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Tatva Gyan

परमात्मप्राप्ति की आधारशिला – पूज्य बापू जी


‘बीमारी है, थकान है तो शरीर को है, चिंता है तो मन को है, राग-द्वेष है तो बुद्धि में है लेकिन प्रभु ! मुझमें तो तू और तुझमें मैं…’ ऐसा चिंतन बड़ा आसान तरीका है ईश्वरप्राप्ति का । यह आधारशिला मिलेगी तो जहाँ-तहाँ पवित्र होने के लिए भागना नहीं पड़ेगा, जब जरूरत पड़ी तब पवित्र हो गये ।

चलो, पाप नष्ट हुए, हृदय पवित्र हुआ लेकिन वह फिर मैला हो जाय उसके पहले ही बीच में अपना काम ( परमात्मप्राप्ति ) कर लो । पवित्र हृदय हो तो ठीक है और थोड़ा उन्नीस-बीस भी हो तो भी उस सच्चिदानंदस्वरूप परमात्मदेव की चर्चा, चिंतन पवित्र कर देंगे, कमी पूरी कर देंगे । यह जरूरी थोड़े ही कि 100 प्रतिशत अंक आयें तभी विद्यार्थी पास होगा, 60 प्रतिशत वाला भी पास हो जाता है, 50 प्रतिशत वाला भी द्वितीय श्रेणी में पास हो जायेगा, और कमवाला तृतीय श्रेणी में भी तो निकल जायेगा ( पास हो जायेगा ) ।

तो हृदयशुद्धि का फायदा उठा लें । जीवनभर हृदयशुद्धि… हृदयशुद्धि…! जीवनभर कर्म… कर्म… कर्म करें तो करें लेकिन कर्म के फल को समझें । एक कर्म होते हैं बाहर की इच्छा से, उनका फल नाशवान होता है । सुख देकर पुण्य का फल चला जायेगा, दुःख दे के पाप का फल चला जायेगा । दूसरा कर्म है कि हृदय को शुद्ध करके हृदयेश्वर को पा लें – ईश्वर-अर्पण- कर्म । ईश्वर-अर्पण कर्म करके ईश्वर को पा लें । ईश्वर मिला तो फिर न पुण्य बाँधेगा न पाप बाँधेगा, न दुःख बाँधेगा न सुख बाँधेगा, न जन्म होगा न मृत्यु होगी ।

‘हे प्रभु ! हे हरि ! हे अच्युत ! हे अनंत ! हे गोविंद !… ‘ इस प्रकार चिंतन करते-करते उस वामन-विभु सूक्ष्म व व्यापक परमात्मदेव में विश्रांति पायेंगे तो आधारशिला मिल जायेगी । जिससे व्यापक विभु में विश्रांति मिलती है उसका सारा व्यवहार अभिनय हो जाता है । इसलिए ब्रह्मज्ञानी के लिए बोलते हैं कि ‘ये जीवन्मुक्त हैं, जीते-जी मुक्त हैं ।’

ब्रह्म गिआनी की मिति ( परिमाण, माप उनकी स्थिति का अनुमान ) कउनु बखानै ।

ब्रह्म गिआनी की गति ब्रह्म गिआनी जानै ।।

जिसको पाना कठिन नहीं है, जो दूर नहीं है, दुर्लभ नहीं है, परे नहीं है, पराया नहीं है और जिसको पाने के बाद कुछ पाना बाकी नहीं रहता ऐसे महान परमात्मदेव का ज्ञान पा लेना चाहिए ।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जनवरी 2022, पृष्ठ संख्या 2 अंक 349

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अभेद दृष्टि लायें, चिंतन अनन्य बनायें – पूज्य बापू जी


भक्त परमात्मा से विभक्त नहीं होता । वह ‘अनन्यचेताः’ – अनन्यचित्त वाला हो जाता है । फिर उसको ‘योग’ ( अप्राप्त की प्राप्ति ) और ‘क्षेम’ ( प्राप्त की सुरक्षा ) की चिंता नहीं करनी पड़ती है । क्या साधन करना, कैसा साधन करना इसकी उसे अपने-आप सत्संग के द्वारा, किसी-न-किसी महापुरुष के द्वारा, किसी-न-किसी स्वप्न के द्वारा प्रेरणा मिल जाती है ।

