा दृढ़ थी तो गुरु द्रोण की मूर्ति के आगे धनुर्विद्या सीखते-सीखते इतना निपुण हो गया कि अर्जुन तक को उसकी धनुर्विद्या देखकर दाँतों तले उँगली दबानी पड़ी ! जहाँ चाह वहाँ  राह…

श्रद्धा यदि भगवान में होगी तो बुद्धि राग-द्वेष से तपेगी नहीं, जलेगी नहीं, ‘चलो, भगवान की मर्जी !’ – ऐसा सोचकर श्रद्धालु आदमी शांति पा लेता है किन्तु श्रद्धाहीन व्यक्ति ‘उसने ऐसा क्यों कहा ? इसने ऐसा क्यों किया ?’ ऐसा करके बात-बात में अशांत हो जाता है।

किसी ने कहा-तो-कहा परन्तु तुम क्यों उस बात को सोचकर पच मरते हो ? ‘उसने ऐसा क्यों कहा ? मौका मिलेगा तो बदला लूँगा।’ बदला लेने गये और हो गयी पिटाई तो बदला…. और अगर बदला लेकर आया, किसी का सिर फोड़कर आया तो फिर खुद ही  भागता फिरेगा।

जहाँ प्रेम होता है, वहाँ मन लगता है। जिस वस्तु, व्यक्ति या परिस्थिति को प्रेम करते हो तो वहाँ मन बार-बार जाता है। प्रेमास्पद में मन जाता है और श्रद्धेय में बुद्धि जाती है।

भगवान में, भगवत्प्राप्त महापुरुषों में श्रद्धा करोगे तो बुद्धि वहाँ जायेगी। आपका ज्ञान बढ़ेगा, बुद्धि विकसित होगी। बुद्धि के विकास से भगवान का ज्ञान पाने में मदद मिलेगी। भगवान का पूर्ण ज्ञान होगा तो निर्भय हो जाओगे, सारे दुःखों का अंत हो जायेगा और आप परम सुखी सच्चिदानंद-स्वरूप हो जाओगे, जो आप वास्तव में हो।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जून 2002, पृष्ठ संख्या 10-13, अंक 114

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श्रद्धायुक्त दान का फल


एक सेठ था। वह खूब दान-पुण्य इत्यादि करता था। प्रतिदिन जब तक सवा मन अन्नदान न कर लेता तब तक वह अन्न जल ग्रहण नहीं करता था। उसका यह  नियम काफी समय से चला आ रहा था।

उस सेठ के लड़के का विवाह हुआ। जो लड़की उसकी बहू बनकर आई, वह सत्संगी थी। वह अपने ससुर जी को दान करते हुए देखती तो मन-ही-मन सोचा करतीः ‘ससुर जी दान तो करते हैं, अच्छी बात है, लेकिन बिना श्रद्धा के किया हुआ दान कोई विशेष लाभ प्रभाव नहीं रखता।’

दान का फल तो अवश्य मिलता है किन्तु अच्छा फल प्राप्त करना हो तो प्रेम से व्यवहार करते हुए श्रद्धा से दान देना चाहिए।

वह सत्संगी बहू शुद्ध हाथों से मुट्ठीभर अनाज साफ करती, पीसती और उसकी रोटी बनाती। फिर कोई दरिद्रनारायण मिलता तो उसे बड़े प्रेम से, भगवद्भाव से भोजन कराती। ऐसा उसने नियम ले लिया था।

समय पाकर उस सेठ की मृत्यु हो गयी और कुछ समय बाद बहूरानी भी स्वर्ग सिधार गयी।

कुछ समय पश्चात् एक राजा के यहाँ उस लड़की (सेठ की बहू) का जन्म हुआ और वह राजकन्या बनी। वह सेठ भी उसी राजा का हाथी बनकर आया।

जब राजकन्या युवती हुई तो राजा ने योग्य राजकुमार के साथ उसका विवाह कर दिया। पहले के जमाने में राजा लोग अपनी कन्या को दान में अशर्फियाँ, घोड़े, हाथी इत्यादि दिया करते थे। राजा ने कन्या को वही हाथी, जो पूर्वजन्म में उसका ससुर था, दान में दिया। राजकन्या को उसी हाथी पर बैठकर अपनी ससुराल में जाना था। जैसे ही उसे देखा तो दैवयोग से हाथी को पूर्वजन्म की स्मृति जग गयी। उसे स्मरण हुआ कि ‘यह तो पूर्वजन्म में मेरी बहू थी ! मेरी बहू होकर आज यह मेरे ऊपर बैठेगी ?’

