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Tatva Gyan

परिप्रश्नेन…


साधकः भगवान सबके अंदर हैं फिर भी किसी के अंदर अच्छाई होती है, किसी के अंदर बुराई – ऐसा क्यों हो जाता है ?

पूज्य बापू जीः अरे, देखो बबलू ! विद्युत के विभिन्न उपकरणों में विद्युत एक ही होती है लेकिन गीजर पानी गरम करता है और कसाईखाने की मशीनें गायों को, बकरों को, जानवरों को काट डालती हैं । फ्रिज में पानी ठंडा होता है, माइक से आवाज दूर तक पहुँचती है । जैसा यंत्र बना है, यंत्र के प्रभाव से वैसी-वैसी अनेक क्रियाएँ, लीलाएँ होती हैं किंतु फिर भी सत्ता (बिजली) ज्यों की त्यों है । अगर क्रियाएँ, लीलाएँ अनेक न हों तो सृष्टि कैसे ? यह सृष्टि की विचित्रता है ।

जैसे सिनेमा में क्या होता है ? प्लास्टिक की पट्टियाँ और रोशनी होती है फिर भी उसमें रेलगाड़ी आयी, व्यक्ति कट गया…. दूसरी रेलगाड़ी आयी, लोग अच्छे से उतरे, तीसरी रेलगाड़ी आयी, उसमें से जानवर ही निकले । ऐसा क्यों होता है ? अरे, ऐसे ही तो चलता है सिनेमा ! सिनेमा दर्शक के लिए नये-नये रूप, रंग आदि-आदि दिखाकर उसका मनोरंजन करने के लिए है । ऐसे ही संसार में जो विचित्रता है वह भगवान को धन्यवाद देकर आनंद बढ़ाने के लिए है, तुम्हारा ज्ञान बढ़ाने के लिए समता बढ़ाने के लिए है ।

‘ऐसा क्यों होता है ? ऐसा क्यों होता है ?… अगर ऐसा नहीं होता तो तुम इधर (सत्संग में) भी नहीं होते । ऐसा हुआ तभी इधर आ गये । ऐसा क्यों न हो ? हमारा भगवान सर्वसमर्थ है । पौने आठ अरब से ज्यादा मनुष्य हैं लेकिन एक मनुष्य का चेहरा दूसरे से नहीं मिलता – ऐसा क्यों होता है ? ऐसी उसकी कला-कारीगरी है, उसकी महानता है !

साधिकाः बापू जी ! मैं ऐसा क्या करूँ जिससे मेरी भक्ति खूब बढ़े, खूब प्रगाढ़ हो ? मैं ध्यान करूँ, जप करूँ, अनुष्ठान करूँ, क्या करुँ ?

पूज्य श्रीः अरे ‘क्या करूँ, क्या करूँ ?….’ छोड़ दे । तू केवल मर जा बस ! ‘मैं करूँ, करूँ करूँ….मैं कौन होती हूँ करने वाली ?….

करन करावनहार स्वामी । सकल घटा के अंतर्यामी ।।

हे माधव ! मैं तो हूँ ही नहीं ।’ ऐसा चिंतन कर । ‘मैं करूँ, करूँ…. ‘क्या ? तरंग क्या करेगी ? तरंग अपना तरंगपना छोड़ दे तो सागर है । ऐसे ही करूँ, करूँ, करूँ… छोड़ दे, ‘मैं प्रभु की, प्रभु मेरे… ॐ आनंद, ॐ शांति ।’ ‘करूँ, करूँ…. करके काहे मजूरी करना ? करने वाले को मर जाने दे तो आत्मा का अमर पद प्रकट हो जायेगा । ठीक है न ! इन प्रश्नोत्तरों से जो मुसीबतें हटती हैं वे मेहनत से नहीं हटतीं ।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, मार्च 2021 पृष्ठ संख्या 34 अंक 339

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जीवन की माँग की पूर्ति किससे ? – पूज्य बापू जी


आत्मशांति सौंदर्य से बड़ी है, आत्मशांति संसारी दुःखों से बड़ी है, स्वर्ग से, अष्टसिद्धियों-नवनिधियों से भी बड़ी है, आत्मशांति हमारा स्वभाव है ।

मन में काम आया, आप कामी हुए, अशांत हुए, काम चला गया, आप शांत हो गये । मन में क्रोध आया, आप अशांत हुए, थक गये, क्रोध चला गया, आप शांत हुए, सोये तो थकान मिटी । मन में भय आया, आप भयभीत हुए, अशांत हुए, भय चला गया, आप शांत हो गये । मन में मोह आया, आप चिंतित हुए, अशांत हुए, मोह चला गया, आप निश्चिंत हुए, शांत हुए ।

आत्मशांति जीवन की माँग है, यह जीवात्मा का स्वाभाविक स्वरूप है । जिसके पास धन है और चित्त में शांति नहीं वह कंगाल है । जिसके पास सत्ता है और चित्त में शांति नहीं है तो क्या खाक है सत्ता !

