Tag Archives: Shri-Yogavashishtha

Shri-Yogavashishtha

सत् और असत् क्या है ?


संत श्री आसाराम जी बापू के सत्संग प्रवचन से

‘श्री योगवाशिष्ठ महारामायण’ में श्री वशिष्ठजी महाराज कहते हैं- “हे राम जी ! तुम इसी को विचारो कि सत् क्या है और असत् क्या है ? ऐसे विचार से सत् का आश्रय करो और असत् का त्याग करो।”

सत् क्या है, असत् क्या है ?

सत् है – जो शाश्वत, नित्य, सुखस्वरूप, आनंदस्वरूप, ज्ञानस्वरूप है और असत् है – नश्वर और दुःखरूप, जो कि भय, चिंता, खिन्नता, राग-द्वेष और क्लेश देता है।

असत् रूप शरीर को ‘मैं’ मानकर कुछ भी सोचा तो दुःख अवश्यंभावी है और सत् से प्रीति की तो दुःख का नाश अवश्यंभावी है।

ऐसे उत्तम विचार से सत् का आश्रय लो और असत् का त्याग करो। सारा दिन इसकी-उसकी बातों में लगे रहे तो असत् में ज्यादा फँसते जाओगे और ज्यादा दुःखी होते जाओगे। जितना सत्स्वरूप परमात्मा के विषय में सुनोगे, सोचोगे, मौन रहोगे तथा सत्कर्म में लगे रहोगे उतने सुखी होते जाओगे।

वशिष्ठजी कहते हैं- हे राम जी ! जो पदार्थ आदि में न हो और अंत में भी न रहे उसे मध्य में भी असत् जानिये और जो आदि-अंत में एकरस है उसे सत् जानिये।

यह फूलों की माला एक सप्ताह पहले नहीं थी और एक सप्ताह के बाद भी नहीं रहेगी तो अभी भी नहीं की तरफ ही जा रही है। ऐसे ही किसी ने डाँट दिया या खुशामद कर दी तो कुछ समय पहले डाँट, खुशामद नहीं थी, बाद में भी नहीं रहेगी तो अभी भी नहीं की तरफ ही जा रही है। ऐसे ही सब बीत रहा है…. उसे बीतने दो, गुजरने दो। उसे याद करके परेशान मत हो।

मूर्ख मनुष्य ही बीते हुए को याद करके और भविष्य की चिंता करके परेशान होते हैं। जिससे भूत-भविष्य का चिंतन होता है उस परमात्मा को याद करके बुद्धिमान अपना वर्त्तमान सँवार लेते हैं और जिसने अपना वर्त्तमान सँवार लिया समझो, उसका भूत-भविष्य सँवरा हुआ ही है। इसके लिए सत् का आश्रय लें।

सत् क्या है ?

जो आदि, अंत और मध्य में एकरस है वह सत् है। कल दिन में जाग्रत अवस्था थी, रात्रि हुई सो गये तो स्वप्न आया, फिर गहरी नींद आयी…. खुल गयी आँख तो न स्वप्न रहा, न गहरी नींद रही। अभी न कल की जाग्रत अवस्था है, न स्वप्न अवस्था है और न ही सुषुप्तावस्था है लेकिन इन तीनों अवस्थाओं को देखने वाला, तीनों का साक्षी भी है। यही सत् है, यही ईश्वर है, यही चैतन्य है, यही ज्ञानस्वरूप है और यही आनंदस्वरूप है।

वशिष्ठ जी कहते हैं- “हे राम जी ! जो आदि अंत में नाशरूप है, उसमें जिसकी प्रीति है और उसके राग से जो रंजित है वह मूढ़ पशु है।”

जिसकी प्रीति असत् से है वह मूढ़ पुरुष है। ऐसे मूढ़ पुरुष ‘यह मिले तो सुखी… वह मिले तो सुखी….’ ऐसा करते-करते सारी जिंदगी छटपटाता रहता है, फिर भी उसके दुःखों का अंत नहीं होता। वह दुःखी का दुःखी रहता है।

इस दुःख से छूटने का एकमात्र उपाय है – सत् से प्रीति और सत्यस्वरूप परमात्मा को पाये हुए महापुरुषों का संग। जिन्होंने संतों का संग किया है, संयम-नियम का पालन किया है, भगवत्प्राप्ति के लिए हृदय को पवित्र रखा है और असत् से सावधान रहे हैं, वे मनुष्य ही असत् रूप संसार के दुःखों से सदा के लिए बच पाये हैं।

