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राष्ट्रभाषाः देश का स्वाभिमान, संस्कृति की पहचान


राष्ट्रभाषा दिवसः 14 सितम्बर

भारतीय सभ्यता में विभिन्नताओं के बावजूद हमारा आचार-विचार, व्यवहार सभी एक मूल धारा से जुड़ा है और उसी का नाम है संस्कृति, जिसकी संहिता है संस्कृत भाषा में। देश की तमाम भाषाएँ संस्कृत भाषा कि पुत्रियाँ मानी जाती हैं, जिनमें पूरे देश को एकता के सूत्र में पिरोये रखने का महान कार्य करने वाली ज्येष्ठ पुत्री है हमारी राष्ट्रभाषा ʹहिन्दीʹ। देश की अन्य भाषाएँ उसकी सहयोगी बहने हैं, जो एकता में अनेकता व अनेकता में एकता का आदर्श प्रस्तुत करती हैं। प्राचीन काल में संस्कृत भाषा के विशाल साहित्य के माध्यम से जीवन-निर्माण की नींव रखी गयी थी। उसी से प्रेरित और उसी का युग-अनुरूप सुविकसित मधुर फल है राष्ट्रभाषा हिन्दी का साहित्य। आज भी इस विशाल साहित्य के माध्यम से नीतिमत्ता के निर्देश, ईश्वर के आदेश, ऋषियों के आदेश, ऋषियों के उपदेश और महापुरुषों के संदेश हमारे जीवन की बगिया को सुविकसित करते हुए महकता उपवन बना रहे हैं।

अंग्रेजी शासन से पूर्व हमारे देश में सभी कार्य हिन्दी में किये जाते थे। मैकाले की शिक्षा-पद्धति विद्यालयों में आयी और विद्यार्थियों को अंग्रेजी में पढ़ाया जाने लगा, उसी में भावों को अभिव्यक्त करने के लिए मजबूर किया जाने लगा। हिन्दी को केवल एक भाषा विषय की जंजीरों में बाँध दिया गया, जिसके दुष्परिणाम सामने हैं।

अंग्रेजी भाषा के दुष्परिणाम

गांधी जी कहते थेः “विदेशी भाषा के माध्यम ने बच्चों के दिमाग को शिथिल कर दिया है। उनके स्नायुओं पर अनावश्यक जोर डाला है, उन्हें रट्टू और नकलची बना दिया है तथा मौलिक कार्यों और विचारों के लिए सर्वथा अयोग्य बना दिया है। इसकी वजह से वे अपनी शिक्षा का सार अपने परिवार के लोगों तथा आम जनता तक पहुँचाने में असमर्थ हो गये हैं। यह वर्तमान शिक्षा प्रणाली का सबसे बड़ा करूण पहलू है। विदेशी माध्यम ने हमारी भाषाओँ की प्रगति और विकास को रोक दिया है। कोई भी देश नकलचियों की जाति पैदा करके राष्ट्र नहीं बन सकता।”

लौहपुरुष सरदार पटेल कहा कहते थेः “विदेशी भाषा के माध्यम द्वारा शिक्षा देने के तरीके से हमारे युवकों की बुद्धि के विकास में बड़ी कठिनाई पैदा होती है। उनका बहुत-सा समय उस भाषा को सीखने में ही चला जाता है और इतने समय के बावजूद यह कहना कठिन होता है कि उन्हें शब्दों का ठीक-ठाक अर्थ कितना आ गया।”

भ्रांतियों से सत्यता की ओर…..

मैकाले की शिक्षा पद्धति के गुलाम आज के व्यक्तियों द्वारा हमारी भोली-भाली युवा पीढ़ी को भ्रमित करने के लिए अंग्रेजी के पक्ष में कई तर्क दिये जाते हैं, जिनका सच्चाई से कोई संबंध नहीं होता। जैसे – वे कहते हैं कि ʹअंग्रेजी बहुत समृद्ध भाषा है।ʹ परंतु किसी भी भाषा की समृद्धि इस बात से तय होती है कि उसमें कितने मूल शब्द हैं। अंग्रेजी में सिर्फ 12000 मूल शब्द हैं। बाकी के सारे शब्द चोरी के हैं अर्थात् लैटिन, फ्रैंच, ग्रीक भाषाओं के हैं। इस भाषा की गरीबी तो इस उदाहरण से स्पष्ट हो जाती है कि अंग्रेजी में चाचा, मामा, फूफा, ताऊ सबको ʹअंकलʹ और चाची, मामी, बुआ, ताई सबको ʹआँटीʹ कहते हैं। जबकि हिन्दी में 70000 मूल शब्द हैं। इस प्रकार भाषा के क्षेत्र में अंग्रेजी कंगाल है।