ज्ञानं लब्ध्वा परां शान्तिं…. (गीताः 4.39)

स्व के ज्ञान (आत्मज्ञान) से परम शांति की प्राप्ति होती है । शिक्षा का ज्ञान अलग है, ‘स्व’ का ज्ञान अलग है । ऐहिक शिक्षा का ज्ञान पेट भरने के काम आता है, उसकी जरूरत है पर आत्मिक ज्ञान की उससे भी ज्यादा जरूरत है । ऐहिक ज्ञान हिटलर के पास था लेकिन आत्मशांति नहीं थी तो खुद भी दुःखी था और दूसरों को भी दुःख के, मौत के घाट उतारता था । ऐहिक ज्ञान भी और स्व को आनंदित करने का, शांत रखने का, समाधिस्थ करने का ज्ञान भी है । राम जी में ऐहिक ज्ञान भी है, स्व को शांत करने का सामर्थ्य भी है । पूर्ण जीवन उन्हीं का होता है जो आत्मशांति पाना जानते हैं । कार्य करने के पहले शांति होती है, कार्य करने के बाद भी शांति होती है तो कार्य ऐसे ढंग से करो कि जब चाहो तब परम शांति का स्वाद ले सको । जब वासना के अधीन होकर कर्म करते हैं तो भय, अशांति, उद्वेग, चिंता आदि आपकी शक्तियों को क्षीण कर देते हैं । जब वासना को छोड़कर कर्तव्य समझ के कर्म करते हैं और फल की आकांक्षा नहीं करते तो आपको शांति, सामर्थ्य, प्रसन्नता, निश्चिंतता आदि सद्गुण आ प्राप्त होते हैं ।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, मई 2021, पृष्ठ संख्या 5, अंक 341

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यह कर लो सारी परेशानियाँ भाग जायेंगी ! – पूज्य बापू जी


एक होती है सत्-वस्तु, दूसरी होती है मिथ्या वस्तु । मन की जो कल्पनाएँ, जो फुरने हैं वह है मिथ्या वस्तु । ‘यह करूँगा तो सुखी होऊँगा’, ‘यह पाऊँगा तो सुखी होऊँगा’, ‘यहाँ जाऊँगा’ तो सुखी होऊँगा’…. इन वस्तुओं में उलझ-उलझकर है आपने अपने जीवन को टुकड़े-टुकड़े कर डाला है ।

सत्-वस्तु से तात्पर्य है अपना आत्मा-परमात्मा । सत्संग के द्वारा सत्वगुण बढ़ाकर हम अपने उस सत्यस्वरूप को पा लें । तो चीजें होती हैं- एक होती है नित्य, दूसरी होती है मिथ्या । बुद्धिमान व्यक्ति वही है जो मिथ्या वस्तु के बजाय नित्य वस्तु को पसन्द करे, सत्-वस्तु को पसंद करे । वास्तव में सत्-वस्तु तो एक ही है और वह है परमात्मा । फिर उसे परमात्मा कहो या आत्म्, ब्रह्म कहो या ईश्वर, राम कहो या शिव…. सब तत्त्वरूप से एक ही है ।

मानव को जो नित्य है उसकी प्राप्ति का यत्न करना चाहिए और जो मिथ्या है उसका उपयोग करना चाहिए और जो मिथ्या है उसका उपयोग करना चाहिए । परंतु आप करते क्या हैं ? जो नित्य है उसकी ओर ध्यान ही नहीं देते और मिथ्या की प्राप्ति में ही अपना पूरा जीवन नष्ट कर डालते हैं । जो वस्तु मिलती है वह पहले हमारे पास नहीं होती तभी तो मिलती है और बाद में भी वह हमारे पास से चली जाती है मिथ्या होने से । जो पहले नहीं था वह मिला और जो मिला उसे छोड़ना ही पड़ेगा । किंतु परमात्मा मिलता नहीं इसलिए वह छूटता भी नहीं, वह सदा प्राप्त है ।