सनातन धर्म के 5 देवों की पूजा करने की यह अद्भुत महिमा और अद्भुत चमत्कार है, इनकी पूजा का यह फल है कि तुम्हारा ऐहिक जीवन तो पवित्र हो और साथ ही तुम्हें परम पद की प्राप्ति भी हो इसलिए वे तुमको प्रेरित करके किसी-न-किसी हयात ब्रह्मवेत्ता महापुरुष के सत्संग में भेज देंगे और सत्संग के लिए तुमको लालायित कर देंगे । तुम्हें अज्ञानी नहीं रखेंगे, तुम्हें अभक्त नहीं रखेंगे, तुम्हें केवल बुतपरस्ती में यानी मूर्तिपूजा में ही नहीं रोक रखेंगे । अमूर्त आत्मा का ज्ञान भी तुम्हारे जीवन में आये ऐसी उन इष्टों की कृपा और करुणा रहती है ।

… तो समझो तुम्हारा दिल दिलबर ने पसंद कर लिया

किसी-न-किसी देव की कोई पूजा तुम्हारी सफल हुई है और अंतर्यामी देव ने यह स्वीकार कर ली है इसलिए तुमको ब्रह्मज्ञान के सत्संग में रुचि हुई है और तुम सत्संग का लाभ ले पा रहे हो, नहीं तो सत्संग का लाभ नहीं ले सकता व्यक्ति ।

तुलसी पूर्व के पाप से हरिचर्चा न सुहाय ।

पूर्व के तो पाप क्या, अभी कलियुग के वर्तमान के भी पाप हैं ।  जब तक अज्ञान है तब तक कुछ-न-कुछ पाप हैं, फिर भी हमको सत्संग रुच रहा है तो हमारे इष्ट की कृपा है, हमारी पूजा उस प्यारे ने स्वीकार कर ली है । फिर चाहे मंदिर में पूजा नहीं की तो किसी गरीब के आँसू पोंछने के रूप में पूजा की, किसी भूखे को अन्न देने, किसी को वस्त्र देने की पूजा की, किसी लाचार-मोहताज को हिम्मत और कुछ सहयोग करने की पूजा की… पूजा के कई स्वरूप होते हैं । चाहे माता की सेवारूपी पूजा हो गयी अथवा पिता की आज्ञा पालने की तुम्हारे द्वारा पूजा हो गयी… तुम्हारे द्वारा कुछ-न-कुछ उस परमेश्वर की ऐसी पूजा हुई है जो उस प्यारे को पसंद आयी है, तभी उसने तुम्हारा दिल पसंद किया है और तुमको दिलबर के सत्संग में रुचि हुई है, नहीं तो नहीं हो सकती है ।

अब रुचि हुई तो भगवान कहते हैं- ″इसको अनन्य बना लो, बस !

अनन्याश्चिन्तयन्तो मां ये जनाः पर्युपासते ।

तेषां नित्याभियुक्तानां योगक्षेमं वहाम्यहम् ।। ( गीताः 9.22 )

जो लोग अभेद दृष्टि1 से मेरा चिंतन करते हुए सब ओर मेरी उपासना करते हैं, निरंतर आदरपूर्वक मेरे ध्यान ( चिंतन ) में लगे हुए उन पुरुषों के योगक्षेम का मैं वहन करता हूँ । उनको कौन-सी वस्तु की, कौन-सी परिस्थिति की आवश्यकता है उसकी व्यवस्था मैं करता हूँ ।″

1 जड़ चेतन सर्वत्र जो कुछ भी है सब परमात्मा ही है ऐसी दृष्टि ( जड़ चेतन जग जीव जत सकल राममय जानि । – संत तुलसीदास जी )

संत तुलसीदास जी की अभेद दृष्टि

संत तुलसीदास जी अरण्य में विचरण करने जा रहे थे । एक सुंदर, सुहावना वृक्ष देखकर वे उसकी छाया में बैठ गये और सोचने लगेः ‘प्रभु ! क्या आपकी लीला है ! आप कैसे फूलों में, फलों में निखरे हैं ! आपने वृक्ष के अन्दर रस खींचने की कैसी लीला की है और कैसे रंग दे रखे हैं ! मेरे प्रभु ! आप कैसे सुहावने लग रहे हैं, मेरे राम जी !’

