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समाजोत्थान में संतों की महती भूमिका


सच्चे संत जाति, धर्म, मत, पंथ, सम्प्रदाय आदि दायरों से परे होते हैं। ऐसे करुणावान संत ही अज्ञान-निद्रा में सोये हुए समाज के बीच आकर लोगों में भगवद्भक्ति, भगवद्ज्ञान, निष्काम कर्म की प्रेरणा जगा के समाज को सही मार्ग दिखाते हैं, जिस पर चल के हर वर्ग के लोग आध्यात्मिकता की ऊँचाईयों को छूने के साथ-साथ अपना सर्वांगीण विकास सहज में ही कर लेते हैं। सभी में भगवद्-दर्शन करने की प्रेरणा देने वाले ऐसे संतों के द्वारा ही धार्मिक अहिष्णुता, छुआछूत, जातिगत भेदभाव, राग-द्वेष आदि अनेक दोष दूर होकर समाज का व्यापक हित होता है।

ऐसे संतों का जहाँ भी अवतरण हुआ है वहाँ भारतीय संस्कृति के वैदिक ज्ञान का प्रचार-प्रसार होकर समाज में व्यापक परिवर्तन हुए हैं।

जब समाज में कई विकृतियाँ फैलने लगीं तब आद्य गुरु शंकराचार्य जी ने अपने शिष्यों के साथ भारत के कोने-कोने में घूम-घूमकर सनातन धर्म व अद्वैत ज्ञान का प्रचार किया।

यवनों के आक्रमण से जब सम्पूर्ण हिन्दू समाज त्रस्त था तब योगी गोरखनाथ जी व नाथ-परम्परा के योगियों ने समाज में धर्मनिष्ठा व अध्यात्म का प्रचार-प्रसार किया।

राजस्थान में राजर्षि संत पीपा जी ने काशी के स्वामी रामानंद जी से दीक्षा ले के प्रजा को धर्म-मार्ग पर लगाया तो भक्तिमती मीराबाई ने गुरु रैदास जी का शिष्त्व स्वीकार कर सारे राजस्थान और गुजरात में भगवद्भक्ति की गंगा बहायी।

तमिलनाडू के आलवारों (वैष्णव भक्त), नायनारों (शैव भक्त) तथा संत तिरुवल्लुवर जैसे संतों से बड़ी संख्या में लोग लाभान्वित हुए। 11वीं-12वीं शताब्दी में श्री रामानुजाचार्यजी ने ‘वेदांत भक्ति’ का भारतभर में प्रचार किया। आँध्र प्रदेश के संत वेमना के उपदेशों का समाज पर बड़ा व्यापक प्रभाव पड़ा।

गुजरात के संत नरसिंह मेहता जी, संत प्रीतमदास जी आदि ने भी प्रभुभक्ति का प्रचार किया और समाज को सही दिशा दी।

संत तुलसीदास जी ने श्री रामचरितमानस तथा अन्य कई ग्रंथों की प्रचलित भाषा में रचना करके सामान्य जनों को आदर्श जीवन जीने की रीति बतायी और उनके जीवन को भक्ति रस से सराबोर कर दिया।

महाराष्ट्र के संतजन – ज्ञानेश्वरजी, नामदेव जी, एकनाथ जी, तुकाराम जी, चोखामेला, राँका, बाँका, जनाबाई, नरहरि जी आदि ने और वारकरी सम्प्रदाय के अन्य संतों ने जब घूम-घूम के भगवन्नाम-संकीर्तन के माध्यम से समाज को जगाना शुरु किया तो लाखों लोग उनके अनुयायी बन भगवद्भक्ति के रास्ते चल पड़े।

सम्पूर्ण महाराष्ट्र संकीर्तन क्रांति में उल्लसित होने लगा। समर्थ रामदास जी के शिष्य शिवाजी महाराज ने विधर्मी आक्रांताओं से पीड़ित समाज में प्राण फूँककर हिन्दवी स्वराज्य की स्थापना की।

पंजाब के संत गुरुनानक देव जी से गुरु गोविन्दसिंह जी तक दस गुरुओं की परम्परा द्वारा पंजाब एवं देश के अन्य भागों के भी लोग लाभान्वित हुए। गुरु हरगोविन्दसिंह, गुरु तेगबहादुर, गुरु गोविन्दसिंह और उनके शिष्यों ने अपनी पूरी शक्ति लगाकर देशवासियों की धर्मांतरण से रक्षा की।

