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Anmol Yuktiyan

स्वस्तिक का महत्त्व क्यों ?



स्वस्तिक बनाने की विधि और उसके लाभ
पूज्य बापू जी के सत्संग-वचनामृत में आता हैः “स्वस्तिक बनाते
समय पश्चिम से पूर्व की तरफ और उत्तर से दक्षिण की तरफ लकीरें
खींच के धन का चिह्न इस प्रकार बनाना चाहिए कि उन लकीरों के
बिल्कुल मध्य में वे आपस में मिलें । फिर धन चिह्न के आखिरी छोर
वाले बिन्दुओं से दक्षिणावर्त दिशा में (घड़ी की सुइयों की घूमने की दिशा
में, क्लॉकवाइज़) चार लकीरें बनायें । कई लोग विपरीत दिशा में
(एण्टीक्लॉकवाइज) लकीरें बनाते हैं तो फिर विपरीत प्रभाव होता है ।
स्वस्तिक की प्रत्येक दो भुजाओँ के बीच में एक-एक बिंदी लगानी चाहिए
और धन के चिह्न के केन्द्रबिन्दु में (जहाँ रेखाएँ एक-दूसरे को काटती
हैं) एक बिंदी लगानी चाहिए ।
गोझरण, गंगाजल, कुमकुम, हल्दी और इत्र – इन पाँच चीजों का
मिश्रण बनाकर अगर सही ढंग से स्वस्तिक बना दें तो उसका प्रभाव बढ़
जायेगा । स्वस्तिक में दैविक विधान से, और इन पाँच चीजों से
वातावरण की ऋणात्मक ऊर्जा को धनात्मक ऊर्जा में बदलने की शक्ति
आ जायेगी । वह स्वस्तिक अपने घर की दीवाल पर लगा दीजिये,
वास्तुदोष की ऐसी-तैसी । घर में यदि वास्तु दोष है तो किसी संगमरमर
के पत्थऱ पर स्वस्तिक खिंचवा लें । फिर उस स्वस्तिक के ऊपर इस
मिश्रण को लगा के उसे घर के कोने में गाड़ दीजिये । वास्तुदोष की
समस्या खत्म हो जायेगी । इससे घर के कलह और बीमारियाँ दूऱ
भगाने में मदद मिलेगी ।
आप साधना के स्थान पर ऐसा स्वस्तिक रख के या बनाकर उस
पर आसन लगा के भजन-ध्यान करें तो उनमें बरकत आयेगी । आप

जिस पलंग पर सोते हैं उसके नीचे ऐसा स्वस्तिक कपड़े पर अथवा फर्श
पर, जैसा जिसको अनुकूल पड़े, बना दें । आपको यह ऊर्जादायी
स्वस्तिक मदद करेगा । ॐकार का, स्वस्तिक का दर्शन उल्लास और
ऊर्जाप्रदायक है ।
डॉ. डायमंड ने गहरे अध्ययन और खोज के बाद कहा कि
‘स्वस्तिक को देखने से भी जीवनीशक्ति का विकास होता है ।’ हिन्दुओं
को धन्यवाद है कि लाखों वर्ष पहले से कोई भी शुभ कर्म करते हैं तो
स्वस्तिक चिह्न बनाते हैं । स्वस्तिक के दर्शन से आपकी सात्त्विक
आभा में बढ़ोतरी होती है, मन और प्राण ऊर्ध्वगामी होते हैं और
जीवनीशक्ति का विकास होता है ।
स्वस्तिक का इतना महत्तव क्यों ?
फ्रांस के वैज्ञानिक एंटोनी बोविस ने एक यंत्र (ऊर्जा-मापक यंत्र)
बनाया, जिससे वस्तु, वनस्पति, वातावरण, मनुष्य या स्थान की ऊर्जा
मापी जा सके । उसका नाम रखा बोविस बायोमीटर (बोविस स्केल) ।
उस यंत्र ने सामान्य व्यक्ति की ऊर्जा 6500 बोविस दिखाय़ी । यंत्र ने
मनुष्य के चक्रों की ऊर्जा 6500 बोविस से लेकर 16000 बोविस तक
दिखायी । चर्च की 11000, पूर्वाभिमुख मस्जिद की 12000 तथा तिब्बत
के मंदिर के गर्भगृह की 14000 बोविस आयी । परंतु विज्ञानी हैरान
हुए कि जो ॐकार का जप करता है उस व्यक्ति के इर्द-गिर्द की और
उस व्यक्ति की ऊर्जा 70000 बोविस और स्वस्तिक की ऊर्जा 10 लाख
बोविस पायी गयी । (उलटे बने स्वस्तिक में ऊर्जा-परिमाण तो उतना ही
था पर वह नकारात्मक था ।)
हमें 8000 से 10000 बोविस ऊर्जा की आवश्यकता है, और अधिक
मिले तो यह हमारी आध्यात्मिक उन्नति के लिए बहुत अच्छा है ।