हाथी ने सूँड और सिर हिलाना शुरु कर दिया कि ‘चाहे कुछ भी हो जाय में इसे बैठने नहीं दूँगा।’

राजकन्या ने सोचा कि ‘यह हाथी ऐसा क्यों कर रहा है ?’ शरीर और मन तो बदलते रहते हैं परन्तु जीव तो वही का वही रहता है। जीव में पूर्वजन्म के संस्कार थे, संत पुरुषों का संग किया था, इसलिए राजकन्या जब थोड़ी शांत हुई तो उसे भी पूर्वजन्म का स्मरण हो आया।

वह बोलीः “ओहो ! ये तो ससुर जी हैं… ससुर जी ! आप तो खूब दान करते थे। प्रतिदिन सवा मन अन्नदान करने का आपका नियम था, लेकिन श्रद्धा से दान नहीं करते थे तो सवा मन प्रतिदिन खाने को मिल जाय, ऐसा हाथी का शरीर आपको मिल गया है। आप सबको जानवरों की तरह समझकर तिरस्कृत करते थे, पशुवृत्ति रखते थे। सवा मन देते थे तो अब सवा मन ही मिल रहा है।

मैं देती तो थी मात्र पावभर और पावभर ही मुझे मिल रहा है लेकिन प्रेम और आदर से देती थी तो आज प्रेम और आदर ही मिल रहा है।”

यह सुनकर हाथी ने उस राजकन्या के चरणों में सिर झुकाया और मनुष्य की भाषा में बोलाः “मैं तेरे आगे हार गया। आ जा….. तेरे चरण मेरे सिर-आँखों पर, मेरे ऊपर बैठ और जहाँ चाहे वहाँ ले चल।”

प्रकृति को हम जैसा देते हैं, वैसा ही हमें वापस मिल जाता है। आप जो भी दो, जिसे भी दो, भगवद्भाव से, प्रेम से और श्रद्धा से दो। हर कार्य को ईश्वर का कार्य समझकर प्रेम से करो। सबमें परमेश्वर के दर्शन करो तो आपका हर कार्य भगवान का भजन हो जायेगा और फल यह होगा कि आपको अंतर-आराम, अंतर-सुख, परमात्म-प्रसाद पानी की रूचि बढ़ जायेगी और उनको पाना आसान हो जायेगा।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, मार्च 2002, पृष्ठ संख्या 13, 14 अंक 111

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संत महिमा


पूज्यपाद संत श्री आसारामजी बापू

गुजरात में नड़ियाद के पास पेटलाद नामक ग्राम में रमणलाल नाम के एक धर्मात्मा सेठ रहते थे। वे चाहते थे क हमारे पेटलाद में शराब की बोतलें नहीं अपितु हरिनाम की, हरिरस की प्यालियाँ बँटे। साधु संतों के प्रति उनका बड़ा झुकाव था।

अति पापियों को तो संत-दर्शन की रुचि भी नहीं होती। जिसके पाप नष्ट होते हैं, उसी की श्रद्धा साधु-संतों में टिकती है। अगर कोई कुकर्म करता है तो उसके पाप जोर पकड़ते हैं एवं वह साधु-संतों का विरोधी हो जाता है।

किसी आदमी के कुल का विनाश होगा या विकास होगा – यह जानना हो तो देखो कि उस आदमी को साधु-संतों के प्रति श्रद्धा है या उनकी निंदा करता है ? उस आदमी के विचार ऊँचे हैं या हल्के हैं ?

मुझे भविष्य में सुख मिलेगा कि दुःख – यह मैं अभी जान सकता हूँ। अगर मेरे मन में कुकर्म के विचार आ रहे हैं, परदोष दर्शन हो रहा है, दूसरे को गिराकर, छल-कपट करके ऊँचा होना चाहता हूँ तो मेरे भविष्य में अशांति और दुःख लिखा है। अगर मैं दूसरे की भलाई चाहता हूँ, कष्ट सहकर भी परोपकार करना चाहता हूँ तो मेरा भविष्य उज्जवल है।

अगर मन में बुरे विचार आते हैं तो हमारा कर्त्तव्य है कि उन्हें काट दें। जो व्यक्ति अपने-आपको नहीं संभालता है, उसको देवता भी कब तक संभालेंगे ? भगवान भी कब तक संभालेंगे ?