कर्नाटक के श्री अल्लमप्रभुजी, अक्का महादेवी जी, श्री मध्वाचार्य जी तथा संत पुरंदरदास जी, कनकदास जी आदि ने ज्ञान व भक्ति के माध्यम से समाज की आध्यात्मिक उन्नति में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभायी। स्वामी विद्यारण्यजी ने विजयनगर साम्राज्य की स्थापना करके हिन्दू संस्कृति व धर्मशास्त्रों की यवनों से रक्षा की।

ओड़िशा की ‘वैष्णव-पंचसखा परम्परा’ के भक्तों एवं भक्त भीम भोई, दासिया बाउरी, रघु केवट आदि ने लोगों के भक्तिभाव को पुष्ट किया। बलरामदास जी के ‘रामायण’, शारलादास जी के ‘महाभारत’ व जगन्नाथदास जी के ‘भागवत’ ओड़िशावासियों के जीवन पर गहरा प्रभाव डाला।

बंगाल के श्री चैतन्य महाप्रभु ने अपने शिष्यों के साथ सम्पूर्ण देश में संकीर्तन यात्राओं द्वारा भगवन्नाम का प्रचार किया। उन यात्राओं में मुसलमान भी शामिल होते थे। आक्रांताओं द्वारा नष्ट व लुप्त हुए कई तीर्थस्थलों को गौरांग व उनके शिष्यों ने पुनः खोज निकाला। रामकृष्ण परमंहस जी के सत्शिष्य स्वामी विवेकानंद जी ने विदेशों में भी वेदांत का प्रचार किया और स्वदेश में जवानों को राष्ट्रभक्ति के संदेशों के माध्यम से अंग्रेज शासन से स्वतंत्रता की लड़ाई के लिए प्रेरित किया।

असम में श्रीमंत शंकरदेव जी, श्री माधवदेव जी आदि ने धार्मिक-सामाजिक उत्थान में अहम भूमिका निभायी।

संत उड़िया बाबा जी, स्वामी अखंडानंद जी, आनंदमयी माँ, हरि बाबा जी, रमण महर्षि, स्वामी रामतीर्थ, स्वामी शिवानंद सरस्वती आदि संतों ने भारतीय संस्कृति का अध्यात्म-ज्ञान सरल भाषा में समाज तक पहुँचाया।

काशी के स्वामी रामानंद जी ने हर वर्ग के लोगों में आध्यात्मिक प्रसाद बाँटा। उस समय का सूत्र हो गयाः ‘जाति पांति पूछै नहिं कोई, हरि को भजै सो हरि का होई।’ उनके शिष्य संत कबीर जी, रैदास जी, धन्ना जी आदि अनेक संतों ने लोगों में परमात्मप्राप्ति का अलख जगाया।

इस परम्परा के दादूपंथी संतों ने अपने गुरु की वाणियों के साथ पूर्व के संतों की वाणियों का भी संरक्षण किया, जिनसे बड़ी संख्या में जनता लाभान्वित हुई। संत दादू दयाल जी की परम्परा के संत निश्चलदास जी ने ‘विचारसागर’ ग्रंथ की रचना कर वेदांत का गूढ़ ज्ञान लोगों को प्राकृत भाषा में सुलभ करा दिया।

इसी संत-परम्परा में स्वामी केशवानंद जी महाराज के सत्शिष्य भगवत्पाद साँईं श्री लीलाशाह जी ने समाज में वेदांत-ज्ञान, भक्ति व कर्मयोग का प्रचार किया एवं बाल, युवा, नर-नारी – सभी को संयम-सदाचार की शिक्षा देकर उनका आत्मोत्थान किया। आपने भारत के अलावा विदेशों में भी सत्संगों द्वारा लोगों में सामाजिक, धार्मिक व आध्यात्मिक जागृति की।

समाज की आध्यात्मिक उन्नति के मार्ग को प्रशस्त करने वाली इस दिव्य ज्योति को जागृत रखने के लिए पूज्यपाद स्वामी लीलाशाह जी के सत्शिष्य संत श्री आशाराम जी बापू गाँव-गाँव, नगरों-महानगरों में घूम-घूमकर कर्मयोग, भक्तियोग, ज्ञानयोग के साथ कुंडलिनी योग आदि का समन्वय करते हुए जीवन को सुखी स्वस्थ व सम्मानित बनाने वाला सत्संग एवं ध्यान का प्रसाद बाँटने लगे। वर्तमान में भी देश-विदेश के करोड़ों लोग आपके मार्गदर्शन में परम ध्येय ईश्वरप्राप्ति की ओर अग्रसर हो रहे हैं।