श्री वशिष्ठ जी कहते हैं- “हे रघुकुलभूषण श्रीराम ! अनर्थस्वरूप जितने सांसारिक पदार्थ हैं वे सब जल में तरंग के समान विविध रूप धारण करके चमत्कार उत्पन्न करते हैं अर्थात् इच्छाएँ उत्पन्न करके जीव को मोह में फँसाते हैं। परन्तु जैसे सभी तरंगें जलस्वरूप ही हैं उसी प्रकार सभी पदार्थ वस्तुतः नश्वर स्वभाव वाले हैं।

समस्त शास्त्र, तपस्या, यम और नियमों का निचोड़ यही है कि इच्छामात्र दुःखदायी है और इच्छा का शमन मोक्ष है।

प्राणी के हृदय में जैसी-जैसी और जितनी-जितनी इच्छाएँ उत्पन्न होती हैं उतने ही दुःखों से वह डरता रहता है। विवेक-विचार द्वारा इच्छाएँ जैसे-जैसे शांत होती जाती हैं वैसे-वैसे दुःखरूपी छूत की बीमारी मिटती जाती है। आसक्ति के कारण सांसारिक विषयों की इच्छाएँ ज्यों-ज्यों घनीभूत होती जाती हैं, त्यों-त्यों दुःखों की विषैली तरंगें बढ़ती जाती हैं। अपने पुरुषार्थ के बल से इस इच्छारूपी व्याधि का उपचार यदि नहीं किया जाये तो इस व्याधि से छूटने के लिए अन्य कोई औषधि नहीं है।

एक साथ सभी इच्छाओं का सम्पूर्ण त्याग न हो सके तो थोड़ी-थोड़ी इच्छाओं का धीरे-धीरे त्याग करना चाहिए परंतु रहना चाहिए इच्छा के त्याग के रत में, क्योंकि सन्मार्ग का पथिक दुःखी नहीं होता।

इच्छा के शमन से परम पद की प्राप्ति होती है। इच्छारहित हो जाना यही निर्वाण है।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, मार्च 2002, पृष्ठ संख्या 7,8 अंक 111

ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ

 

उत्तम पद


(महर्षि बाल्मीकि कृत श्री योगवाशिष्ठ महारामायण में उत्तम पद की व्याख्या कर रहे हैं ब्रह्मर्षि वशिष्ठ और सुन रहे हैं भगवान श्रीराम।)

भगवान श्री राम ने वशिष्ठ से पूछाः

हे मुनिशार्दूल ! त्रिभुवन में सबसे उत्तम चीज कौन-सी है, उत्तम पद कौन सा है और उत्तम पुरुष कौन सा है ?

वशिष्ठ जी ने कहाः हे रामचन्द्र जी ! इन्द्रियों के भोगों में लिप्त होकर, मान-बड़ाई की जंजीरों में फँसकर जीव बेचारे चहुँ और भटकते हैं। कोई-कोई विरला इन आकर्षणो से बचकर परम पद को पाता है, आत्मज्ञान को पाता है वह उत्तम है।

मेरे मत में देवता उत्तम नहीं है क्योंकि वे भोग की खाई में पड़े हैं और अपने को भाग्यवान मानते हैं। पुण्यनाश होने के बाद, भोग नष्ट हो जाने के बाद वे दुःखी हो जाते हैं और फिर उन्हें नीचे आना पड़ता है।

मेरे मत में वे गंधर्व भी उत्तम नहीं हैं क्योंकि उन्हें तो आत्मज्ञान की गंध भी नहीं है। वे रूप बदल सकते हैं, सर्वत्र गति करने वाले विमान में आ जा सकते हैं, इधर-उधर के लोकों में गति कर सकते हैं, लेकिन जिससे गति होती है उस गतिदाता की  मुलाकात नहीं करते, उन गंधर्वों को धिक्कार है।

उन विद्याधरों को भी धिक्कार है जो वेदों की विद्या तो जानते हैं, वेद की ऋचाएँ भी बोल लेते हैं लेकिन आत्मविद्या में उनको रस नहीं है। वेद के लक्ष्य का अमृत जिनको प्राप्त नहीं हुआ उन विद्याधरों को धिक्कार है।

