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Shri-Yogavashishtha

अहंकार का स्वरूप


संत श्री आसारामजी बापू के सत्संग प्रवचन से

ʹश्री योगवाशिष्ठ महारामायणʹ मैं आता हैः ʹसंसार में जितने भी दुःख हैं वे सब अहंकार के कारण ही उत्पन्न होते हैं। अहंकार के कारण ही जीव का जन्म-मरण होता है और अहंकार के कारण ही राग-द्वेष होता है। अहंकार के त्याग से सब दुःखों का त्याग हो जाता है एवं जीव को परम पद की प्राप्ति होती है। अतः अहंकार का त्याग करना चाहिए।

वशिष्ठजी महाराज के ऐसा कहने पर रामजी ने पूछाः “यदि अहंकार का त्याग कर देंगे तो खायेंगे और पियेंगे कैसे ? मनुष्य में ʹमैं हूँʹ का भाव है तभी तो उसमें कर्तव्य पालन की आकांक्षा होती है, जीवन में कुछ माँग होती है, कुछ भूतकाल की चिंता होती है और भविष्यकाल के लिए चिंतन होता है। यदि यह अहंकार ही चला जाये त वह खायेगा-पियेगा और जियेगा कैसे ?”

वशिष्ठजी महाराज ने कहाः “हे राम जी ! अहंकार के तीन स्वरूप होते हैं- 1.क्षुद्र (स्थूल) अहं 2. मध्यम (सूक्ष्म अहं) 3. वास्तविक अहं।

क्षुद्र माने तुच्छ। स्थूल शरीर के साथ जुड़कर मनुष्य जो बोलता है उसे क्षुद्र अहं कहा जाता है। ʹमैं फलानि जाति का हूँ… मेरी इतनी उम्र है… मैं यह कर सकता हूँ….ʹ यह अहं जनसाधारण में, अल्प मति के लोगों में भी होता है एवं विद्वानों में भी होता है।

शरीर में है ही क्या ? कुछ सीधी हड्डियाँ, कुछ आड़ी हड्डियाँ, मांस, रक्त, वात, पित्त, कफ, मल-मूत्र, थूक आदि और ऊपर से चमड़े का आवरण…. फिर भी क्षुद्र अहं के साथ जुड़कर मनुष्य बोलता है कि ʹमैं मोटा हूँ…. मैं पतला हूँ… मैं काला हूँ…. मैं गोरा हूँ….. मैं ब्राह्मण हूँ… मै क्षत्रिय हूँ… मैं फलाने गाँव का हूँ… मैं फलाने देश का हूँ….ʹ इस शरीर के साथ जुड़कर बहने वाला जो स्फुरण है उसी को क्षुद्र अहं कहते हैं। अहं ही सर्व दुःखों की जड़ है।

कोई कितना ही बुद्धिमान हो, विद्वान हो, अपने को अक्लवाला समझता हो लेकिन शरीर के साथ जब तक अहं जुड़ा रहेगा तब तक संसार के भोगों की वासनाएँ बनी रहेंगी और वासना ही तो जीव के जन्म-मरण का कारण है।

क्षुद्र अहं के साथ जुड़ा हुआ जीव वासना के अनुसार ही काम करता है। उसका मन विषय-भोगों में ही भटकता रहता है। इस अहंकार ने त्रिलोकी को वासना के जाल में बाँध रखा है। क्षुद्र अहंकारवाला मनुष्य मंदिर में रहते हुए भी बंधन में रहते हुए भी बंधन में है और घर में रहते हुए भी बंधन में है। एक ऊँचे पद पर बैठा हुआ मनुष्य भी अपने को स्वतंत्र नहीं मान सकता।

यदि कोई स्वस्थ एवं धनवान मनुष्य कहे कि ʹमेरा कोई कर्त्तव्य नहीं है, मुझे नौकरी धंधे की कोई चिंता नहीं है क्योंकि बैंक में मेरा ʹफिक्स-डिपॉजिटʹ (स्थायी जमा-पूँजी) है। हर महीने ब्याज आता है। मैं आराम से खाता पीता हूँ। मैं बड़ा सुखी हूँ।ʹ

….लेकिन उस व्यक्ति की गहराई में देखोगे तो वह भी अंदर से सुखी नहीं मिलेगा। ʹमैं सुखी हूँ….ʹ वह इस शरीररूपी ढाँचे को लेकर बोलता है। उस ढाँचे को अगर जरा सी ग्रमी लगे या जरा सा मच्छर काट ले तो वह दुःखी हो जायेगा क्योंकि क्षुद्र अहं में बैठा है बेचारा।

इस क्षुद्र अहं ने सारे विश्व को ढाँक रखा है। कोई-कोई विरला होता है जो इस क्षुद्र अहं से हटकर मध्यम अहं में आता है। मध्यम अहं अर्थात् सूक्ष्म अहं। जप-तप, सुमिरन, पूजा-अर्चना, सत्संग, सेवा आदि करने से समझ में आ जाता है कि ʹजीवात्मा अमर है और शरीर नश्वर। यह शरीर पहले नहीं था, बाद में भी नहीं रहेगा और अभी भी नहीं की ओर जा रहा है। मौत शरीर की होगी। मरने के बाद हम भगवान के पास जायेंगे।