आपने समाज के पिछड़े, अभावग्रस्त लोगों को भोजन, भजन, कीर्तन, सत्संग लाभ एवं जीवनोपयोगी वस्तुएँ व आर्थिक सहायता देकर उन्हें स्वधर्म के प्रति निष्ठावान बनाया व धर्मांतरण से बचाया। कत्लखाने भेजी जा रही हजारों गायों की रक्षा की और उनके लिए गौशालाएँ बनवायीं।

पूज्य श्री ने खान-पान, पहनावा, जन्मदिवस मनाने, बच्चों का नामकरण करने तथा पर्वों को मनाने की पद्धतियों में आयी विकृतियों से समाज को सावधान किया तथा इन सबके हितकारी तौर-तरीके बताकर उनके पीछे छुपे आध्यात्मिक रहस्यों को भी समझाया। आपने संयम-सदाचार प्रेरक ‘युवाधन सुरक्षा अभियान’ चलाया तथा मातृ-पितृ पूजन दिवस (14  फरवरी) व तुलसी पूजन दिवस (25 दिसम्बर) जैसे संस्कृतिरक्षक पर्वों का शुभारम्भ किया।

जब-जब संतों व संस्कृति पर कोई आँच आयी तब-तब पूज्य बापू जी ने मजबूत ढाल बनकर उसका सामना किया। काँची कामकोटि पीठ के शंकराचार्य श्री जयेन्द्र सरस्वती पर जब झूठा आरोप लगा तब आप दिल्ली में धरना देने के लिए पहुँच गये। इसी प्रकार सत्य साँईं बाबा, कृपालु जी महाराज, साध्वी प्रज्ञा, रामदेव बाबा, आचार्य बालकृष्ण आदि के खिलाफ जब कीचड़ उछाला गया तब भी आपने उसके खिलाफ आवाज उठायी। आपकी प्रेरणा से समय-समय पर प्रेरणा सभाएँ, संत सम्मेलन आदि आयोजित किये जाते रहे हैं। आपने भारत को विश्वगुरु पद पर देखने के लिए अपना पूरा जीवन लगाया है।

आध्यात्मिक, सांस्कृतिक, भौतिक तथा अन्य सभी दृष्टियों से समाज का उत्थान हमारे संतों-महापुरुषों के द्वारा ही हुआ है। संतों ने ही परस्परं भावयन्तु – एक दूसरे को उन्नत करने का भाव तथा मानव को महामना बनाने वाला धर्म, संस्कृति के सिद्धान्तों को समाज में स्थापित किया। समाज सदैव उनका ऋणी रहेगा।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, मई 2018, पृष्ठ संख्या 2,7,8 अंक 305

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समाज निर्माण में ब्रह्मवेत्ताओं का योगदान


हम इतिहास देखेंगे तो पायेंगे कि वे ही आत्मोन्नति, राष्ट्रोन्नति व राष्ट्रसेवा में सफल हुए जो ब्रह्मवेत्ता महापुरुषों के मार्गदर्शन मं चले हैं। उन्होंने ही सुन्दर ढंग से अपना एवं समाज का जीवन-निर्माण किया है जिन्होंने जागृत, हयात संतों-महापुरुषों का महत्व समझा है, उनके सत्संग-सान्निध्य का लाभ स्वयं लिया है एवं अपने सम्पर्क में आने वालों को दिलाया है। अवतारों, राजा-महाराजाओं, स्वतंत्रता सेनानियों, उद्योगपतियों, राजनेताओं – सभी क्षेत्रों की विभूतियों एवं हस्तियों का जीवन इसकी गवाही देता है।

ब्रह्मवेत्ता सदगुरुओं का प्रसाद था राम राज्य

भगवान श्रीराम जब 16 साल के हुए तब संसार की नश्वरता देख बहुत ही चिंतित रहने लगे। उनका शरीर सूखकर दुर्बल हो गया। इससे राजा दशरथ जी सहित सभी प्रजाजन अत्यंत चिंतित हुए। और ऐसे समय में ही ऋषि विश्वामित्र जी ने आकर दशरथ जी से राक्षसों के विनाश हेतु राम जी की माँग की। दशरथ जी और चिंता में पड़ गये। ऐसे गम्भीर समय में गुरु महर्षि वसिष्ठ जी ने परिस्थिति को सम्भाला और कहाः “आप चिन्तित न हों। महर्षि विश्वामित्र के निर्देश का आदरपूर्वक पालन करो। उनके साथ श्रीरामचन्द्र को भेजो।”