हिम्मते बंदा तो मददे खुदा। बेहिम्मत बंदा तो बेज़ार खुदा।।

सत्कर्म करने में हिम्मत करनी चाहिए। मन तो धोखा देगा कि ʹअपना क्या…. अपना क्या ? अरे ! अपने पेट के लिए, अपने परिवार के लिए तो कुत्ता भी जी लेता है लेकिन जो रब के लिए, समाज की आध्यात्मकि उन्नति के लिए जीते हैं, उनका जीवन धन्य हो जाता है।

रमणलाल ऐसे ही पुण्यात्मा सेठ थे। गाँव में साधु-संतों को बुलाकर, उनका बड़ा आदर-सत्कार करते थे। भगवत्परायण साधु-संतों को सदगुरु मानकर उनके आश्रम में स्वयं भी यदा-कदा जाया करते एवं जहाँ जाकर चुपचाप सेवा करते थे।

संतों का हृदय ही ऐसा होता है कि वे किसी की सेवा नहीं लेते हैं और यदि लेते भी हैं तोत उसका कल्याण करने के लिए लेते हैं।

संत की महिमा वेद न जाने। जेता जाने तेता बखाने।।

एक संत हजारों असंतों को संत बना सकते हैं लेकिन हजारों संसारी मिलकर भी एक संत नहीं बना सकते। संत बनना कोई मजाक की बात नहीं है। एक नेता जाता है तो उसकी कुर्सी पर दस आ जाते हैं लेकिन भारत में दस ब्रह्मज्ञानी संत इस संसार से चले और एक भी उनकी जगह पर नहीं आया।

एक संत कइयों की डूबती नैया को पार लगा सकते हैं, कई पापियों को पुण्यात्मा बना सकते हैं, कई अभागियों को भाग्यवान बना सकते हैं, कई नास्तिकों को आस्तिक बना सकते हैं, अभक्तों को भक्त बना सकते हैं, अशांतों को शांत बना सकते हैं और शांत में शांतानंद प्रगट कराके उसको मुक्त महात्मा बना सकते हैं।

राजा सुषेण नाव में यात्रा करते-करते कहीं जा रहे थे। मार्ग में आँधी तूफान आने की वजह से उनकी नाव खतरे में पड़ गयी, जिससे उनकी पत्नी, उनके इकलौते पुत्र, उनके स्वयं के तथा एक महात्मा के प्राण संकट में पड़ गये।

यह देखकर राजा सुषेण पुकार उठेः “बचाओઽઽઽ ! और किसी को भले नहीं, लेकिन इन महात्मा जी को बचा लो….”

वे एक बार भी यह नहीं बोले कि ʹरानी को बचाओ…. पुत्र को बचाओ…. मुझे बचाओ…..ʹ नहीं नहीं। उन्होंने तो बस, रट लगा  दी कि ʹबाबाजी को बचाओ…. बाबा जी को बचाओ….ʹ

बड़ी मुश्किल से, दैवयोग से नाव किनारे लगी। राजा के जी-में-जी आया। किनारे पर उतरकर मल्लाह ने कहाः “राजन ! आपने एक बार भी नहीं कहा कि मुझे बचाओ, रानी को बचाओ, राजकुमार को बचाओ। बस, बाबाजी को बचाओ, ऐसा क्यों ?”

राजाः “ऐसा बेटा तो दूसरा भी आ सकता है। रानियाँ भी कई आती और जाती हैं। मेरे जैसे राजा भी कई हैं। मेरे मर जाने के बाद दूसरा गद्दी पर आ जायेगा लेकिन ये हजारों के दिल की गद्दी पर दिलबर को बैठाने वाले संत बड़ी मुश्किल से आते हैं इसलिए ये बच गये तो समझो, सब बच गये। इनकी सेवा हो गयी तो समझो, सबकी सेवा हो गयी।”