मध्यम अहं वाले को यह पक्का हो जाता है कि शरीर यहीं पड़ा रहेगा। शरीर भगवान के पास नहीं जायेगा लेकिन सूक्ष्म शरीर में अहं होता है कि हम भगवान के पास जायेंगे। सूक्ष्म शरीर में अहं होने से भोग की वासना शांत होती है लेकिन विचारों में अपनी बात मनाने की वासना बनी रहती है।

स्थूल शरीर में अहं होने से मनुष्य संसार की भोग वासना में जकड़ा रहता है और सूक्ष्म शरीर में अहं होने से लोक-लोकांतर की इच्छा में उलझा रहता है। ʹअपना प्रिय भगवान अभी नहीं मिला, इसलिए मरने के बाद किसी लोक-लोकान्तर में मिलेगा…..ʹ सूक्ष्म अहंवाले का ऐसा भाव होता है। क्षुद्र अहंवाले से सूक्ष्म अहं वाला अच्छा है क्योंकि क्षुद्र(स्थूल) अहंवाला भगवान की प्राप्ति के लिए जप-तप-यज्ञादि करने में लग जाता है। उसको कम  परिश्रम करने पर भी ज्यादा सुख मिलता है।

सूक्ष्म अहं में जीने वाला व्यक्ति क्रियाजन्य सुख से ऊपर उठता है एवं भावजन्य सुख से सुखी होने लगता है। क्रियाजन्य सुख में परिश्रम ज्यादा होता है और सुख कम मिलता है। भावजन्य सुख में परिश्रम कम होता है और सुख ज्यादा मिलता है, भावना का सुख मिलता है।

भावना का सुख भारत के ऋषि-मुनियों की देन है। भगवद् भक्ति से भाव को विकसित करके, ईश्वर और गुरु की शरण लेने से स्थूल अहं लीन होता है। वेदान्त का श्रवण करके उसका मनन एवं निदिध्यासन करने से सूक्ष्म अहं  बाधित हो जाता है एवं इन दोनों को सत्ता देने वाला जो वास्तविक अहं है, वह प्रकट हो जाता है। उसी को कहा जाता है – अहं ब्रह्मास्मि। वही जीव का वास्तविक स्वरूप है। उस वास्तविक स्वरूप को पाये हुए किन्हीं महापुरुष ने ही कहा हैः

जन्म-मृत्यु मेरे धर्म नहीं हैं।

पाप-पुण्य कुछ कर्म नहीं हैं।।

अज निर्लेपीरूप, कोई कोई जाने रे…..

वह चैतन्य परमात्मा अजर-अमर है, निर्लेप है और सबका वास्तविक स्वरूप है। ऐसे उस वास्तविक स्वरूप को कोई विरला ही जानता है।

ʹमैं फलाना भाई हूँ….ʹ यह स्थूल अहं है। ʹमैं भगवान का भक्त हूँ….ʹ यह सूक्ष्म अहं है। जहाँ से वास्तविक अहं का, शुद्ध अहं का जब तक बोध नहीं होता तब तक जीव बेचारा परिस्थितिजन्य सुख-दुःख, क्रियाजन्य सुख-दुःख एवं भावजन्य सुख-दुःख में धक्के खाता रहता है।

जब तक स्थूल और सूक्ष्म अहं में जीवन होगा तब तक चाहे किचना भी ऊँचा जीवन होगा, उसमें शुद्ध सुख का पता नहीं चलेगा। निर्धनों के आगे धनवान अपने को सुखी मानता है, निर्बलों के आगे बलवान् अपने को सुखी मानता है, अल्प मतिवालों के आगे विद्वान अपने को सुखी मानता है लेकिन इस स्थूल और सूक्ष्म अहं का सुख वास्तविक सुख नहीं है। ऐसे कई सुख आते हैं और चले जाते हैं। ʹजब मौत आकर सामने खड़ी होती है तब स्थूल और सूक्ष्म अहं से जुड़कर जो भी किया, वह सब छोड़कर जाना पड़ता है….ʹ यह सोचकर मनुष्य बेचारा दुःखी हो जाता है क्योंकि उसने अभी तक अपने वास्तविक ʹमैंʹ को नहीं जाना है।

जब तक वास्तविक ʹमैंʹ का पता नहीं चलता तब तक चाहे दुनिया की नजर में बड़ा प्रसिद्ध व्यक्ति हो, बड़ा सुंदर व्यक्ति हो, बड़ा दाता हो, बड़ा बुद्धिमान हो लेकिन तत्त्वज्ञान की दुनिया में वह मूढ़ ही है। जिसने उस वास्तविक ʹमैंʹ को जान लिया वह दुनिया की तो क्या, देवताओं-यक्षों-गंधर्वों की ही नहीं अपितु ब्रह्मा-विष्णु-महेश की नजरों में भी आदरणीय हो जाता है।

वास्तविक ʹमैंʹ में जागने के लिए जब तक ब्रह्मवेत्ता सदगुरु की छत्रछाया नहीं मिलती, तब तक अनेक प्रकार की साधनाएँ करनी पड़ती हैं। जब ब्रह्मवेत्ता सदगुरु मिल जाते हैं और उऩके बताये हुए मार्ग पर साधक चल पड़ता है, उनके निर्देशानुसार ब्रह्मचिंतन एवं ब्रह्मज्ञान के अभ्यास में लग जाता है तो उसकी सारी साधनाएँ पूरी हो जाती हैं। फिर उसे अलग से किसी साधना की जरूरत नहीं पड़ती है। साधक अपने लाखों जन्मों के संस्कार एक ही जन्म में मिटा सकता है। अगर मनुष्य जन्म पाकर भी वह सावधान न हो  लाखों जन्म लेने के संस्कार भर भी सकता है।