फिर वसिष्ठजी ने ब्रह्मोपदेश देकर राम जी को ऐसा अडिग बनाया कि वे 14 साल के वनवास जैसी विकट से विकट परिस्थिति में भी कभी खिन्न या दोलायमान नहीं हुए। रावण, कुम्भकर्ण जैसे आततायियों का समाज से सफाया कर सुन्दर राज्य व्यवस्था की। इस प्रकार रामराज्य ब्रह्मवेत्ता सद्गुरुओं का ही प्रसाद था।

देश के ‘भारत’ नाम के पीछे छुपी तपस्या

क्या आप जानते हैं कि हमारा देश ‘भारत’ कैसे कहलाया ? भागवत (5.4.7) व महाभारत (आदि पर्व अः 72.74) पढ़ लीजिये। ऋषभदेव जी के पुत्र राजा भरत अथवा शकुंतला के पुत्र चक्रवर्ती सम्राट भरत के सुशासन के कारण इस भूमंडल का नाम ‘भारत’ प्रचलित हुआ। यह इसलिए हुआ क्योंकि दोनों राजा भरत गुरुकृपा से सद्ज्ञान में रत थे – ‘भा’ याने सद्ज्ञान और ‘रत’ याने तल्लीन रहना।

शकुंतला पुत्र राजकुमार भरत को वेद एवं समस्त शास्त्रों का ज्ञान दे के शुभ संस्कार कर जीवन-निर्माण करनेक वाले महर्षि कण्व के ही महान प्रयासों का फल था राजा भरत का सुशासन ! इस प्रकार हमारे देश का नाम भी ब्रह्मज्ञानी महापुरुषों का ही कृपा-प्रसाद है।

महाभारत के युद्ध में जीत का रहस्य

भगवान श्रीकृष्ण ने हताश हुए अर्जुन को हिम्मत दी, सद्ज्ञान दिया और आत्मज्ञान में प्रतिष्ठित कर फिर युद्ध कराया। अर्जुन जब तक श्री कृष्ण जैसे ब्रह्मवेत्ता गुरु पास में होते हुए भी उनकी महिमा के प्रति अनजान थे और उन्हें मात्र एक सखा या युद्ध में रथचालक मानते थे, तब तक वे शोक एवं विषाद से बच नहीं पाये किंतु जब भगवान करुणाप्रेरित होकर सद्गुरु की भूमिका में खड़े हुए और अर्जुन शिष्यस्तेऽहम्….. ‘मैं आपका शिष्य हूँ।’ कहकर उऩकी शरण हुए तब उन्हें सर्वश्रेष्ठ ज्ञान – आत्मज्ञान प्राप्त हुआ, धर्मयुद्ध करने का बल मिला और जनता अत्याचार से मुक्त हुई व उसे धर्माधिष्ठित शासन मिला।

धर्म चेतना जागृति के सुवर्ण-अध्याय

विरक्त होने का विचार कर रहे वीर छत्रसाल को गुरु प्राणनाथ जी ने कर्मयोग द्वारा परमात्म प्राप्ति की प्रेरणा दी थी। छत्रसाल को मुगल शासकों से लड़ने हेतु सैन्यबल, धनबल आदि की कमी पड़ रही थी तब गुरु उनके मार्गदर्शक बने। गुरु ने अंतर्दृष्टि से देखकर पन्ना को राजधानी बनवाया, जहाँ छत्रसाल को असंख्य बहुमूल्य हीरे मिले। प्राणनाथ जी ने अपने अनेक शिष्यों को छत्रसाल के सैन्य में भर्ती होने की प्रेरणा दी और युद्धों में पहुँचकर धर्म की रक्षा हेतु सेना का प्राणबल बढ़ाया।