प्रभु की लीला देखते-देखते तुलसीदासजी आनंदित हो रहे थे । इतने में कोई लकड़हारा वहाँ से निकला और पेड़ पर चढ़कर धड़… धड़… करके वृक्ष काटने लगा । तुलसीदास जी घबराये और लकड़हारे के पास जाकर बोलेः ″भैया ! मैं तेरे पैर पकड़ता हूँ, तू मेरे प्रभु को मत मार ।″

लकड़हाराः ″महाराज ! मैं आपके प्रभु को तो कुछ नहीं कर रहा हूँ !″

″नहीं, चोट तो पहुँच रही है… मुझे पेड़ नहीं, पेड़ में मेरे प्रभु दिख रहे हैं । तू उनके इस रूप को न मार, चाहे मेरे इस शरीर को मार दे । मैं तेरे आगे हाथ जोड़ता हूँ ।″

″महात्मन् ! यह क्या हो गया है आपको ?″

″देखो, वे प्रभु कैसा सुंदर रूप लेकर सजे-धजे हैं और तुम उनके हाथ-पैर काट रहे हो । ऐसा न करो, मेरे हाथ काट लो ।″

अभेद दृष्टि से सम्पन्न तुलसीदास जी के भावों का ऐसा प्रभाव पड़ा कि लकडहारे का मन बदल गया और वह आगे चला गया ।

सबकी गहराई में परमेश्वर को देखें

एक बार संत तुलसीदास जी यात्रा करते-करते किसी शांत वातावरण में बैठ गये । वहाँ से कभी हिरणों के झुंड गुजरते तो कभी अन्य प्राणियों के । वहाँ से गुजर रहे हिरणों के झुंड को देखकर वे सोचने लगेः ‘प्रभु ! क्या आपकी लीला है ! कैसी प्यारी-प्यारी आँखें हैं, आपने कैसा निर्दोष चेहरा बनाया है मेरे राम जी !’

तभी एक शिकारी तीर लेकर बारहसिंगे पर निशाना साध रहा था । तुलसीदास जी समझ गये । शिकारी के पास गये और बोलेः ‘यह क्या करता है ? मेरे ठाकुर जी, मेरे राम जी इतने सुंदर-सुंदर दिख रहे हैं । तू इनको न मार । भैया ! मारना है तो मुझे मार ।’

…तो ये जो महात्मा लोग, आत्मज्ञानी संत हैं वे तो तत्त्व में टिके हुए होते हैं किंतु भाव से सब जगह – कीड़ी में, हाथी में, माई में, भाई में – सबकी गहराई में परमेश्वर को देखते हैं । यह अनन्यता है ।

संतप्रवर तुलसीदासजी की वाणी हैः

सीय राममय सब जग जानी ।

करउँ प्रनाम जोरि जुग पानी ।। ( श्री रामचरित. बा. कां. 7.1 )