मैकाले की शिक्षा पद्धति के गुलाम कहते हैं कि ʹअंग्रेजी नहीं होगी तो विज्ञान व तकनीक की पढ़ाई नहीं हो सकतीʹ परंतु जापान एवं फ्रांस में विज्ञान व तकनीक की पढ़ाई बिना अंग्रेजी के बड़ी उच्चतर रीति से पढ़ायी जाती है। पूरे जापान में इंजीनियरिंग तथा चिकित्सा के जितने भी महाविद्यालय व विश्वविद्यालय हैं, सबमें जापानी भाषा में पढ़ाई होती है। जापान के लोग विदेश भी जाते हैं तो आपस में जापानी में ही बात करते हैं। जापान ने विज्ञान और प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में अपनी भाषा में ही अध्ययन करके उन्नति की है, जिसका लोहा पूरा विश्व मानता है। इसी तरह फ्रांस में बचपन से लेकर उच्च शिक्षा तक पूरी शिक्षा फ्रेंच भाषा में दी जाती है।

इसके विपरीत हमारे देश में अंग्रेजी भाषा के प्रशिक्षण को राष्ट्रीय एवं राजकीय कोषों से आर्थिक सहायता द्वारा प्रोत्साहन दिया जा रहा है। संसद, न्यायपालिका आदि महत्त्वपूर्ण प्रणालियों में भी अंग्रेजी को प्रधानता मिल रही है। इससे केवल उच्च वर्ग ही इनका लाभ ले पा रहा है। ʹअंग्रेजी युवा पीढ़ी की माँग हैʹ – ऐसा बहाना बनाकर विज्ञापनों के माध्यम से भाषा की तोड़-मरोड़ करके अपनी ही राष्ट्रभाषा का घोर तिरस्कार किया जा रहा है। उसका सुंदर, विशुद्ध स्वरूप विकृत कर उसमें अंग्रेजी के शब्दों की मिलावट करके टीवी धारावाहिकों, चलचित्रों आदि के माध्यम से सबको सम्मोहित किया जा रहा है।

अंग्रेजी का दुष्परिणाम  इतना बढ़ गया है कि बच्चों के लिए अपनी माँ को ʹमाता श्रीʹ कहना तो दूर ʹमाँʹ कहना भी दूभर होता जा रहा है। जिस भाषा में वात्सल्यमयी माँ को ʹमम्मीʹ (मसाला लगाकर रखी हुई लाश) और जीवित पिता को ʹडैडीʹ (डेड यानी मुर्दा) कहना सिखाया जाता है, उसी भाषा को बढ़ावा देने के लिए हमारे संस्कार प्रधान देश की जनता के खून-पसीने की कमाई को खर्च किया जाना कहाँ तक उचित है ?

बुराई का तुरन्त इलाज होना चाहिए

गांधी जी कहते थेः “अंग्रेजी सीखने के लिए हमारा जो विचारहीन मोह है, उससे खुद मुक्त होकर और समाज को मुक्त करके हम भारतीय जनता की एक बड़ी-से-बड़ी सेवा कर सकते हैं। अगर मेरे हाथों में तानाशाही सत्ता हो तो मैं आज से ही विदेशी माध्यम के जरिये दी जाने वाली शिक्षा बंद कर दूँ और सारे शिक्षकों व प्राध्यापकों से यह माध्यम तुरंत बदलवा दूँ या उन्हें बरखास्त करा दूँ। मैं पाठ्यपुस्तकों की तैयारी का इंतजार नहीं करूँगा। वे तो माध्यम के परिवर्तन के पीछे-पीछे अपने-आप चली आयेंगी। यह एक ऐसी बुराई है, जिसका तुरंत इलाज होना चाहिए।”

