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भारतीय संस्कृति के आधारभूत तथ्य


धर्म के दस लक्षणः धृति, क्षमा, दम, अस्तेय, शौच, इन्द्रियनिग्रह, धी, विद्या, सत्य और अक्रोध ।

दस दिशाएँ- पूर्व, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण, आग्नेय, नैर्ऋत्य, वायव्य, ईशान, अधः, ऊर्ध्व ।

दस इन्द्रियाँ- पाँच कर्मेन्द्रियाँ (हाथ, पैर, जिह्वा, गुदा, जननेन्द्रिय), पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ (आँख, नाक, कान, जिह्वा, त्वचा) ।

दस महाविद्याः काली, तारा, छिन्न मस्ता, धूमावती, बगलामुखी, कमला, त्रिपुरभैरवी, भुवनेश्वरी, त्रिपुरसुंदरी और मातंगी ।

दश दिक्पालः दसों दिशाओं की रक्षा करने वाले दस देवता – पूर्व दिशा के इन्द्र, अग्नि कोण के अग्नि, दक्षिण दिशा के यम, नैर्ऋत्य कोण के नैर्ऋत्य, पश्चिम दिशा के वरुण, वायव्य कोण के मरुत, उत्तर दिशा के कुबेर, ईशान कोण के ईश, ऊर्ध्व दिशा के ब्रह्मा और अधः दिशा के रक्षक अनंत हैं ।

दशांग धूपः दस सुगन्धियों के मेल से बनने वाला एक धूप जो पूजा में जलाया जाता है । ये दस द्रव्य हैं – शिलारस, गुग्गुल, चंदन, जटामांसी, लोबान, राल, खस, नख, भीमसैनी कपूर और कस्तूरी ।

दश मूलः सरिवन, पिठवन, छोटी कटाई, बड़ी कटाई, गोखरू, बेल, पाठा, गम्भारी, गनियारी (शमी के समान एक काँटेदार वृक्ष) और सोनपाठा इन दस वृक्षों की जड़ें ।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, दिसम्बर 2011, पृष्ठ संख्या 21 अंक 228

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भारतीय संस्कृति का स्वाभिमान


(पं. मदनमोहन मालवीय जयंतीः 25 दिसम्बर 2011)

काशी हिन्दू विश्वविद्यालय से संस्थापक पंडित मदनमोहन मालवीय जी हिन्दू धर्म व संस्कृति के अनन्य पुजारी थे । उन्होंने अपना सारा जीवन भारत माता की सेवा में अर्पित कर दिया था । वे जितने उदार, विनम्र, निभिमानी, परदुःखकातर एवं मृदु थे उतने ही संयमी, दृढ़, स्वाभिमानी व अविचल योद्धा भी थे । मालवीय जी के जीवन में हिन्दू धर्म व संस्कृति का स्वाभिमान कूट-कूटकर भरा था ।

एक बार कलकत्ता विश्वविद्यालय के उपकुलपति ने मालवीय जी के कार्यकाल से प्रसन्न होकर उनको एक पत्र भेजा । उसे पढ़कर मालवीय जी असमंजस में पड़ते हुए धीमी आवाज में बोलेः “उन्होंने यह तो अजीब प्रस्ताव रखा है । क्या कहूँ, क्या लिखूँ ?”

पास बैठे एक मित्र ने पूछाः “पंडित जी ! ऐसी क्या अजीब बात लिखी है ?”

“कलकत्ता विश्वविद्यालय के उपकुलपति महोदय मेरी सनातन उपाधि छीनकर एक नयी उपाधि देना चाहते हैं । इस पत्र में लिखा है कि ‘कलकत्ता विश्वविद्यालय’ आपको ‘डॉक्टरेट’ की उपाधि से अलंकृत करके आपको गौरवान्वित करना चाहता है ।”

तभी एक अन्य सज्जन ने हाथ जोड़कर कहाः “प्रस्ताव तो उचित ही है । आप ना मत कर दीजियेगा । यह तो हम वाराणसीवासियों के लिए विशेष गर्व की बात होगी ।”