ऐसी कोई मिली हुई वस्तु नहीं जिसे आप सदा रख सकें । आपको जो वस्तु मिली, मिलने से पूर्व वह आपके पास नहीं थी, तभी तो मिली । अतः जो वस्तु आपको मिली वह आपकी नहीं है और जो आपकी नहीं है वह आपके पास सदा के लिए रह भी नहीं सकती । देर-सवेर उसे आपको छोड़ना ही पड़ेगा या तो वह वस्तु स्वयं आपको छोड़कर चली जायेगी । चाहे फिर नौकरी हो, मकान हो, परिवार हो, पति हो, पत्नी हो, चाहे तुम्हारी स्वयं की देह ही क्यों न हो…. देह भी तुम्हें मिली है अतः देह को भी छोड़ना पड़ेगा ।

बचपन मिला था, छूट गया । जवानी तुम्हें मिली है, छूट जायेगी । बुढ़ापा तुम्हें मिलेगा, वह भी छूट जायेगा । मौत भी आकर छूट जायेगी लेकिन तुममें मिलना और छूटना नहीं है क्योंकि तुम शाश्वत हो । जो मिली हुई चीज है उसको आप सदा रख नहीं सकते और अपने आपको छोड़ नहीं सकते, कितना सनातन सत्य है ! लोग बोलते हैं कि संसार को छोड़ना कठिन है किंतु संत कहते हैं, संतों का अनुभव है कि संसार को सदा रखना असम्भव है और परमात्मा को छोड़ना असम्भव है । ईश्वर को आप छोड़ नहीं सकते और संसार को आप रख नहीं सकते ।

बचपन को आपने छोड़ने की मेहनत की थी क्या ? नहीं ! छूट गया । जवानी को छोड़ना चाहते हो क्या ? अपने-आप छूट रही है । बुढ़ापे को आप छोड़ना चाहते हो क्या ? अरे, आप रखना चाहो तो भी छूट जायेगा । ऐसे ही निंदा छोड़ूँ… स्तुति छोड़ूँ… मान छोड़ूँ… अपमान छोड़ूँ… नहीं, सब अपने-आप छूटते जा रहे हैं । एक साल पहले जो तुम्हारी निंदा-स्तुति हुई थी उसका दुःख या सुख आज तुम्हें होता है क्या ? नहीं, पुराना हो गया । पहले दिन जो निंदा हुई वह बड़ी भयानक लगी होगी, जो स्तुति हुई वह मीठी लगी होगी किंतु आज देखो तो वे पुरानी हो गयीं, तुच्छ हो गयीं । संसार की ऐसी कोई परिस्थिति नहीं जिसे आप रख सकें । आपको छोड़ना नहीं पड़ा है भैया ! सब छूटा चला जा रहा है । जिसको आप कभी छोड़ नहीं सकते वह है सत्-वस्तु और जिसको आप सदा रख नहीं सकते वह है मिथ्या वस्तु । अतः मिथ्या का उपयोग करो और सत् का साक्षात्कार कर लो । सत्संग यही सिखाता है ।

दो वस्तु देखी गयी हैः एक वह है जो बह रही है और दूसरी वह है जो रह रही । बहने वाली वस्तु है संसार और रहने वाली वस्तु है परमात्मा । बहने वाली वस्तु के बहने का मजा लो और रहने वाली वस्तु का साक्षात्कार करके रहने का मजा ले लो  सदा मजे में ही रहोगे । व्यक्ति तब दुःखी होता है जब बहने वाली वस्तु को रखना चाहता है और रहने वाली वस्तु से मुख मोड़ लेता है ।

जब-जब दुःख और मुसीबतों से व्यक्ति घिर जाय तब-तब वह समझ ले कि बहने वाले मिथ्या जगत की आसक्ति उसको परेशान कर रही है और रहने वाले आत्मा के विषय का उसको ज्ञान नहीं है, उसकी प्रीति नहीं है इसीलिए वह परेशान है । जब भी मुसीबत आये… दुःख, चिंता, शोक, भय – ये तमाम प्रकार की जो मुसीबतें हैं, इन सारी मुसीबतों का एक ही इलाज है कि बहने वाली वस्तु को बहने वाली मानो और रहने वाले आत्मा से प्रीति कर लो तो सारी परेशानियाँ भाग जायेंगी ।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, अप्रैल 2021, पृष्ठ संख्या 4,5 अंक 340

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जीवन पवित्र कब ?

मनुष्य के व्यवहार में दो ही बातें देखने योग्य होती हैं- एक तो वह बोलता क्या है और दूसरा वह सोचता क्या है ? जब कोई पवित्र वाणी बोलता है और पवित्र वस्तु के बारे में विचार करता है तब समझो कि उसका अंतःकरण पवित्र है, उसका जीवन पवित्र है । अन्यथा जो सोचने में भी दुष्ट और बोलने में दुष्ट हो उसका जीवन तो दुष्टता से भरपूर होता ही है ।

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