ऐसे ही छत्रपति शिवाजी महाराज ने जब गुरु समर्थ रामदास जी के चरणों में अपना राज्य अर्पण किया एवं विरक्त बनने की इच्छा व्यक्त की तब समर्थ जी ने उन्हें राज्य लौटाकर अपनी अमानत के रूप में राजकाज सँभालते हुए निष्काम कर्मयोग का अवलम्बन लेने के लिए कहा एवं बाद में ब्रह्मज्ञान की प्राप्ति भी करा दी। गुरुदेव एवं माँ जीजाबाई के आशीर्वाद से महायोद्धा शिवाजी महाराज हिन्दवी स्वराज्य (हिन्दू साम्राज्य) की स्थापना करने में सफल हुए। गुरु गोविन्दसिंह जी ने माधोदास वैरागी में से एक महान धर्मयोद्धा का जन्म हुआ, नाम प़ड़ा वी बंदा बहादुर या बंदा वैरागी।

महापुरुषों ने राजा जनक, श्रीरामजी के भाई भरत, चन्द्रगुप्त मौर्य, राजा पीपाजी जैसे अनेकानेक उत्कृष्ट शासक देश को दिये।

प्रथम स्वदेशी स्टील  फैक्ट्री के प्रेरणास्रोत

स्वामी विवेकानंद जी से खेतड़ी के महाराजा व जमशेद जी टाटा लाभान्वित हुए। स्वामी जी ने जमशेद जी को प्रथम स्वदेशी स्टील कारखाना स्थापित करने की प्रेरणा दी और वह कारखाना अत्यंत सफल रहा व आज भी विश्वप्रसिद्ध है।

त्रिकालदर्शी दूरद्रष्टा की करुणामय सलाह ‘तीन की बददुआ से विशेष बचना चाहिए।’

ब्रह्मर्षि देवराहा बाबा जी के चरणों में देश की एक पूर्व प्रधानमंत्री हार का कारण जानने पहुँची तो बाबा जी ने इसे गौ-रक्षकों के ऊपर अत्याचार और संतों के अपमान का फल बताया। देशसेवा हेतु सत्ताप्राप्ति की याचना करने पर करुणामूर्ति बाबा जी ने उन्हें एक अन्य ब्रह्मज्ञानी संत आनंदमयी माँ के सान्निध्य में जाने की प्रेरणा दी तथा कहा कि “इससे तुझे पुनः राज्यप्राप्ति होगी।” और उन प्रधानमंत्री ने महापुरुष के वचनों का अक्षरशः पालन किया तो उनको सत्ताप्राप्ति भी हुई।

बाद में उन प्रधानमंत्री का दर्दनाक मृत्यु के बाद एक अन्य प्रधानमंत्री ने देवराहा बाबा जी से पूछा कि “उनकी मृत्यु ऐसे क्यों हुई ?” तो बाबी जी ने बतायाः “गौरक्षा आन्दोलन में संतों के ऊपर लाठीचार्ज से सैंकड़ों महात्माओं की हड्डियाँ टूट गयीं। उसको साधुओं की बददुआएँ लगीं। तुम लोग जो प्रधानमंत्री बनते हो यह तुम्हारे पूर्वपुण्यों का फल है किंतु वर्तमान में अधिक पाप करने से यह राजभोग का सुख नष्ट हो जाता है। बच्चा ! वैसे सभी की बददुआ से बचना चाहिए किंतु विशेषकर विधवा स्त्री, अनाथ बच्चा व महात्मा दुःखी होकर यदि बददुआ देते हैं तो उसको परमात्मा भी नहीं टालते।”

स्वतंत्रता सेनानियों व समाजसेवियों के प्रेरणास्रोत

संत देवराहा बाबा अपने पास आने वाले क्रांतिकारियों से कहा करतेः “बच्चा ! मैं तुम्हारी बैटरी चार्ज करता हूँ, जिससे स्वतन्त्रता के कार्य में तुम लोग अपनी संघर्षमय आहुति डाल सको।”

साँईं श्री लीलाशाह जी महाराज स्वतंत्रता-सेनानियों के हित में भक्तों द्वारा सामूहिक संकल्प कराके एवं अपनी संकल्पशक्ति का भी प्रयोग करके उन्हें सशक्त बनाते थे। अंग्रेजों के अत्याचारों को रोकने हेतु जहाँ देवराहा बाबा आदि का आशीर्वाद पाकर सुभाषचन्द्र बोस ने आजाद हिन्द फौज का गठन किया, वहीं अहिंसक आंदोलन के नेता गांधी जी को स्वामी विवेकानंद जी से देशभक्ति की प्रेरणा एवं श्रीमद् राजचन्द्र जी से मार्गदर्शन मिला था। गांधी जी कहते हैं – “स्वामी विवेकानन्द के साहित्य को पढ़ने के बाद मेरा राष्ट्रप्रेम हजार गुना हुआ।”