मातृभाषा हो शिक्षा का माध्यम

बच्चा जिस परिवेश में पलता है, जिस भाषा को सुनता है, जिसमें बोलना सीखता है उसके उसका घनिष्ठ संबंध व अपनत्व हो जाता है। और यदि वही भाषा उसकी शिक्षा का माध्यम बनती है तो वह विद्यालय में आत्मीयता का अनुभव करने लगता है। उसे किसी भी विषय को समझने के लिए अधिक मेहनत नहीं करनी पड़ती। दूसरी भाषा को सीखने-समझने में लगने वाला समय उसका बच जाता है। इस विषय़ में गांधी जी कहते हैं- “राष्ट्रीयता टिकाये रखने के लिए किसी भी देश के बच्चों को नीची या ऊँची – सारी शिक्षा उनकी मातृभाषा के जरिये ही मिलनी चाहिए। यह स्वयं सिद्ध बात है कि जब तक किसी देश के नौजवान ऐसी भाषा में शिक्षा पाकर उसे पचा न लें जिसे प्रजा समझ सके, तब तक वे अपने देश की जनता के साथ न तो जीता-जागता संबंध पैदा कर सकते हैं और न उसे कायम रख सकते हैं।

हमारी पहली और बड़ी-से-बड़ी समाजसेवा यह होगी की हम अपनी प्रांतीय भाषाओं का उपयोग शुरु करें और हिन्दी को राष्ट्रभाषा के रूप में उसका स्वाभाविक स्थान दें। प्रांतीय कामकाज प्रांतीय भाषाओं में करें और राष्टीय कामकाज हिन्दी में करें। जब तक हमारे विद्यालय और महाविद्यालय प्रांतीय भाषाओं के माध्यम से शिक्षण देना शुरु नहीं करते, तब तक हमें इस दिशा में लगातार कोशिश करनी चाहिए।”

तो आइये, हम सब भी गांधी जी की चाह में अपना सहयोग प्रदान करें। हे देशप्रेमियो ! अपनी मातृभाषा एवं राष्ट्रभाषा का विशुद्ध रूप से प्रयोग करें और करने के लिए दूसरों को प्रोत्साहित करें। हे आज के स्वतंत्रता-संग्रामियो ! अब देश को अंग्रेजी की मानसिक गुलामी से भी मुक्त कीजिये। क्रान्तिवीरो ! पूरे देश में अपनी इन भाषाओं में ही शिक्षा और कामकाज की माँग बुलन्द कीजिये। आपके व्यक्तिगत एवं संगठित सुप्रयास शीघ्र ही रंग लायेंगे और सिद्ध कर देंगे कि हमें अपने देश से प्रेम है।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, अगस्त 2013, पृष्ठ संख्या 18,19,20 अंक 248

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विश्व संस्कृति का उदगम स्थानः भारतवर्ष


भारतीय संस्कृति से विश्व की सभी संस्कृतियों का उदगम हुआ है क्योंकि भारत की धरा अनादिकाल से ही संतों-महात्माओं एवं अवतारी महापुरुषों की चरणरज से पावन होती रही है। यहाँ कभी मर्यादापुरुषोत्तम श्रीराम अवतरित हुए तो कभी लोकनायक श्रीकृष्ण। संत एकनाथ जी, कबीर जी, गुरुनानकजी, स्वामी रामतीर्थ, आद्य शंकराचार्य जी, वल्लभाचार्यजी, रामानंदचार्यजी, भगवत्पाद साँई श्री लीलाशाहजी महाराज आदि अनेकानेक संत-महापुरुषों की लीलास्थली भी यही भारतभूमि रही है, जहाँ से प्रेम, भाईचारा, सौहार्द, शांति एवं आध्यात्मकिता की सुमधुर सुवासित वायु का प्रवाह सम्पूर्ण विश्व में फैलता रहा है।

पूज्य बापूजी कहते हैं- “भारतीय संस्कृति ने समाज को ऐसी दिव्य दृष्टि दी है, जिससे आदमी का सर्वांगीण विकास हो। मनुष्य कार्य तो करे लेकिन कार्य करते-करते कार्य का फल पशु की तरह भोगकर जड़ता की तरफ न चला जाय, इसका भी ऋषियों ने खूब ख्याल किया है।”

जर्मनी के प्रख्यात विद्वान मैक्समूलर भारतीय संस्कृति को समझने के बाद इस संस्कृति के प्रशंसक बन गये। सन् 1858 में महारानी विक्टोरिया से उन्होंने कहा थाः “यदि मुझसे पूछा जाये कि किस देश में मानव-मस्तिष्क ने अपनी मानसिक एवं बौद्धिक शक्तियों को विकसित करके उनका सही अर्थों में सदुपयोग किया है तो मैं भारत की ओर संकेत करूँगा।