मालवीय जी बोलेः “अरे ! तुम तो बहुत ही भोले हो भैया ! इसमें वाराणसी के गौरव में वृद्धि नहीं होगी । यह तो वाराणसी के पांडित्य को जलील करने का प्रस्ताव है ।” और तुरन्त ही उन्होंने उस पत्र का उत्तर लिखाः ‘मान्य महोदय ! आपके प्रस्ताव के लिए धन्यवाद । मेरे उत्तर को अपने प्रस्ताव का अनादर न मानते हुए आप उस पर पुनर्विचार कीजियेगा । मुझे आपका यह प्रस्ताव अर्थहीन लग रहा है । मैं जन्म और कर्म दोनों से ही ब्राह्मण हूँ । जो भी ब्राह्मण धर्म की मर्यादाओं के अनुरूप जीवन बिताता है, उसके लिए ‘पंडित’ से बढ़कर अन्य कोई भी उपाधि नहीं हो सकती । मैं ‘डॉक्टर मदनमोहन मालवीय’ कहलाने की अपेक्षा ‘पंडित मदनमोहन मालवीय कहलवाना अधिक पसंद करूँगा । आशा है आप इस ब्राह्मण के मन की भावना का आदर करते हुए इसे ‘पंडित’ ही बना रहने देंगे ।’

मालवीय जी की कार्य करने की शैली बड़ी मधुर और सरल थी । सहयोगी स्वभाव एवं अन्य सदगुणों के कारण आलोचक भी उनके कायल हो जाते थे । वृद्धावस्था में जब मालवीय जी तत्कालीन वायसराय की परिषद (काउंसिल) के वरिष्ठ पार्षद (काउंसलर) थे, तब उनकी गहन और तथ्यपूर्ण आलोचनाओं के बावजूद वाइसराय ने एक दिन कहाः “पंडित मालवीय ! हिज मेजेस्टी की सरकार आपको ‘सर’ की उपाधि से अलंकृत करना चाहती है ।”

मालवीय जी मुस्कराते हुए बोलेः “आपका बहुत-बहुत धन्यवाद कि आप मुझे इस योग्य मानते हैं, किंतु वंश-परम्परा से प्राप्त अपनी सनातन उपाधि नहीं त्यागना चाहता । मुझे ‘पंडित’ की उपाधि ईश्वर ने प्रदान की है । मैं इसे त्यागकर उसके बंदे की दी गयी उपाधि को क्यों स्वीकार करूँ !”

वाइसराय यह सुनकर हक्का-बक्का रह गया । थोड़ी देर बाद बोलाः “आपका निर्णय सुनकर हमें आपके पांडित्य पर जो मान था वह दुगना हो गया । आप वाकई सच्चे पंडित हैं जो उस उपाधि की गौरव-गरिमा की रक्षा के लिए कोई भी प्रलोभन त्याग सकते हैं ।”

इसी प्रकार एक बार काशी के पंडितों की एक सभा ने मालवीय जी का नागरिक अभिनंदन कर उन्हें ‘पंडितराज’ की उपाधि दिये जाने का प्रस्ताव रखा । यह सुनकर वे बोलेः “अरे पंडितो ! पांडित्य का मखौल क्यों बना रहे हो ? पंडित की उपाधि तो स्वतः ही विशेषणातीत है । इसलिए आप मुझको पंडित ही बना रहने दीजिये ।”

सभी का सिर नीचे झुक गया । इस प्रकार उनके जीवन में कई बार ऐसी घटनाएँ घटीं  परंतु वे न तो डॉक्टर बने, न सर हुए और न ही पंडितराज, बल्कि इन सबसे ऊपर स्वाभिमान के साथ जीवन भर अपनी संस्कृति से विरासत में मिले ‘पांडित्य’ का गौरव बढ़ाते रहे ।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, दिसम्बर 2011,  पृष्ठ संख्या 16,17 अंक 228

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विश्वगुरु भारत – पाश्चात्य विद्वान मैक्समूलर