विवेकानंद जी के साहित्य से प्रेरणा लेकर सुभाषचन्द्र बोस, ज्योतिन्द्रनाथ मुखर्जी जैसे अनेक क्रांतिकारी स्वतंत्रता-सेनानी योगी अरविंद जी के योग-मार्गदर्शक थे योगी विष्णु भास्कर लेले।

राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के द्वितीय सरसंघचालक गोलवलकर गुरु जी यौवनकाल से ही विरक्त थे और उनके मन में हिमालय के एकांतवास में जाने के लिए प्रबल भावना थी। उनको समाज सेवा की सत्प्रेरणा देने वाले महापुरुष थे स्वामी रामकृष्ण परमहंस जी के सत्शिष्य स्वामी अखंडानंद जी।

जब समाज में अस्पृश्यता जैसी कुप्रथाएँ चल पड़ीं तो उनका निवारण करने वाले भी सबमें ईश्वर की सत्ता का प्रतिपादन करने वाले स्वामी रामानंद जी, रैदास जी, विवेकानंद जी, संत आशाराम जी बापू जैसे अद्वैत वेदांतनिष्ठ एवं भक्तिमार्ग के ज्ञाता महापुरुष ही थे। जहाँ भी समाज में आमूल-चूल, व्यापक मंगलकारी परिवर्तन हुए हैं, उनके मूल में संतपुरुष ही थे। ऐसे महापुरुषों ने राष्ट्र और विश्व को केवल वैचारिक ज्ञान ही नहीं दिया बल्कि समाज के हर अंग को कर्मयोग के प्रत्यक्ष अवलम्बन द्वारा परिपुष्ट करने का कार्य भी किया। ऐसे ब्रह्मवेत्ता महापुरुष आज भी विद्यमान हैं।

ब्रह्मनिष्ठ संत श्री आशारामजी बापू ने पिछले 5 दशकों में देश, धर्म व संस्कृति के हित में जो अभूतपूर्व कार्य किये, उनकी श्रृंखला भी बड़ी विशाल है। आपने केवल देश के अनेक प्रधानमंत्रियों, मुख्यमंत्रियों, अधिकारियों, संगठन-प्रमुखों को सत्प्रेरणा व मार्गदर्शन दिया है। पूज्य श्री ने धर्मांतरण से रक्षा एवं सांस्कृतिक विकृतियों का निवारण किया। 25 दिसम्बर से 1 जनवरी के बीच विश्वगुरु भारत कार्यक्रम शुरु किया। मातृ-पितृ पूजन दिवस, तुलसी पूजन दिवस जैसे संस्कृतिरक्षक पर्व शुरु किये।

पूज्य बापू जी ने अपने सत्संगों में मात्र आत्मा-परमात्मा का ही उपदेश नहीं दिया अपितु पारिवारिक सौहार्द, सामाजिक समरसता, राष्ट्रीय एकता व अखंडता, परोपकार, ‘परस्परदेवो भव’ – इस प्रकार के संदेशों और सेवाकार्यों की एक सरिता ही बहा दी, जिससे ज्ञानयोग के साथ कर्मयोग के समन्वय से धर्म एवं संस्कृति रक्षा तथा राष्ट्रसेवा के अनेक कार्य सम्पन्न हुए। संत श्री की अन्य सत्प्रवृत्तियों का वर्णन स्थानाभाव के कारण यहाँ नहीं कर पा रहे हैं। देखें लिंक https://goo.gl/J6qVdy

जैसे वृक्ष अपने फलों को स्वयं कभी नहीं खाता, सरिता अपने पानी का स्वयं पान नहीं करती, वैसे ही संतों का जीवन भी अपने लिए नहीं, दूसरों के कल्याण के लिए ही होता है। ऐसे संतों पर झूठे आरोप लगवाये जाने पर तत्कालीन समाज जितना सजग रहा, उतना ही वह महापुरुषों का लाभ ले पाया। प्यारे भारतवासियो ! सजग रहना, सत्य को जानना व उससे अनभिज्ञ समाज तक उसे पहुँचाना। प्राणिमात्र के परम हितैषी महापुरुषों का उनके हयातीकाल में ही अवश्य लाभ लेना।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, दिसम्बर 2017, पृष्ठ संख्या 4-6 अंक 300

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संस्कृत सभी भाषाओं की जननी हैः सर्वोच्च न्यायालय