सेठ रमणलाल भी इसी भाव के अनुसार अपनी संपत्ति को संतसेवा में लगा देते। लोग उन्हें कहते कि ʹकुछ हमारा पैसा भी स्वीकार कर लेंʹ तो वे कहतेः “अभी नहीं, भाई ! दान के पैसे हैं लोहे के चने। इसका सदुपयोग करेंगे तो कुल आबाद होगा, नहीं तो सात पीढ़ी कंगाल हो जायेगी। मुझे अभी जरूरत नहीं है। जब जरूरत होगी, तब तुमसे ले लूँगा। पहले अपना लगाऊँगा।”

दान अपने घर से शुरु होता है, सेवा अपने शरीर से शुरु होती है, भक्ति अपने मन से शुरु होती है और आत्मज्ञान अपनी सदबुद्धि से शुरु होता है।

सत्संग सुनते-सुनते सेठ रमणलाल की बुद्धि बहुत तेजस्वी हो गयी। देखो, सत्संगी हो चाहे कुसंगी हो, अच्छा आदमी हो चाहे बुरा आदमी हो, चढ़ाव-उतार के दिन तो सबके आते ही हैं। श्रीराम के भी आते हैं और रावण के भी आते हैं। तब भी श्रीराम हृदय से पवित्र रहते हैं, सुखी रहते हैं और चढ़ाव के दिन आते हैं तब भी निरहंकारी रहते हैं। जबकि पापी आदमी के चढ़ाव के दिन आते हैं तो वह घमंड में मरता है और उतार के दिन आते हैं तो विषाद में कुचला जाता है।

सन् 1950-52 के आसपास का समय था। सेठ रमणलाल के भी उतार के दिन आये। पेटलाद में हाहाकार मच गया कि ʹइतना धर्मात्मा किन्तु दिवाला निकलने की नौबत !ʹ सेठ रमणलाल स्वयं भी बड़े चिंतित थे। उस समय लोग कहने लगेः ʹअरे ! इतना बड़ा सत्संग हाल बनाया, संतों की इतनी सेवा की, फिर भी उनका दिवाला निकल रहा है…!ʹ

वास्तव में सत्संग करने से सेठ रमणलाल का धंधा ठप्प नहीं हो रहा था, वरन् इस समय बाजार की मंदी एवं उतार का समय होने से धंधा ठप्प हो रहा था। किन्तु सत्कर्मों की वजह से ऐसी विकट परिस्थिति में भी सेठ रमणलाल में काफी समझ थी। अतः वे एक महात्मा के पास गये, जिनका नाम था नारायण मुनि। उनके पास जाकर रमणलाल ने कहाः

“महाराज ! दिल खोलकर बात बताता हूँ कि नौकरों ने कुछ उल्टा-सीधा किया है, बाजार थोड़ी मंदी है और जिन लोगों ने मेरे पास डिपाजिट रखी थी, उन लोगों का विश्वास टूट गया है। सब एक साथ डिपाजिट लेने आ रहे हैं। अतः अब रातों-रात दिवाला निकलने के सिवाय मेरे पास कोई चारा नहीं रह गया है। फिर भी सत्संग किया है, सत्कर्म किया है इसलिए बुद्धि में यह प्रेरणा आयी है कि चलूँ, संत से कुछ मार्गदर्शन ले लूँ।”

यह सत्संग का फल है। कष्ट है, भारी कष्ट है। सात पीढियों को कलंक लगे कि ʹयह दिवालिया है।ʹ और उधर परलोक में भी दुःख भोगना पड़े, ऐसा अवसर आ रहा है। फिर भी बचने की जगह पर जा रहे हैं।

नारायण मुनि ने कहाः “जब दिवाला निकालने का तुमने सोच ही लिया है तो कुछ-न-कुछ रकम अपने हाथों में करने की योजना बनायी होगी। कोई भी आदमी दिवाला निकालने के पहले अपना कुछ-न-कुछ पैसा बचा लेता है। सच बता, तूने कितना सरकाया है ?”

रमणलालः “महाराज ! अभी थोड़ा इधर-उधर करूँगा, तो लाख-सवा लाख रूपये मेरे हाथ में आ जायेंगे।”

नारायण मुनिः “अच्छा, तो वह सवा लाख रूपये तू मुझे दे दे। मैं उससे इधर पाठशाला खोलूँगा और तेरी रक्षा भगवान करेंगे।”

रमणलालः “जो आज्ञा, महाराज !”

दिवाला निकलने में जो लाख-सवा लाख रूपये की रकम बचेगी, उसे भी नारायण मुनि माँग रहे हैं और रमणलाल स्वीकार कर रहे हैं…. कैसी उत्तम समझ है “!