यदि कोई पूछे कि किस राष्ट्र के साहित्य का आश्रय लेकर सैमेटिक यूनानी और रोमन विचारधारा में बहते यूरोपीय अपने आध्यात्मिक जीवन को अधिकाधिक विकसित कर सकेंगे, जो इहलोक से ही सम्बद्ध न हो अपितु शाश्वत एवं दिव्य भी हो, तो फिर मैं भारतवर्ष की ओर इशारा करूँगा।”

फ्राँस के महान तत्त्वचिंतक वोल्तेयर ने गहन अध्ययन के बाद लिखा हैः ʹमुझे इस बात का पूरा विश्वास है कि हमारे पास जो भी ज्ञान है, चाहे अवकाश-विज्ञान या ज्योतिष-विज्ञान या पुनर्जन्म-विषयक ज्ञान आदि, वह हमें गंगा-तट (भारत) से ही प्राप्त हुआ है।ʹ

अपनी ज्ञान-पिपासा को परितृप्त करने भारत ये लॉर्ड वेलिंग्टन ने लिखा हैः ʹसमस्त भारतीय चाहे राजकुमार हो या झोंपड़ों में रहने वाले गरीब, वे संसार के सर्वोत्तम शीलसम्पन्न लोग हैं, मानो यह उनका नैसर्गिक धर्म है। उनकी वाणी एवं व्यवहार में माधुर्य एवं शालीनता का अनुपम सामंजस्य दिखाई पड़ता है। वे दयालुता एवं सहानुभूति के किसी कर्म को नहीं भूलते।ʹ

भारतीय सस्कृति के प्रति विदेशी विद्वानों की श्रद्धा अकारण नहीं है। विश्व में ज्ञान-विज्ञान की जो सुविकसित जानकारियाँ दिखाई पड़ रही हैं, उसमें महत्त्वपूर्ण योगदान भारत का ही रहा है। इसके प्रमाण आज भी मौजूद हैं।

ऐसा उल्लेख है कि दक्षिण-पूर्वी एशिया में भारत के व्यापारी सुमात्रा, मलाया और निकटवर्ती अन्य द्वीपों में जाकर बस गये थे। चौथी शताब्दी के पूर्व ही अपनी विशिष्टता के कारण यह संस्कृति उन देशों की दिशा-धारा बन गयी। जावा के बोरोबुदुर स्तूप और कम्बोडिआ के शैव मंदिर, राज्यों की सामूहिक शक्ति के प्रतीक-प्रतिनिधि थे। राजतंत्र इन धर्म-संस्थानों के अधीन रहकर कार्य करता था। चीन, जापान, नेपाल, श्रीलंका, तिब्बत, कोरिया की संस्कृतियों पर भारत की अमिट छाप आज भी देखी जा सकती है।

पश्चिमी विचारकों ने भी भारत के तत्त्वज्ञान का प्रसाद लेकर महानता की चोटियों को छूने में सफलता प्रदान की है। प्रसिद्ध इतिहासज्ञ लेथब्रिज ने कहा हैः “पाश्चात्य दर्शनशास्त्र के आदिगुरु भारतीय ऋषि हैं, इसमें सन्देह नहीं।”

गणितज्ञ पाइथागोरस उपनिषद की दार्शनिक विचारधारा से विशेष प्रभावित थे। सर मोनियर विलियम्स कहते हैं- “यूरोप के प्रथम दार्शनिक प्लेटो और पाइथागोरस दोनों ने दर्शनशास्त्र का ज्ञान भारतीय गुरुओं से प्राप्त किया था।”

ʹयह अत्यन्त महत्त्वपूर्ण बात ध्यान में लेने लायक है कि 2500 साल पूर्व समोस से गंगा-तट पाइथागोरस ज्यामिती सीखने के लिए गये थे और यदि उस समय से पूर्वकाल से यूरोप में ब्राह्मणों की विद्या की महिमा फैली नहीं होती तो वह इतनी कठिन यात्रा नहीं करता।ʹ (वोल्तेयर के दिनांक 15-12-1775 के पत्र से उद्धृत)

वास्तव में जो आज के विद्यार्थी पाइथागोरस के प्रमेय के नाम से सीखते हैं, वह महर्षि बोधायन लिखित ग्रंथ ʹबोधायन श्रौतसूत्रʹ के अंतगर्त शुल्ब सूत्रों में से एक है।