यदि जीवन में सावधानी नहीं है तो जिससे सुख मिलेगा उसके प्रति राग हो जायेगा और जिससे दुःख मिलेगा उसके प्रति द्वेष हो जायेगा। इससे अनजाने ही चित्त में संस्कार जमा होते जायेंगे एवं वे ही संस्कार जन्म-मरण का कारण बन जायेंगे। वैर लेने के लिए किसी का शत्रु होकर एवं प्रेम (राग) के कारण किसी का पुत्र, मित्र, भाई आदि बनकर जन्म लेना पड़ेगा। जब तक वास्तविक ʹमैंʹ का ज्ञान नहीं होगा तब तक यह क्रम चलता ही रहेगा। वास्तविक ʹमैंʹ का ज्ञान होने पर राग-द्वेष बाधित हो जाते हैं और जन्म-मरण का चक्र सदा के लिए समाप्त हो जाता है।

जितना-जितना मनुष्य स्थूल अहं को छोड़कर सूक्ष्म अहं में जाता है उतनी-उतनी उसकी गुरु या भगवान को समझने की शक्ति बढ़ती है। ब्रह्मवेत्ता गुरु द्वारा बताये गये निर्देशों का सच्चाई एवं तत्परता से पालन करने पर वह सूक्ष्म अहं को त्यागकर वास्तविक ʹअहंʹ को जानने में भी सक्षम हो जाता है।

आपका वास्तविक ʹमैंʹ ही आपकी असलियत है। उस वास्तविक ʹमैंʹ में अगर आप जग गये तो आपका बेड़ा पार हो जायेगा। फिर तो आपकी मीठी नजर जिन पर पड़ेगी वे भी निहाल हो जायेंगे। आपके दीदार करने वालों को भी बहुत लाभ होगा, आप ऐसे महान हो जाओगे !

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जून 2000, पृष्ठ संख्या 3-5 अंक 90

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मन को कैसे जीतें ?


परम पूज्य संत श्री आसारामजी बापू

जितने बड़े व्यक्ति को हराया जाता है, उतना ही जीत का महत्त्व बढ़ जाता है। मन एक शक्तिशाली शत्रु है। उसे जीतने के लिए बुद्धिपूर्वक यत्न करना पड़ता है। मन जितना शक्तिशाली है, उस पर विजय पाना भी उतना ही महत्त्वपूर्ण है। मन को हराने की कला जिस मानव में आ जाती है, वह मानव महान हो जाता है।

ʹश्रीमद् भगवद् गीताʹ में अर्जुन भगवान श्रीकृष्ण से पूछता हैः

चंचलं हि मनः कृष्ण प्रमाथि बलवद् दृढम्।

तस्याहं निग्रहं मन्ये वायोरिव सुदुष्करम्।।

ʹहे श्रीकृष्ण ! यह मन बड़ा चंचल, प्रमथन स्वभाववाला, बड़ा दृढ़ और बलवान है। इसलिए उसको वश में करना मैं वायु को रोकने की भाँति अत्यन्त दुष्कर मानता हूँ।ʹ (गीताः 6.34)

भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं-

असंशयं महाबाहो मनो दुर्निग्रहं चलम्।

अभ्यासेन तु कौन्तेय वैराग्येण च गृह्यते।।

ʹहे महाबाहो ! निःसन्देह मन चंचलच और कठिनता से वश में होने वाला है। परंतु हे कुंतीपुत्र अर्जुन ! यह अभ्यास अर्थात् एकीभाव में निथ्य स्थिति के लिए बारंबार यत्न करने से और वैराग्य से वश में होता है।ʹ (गीताः6.35)

जो लोग वैराग्य का ही सहारा लेते हैं, वे मानसिक उन्माद के शिकार हो जाते हैं। मान लो, संसार में किसी निकटवर्ती के माता-पिता या कुटुम्बी की मृत्यु हो गयी। गये श्मशान में तो आ गया वैराग्य… किसी घटना को देखकर हो गया वैराग्य… चले गये गंगा किनारे…. वस्त्र, बिस्तर आदि कुछ भी पास में न रखा…. भिक्षा माँगकर खा ली…. फिर अभ्यास नहीं किया। …तो ऐसे लोगों का वैराग्य एकदेशीय हो जाता है।

अभ्यास के बिना वैराग्य परिपक्व नहीं होता है। अभ्यासरहित जो वैराग्य है वह ʹमैं त्यागी हूँ…ʹ ऐसा भाव उत्पन्न कर दूसरों को तुच्छ दिखाने वाला एवं अहंकार सजाने वाला हो सकता है। ऐसा वैराग्य अंदर का आनंद न देने के कारण बोझरूप हो सकता है। इसीलिए भगवान कहते हैं-

अभ्यासेनच तु कौन्तेय वैराग्येण च गृह्यते।

अभ्यास की बलिहारी हैं क्योंकि मनुष्य जिस विषय का अभ्यास करता है, उसमें वह पारंगत हो जाता है। जैसे साइकिल, मोटर आदि चलाने का अभ्यास है, पैसे ʹसेटʹ करने का अभ्यास है वैसे ही आत्म-अनात्म का विचार करके, मन की चंचल दशा को नियंत्रित करने का अभ्यास हो जाये तो मनुष्य सर्वोपरि सिद्धिरूप आत्मज्ञान को पा लेता है।