भगवान के की तुलसीदास जी की कुटिया की रखवाली

तुलसीदासजी भगवान का अनन्य भाव से भजन करते थे । एक बार उनके यहाँ उत्सव पूरा हुआ । कुछ चोरों ने सोचा कि ‘आज तो महाराज के पास बहुत माल होगा ।’ अतः वे मध्यरात्रि में तुलसीदास जी की कुटिया पर चोरी करने आये । देखते हैं कि कुटिया के द्वार पर दो धनुर्धारी खड़े हैं । एक का वर्ण श्याम है और दूसरे का गौर, एक बड़े भैया और एक छोटे भैया दिखाई दे रहे हैं । चोरों को हुआ ‘पहरेदार बड़े चौकन्ने हैं । अभी चलो, जब वे ऊँघने लगेंगे तब आयेंगे ।’ लेकिन ये चौकीदार सोने वाले चौकीदार नहीं हैं, ये तो सदा जागते हैं प्राणिमात्र के अंतःकरण में । चोर दूसरी बार फिर आये, देखा कि पहरेदार खड़े हैं तो चले गये… थोड़ी देर बाद फिर आये तो देखा वे ही पहरेदार…. चौथी बार आये, देखा… ! इस प्रकार वे रात्रि में कई बार आये पर हर बार पहरेदार सजग मिले । अब प्रभात होने को आया । ऐसे रात भर में कई बार देखते-देखते चोरों का मनोभाव बदल गया । तुलसीदास जी उठकर बाहर आये तो चोर उनके चरणों में गिर के फूट-फूट के रोने लगे एवं कहने लगेः ″महाराज ! हम आये थे आपकी कुटिया में चोरी करने किंतु आपके चौकीदार ऐसे सजग कि बस पूरी रात पहरा दे रहे थे । आपके पहरेदारों को बार-बार देखकर हमारा मन बदल गया है । अब हमें चोरी तो नहीं करनी है लेकिन एक बार फिर से अपने पहरेदारों के दर्शन करवा दीजिए । महाराज ! अपने उन चौकीदारों का मुखड़ा दिखा दीजिये ।

तुलसीदास जी बोलेः ″कौन पहरेदार ? मेरे पास कोई पहरेदार नहीं है ।″

″महाराज ! दो थे । एक थोड़े ऊँचे आजानुबाहू ( घुटनों तक लटकने वाले लम्बे हाथों वाले, यह बहुत बड़े कर्मठों या वीरों का लक्षण है । ) एवं साँवले सलोने थे और दूसरे थोड़े छोटे एवं गौर वर्ण के थे । दोनों भाई-भाई जैसे लग रहे थे । उनको देख-देखकर इतना अच्छा लगा कि अब हमारा चोरी करने का भाव ही नहीं रहा । आप तो केवल एक बार अपने पहरेदारों का दर्शन करवा दीजिये ।

तुलसीदास जी ने सोचाः ″मैं इतना परिग्रही हो गया हूँ कि मेरी वस्तुओं को सम्भालने के लिए भगवान को अपने भैया के साथ चौकीदार होना पड़ता है ।’ तुलसीदास जी ने सारा सामान गरीब गुरबों में बाँट दिया ।

कैसे करुणामय हैं भगवान कि वे भक्त की पहरेदारी करने आ गये और कितनी दिव्य समझ है भक्त की कि ‘प्रभु को कष्ट हुआ…’ यह जानकर सर्वत्याग कर दिया !

स्रोतः ऋषि प्रसाद, दिसम्बर 2021, पृष्ठ संख्या 7,8 अंक 348

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ब्रह्मनिष्ठ महापुरुषों की सिद्धान्त-निष्ठा – पूज्य बापू जी


रावण के समकालीन एक बड़े उच्च कोटि के सम्राट – चक्ववेण हो गये । वे राज्य का मंगल चाहते थे । राज्य तो छोटा-सा था लेकिन प्रभाव इतना था कि उनकी सराहना स्वर्ग में भी होती थी । ऋषि मुनि, साधु-संत बोलते थे कि ‘हम तो साधुवेश में साधु हैं किंतु चक्ववेण राजा-वेश में साधुओं से आगे हैं ।

कुसंग का प्रभाव, रानी का बदला भाव

कुछ मनचली माइयाँ, सेठानियाँ गहने-गाँठे पहनकर महारानियाँ बन के राजा चक्ववेण की पत्नी के दर्शन करने को आयीं । उन्होंने देखा कि रानी साहिबा की साड़ी तो हाथ से काती हुई रूई के कपड़े की है और घर में भी सादा-सूदा भोजन बनता है ।

मनचली माइयाँ रानी से बोलीं- ″तुम्हारे पास तो गहने गाँठे, हार, सिंगार कुछ भी नहीं ! हमारे नौकरों के घर से भी तुच्छ तुम्हारे घर में… ऐसे बर्तन, ऐसे कपड़े… !″

एक सेठानी ने कहाः ″हम तो नौकरानियों को भी ऐसे कपड़े पहनने नहीं देतीं !″

दूसरी ने साथ आयी अपनी नौकरानी की ओर संकेत करते हुए कहाः ″इसके कपड़े देखो और महारानी ! आपके कपड़े देखो ।″