गेटे ने महाकवि कालिदास जी द्वारा रचित ʹअभिज्ञानशाकुन्तलम्ʹ नाटक से प्रेरणा पाकर ʹफॉस्टʹ नाटक की रचना की। दार्शनिक फिटके तथा हेगल, वेदांत के अद्वैतवाद के आधार पर एकेश्वरवाद पर रचनाएँ प्रस्तुत कर पाये। अमेरिकी विचारक थोरो तथा इमर्सन ने भारतीय दर्शन के प्रभाव का ही प्रचार-प्रसार अपनी भाषा में किया।

गणित विद्या का आविष्कारक भारत ही रहा। शून्य तथा संख्याओं को लिखने की आधुनिक प्रणाली मूलतः भारत की ही देन है। इससे पहले अंकों को भिन्न-भिन्न चिह्नों से व्यक्त किया जाता था। भारतीय विद्वान आर्यभट्ट ने वर्गमूल, घनमूल जैसी गणितीय विधाओं का आविष्कार किया, जो आज पूरे विश्व में प्रचलित हैं।

विश्व के महान भौतिक वैज्ञानिक अलबर्ट आइन्स्टाईन ने कहा हैः “हम भारतीयों के अत्यन्त ऋणी हैं कि उन्होंने हमें गिनती करना सिखाया, जिसके बिना कोई भी महत्त्वपूर्ण वैज्ञानिक खोज नहीं की जा सकती।”

अरब निवासी अंकों को हिंदसा कहते थे क्योंकि उऩ्होंने अंक विद्या भारत से अपनायी थी। इनसे फिर पश्चिमी विद्वानों ने सीखी। सदियों पूर्व भारतीय ज्योतिर्विदों ने यह खोजा कि पृथ्वी सूर्य के चारों ओर घूमती है। सूर्यग्रहण और चंद्रग्रहण के समय का सही आकलन करने वाली ज्योतिष विद्या इसी देश की देन है। जर्मनी के कुछ विश्वविद्यालयों में आज भी वेदों की दुर्लभ प्रतियाँ सुरक्षित रखी हुई हैं। उनमें वर्णित कितनी ही गुह्य विधाओं पर वहाँ के वैज्ञानिक खोज में लगे हुए हैं। भारत की महिमा सुनकर चीन के विद्वान फाह्यान, ह्युएनसांग, इत्सिंग आदि भारतभूमि के दर्शन-स्पर्श के लिए यहाँ आये और वर्षों तक ज्ञान अर्जित करते रहे।

कम्बोडिया तीसरे से सातवीं शताब्दी तक हिन्दू गणराज्य था। वहाँ के निवासियों का विश्वास है कि इस देश का नाम भारत के ऋषि कौण्डिय के नाम पर पड़ा। इंडोनेशिया वर्तमान में तो मुस्लिम देश है किंतु भारतीय संस्कृति की गहरी छाप यहाँ मौजूद है। ʹइंडोनेशियाʹ युनानी भाषा का शब्द है, जिसका अर्थ होता है ʹभारतीय द्वीपʹ।

जावा के लोगों का विश्वास है कि भारत के पाराशर तथा वेदव्यास ऋषियों ने वहाँ विकसित सभ्य बस्तियाँ बसायी थीं। सुमात्रा द्वीप में हिन्दू राज्य की स्थापना चौथी शताब्दी में हुई थी। यहाँ पाली एवं संस्कृत भाषा पढ़ायी जाती थी।

बोर्नियो में हिन्दू राज्य की स्थापना पहली सदी में हो गयी थी। यहाँ भगवान शिव, गणेष जी, ब्रह्माजी तथा अगस्त्य आदि ऋषियों व देवी देवताओं की मूर्तियाँ प्राप्त हुई। कितने ही पुरातन हिन्दू  मंदिर आज भी यहाँ मौजूद हैं।

इतिहासकारों के अनुसार थाइलैंड का पुराना नाम ʹश्याम देशʹ था। यहाँ की सभ्यता भारत की संस्कृति से मेल खाती है। दशहरा, अष्टमी, पूर्णिमा, अमावस्या आदि पर्वों पर भारत की तरह यहाँ भी उत्सव मनाये जाते हैं। थाई रामायण का नाम ʹरामकियेनʹ है, जिसका अर्थ है ʹरामकीर्तिʹ।