साधक अलग-अलग मार्ग के होते हैं। कोई ज्ञानमार्गी है, कोई भक्तिमार्गी होता है, कोई कर्ममार्गी होता है, तो कोई योगमार्गी होता है। सेवा में अगर निष्कामता हो अर्थात् वाहवाही की आकांक्षा न हो एवं सच्चे दिल से, परिश्रम से अपनी योग्यता ईश्वर के कार्य में लगा दे तो यह हो गया निष्काम कर्मयोग।

निष्काम कर्मयोग में कहीं सकामता न आ जाये-इसके लिए सावधान रहे और कार्य करते-करते भी बार-बार अभ्यास करे किः ʹशरीर मेरा नहीं, पाँच भूतों का है। वस्तुएँ मेरी नहीं, ये मेरे से पहले भी थीं और मैं मरूँगा तब भी यही रहेंगी… जिसका सर्वस्व है उसको रिझाने के लिए मैं काम करता हूँ…ʹ ऐसा करने से सेवा करते-करते भी साधक का मन निर्वासनिक सुख का एहसास कर सकता है।

भक्तिमार्गी साधक भक्ति करते-करते ऐसा अभ्यास करे किः “अनंत ब्रह्माण्डनायक भगवान मेरे अपने हैं। मैं भगवान का हूँ तो आवश्यकता मेरी कैसी ? मेरी आवश्यकता भी भगवान की आवश्यकता है, मेरा शरीर भगवान का शरीर है, मेरा घर भगवान का घर है, मेरा बेटा भगवान का बेटा है, मेरी बेटी भगवान की बेटी है, मेरी इज्जत भगवान की इज्जत है तो मुझे चिन्ता किस बात की ?ʹ ऐसा अभ्यास करके भक्त निश्चिंत हो सकता है।

योगी प्रतिदिन नियत समय पर धारणा-ध्यान समाधि का अभ्यास करे तो उसका विवेक जगता है। विवेक जगता है तब संसार के भोगों के प्रति वैराग्य आता है। विवेक-वैराग्य के उदय होने से आत्मा-परमात्मा की अनुभूति करने की योग्यता विकसित हो जाती है।

ऐसे ही ज्ञानमार्ग का साधक अभ्यास करे किः ʹजो कुछ दिख रहा है वह भगवान की आह्लादिनी शक्ति की, प्रकृति की लीला है। जो कुछ दिखता है वह सब माया है। अस्ति, भाति, प्रिय.. इसमें चैतन्य की सत्ता है और सब नाम-रूप माया है। संसार के व्यवहार एवं मन-बुद्धि के जगत में उलझना मेरा कर्त्तव्य नहीं है। मन के फुरने और जगत के व्यवहार भिन्न-भिन्न होते हैं लेकिन उनकी गहराई में उनका दृष्टा, साक्षी, अभिन्न आत्मा मैं हूँ।ʹ

कर्मयोग, भक्तियोग, ज्ञानयोग, कुण्डलिनी योग… चाहे कोई भी योग क्यों न हो, अभ्यास की आवश्यकता तो सबमें है। यदि आत्माभिमुख होने का अभ्यास है तो फिर बाह्य वातावरण चाहे कैसा भी विलासी लगता हो, पर मनुष्य भीतर से परमात्मा में गोता मार सकता है। यदि अभ्यास की तीव्रता नहीं हो तो फिर मनुष्य सब छोड़कर गंगा-यमुना किनारे चला जाये फिर भी परमात्म-तत्त्व में विश्रान्ति पाना उसके लिए कठिन हो जाता है।

चैतन्य महाप्रभु का एक प्यारा शिष्य था-पुण्डरीक। उस पुण्डरीक को देखकर दूसरे शिष्यों के मन में हुआः ʹगुरु महाराज इसको देखकर विशेष छलकते हैं, प्रसन्न होते हैं। चलो, आज इसके घर चलें।ʹ

पुण्डरीक के घर गदाधर और मुकुन्द नाम के दो गुरुभाई गये। उस समय पुण्डरीक अपने घर पर एक सुन्दर, सुसज्जित शैया पर आराम कर रहा था। कमरा भी इस तरह सजा हुआ था कि मानो, किसी अति विलासी करोड़ाधिपति व्यक्ति का हो। कमरा देखकर गदाधर को हुआः ʹयह चैतन्य महाप्रभु का शिष्य़ कैसे ? यह तो अति विलासी आदमी लग रहा है !ʹ मुकुन्द को हुआः ʹपुण्डरीक सो रहा है.. बाहर से तो वह विलासी वातावरण में दिख रहा है किन्तु चैतन्य महाप्रभु विलासी आदमी से  प्यार नहीं करने। भीतर से जरूर भगवान में इसकी प्रीति होगी।ʹ ऐसा मन में सोचते हुए मुकुन्द ने ʹहरि बोल…. हरि बोल….ʹ की मधुर ध्वनि चालू की।

पुण्डरीक की नींद खुल गयी और वह कूदकर पलंग से उतरा। उसकी आँखें बंद हो गयीं और वह भावविभोर होकर हरि नाम कीर्तन में तल्लीन हो गया। यह उसके अभ्यास का ही तो परिणाम था !