तीसरी ने अपनी नौकरानी की सहेली जो गहने-गाँठे वाली थी, उसकी ओर संकेत करते हुए कहाः ″यह हमारी नौकरानी की सहेली है, इसको भी हम ठीक-ठाक रखते हैं और तुम महारानी… तुम्हारा पति तुमको ऐसा नौकरानी से भी गया-बीता रखता है । ( दुःख व्यक्त करते हुए ) ऐ हे ! आप सहन कर रही हो ! कब तक सहोगी ? माता जी ! हमें बड़ा दुःख होता है ।″

माता जी जरा भोंदू थी, बुद्धु थी, ऐसी नहीं थी कि ‘सुनाने वाले बुद्धु बना रहे हैं’ यह समझकर उनका मुँह बन्द करा दे ।

जिनमें जगत की सत्यता का भूत घुसा होता है न, वे दूसरों में वही भूत घुसेड़ते हैं । धर्म में रुचि नहीं, साधन-भजन में रुचि नहीं… फरियाद करने और भिड़ाने की आदत जिनको होती है वे कहीं भी रहें, वही काम करते हैं ।

तो वे मनचली माइयाँ चक्ववेण राजा की पत्नी को ऐसा तो बहका गयीं कि वह सचमुच सोचने लगी कि ‘हमारे पति तो सारा जीवन हमको ‘मितव्ययिता-मितव्ययिता’ बोलते रहते हैं । ये तो सेठानियाँ हैं और मैं रानी हूँ । इनकी दासियों से भी मेरी हालत बुरी ! सचमुच, आज तक मेरे पति के प्रभाव में रहकर मैं कुछ बोलती नहीं थी, ये लोग तो सुखी हैं और मैं दुःख देख रही हूँ ।’

चक्ववेण राजा की पत्नी को वे पापिनियाँ ऐसा भिड़ा के गयीं कि उसकी शांति भंग हो गयी, साधुपुरुष की पत्नी और एक नौकर की औरत से भी ज्यादा नीचे गिर गयी । नौकरों की पत्नियाँ कितना कष्ट सहती हैं और खुश रहती हैं किंतु जो चक्ववेण राजा साधु थे, प्रसिद्ध थे और उनकी जिस पत्नी को लोग माता जी-माता जी करके आदर देते थे, वह माई इतनी दुःखी हो गयी कि नौकर की औरत से भी गयी-बीती हो गयी । शब्दों का कैसा प्रभाव ! निंदा कितना खतरनाक जहर है ! दोष-दर्शन अपना कितना अकल्याण कर देता है !

पति चक्ववेण आये और उसको उदास देखकर बोलेः ″क्या बात है, आज उदास हो ?″

बोलीः ″बस, हमारा भाग्य भगवान ने ऐसा बना दिया ! अब बुढ़ापा थोड़ा बीत जायेगा… ।″ सिसक-सिसक के रोने लगी ।

″अरे ! तेरे को इतना दुःख ! ऐसी विपदा कहाँ से आयी ?″

″देखो, विधाता ने हमारे जीवन में विपदा ही लिखी है !″

″आज तक तो पूजी जा रही थी, इतने लोग तेरे को ‘माता जी-माता जी’, राजमाता’ कहते हैं… ।″

वह रोती हुई बोलीः ″इससे क्या होता है ! मेरा तो नौकरानी जितना भी आदर नहीं । अरे, सेठानियों की नौकरानी की सहेली – कुमड़ी को मैंने देखा, उसके कपड़े भी अच्छे थे और मेरे को ये देखो… मैं तो उससे भी गयी बीती हूँ ! मैं तो सारा जीवन सहती रही, बाकी थोड़े दिन हैं, बुढ़ापे में सह लूँगी… ।″

चक्ववेण ने देखा कि इसको बुद्धि भ्रष्ट करने वाली अभागिनियाँ मिल गयी हैं । चक्ववेण ने बड़ा परिश्रम किया तो बाई ने सारी बातें बता दीं । उन्होंने कहाः ″अच्छा तो तुमको अब ठीक-ठाक कपड़े चाहिए, गहने-गाँठे चाहिए !″