 

संस्कृत भाषा भारतीय संस्कृति का आधारस्तम्भ है। यह संसार की समृद्धतम भाषा है। इसका अध्ययन मनुष्य को सूक्ष्म विचारशक्ति प्रदान करता है और मौलिक चिंतन को जन्म देता है। इससे मन में स्वाभाविक ही अंतर्मुख होने लगता है।

सनातन संस्कृति के सभी मूल शास्त्र संस्कृत भाषा में ही हैं। अतः उनके रसपान व ज्ञान में गोता लगाने के लिए इस भाषा का ज्ञान होना अति आवश्यक है। पूज्य संत श्री आशाराम जी बापू पिछले 50 वर्षों से अपने सत्संगों द्वारा इसकी महत्ता बताते आये हैं और सत्संग में वेद, उपनिषद, गीता, भागवत के श्लोकों की सुंदर व्याख्या करके उनमें छुपे अमृत का रसास्वादन कराते रहे हैं। संस्कृत व संस्कृति के रक्षक पूज्य बापू जी कहते हैं- “संस्कृत भाषा देवभाषा है और इसके उच्चारणमात्र से दैवी गुण विकसित होने लगते हैं। अधिकांश मंत्र संस्कृत में ही हैं।”

इस भाषा का ज्ञान सभी भारतवासियों को होना ही चाहिए। विद्यालयों में इसकी शिक्षा आवश्यक रूप से सभी बच्चों को मिलनी चाहिए। माननीय सर्वोच्च न्यायालय को सरकार की ओर से पेश अटॉर्नी जनरल ने बताया कि “केन्द्रिय विद्यालयों में शिक्षा 6 से 8 तक संस्कृत ही तीसरी भाषा होगी। जर्मन पढ़ाया जाना गलत है और गलती को जारी नहीं रखा जा सकता।”

इस पर माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने कहाः “हमें क्यों अपनी संस्कृति भूलनी चाहिए ! संस्कृत के जरिये आप अन्य भाषाओं को आसानी से सीख सकते हैं। संस्कृत सभी भाषाओं की जननी है। सरकार अगले सत्र से इसे बेहतर तरीके से क्रियान्वित करे।”
संस्कृत का अखंड प्रवाह पालि, प्राकृत व अपभ्रंश भाषाओं में बह रहा है। चाहे तमिल, कन्नड़ या बंगाली हो अथवा मलयालम, ओड़िया, तेलुगू, मराठी या पंजाबी हो – सभी भारतीय भाषाओं के लिए लिए संस्कृत ही अंत-प्रेरणा-स्रोत है। आज भी इन भाषाओं का पोषण और संवर्धन संस्कृत द्वारा ही होता है। संस्कृत की सहायता से कोई भी उत्तर भारतीय व्यक्ति तेलुगू, कन्नड़, ओड़िया, मलयालम आदि दक्षिण एवं पूर्व भारतीय भाषाओं को सरलतापूर्वक सीख सकता है। आज तो ऑक्सफोर्ड, कैम्ब्रिज और कोलम्बिया जैसे प्रतिष्ठित 200 से भी ज्यादा विदेशी विश्वविद्यालयों में संस्कृत पढ़ायी जा रही है।

ब्रिटिश स्कूलों में संस्कृत अनिवार्य
‘संस्कृत से छात्रों में प्रतिभा का विकास होता है। यह उनकी वैचारिक क्षमता को निखारती है, जो उनके बेहतर भविष्य के लिए सहायक है।’ ऐसा मानना है लंदन के सेंट जेम्स कान्वेंट स्कूल का, जहाँ बच्चों को द्वितिय भाषा के रूप में संस्कृत सीखना आवश्यक है।

याद्दाश्त को भी बेहतर बनाती है संस्कृत
शिक्षाविद् पॉल मॉस के अनुसार ‘संस्कृत से सेरेब्रेल कॉर्टेक्स सक्रिय होता है। किसी बालक के लिए उँगलियों और जुबान की कठोरता से मुक्ति पाने के लिए देवनागरी लिपि व संस्कृत बोली ही सर्वोत्तम मार्ग है। वर्तमान यूरोपीय भाषाएँ बोलते समय जीभ और मुँह के कई हिस्सों का और लिखते समय उँगलियों की कई हलचलों का इस्तेमाल ही नहीं होता, जब कि संस्कृत उच्चारण-विज्ञान के माध्यम से मस्तिष्क की दक्षता को विकसित करने में काफी मदद करती है।’