नारायण मुनि ने घोषणा कर दी कि ʹसेठ रमणलाल की तरफ से मैं पाठशाला बनवा रहा हूँ।”

डिपाजिट माँगने वालों ने सुना कि ʹसेठ दिवालियाँ हैं और वे तो सवा लाख रूपये पाठशाला के लिए दे रहे हैं ! वे दिवालिया कैसे हो सकते हैं ? अरे ! डिपाजिट दें तो उन्हीं को दें।ʹ

सारी डिपाजिट उनके पास वापस आ गयी और रमणलाल गिरते-गिरते ऐसे चढ़े कि बाद में तो उन्होंने कई सत्कर्म किये, कई भण्डारे किये और साधु-संतों की खूब सेवा की। ʹरमणलाल औषधालयʹ, नाराण मुनि पाठशाला आदि आज भी उनके सत्कर्म की खबरें दे रहे हैं…. आदमी चाहे छोटा हो तो भी अपने सत्कर्मों से महान बन जाता है।

सूरत से कीरत भली बिना पाँख उड़ जाय।

सूरत तो जाती रही कीरत कबहुँ न जाय।।

शबरी भीलन को पता था क्या ? धन्ना जाट को पता था क्या ? बाला-मरदाना को पता था क्या कि लोग हमें याद करेंगे ? नहीं। वे तो लग गये गुरु की सेवा में, बस… और ऐसा नहीं कि गुरु ने सदैव वाहवाही ही की होगी कि ʹशाबाश बेटा ! शाबाश।ʹ नहीं, कई बार डाँटा और फटकारा भी होगा।

जो वाहवाही का गुलाम होकर धर्म का काम करेगा, उसकी वाहवाही कम होगी या डाँट पड़ेगी तो वह विरोधी हो जायेगा। लेकिन जिसको वाहवाही की परवाह ही नहीं है, भगवान के लिए भगवान का काम करता है, गुरु के लिए गुरु का काम करता है, समाज को ऊपर उठाने के लिए सत्कर्म करता है तो उसको हजार फटकार पड़े तब भी वह गुरु का द्वार, हरि का द्वार, संतों का द्वार नहीं छोड़ेगा।

तीन प्रकार के लोग होते हैं- किसी का मन होता है तमोगुण प्रधान श्रद्धावाला। किसी की राजसिक श्रद्धा होती है और किसी-किसी की सात्त्विक श्रद्धा होती है।

तामसिक श्रद्धावाला देखेगा कि इतना दूँ और फटाक से फायदा हो जाये। अगर फायदा हुआ तो और दाव लगायेगा। जैसे सटोरी होते हैं न, पंजे से छक्का, अट्ठे से दहलावाले… एक बार-दो बार आ गया तो ठीक, वह दारू भी पिला देगा महाराज को और मुर्गियाँ भी ला देगा और महाराज भी ऐसे ही होते हैं।

आगे गुरु पीछे चेला। दे नरक में ठेलम ठेला।।

….तो तामसी लोग ऐसा धंधा करते हैं और आपस में झगड़ मरते हैं।

राजसी आदमी की श्रद्धा टिकेगी लेकिन कभी-कभी डिगेगी भी, कभी टिकेगी-कभी डिगेगी, कभी टिकेगी-कभी डिगेगी। अगर टिकते-टिकते उसका पुण्य बढ़ गया, सात्त्विक श्रद्धा हो गई तो हजार विघ्न आ जायें, हजार बाधाएँ आ जायें, हजार मुश्किलें आ जायें फिर भी उसकी श्रद्धा नहीं डिगती और वह पार पहुँच जाता है। इसीलिए सात्त्विक लोग बार-बार प्रार्थना करते हैं- “हे मुकद्दर ! तू यदि धोखा देना चाहता है तो मेरे दो जोड़ी कपड़े, गहने-गाँठें कम कर देना, रूपये पैसे कम कर देना लेकिन भगवान और संत के श्रीचरणों के प्रति मेरी श्रद्धा मत छीनना।ʹ

श्रद्धा बढ़ती-घटती, कटती-पिटती रहती है लेकिन उनके बीच से जो निकल जाता है, वह निहाल हो जाता है। उसका जीवन धन्य हो जाता है।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, नवम्बर 1998, पृष्ठ संख्या 16-19, अंक 71

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