विक्रम संवत 1100 के इर्द-गिर्द की घटना हैः आचार्य श्रीधर स्वामी बड़े प्रसिद्ध संत हो गये हैं, जिन्होंने श्रीमद् भगवद् गीता पर टीका भी लिखी है।

उनका जन्म दिवस किस कुल में हुआ था, उसका पता नहीं है। बाल्यकाल में उनका मस्तिष्क पूर्ण विकसित नहीं हुआ था। अपनी किशोरावस्था में वे एक तुच्छ पात्र में तेल लिये हुए कहीं जा रहे थे। उसी समय उस राज्य के राजा और वजीर भगवान की कृपा के विषय में परस्पर चर्चा करते हुए सरिता के किनारे टहल रहे थे।

मंत्री का कहना था कि अगर भगवान रहमत कर दे, भगवद्-भक्ति का अभ्यास हो जाये तो बुद्धु से बुद्धु आदमी भी चतुन बन सकता है, निर्धन से निर्धन आदमी बड़े धन को पा सकता है, बाहर से निर्धन सा दिखाई देता व्यक्ति भी बड़े धनवानों को दान कर सकता है, निरक्षर होते हुए भी साक्षरों को पढ़ा सकता है, अपरिचित होते हुए भी बड़े-बड़े परिचितों को मार्गदर्शन कर सकता है।

जीवन में ईश्वर-चिंतन का अभ्यास अगर आ जाय तो आदमी का भाग्य बदल जाय। फिर कैसी परिस्थिति में वह पैदा हुआ है इसका महत्त्व नहीं है वरन् अभी उसको कैसा वातावरण मिला है उसका महत्त्व है। उसके पास कितना धन-वैभव है उसका महत्त्व नहीं है वरन् अभी उसका संग कैसा है उसका महत्त्व है।

राजा ने कहाः “यह कैसे हो सकता है अयोग्य योग्य हो जाये ? अगर भगवान का भजन करने से अयोग्य भी योग्य हो सकता है तो यह लड़का जो अयोग्य पात्र में तेल लिये जा रहा है बड़ा मूर्ख लग रहा है, क्या यह योग्य हो सकता है ?”

वजीरः “अगर इसको भगवान के भजन का रंग लगा दिया जाय, भजन के अभ्यास में प्रीति करा दी जाये तो यह भी योग्य हो सकता है।”

दैवयोग कहो, भगवान की लीला कहो अथवा श्रीधर का प्रारब्ध कहो… उस बच्चे को राज्य की तरफ से भगवान की भक्ति का रंग लगा दिया गया।

अभ्यास करते-करते उस बालक का चित्त भगवान की भक्ति से रंग गया। समय बीतता गया, योग्यता विकसित होती गयी और वही बालक आगे चलकर श्रीधर स्वामी के रूप में पहचाना जाने लगा।

समय आने पर उनका विवाह हो गया। शादी के पश्चात वे गृहस्थी की गाड़ी चलाने लगे। वे गीता, भागवत, पुराण आदि का नित्य पाठ व स्वाध्याय करते थे। समय पाकर उनकी पत्नी गर्भवती हुई किन्तु शिशु को जन्म देते ही वह परलोक सिधार गयी। श्रीधर स्वामी को हुआ किः ʹचलो, अच्छा हुआ। भगवान ने पत्नी को अपने चरणों में बुलाकर मुझे भजन करने का मौका दे दिया।ʹ

अब वे अपनी दैनिक प्रवृत्ति करते हुए शिशु का पालन करने लगे। किन्तु धीरे-धीरे अभ्यास का इतन बल बढ़ा कि शिशु को पालना-पोसना भी अब उन्हें भारी लगने लगा। वे विचारने लगेः ʹएक शिशु के कारण मैं अपना ध्यान भजन, एकांत, समाधि छोड़ दूँ ?ʹ अभ्यास की तीव्रता से वैराग्य ने जोर पकड़ा और उन्होंने सोचाः ʹशिशु को छोड़कर चला जाऊँ।ʹ अब बालक को छोड़कर वे संन्यास लेने के लिए काशी की ओर प्रस्थान करने को उद्यत हुए। फिर उऩके मन में आयाः ʹइस नन्हें से शिशु को घर में अकेला छोड़कर जा रहा हूँ… इसकी माँ चल बसी है तो क्या हुआ?ʹ किन्तु अभ्यास ने कहाः ʹमाँ चल बसी है तो क्या हुआ ? कई जन्मों में इसकी कितनी ही माताएँ हुई होंगी ? कितने ही पिता बने होंगे ? सच्चे पिता तो सबकी रखवाली करते हैं फिर क्यों तू ʹअपना बेटाʹ करके फँसता है ?ʹ

इतने में वहाँ एक घटना घटी। छत पर से लुढ़कता हुआ एक अण्डा गिरा और वह फूट गया। उसमें से पक्षी के बच्चे ने चोंच बाहर निकाली। वह भूख के कारण गर्दन हिलाने लगा। इतने में अण्डे से जो रस निकला उस चिकनाहट में एक मक्खी आकर फँसी जिसे उस नवजात बच्चे ने अपनी चोंच में ले लिया।

श्रीधर स्वामी को हुआः ʹएक पक्षी के बच्चे के जीवन को बचाने के लिए परमात्मा की इतनी व्यवस्था है तो क्या मनुष्य के शिशु की रखवाली वह नहीं करेगा ?ʹ वे शिशु को छोड़कर चल दिये। फिर तो उस शिशु का ऐसा सुंदर लालन-पालन हुआ कि पहले तो केवल एक पिता ही उसे स्नेह करता था किन्तु अब पूरा गाँव उससे स्नेह करने लगा।

श्रीधर स्वामी ने काशी में जाकर वेदान्त का श्रवण-मनन-निदिध्यासन किया। भक्ति में भी वे उतने ही आगे थे। उनके ग्रंथ पढ़ें तो पता चलता है कि वेदान्त के दिव्य ज्ञान के साथ-साथ भक्ति की दिव्य भावना भी उनके शास्त्रों से छलकती है।

श्रीधर स्वामी किस कुल के थे, इसका पता नहीं है। बाल्यकाल में वे मंदबुद्धि थे किन्तु जब भगवान के रास्ते पर चलने का अभ्यास किया तो महान टीकाकार श्रीधर स्वामी के रूप में प्रसिद्ध हो गये। अभ्यास की बलिहारी है !