डॉ. विल डुरंट लिखते हैं- ‘संस्कृत आधुनिक भाषाओं की जननी है। संस्कृत बच्चों के सर्वांगीण बोध ज्ञान को विकसित करने में मदद करती है।’ कई शोधों में यह पाया गया कि जिन छात्रों की संस्कृत पर अच्छी पकड़ थी, उन्होंने गणित और विज्ञान में भी अच्छे अंक प्राप्त किये। वैज्ञानिकों का मानना है कि संस्कृत के तार्किक और लयबद्ध व्याकरण के कारण स्मरणशक्ति और एकाग्रता का विकास होता है। इसके ताजा उदाहरण हैं गणित का नोबेल पुरस्कार कहे जाने वाले सर्वोच्च सम्मान ‘फील्डस मेडल’ के विजेता भारतीय मूल के गणितज्ञ मंजुल भार्गव, जो अपनी योग्यता का श्रेय संस्कृत भाषा को देते हैं। इसके तर्कपूर्ण व्याकरण ने उनके भीतर गणित की बारीकियों को समझने का तार्किक नजरिया विकसित किया।

मैकाले शिक्षा-पद्धति के पढ़े लोग अज्ञानवश इसे सिर्फ पूजा-पाठ, कर्मकाण्ड से जुड़ा मानकर इस भाषा को अवैज्ञानिक तथा अनुपयोगी बताते हैं परंतु वास्तविकता यह है कि वर्तमान में यह भाषा केवल साहित्य, दर्शन या अध्यात्म तक ही नहीं बल्कि गणित, विज्ञान, औषधि, चिकित्सा, इतिहास, मनोविज्ञान, भाषाविज्ञान जैसे विविध क्षेत्रों में भी अपना महत्वपूर्ण स्थान बना रही है। इसके साथ ही ऑर्टिफिशियल इंटेलिजेंस और कम्पयूटर क्षेत्र में भी संस्कृत के प्रयोग की सम्भावनाओं पर भारत ही नहीं, फ्रांस, अमेरिका, जापान, ऑस्ट्रेलिया, जर्मनी, इंग्लैंड आदि देशों में शोध जारी है। वानस्पतिक सौंदर्य प्रसाधन (डर्बल कॉस्मैटिक्स) एवं आयुर्वेद चिकित्सा पद्धति के तेजी से बढ़ते प्रचलन से संस्कृत की उपयोगिता और बढ़ गयी है क्योंकि आयुर्वेद पद्धतियों का ज्ञान संस्कृत में ही लिपिबद्ध है। अपनी सुस्पष्ट और छंदात्मक उच्चारण प्रणाली के चलते संस्कृत भाषा को ‘स्पीच थेरेपी टूल’ (भाषण चिकित्सा उपकरण) के रूप में मान्यता मिल रही है।
लौकिक नश्वर उन्नति, वैज्ञानिक प्रगति एवं सुख-सुविधा के लिए संस्कृत का लाभ लेने वालों को हमारा धन्यवाद है। परंतु यह तो बहुत छोटी चीज है, छाछ है, मक्खन तो संस्कृत साहित्य एवं शास्त्रों में छुपा अध्यात्मविद्या का ज्ञानामृत है, जो अनमोल है। मनुष्य जन्म के परम लक्ष्य परमात्मप्राप्ति हेतु वैदिक, औपनिषदिक एवं गीता, भागवत, रामायण, महाभारत का ज्ञान भण्डार तो केवल और केवल संस्कृत भाषा में ही है। अन्यत्र जो भी है संस्कृत से ही प्रसादरूप से प्राप्त किया गया है। व्यासोच्छिष्टं जगत्सर्वम्।

जब विदेशी इसका भरपूर लाभ ले रहे हैं तो भारतीय इस अनूठी सभ्यता की अनमोल धरोहर से वंचित क्यों रहें ! भारतीय संस्कृति की सुरक्षा, चरित्रवान नागरिकों के निर्माण, सदभावनाओं के विकास एवं विश्वशांति हेतु भारत एवं पूरे विश्व में संस्कृत का अध्ययन-अध्यापन अवश्य होना चाहिए। इसी से होगा सबका मंगल, सबका भला…. सबका विकास, सच्चा विकास-मंगल और भला वाला।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जनवरी 2015, पृष्ठ संख्या 18,19 अंक 265
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