बोलीः ″अब क्या ! थोड़ा सा जीवन है, यूँ ही मर जाऊँगी ।″

″नहीं-नहीं । किंतु देखो, यह प्रजा का पैसा है, प्रजा की धरोहर है । अधर्म तो हम नहीं कर सकते हैं पर एक उपाय है ।″

फिर राजा ने मंत्री को बुलाया और कहाः ″तुम्हारी माता जी के गहने-गाँठे और कपड़े के लिए मुझे धन चाहिए । अपने लिए प्रजा पर कर डालना यह राजा के लिए उचित नहीं है । प्रजा तो अपने आश्रित है । आश्रित का शोषण करके, उन पर कर डाल के राजा भोग विलास करे या रानी को ऐश कराये तो नरक में जाय ।

मंत्री ! सुनो, रावण बलवान है । तुम जाओ, उसे कह दो चक्ववेण राजा की आज्ञा है कि ‘सवा मन सोना दे दो । और दया-धर्म में नहीं, दान में नहीं… तुम कभी-कभी हमारे राज्य से उड़ान भरते हो, उसका तुम पर कर डाला जाता है ।″

ब्रह्मज्ञानी के नाम की दुहाई का प्रभाव

मंत्री गया और राजा चक्ववेण का संदेशा सुनाया तो रावण ‘ हा हा हा हा हा….!’ करके खूब हँसा, बोलाः ″मुट्ठीभर लोगों के एक छोटे से राज्य, तहसील भी न बने इतने लोगों का अगुआ राजा चक्ववेण और सम्राट रावण पर कर ! हा हा हा हा…. ! अच्छी सुनायी ! बहुरत्ना वसुन्धरा । धरती पर कई रत्न पड़े हैं ।

मंत्रीः ″महाराज ! राजा की आज्ञा मैंने आपको सुनायी है । आप चक्ववेण जी को साधारण न समझिये और आप यदि लंका की सुरक्षा चाहते हो तो सवा मन सोना दिलवा दीजिये, नहीं तो फिर राजा चक्ववेण की दुहाई से कुछ भी हो सकता है !″

″क्या मतलब ? अच्छा जाओ ! क्या हो सकता है जरा दिखाना ।″

″अच्छा महाराज !″

मंत्री समुद्र-तट पर चला गया । रातभर उसने मिट्टी-विट्टी इकट्ठी कर के, पीले फूल-वूल लाकर थोड़े रगड़-वगड़ के सोने की लंका दिखे ऐसा नमूना बनाया और रावण के पास जा के कहाः ″महाराज ! मैं आपको एक कौतूहल दिखाना चाहता हूँ । आप समुद्र-तट पर चलिये ।″

रावण सभासदों सहित वहाँ गया ।

मंत्री ने कहाः ″मैंने लंका का नमूना तैयार किया है । यहाँ नमूने की लंका के पूर्व-द्वार के कँगूरों (शिखरों) को गिराऊँगा तो वहाँ तुम्हारे पूर्व-द्वार के कँगूरे गिरते दिखेंगे । भवन को यहाँ तोड़ूँगा तो वहाँ तुम्हारा भवन धराशायी होगा ।

चक्ववेण राजा को आप क्या समझते हो ! वे ब्रह्म-परमात्मा से एकाकार हुए साधुपुरुष हैं ! राजा हैं लेकिन ब्रह्मज्ञानी राजा हैं । ब्रह्मज्ञानी की निंदा करने वाले का पुण्य और प्रसन्नता नष्ट हो जाते हैं, बुद्धि मारी जाती है और ब्रह्मज्ञानी की सेवा करने वाले की प्रसन्नता, पुण्य और बुद्धि का विकास होता है महाराज !″

रावण ने कहाः ″तुम्हारे चक्ववेण राजा के नाम की दुहाई से…!″

″हाँ महाराज !″

मंत्री ने तनिक चिंतन किया चक्ववेण राजा का । ‘ॐ श्री परमात्मने नमः…. ‘ करके थोड़ा शांत होकर संकल्प कियाः ″चक्ववेण राजा की दुहाई से पूर्व द्वार के कँगूरे गिर जायें ।″