ʹश्रीयोगवाशिष्ठ महारामायणʹ आता है कि अनंत जन्मों की वासनाएँ इस जीव के अंतःकरण में एकत्रित हैं। ये एक-दो दिन में तो नहीं छूटेंगी। इसलिए इस अंतःकरण से वासनाओं को निवृत्त करने के लिए अभ्यास की जरूरत है।

एक बार कार्त्तिक क्षेत्र में संतों की परिषद हुई थी। उनमें आपस में विचार-विमर्श हो रहा था किः ʹभगवान विष्णु की नाभि से ब्रह्माजी प्रगट हुए हैं और नारदजी ब्रह्माजी के मानस पुत्र हैं। नारदजी ने ध्रुव को मंत्र दिया तो ध्रुव का काम छः महीने में बन गया और हम लोग वर्षों से जटाएँ बढ़ाये हुए मंत्रजाप कर रहे हैं फिर भी हमारा काम नहीं हो रहा।ʹ

एक ने कहाः ʹʹभाई ! यह तो जान पहचान का जमाना है। भगवान विष्णु ने देखा कि ध्रुव को नारद ने मंत्र दिया है तो वे जल्दी प्रसन्न हो गये।”

दूसरे ने कहाः “नहीं नहीं, ऐसी बात नहीं है। तुम भगवान में दोष देखते हो, इसका मतलब यह है कि तुम्हारी बुद्धि में दोष है।”

तीसरे ने कहाः “तो फिर क्या कारण है कि ध्रुव को छः महीने में भगवान मिल गये और हमको बरसों बीत गये हैं फिर भी नहीं मिल रहे ?”

इतने में एक मल्लाह बहुत ही सुन्दर नाव लेकर आया और बोलाः “महापुरुषों ! मैं यह नाव लेकर आया हूँ। अगर आप कृपा करें तो इसका उदघाटन हो जाये।”

किसी की निंदा करने से, किसी पर दोषारोपण करने से चित्त उद्विग्न हो जाता है क्योंकि निंदा करने से मन नीचे के केन्द्रों में चला जाता है। आप सागर की ऊपरी सतह पर तो घण्टों भर तैर सकते हैं लेकिन सागर की गहराई में ज्यादा देर नहीं रह सकते। ऐसे ही ऊपर के केन्द्रों में समाधि में, भाव में, प्रभु प्रेम में आप घण्टों भर रह सकते हैं, दिन भर रह सकते हैं महीना भर रह सकते हैं लेकिन काम में, क्रोध में आप घण्टा भर भी नहीं रह सकते।

संत लोग बैठ गये उस नाव में। मल्लाह नाव को खेते-खेते ऐसे स्थल पर ले गया जहाँ कुछ द्वीप थे और उन द्वीपों पर थोड़ी अस्थियाँ पड़ी हुई थीं। किसी संत ने पूछाः “इन द्वीपों पर थोड़ी-थोड़ी अस्थियाँ पड़ी हुई हैं ! क्या बात है ?”

मल्लाहः “महाराज ! यहाँ एक तपस्वी ने तप करते-करते अपने तन को सुखा डाला था कि उसके प्राण पखेरू उड़ गये थे और अस्थियाँ रह गयी थीं। फिर वह बार-बार जन्म लेकर इन्हीं द्वीपों पर मृत्युपर्यन्त तप करता रहा। इस तरह उसने अपने 99 जन्मों तक कठोर तप किया। उसी तपस्वी के 99 जन्मों के अस्थिपिंजरों का यह ढेर है।”

संतः “वह तपस्वी कौन था ?”

मल्लाहः “वह तपस्वी था उत्तानपाद राजा का पुत्र ध्रुव। 99 जन्मों का उसका अभ्यास था अतः 100 वें जन्म में छः महीने के अभ्यास से ही उसे परमात्म दर्शन हो गये।”

इस प्रकार उन संतों के संदेह का निवारण हो गया। मल्लाह के रूप में आये हुए भगवान ने कहाः “हमारे यहाँ जान पहचान से नहीं वरन् साधक के अभ्यास की दृढ़ता के काम होता है। आपका अभ्यास बिखरा हुआ है, इसलिए मैं नहीं आता। लेकिन जब मेरा चिन्तन करते-करते आप लोगों ने मेरी समता के विषय में संदेह किया, तब आप लोगों का चित्त कहीं भ्रमित न हो जाये इसलिए मैं मल्लाह के रूप में प्रत्यक्ष होकर आप लोगों को सही बात बताने आया हूँ।”