ऐसे अनगिनत प्रमाण संसार के विभिन्न देशों में बिखरे पड़े हैं, जो यही बताते हैं कि भारत समय-समय पर अपने भौतिक एवं आध्यात्मिक ज्ञान के सागर से विश्व-वसुन्धरा को अभिसिंचित करता रहा है, अब  भी कर रहा है और आगे भी करता रहेगा।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, अगस्त 2012, पृष्ठ संख्या 9,10 अंक 236

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भारतीय संस्कृति की महानता


(पूज्य बापू जी के सत्संग से)

मैं तो सत्संग करने वाले की अपेक्षा सत्संग सुनने वाले को ज्यादा फायदे में मानता हूँ। यदि सत्संग चार दिन का है तो सत्संग सुनने वाला चाहे दो दिन आये, तीन दिन आये उसकी मौज ! पर सत्संग करने वाले को तो चारों दिन समय से आना है। एक-एक तथ्य के पीछे एक-एक सिद्धान्त, उसके पीछे दूसरा सिद्धान्त…. वह भी शास्त्रीय हो, लोकोपयोगी हो और मनोग्राह्य हो, यह ध्यान रख के बोलना पड़ता है। सुनने वाले को कोई ध्यान रखने की जरूरत नहीं है। जैसे गाय सुबह से शाम तक इधर-उधर घूमती है, कभी हरा खाती है, कभी सूखा खाती है, कभी डंडे सहती है। दिन भर के परिश्रम से उसके शरीर में जो दूध बनता है वह शाम को बछड़े को तो तैयार मिलता है। जैसे बछड़े को माल तैयार मिलता है वैसे ही संत ने कुंडलिनी योग, लय योग, ध्यान योग किया, संतों को खोजा, उनकी सेवा की, गुरुओं को रिझाया, भगवान की बंदगी की, प्रीति की, सब कर-कराके जो सार मिला है, उसका अनुभव करके वे समाज की ओर आते हैं। अपने पूरे अनुभव का निचोड़ लोगों को पिलाते हैं। यह भारत के संतों की गरिमा है। इसी कारण हमारी भारतीय संस्कृति अब भी जीवित है।

विश्व की चार प्राचीन संस्कृतियाँ हैं – युनान, मिस्र, रोम और भारत की। इन चारों संस्कृतियों में अभी अगर देखा जाय तो युनान, मिस्र और रोम की – ये तीनों संस्कृतियाँ आपको अजायबघरों (संग्रहालयों) में मिलेंगी पर भारत की संस्कृति आज भी गाँव-गाँव में दिखायी पड़ेगी।

कनाडा का एक अरबपति आदमी परमहंस योगानंद जी का जीवन-चरित्र पढ़कर इतना प्रभावित हुआ कि वह यहाँ उनके दर्शन करने आया और अपनी कार लेकर भारत में यात्रा की। बाद में उसने एक पुस्तक लिखी जिसमें भारत की खूब सराहना की है।

उसने लिखा कि गर्मी के दिन थे। एक जगह मेरी कार खराब हो गयी। मैंने एक पेड़ के नीचे कार खड़ी की। इतने में एक किसान भागता हुआ मेरे पास आया। मैं उसकी भाषा नहीं जानता था और वह मेरी भाषा नहीं जानता था, फिर भी उस किसान ने बड़े प्रेम से मुझे अपने झोंपड़े की ओर चलने का संकेत किया । मैं गया तो उसने खटिया बिछायी। गाय दुहकर दूध लाया, चीनी तो नहीं डाली लेकिन किसान ने अपना प्रेम, अपनी प्रीति उस दूध में ऐसी डाली कि अभी तक उस दूध की मधुरता मुझे याद है। भारत की संस्कृति अब भी गाँव-गाँव में और किसानों के झोंपड़ों में मुझे देखने को मिली। यह ʹपरस्परदेवो भवʹ की भावना है।

तुझमें राम मुझमें राम सबमें राम समाया है।

कर लो सभी से प्यार जगत में कोई नहीं पराया है।।

और दूसरी बात-भारत की संस्कृति अभी भी संतों के पास मिलती है, जिसका प्रसाद संतजन समाज में बाँटते हैं तो लाखों लोग एक साथ शांति पाते हैं। विश्व में और किसी जगह पर ऐसा सामूहिक सत्संग नहीं होता जैसा भारत में होता है।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, फरवरी 2012, पृष्ठ संख्या 30, अंक 230

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