मंत्री ने नमूने के पूर्व-द्वार के कँगूरे गिराये तो असली लंका के पूर्व द्वार के कँगूरे गिर गये ।

मंत्री ने कहाः ″महाराज ! राजा चक्ववेण की दुहाई से लंका नष्ट करने के लिए मैं अकेला ही काफी हूँ ।″

रावण ने कहाः ″भाई ! तू चुपचाप सवा मन सोना ले जा । किसी को बताना नहीं ।″

सत्संग का प्रभाव, रानी का मिटा कुभाव

मंत्री सोना लेकर गया और रानी के सामने राजा के चरणों में रखा । रानी को बड़ा आश्चर्य हुआ, बोलीः ″इतना बड़ा सम्राट लंकेश ! और सवा मन सोना हमारे राजा साहब के नाम से दे देता है !″

मंत्री ने कहाः ″नहीं माता जी ! पहले तो नहीं दे रहा था और मान रहा था कि धरती पर छोटे-से राज्य के  राजा चक्ववेण जैसे भी लोग हैं और मेरी भी उसने खूब खिल्ली उड़ायी लेकिन मैं तो महाराज जी को जानता हूँ कि ब्रह्मज्ञानी हैं ।

ब्रह्मज्ञानी का निंदक महाहत्यारा, ब्रह्मज्ञानी का निंदक परमेश्वर मारा । तो जो ब्रह्मज्ञानी की निंदा करते हैं, सुनते हैं, सुनवाने में भाग लेते हैं उनकी तो मति मारी जाती है । इसलिए मैं ज्यादा खड़ा नहीं रहा और मैंने जाकर सोने की लंका का नमूना बनाया और रावण को बुलाया…″ और क्या-क्या किया वह सारी बात सुना दी ।

मंत्री की बातें सुनीं तो रानी पति के चरण पकड़कर माफी माँगती है कि ″देव ! मुझे यह बाहर का सोना, गहने-गाँठे, हीरे नहीं चाहिए, मुझे तो आप हीरों-के-हीरे, गहनों के गहने’ पतिरूप में मिले हैं, मैं भाग्यशाली हूँ । न जाने मेरी कैसी विलासी माइयों से बातचीत हुई और मेरी बुद्धि बिगड़ी महाराज ! अब मैं आपकी बुद्धि की शरण आती हूँ, मुझे क्षमा करें !″

राजा ने पत्नी को सत्संग की दो बातें सुनायीं । अपना बल-बुद्धि, योग्यता दूसरों के दुःख मिटाने के लिए है, आपको सुख के लिए कुछ नहीं चाहिए । आपका अपना आपा परम सुखस्वरूप है ।

मति कीरति गति भूति भलाई ।

जब जेहिं जतन जहाँ जेहिं पाई ।।

सो जानब सत्संग प्रभाऊ ।

लोकहूँ बेद न आन उपाऊ ।।

‘जिसने जिस समय, जहाँ कहीं भी जिस किसी यत्न से बुद्धि, कीर्ति, सद्गति, विभूति (ऐश्वर्य) और भलाई पायी है, वह सब सत्संग का ही प्रभाव समझना चाहिए । वेदों में और लोक में इनकी प्राप्ति का दूसरा कोई उपाय नहीं है ।’ ( श्री रामचरित. बा. कां. 2.3 )

जो सत्य के संग का प्रभाव है वह लोकों में और वैदिक कर्मों में भी नहीं है । मंत्री सवा मन सोना फिर वापस ले गया और रावण को कहाः ″राजा साहब की पत्नी को विलासी माइयों के कुसंग से कुविचार उत्पन्न हुए थे और राजा का सत्संग  मिलने से सुविचार आये । बाहर के गहने-गाँठों से सुखी होने की बेवकूफी अब छूट गयी है, अंतरात्मारूपी हीरे से वे प्रसन्न हो गयीं । इसलिए राजन् ! सवा मन सोना आप वापस ले लीजिये ।″

लंकेश देखता ही रह गया कि ‘हद हो गयी ! ऐसे पुरुषों के कारण ही पृथ्वी चल रही है ।’

स्रोतः ऋषि प्रसाद, नवम्बर 2021, पृष्ठ संख्या 22-25 अंक 347

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