यक्ष और किन्नरों को भी धिक्कार है जो आत्मपद से वंचित होकर इधर-उधर नाच-गान में, रूप लावण्य में और विषय-वासना में जीवन बरबाद कर रहे हैं।

पाताल लोक में जो नाग रहते हैं वे भी सुंदर नागिनियों के पीछे मोहांध हो जाते हैं। उन नागों को भी धिक्कार है जो आत्मरस से वंचित होकर काम विकार में अपना जीवन नष्ट कर रहे हैं।

हे राम जी ! मनुष्यों को तो तुम जानते ही हो। मेरा अपना घर हो जाये.. धंधे में बरकत हो जाये… धन बढ़ जाये… पुत्र मिल जाये… इसी चिंता में बेचारे चूर हो रहे हैं। वे नराधम यह नहीं जानते कि जिस आत्मपदको जानने के लिए जीवन मिला है उसकी पहचान करनी चाहिए। वे ब्रह्मविचार नहीं करते। अपना घर हो, पत्नी सुंदर हो, पुत्र आज्ञाकारी हो, पड़ोसी अच्छा हो, इधर ऐसा हो, उधर वैसा हो… इन विचारों में तो जिंदगी नष्ट कर देते हैं लेकिन उन्हें ब्रह्मविचार के लिए समय नहीं मिलता है।

कोई-कोई विरला होता है जो ब्रह्मविचार के अमृत तक पहुँचता है। सागर में जंतु बहुत होते हैं, घोंघे बहुत होते हैं लेकिन सीप तो कहीं-कहीं होती है जो मोती पकाती है। ऐसे ही संसार-सागर में अज्ञानी, मूढ़ तो बहुत होते हैं, कोई-कोई विरला होता है जो ब्रह्मविचार करके आत्म साक्षात्कार कर लेता है। उसको मेरा नमस्कार है।

हे राम जी ! लोगों की नजर में जो ऊँचे दिखते है, वे भी भोग के कीचड़ में खदबदाते हैं। लोगों की दृष्टि से जो बड़े पद पर हैं, बड़ी सत्ता पर हैं, अपार धनराशि के स्वामी हैं, लोगों की दृष्टि से मान देने योग्य हैं, ऐसे लोग भी इन्द्रियों के विषयों में तपते हैं। कोई विरला ही होता है, जो इन्द्रियातीत, देशातीत, कालातीत तत्व को पाकर अपना जन्म सार्थक करता है।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, दिसम्बर 2001, पृष्ठ संख्या 5-6, अंक 108

ૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐ

निर्वासनिक पुरुष की महिमा


(चेटीचण्ड 2001 शिविर में श्रीयोगवाशिष्ठ महारामायण जैसे महान वेदांत ग्रंथ को सहज सरल भाषा में समझाते हुए पूज्य श्री कह रहे हैं-)

‘हिमालय पर्वत में प्राप्त हुआ तपस्वी भी ऐसा शीतल नहीं होता, जैसा निर्वासनिक पुरुष का मन शीतल होता है।”

हिमालय पर्वत में शीतलता तो होती है लेकिन बर्फ की शीतलता शरीर को ठण्डक देती है जबकि निर्वासनिक पुरुष की शीतलता तो हृदय को शीतल बनाती है, सुखमय बना देती है। निर्वासनिक पुरुष की बड़ी भारी महिमा है।

परमात्मा में शांत हुए निर्वासनिक पुरुष के लिए त्रिलोकी का वैभव भी तुच्छ है, सुमेरू पर्वत भी छोटे से ठूँठे जैसा है, सारी पृथ्वी उनके लिए गोपद के समान है। उनको परमात्मा पराये नहीं हैं, परे नहीं हैं, भविष्य में मिलेंगे ऐसा नहीं है। वे आत्मा को ही परमात्मस्वरूप में ज्यों-का-त्यों जानते हैं।

वासनाएँ ही जीव को तुच्छ बना देती हैं। जितनी वासनाएँ ज्यादा उतना वह लघु है, जितनी वासनाएँ कम उतना वह बड़ा है और निर्वासनिक तो साक्षात् नारायणस्वरूप होता है। निर्वासनिक पुरुष के निकट मनौती मानने से भी प्रकृति मदद कर देती है। निर्वासनिक पुरुष के वचन सुनने से चित्त भी निर्मल होता है।