यह कहकर भगवान अदृश्य हो गये।

आपको यदि किसी के जीवन में उन्नति दिखती है तो समझ लेना कि उसके जीवन में अभ्यास की तीव्रता है। जिसका जिस विषय में अभ्यास होता है, उसी विषय में वह पारंगत होता है। छोटे-छोटे विषयों का अभ्यास करने से उन छोटे-छोटे विषयों पर ही अधिकार हो पाता है लेकिन मन का साक्षी होने का अभ्यास अगर हो जाए तो मन को जीतने की शक्ति आ जाती है और जिसने मन को जीत लिया फिर उसे कुछ भी जीतना शेष नहीं रह जाता। अतः जब का अभ्यास, ज्ञान का अभ्यास, आत्मशांति पाने का अभ्यास, श्वासोच्छवास को गिनने का अभ्यास…. मन को निर्दोष बनाने के ये सुन्दर उपाय हैं। जो अभ्यास के महत्त्व को जानते हैं वे महानता को छू लेते हैं। आप भी लग जाओ।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जून 1999, पृष्ठ संख्या 2-6, अंक 78

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जीवन्मुक्त एवं विदेहमुक्त – पूज्यपाद संत श्री आसारामजी बापू


 

ʹजीवन्मुक्त एवं विदेहमुक्त किसे कहते हैं ?ʹ यह प्रश्न भगवान श्रीराम ने महर्षि वशिष्ठजी से पूछा था।

जीवन्मुक्त वे महापुरुष होते हैं जो जीते-जी अपने मुक्त आत्मस्वरूप का अनुभव करते हैं। दुःख अथवा सुख के समय, अनुकूलता अथवा प्रतिकूलता के समय, उम महापुरुषों का यह अनुभव होता है कि सब सपना है, सब बीतने वाला है। वे सुख दुःख के साथ जुड़ते नहीं हैं। अनुकूलता में आसक्ति नहीं करते और प्रतिकूलता में उद्वेग नहीं करते। ये अनुकूलता और प्रतिकूलता, सुख एवं दुःख उन्हें बाँधता नहीं है इसीलिए वे मुक्त हैं।

साधारण व्यक्ति जगत को सच्चा मानकर, सुख में सुखी एवं दुःख में दुःखी हो जाता है। ज्ञानी भी बाहर से तो सुखी-दुःखी दिखेंगे लेकिन अंदर से आकाश की नाईं निर्लेप, शान्तात्मा होते हैं। जैसे, जो फिल्म के रहस्य को जानता है वह फिल्म देखकर समझता है कि यह केवल परदा है। वह फिल्म की मिठाई लेने नहीं जाता और आग देखकर भागता भी नहीं है। ऐसे ही जीवन्मुक्त महापुरुष कभी संसार के सब व्यवहारों को करते हैं और कभी एकान्त में अपने निज स्वरूप में ध्यानस्थ हो जाते हैं फिर भी मुक्त ही हैं। हवा चलती है तब भी हवा है और नहीं चलती है तब भी हवा है। व्यक्ति चलता है तब भी व्यक्ति है और नहीं चलता है या बैठा हुआ है तब भी व्यक्ति है ऐसे ही जीवन्मुक्त देखता है कि चित्त का जो फुरना है, उससे ही जगत दिखता है और गहरी नींद में जब चित्त का फुरना शांत हो जाता है तब जगत का नित्य प्रलय हो जाता है। रात्रि की नींद में देखो तो ʹमैं-मेरेʹ का….ʹअपने-परायेʹ का…. सभी प्रलय हो जाता है। यह नित्य प्रलय है।

नित्य, नैमित्तिक, आत्यंतिक, महाप्रलय – ये प्रलय के विभिन्न भेद हैं। महाप्रलय में पृथ्वी आदि सब छू हो जाते हैं। ब्रह्मा, विष्णु, महेश भी नहीं रहते, किन्तु चैतन्यवपु आकाश की नाईं ज्यों-का-त्यों रहता है। जैसे, रात्रि में स्वप्न दिखा तब भी चैतन्य ज्यों-का-त्यों रहता है। स्वप्न में अच्छी बातों को देखकर सुख एवं बुरी बातों को देखकर सुख एवं बुरी बातों को देखकर सुख एवं बुरी बातों को देखकर दुःख होता है लेकिन अच्छी बुरी बातों को देख-देखकर भी अंत में तो स्वप्न खत्म हो जाता है। स्वप्न जिस हृदयाकाश में दिखता है वह हृदयाकाश सत्य है बाकी दिखने वाला मिथ्या है, बदलने वाला है। ऐसे ही व्यापक चिदाकाश में जगत दिखता है, मनुष्य आदि दिखते हैं। जब तक सदा रहने वाले परमात्मा का ज्ञान नहीं होता, सदा रहने वाला परमात्मा में स्थिति नहीं होती तब तक मरने से भी पिण्ड नहीं छूटता। मरने के बाद भी यात्रा होती रहती है, सुख-दुःख, अपना-पराया आदि होता रहता है। वे लोग जीवन्मुक्त हैं, बड़भागी हैं, जिन्होंने मरने के बाद नहीं, अपितु जीते जी ही अपने परमेश्वरीय स्वभाव में स्थिति कर ली है, अपने आत्मस्वभाव में, परमात्मस्वभाव में स्थिति कर ली है।