मैं आप सबको विश्वास दिलाता हूँ कि भारत जैसा कर्मक्षेत्र न तो यूनान ही है न ही इटली ही, न तो मिश्र के पिरामिड ही इतने ज्ञानदायक हैं और न बेबीलोन के राजप्रासाद ही । यदि हम सच्चे सत्यान्वेषी हैं, यदि हममें ज्ञानप्राप्ति की भावना है और यदि हम ज्ञान का सच्चा मूल्यांकन करना जानते हैं तो हमें इस तथ्य को मानना ही पड़ेगा कि सहस्राब्दियों से पीड़ित-प्रताड़ित एवं जंजीरों में जकड़े हुए भारत में ही हमारा गुरु बनने की पूर्ण क्षमता है, आवश्यकता है केवल सच्चे हृदय से उस क्षमता को पहचानने की ।

यदि हमें इस समस्त धरा पर किसी ऐसे देश की खोज करनी हो, जहाँ प्रकृति ने धन, शक्ति और सौंदर्य का दान मुक्तहस्ता होकर किया हो या दूसरे शब्दों में जिसे प्रकृति ने बनाया ही इसलिए हो कि उसे देखकर स्वर्ग की कल्पना साकार की जा सके तो मैं बिना किसी प्रकार के संशय या हिचकिचाहट के भारत का नाम लूँगा । यदि मुझसे पूछा जाय कि किस देश के मानव-मस्तिष्क ने अपने कुछ सर्वोत्तम गुणों को सर्वाधिक विकसित स्वरूप प्रदान करने में सफलता प्राप्त की है, जहाँ के विचारकों ने जीवन के सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण प्रश्नों एवं समस्याओं का सर्वाधिक सुंदर समाधान खोज निकाला है  तथा इसी कारण वह इस योग्य हो गया है कि कान्ट और प्लाटो के अध्ययन में पूर्णता को पहुँचे हुए व्यक्ति को भी आकर्षित करने की शक्ति रखता है तो मैं बिना किसी विशेष सोच-विचार के भारत की ओर उँगली उठा दूँगा । यदि मैं स्वयं अपने से ही यह पूछना आवश्यक समझूँ कि जिन लोगों का समूचा पालन-पोषण (शारीरिक व मानसिक) यूनानियों एवं रोमनों की विचारधारा के अनुसार हुआ और अब भी हो रहा है तथा जिन्होंने सेमेटिक जातीय यहूदियों से भी बहुत कुछ सीखा है, ऐसे यूरोपीय जनों को यदि आंतरिक जीवन को सम्पूर्णता प्रदान करने वाली सामग्री की खोज करनी हो, यदि उन्हें अपने जीवन की सच्चे रूप में मानव – जीवन बनाने वाली तथा ब्रह्मांडबंधुत्व (ध्यान रखिये कि मैं केवल विश्वबंधुत्व की बात नहीं कर रहा हूँ) की भावना को साकार बना सकने में समर्थ सामग्री की खोज करनी हो तो किस देश के साहित्य का सहारा लेना चाहिए ? तो एक बार फिर मैं भारत की ओर ही इंगित करूँगा, जिसने न केवल इस जीवन को ही सच्चा मानवीय जीवन बनाने का सूत्र खोज निकाला है वरन् परवर्ती जीवन किंबहुना शाश्वत जीवन को भी सुखमय बनाने का सूत्र पा लेने में सफलता प्राप्त कर ली है ।

जिन्होंने भारतीयों के प्रति छिः-छिः का भाव दर्शाकर तथा यह कहकर आत्मसंतोष प्राप्त कर लिया है कि ‘भारत में अब कुछ देखने, सुनने, जानने योग्य बाकी नहीं रह गया है’, वे मेरी यह बात सुनकर आश्चर्य से स्तब्ध हुए बिना न रह सकेंगे कि जिनको वे लोग ‘नेटिव’ (आदिम) कहकर अपनी घृणा प्रदर्शित करते रहे है, उनमें इतनी अहंता (विशिष्टता) है कि वे यूरोपियनों के गुरु हो सकते हैं । उनको आश्चर्याभिभूत हो जाना पड़ेगा जब वे यह सुनेंगे कि जिन देहाती भारतीयों को वे बाजारों तथा न्यायालयों में नित्यप्रति देखा करते थे, उनके भी जीवन से हमारे यूरोपीय बंधु बहुत कुछ सीख सकते हैं ।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जनवरी 2009, पृष्ठ संख्या 12 अंक 193

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