कबीरा मन निर्मल भयो, जैसे गंगा नीर।

पीछे-पीछे हरि फिरे, कहत कबीर-कबीर।।

वासना मल है, निर्वासनिकता निर्मलता है। कितनी वासनाएँ करोगे ? जिनके पास करोड़ों रूपये थे वे भी खाली हाथ गये तो तुम कितना सँभालोगे ? ‘मेरी पत्नी, मेरी दुकान, मेरा मकान….’ यह कब तक करोगे ? ऊपर-ऊपर से अपना कर्तव्य करो लेकिन भीतर से निर्वासनिक नारायण में, परमात्मा में विश्रांति पाओ। बाह्य कर्तव्य में कायर न बनो, पलायनवादी न बनो, लेकिन भीतर अपने निर्वासनिक तत्त्व में सराबोर रहो।

श्रीवशिष्ठजी महाराज कहते हैं- ‘हे राम जी ! सूरमा होकर युद्ध करो लेकिन भीतर से निर्वासनिक रहो।’

जो निर्वासनिक हो जाता है उसके सारे संकटों का, सारे दुःखों का अंत हो जाता है। जो वासनावान है वह बड़े कष्टों को पाता है। जहाँ निर्वासनिकता है वहाँ विकारों की दाल नहीं गलती और जहाँ विकार हैं वहाँ निर्वासनिकता का सुख, भगवत्सुख प्रगट नहीं हो सकता।

पूनम की रात हो, सोने की खाट हो, रेशम की निवार हो, केवड़े का इत्र छिटका हुआ हो, मोगरे एवं गुलाब के फूलों की शय्या हो, ललना आकर चरणचंपी करे, अप्सरा आकर गले लगे फिर भी वह सुख नहीं मिलता, जो निर्वासनिक पुरुष के संग से मिलता है। इसलिए सत्संग की बड़ी भारी महिमा है।

भगवन्नाम का जप करते रहें, भगवद् ध्यान करते रहें, सत्संग-स्थल पर चुपचाप बैठे रहें तो भी बहुत लाभ होता है।

आत्मलाभात् परं लाभं न विद्यते। आत्मसुखात् परं सुखं न विद्यते। ‘आत्मलाभ से बढ़कर कोई लाभ नहीं है। आत्मसुख से बढ़कर कोई सुख नहीं है’। और यह मिलता है सत्संग से।

पुरुषार्थ यही है कि बाह्य प्रवृत्ति अधिक न करें, वरन् थोड़े अंतर्मुख हों। मौन रहने का अभ्यास करें, श्रीयोगवाशिष्ठ महारामायण का बार-बार विचार करें एवं आत्मशांति में डूबें, अंतर्मुख होने का प्रयास करें। नहीं तो कइयों का जीवन व्यर्थ की आपाधापी में तबाह हो गया। अंत में सब यहीं धरा रह जाता है।

त्रिकाल संध्या का उद्देश्य यही है कि जीव अपने आनंदस्वरूप ईश्वर से एकाकार हो। दुःख-रहित जीवन हो, भयरहित जीवन हो, चिंतारहित जीवन हो। संध्या तो करेंगे नहीं और इधर-से-उधर भटकते रहेंगे। फिर बुद्धि मारी जायेगी और लाचार जीवन हो जायेगा…..

बिनु रघुवीर पद जिय की जरनि न जाई।

उस परमात्म सुख को पाये बिना, परमात्म-पद को पाये बिना, निर्वासनिक नारायण में विश्रांति पाये बिना हृदय की तपन नहीं मिटती… शोक नहीं मिटता… मोह नहीं मिटता…. चिन्ताएँ नहीं मिटती… भय नहीं मिटता।

अगर भय, चिंता, शोक, मोह, राग, द्वेष इत्यादि से छुटकारा पाना है तो यत्नतः निर्वासनिक पुरुषों का संग करें, मौन रखें, सत्शास्त्रों का पठन-मनन करें एवं जप-ध्यान करें। निर्वासनिक नारायण तत्त्व में विश्रांति पाने में यह सहायक साधन हैं।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, अक्टूबर 2001, पृष्ठ संख्या 10,11 अंक 106

ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