शरीर अन्नमय कोष है। शरीर के अंतरंग है प्राणमय कोष पाँच कर्मेन्द्रियाँ और प्राण। इसे प्राणमय कोष कहते हैं। प्राणमय कोष के अंतरंग हैं मनोमय कोष। पाँच कर्मेन्द्रियाँ और मन। इसे मनोमय कोष कहते हैं। मनोमय कोष के अंतरंग है विज्ञानमय कोष। पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ और बुद्धि। इसे विज्ञानमय कोष कहते हैं। बुद्धि आनंदस्वरूप में विश्रान्ति पाती है वह आनंदमय कोष है। हम देखते हैं कि शरीर भी बदलता है, मन भी बदलता है, बुद्धि के निर्णय भी बदलते हैं, फिर भी इन सबको देखने वाला शुद्ध चैतन्य परमात्मा नहीं बदलता।

श्रीमदभागवत के 11वें स्कंध में भगवान श्रीकृष्ण उद्धव से कहते हैं- “उद्धव ! मैं प्राणीमात्र का परम सुहृद हूँ। मैं सबके साथ हूँ…. सबके पास हूँ। कभी-कभी आकृति धारण करके लीला करता हूँ लेकिन वास्तव में तो मैं अव्यक्त आत्मा, सदा सर्वदा सबमें हूँ।”

द्वा सुपर्णा सयुजा सखायाः।

ʹएक ही डाल पर दो पक्षी बैठे हैं। एक पक्षी खट्टे-मीठे फल खाता है और दूसरा उसे देख रहा है और वे दोनों सखा हैं।ʹ

व्यापक चैतन्य आत्मा है। उसने जीने की इच्छा की तो जीव हो गया। जीव शुभाशुभ कर्म करता है एवं उसके खट्टे-मीठे फल भोगता है लेकिन जो चैतन्य है, साक्षी है वह केवल देखता है। देखने वाला ईश्वर है और करने-भोगने वाला जीव है। जीव और ईश्वर में भेद यही है। जो चैतन्य जीने की इच्छा करता है, वह जीव है। उसे माया के रहस्य का ज्ञान नहीं है, अपनी आत्मा का ज्ञान नहीं है और जिसे अपने आत्मस्वभाव का ज्ञान हो गया है वह है ईश्वर, वह है ब्रह्म। वास्तव में तो जीव और ईश्वर एक ही हैं। जैसे, घड़े में आया हुआ आकाश और काँच के महल में आया हुआ आकाश, आकाशतत्त्व से दोनों एक हैं लेकिन घड़े का आकाश, बाहर के आकाश को नहीं जानता है, बंधन में पड़ा है और काँच के महल का आकाश अंदर-बाहर दोनों जगह देखता है। ऐसे ही ईश्वर को भूत-भविष्य सब दिखता है, जबकि जीव अपने को केवल अपने ही शरीर में महसूस करता है। जीव सर्दी-गर्मी, भूख-प्यास, मच्छर का काटना आदि शरीर में अनुभव करता है। दोनों चेतन हैं लेकिन जीव चेतन, शरीर तक का ज्ञान रखता है और ईश्वर चेतन है व्यापक माया का ज्ञान। चेतना में दोनों एक हैं। लेकिन गलती यह होती है कि जीव अपने वास्तविक स्वरूप को भूल बैठा है। इसीलिए जप, तप, सुमिरण एवं ज्ञान का नित्य अनुसंधान करना चाहिए। भगवान श्रीकृष्ण उद्धव से कहते हैं कि ऐसी कोई जगह नहीं, जहाँ मैं चैतन्य नहीं हूँ। जैसे आकाश सर्वत्र है ऐसे ही मैं चैतन्य चिदाकाश सर्वत्र हूँ। उस चैतन्य को जो जान लेता है वह मेरा स्वरूप हो जाता है। ʹवहʹ और ʹमैंʹ एक हो जाते हैं। जो नहीं जानता है वह जन्म-मरण के चक्र में भटकता रहता है।

वशिष्ठजी कहते हैं- “हे राम ! जीवन्मुक्त उसे कहते हैं जो सुख-दुःख को, मान-अपमान को, सबको माया जानता है और अपने चैतन्य स्वरूप का स्मरण करता है, अपने ज्ञानस्वरूप में स्थित होता है। ऐसा महापुरुष जीते-जी मुक्त ही है। …..और विदेहमुक्त कौन है ? ऐसा महापुरुष शरीर में है तब तक जीवन्मुक्त और जब उसका शरीर शांत हो जाता है तब वह व्यापक ब्रह्म में लीन हो जाता है, विदेहमुक्त हो जाता है। जैसे आकाश जब तक घड़े में है तो घटाकाश कहलाता है किन्तु घड़ा टूट जाने पर वही आकाश महाकाश हो जाता है ऐसे ही शरीर शान्त होने पर महापुरुष जीवन्मुक्त में से विदेहमुक्त हो जाता है। फिर वह ब्रह्मवेत्ता सूर्य होकर चमकता है, चन्द्रमा होकर औषधि पुष्ट करता है, ब्रह्मा होकर सृष्टि उत्पन्न करता है विष्णु होकर पालन करता है और शिव होकर सृष्टि का संहार करता है…. धरती में से बीज को उत्पन्न करने का सामर्थ्य उसी ब्रह्मवेत्ता का है। ब्रह्मवेत्ता ब्रह्मस्वरूप हो जाता हैः

ब्रह्मवेत्ता ब्रह्मविद् भवति ताकी वाणी वेद।

भाषा अथवा संस्कृत, करत भरम भव छेद।।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, नवम्बर 1996, पृष्ठ संख्या 7,8 अंक 47

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