तो यह हिन्दू धर्म की क्या ऊँचाई, खोज और विशेषता है कि हम
कोई भी शुभ कर्म करते हैं तो स्वस्तिक बनाते हैं ।”
इससे स्पष्ट है कि भारतीय संस्कृति में इस चिह्न को इतना
महत्त्व क्यों दिया गया है और क्यों इसे धार्मिक कर्मकांडों के दौरान,
पर्व-त्यौहारों में, रंगोलियों में एवं मुंडन के उपरॉंत छोटे बच्चों के मुंडित
मस्तक पर, गृह-प्रवेश के दौरान दरवाजों पर और नये वाहनों की पूजा
के समय उन पर पवित्र प्रतीक के रूप में अंकित किया जाता है ।
स्रोतः ऋषि प्रसाद, अप्रैल 2023, पृष्ठ संख्या 22,23 अंक 364
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मन नहीं लगता तो क्या करें – पूज्य बापू जी



लोग कहते हैं- ‘मन नहीं लगता, क्या करें ?’ उसे रस नहीं आता
इसलिए नहीं लगता । तो खोजो उसे कहाँ रस आ रहा है ? तुच्छ
विकारों में, मनोराज में, काहे में रस आ रहा है ? जब मन भगवद्-
अनुकूल और भगवान के प्रति आकर्षित होता है तो वह भगवान में
तल्लीन होता है और उसके द्वारा संसार का हित खूब होता है । जो ऐसे
ही बोलता है कि ‘मैं कुटुम्ब का हित करूँ, समाज का हित करुँ…’ वह
अपना ही हित नहीं जानता तो दूसरे का हित क्या करेगा ?
रमण महर्षि कहते हैं कि ‘अंतर्मुख होओगे तो आत्मदेव का सुख
मिलेगा ।’ मन भले देर से लगे पर लगेगा तो ऐसा कि अपना और
दूसरों का कल्याण करने वाला हो जायेगा । और बहिर्मुख होओगे –
जगत की तरफ देखोगे – सोचोगे तो अपने और दूसरों के कल्याण के
नाम पर भी मोह-माया बढ़ेगी, फँसान ही बढ़ेगी ।
दुनिया के बड़े-बड़े उद्योंगों की अपेक्षा क्षणभर भी परमात्मा में
विश्रांति पाना बड़ा भारी हितकारी है – अपने लिए व औरों के लिए ।
मन लगाने का साधन
‘बेटा मानता नहीं, बेटी करती नहीं… क्या करें ये पढ़ते नहीं हैं,
ऐसा नहीं करते, अब क्या करें…’ मन न लगने के जो कारण हैं उनको
उखाड़ के फेंको । भगवान के विधान पर, भगवान पर और अपने प्रारब्ध
पर विश्वास रखो, बेटा-बेटी के प्रारब्ध पर विश्वास रखो ।
यदि विषय-विकारों में, मांस-मदिरा में मन लग रहा है तो इस
अशुद्ध आहार के कारण भगवान में मन नहीं लगता । तो यह अशुद्ध
आहार छोड़ो और थोड़ा अभ्यास करो । सुबह सूर्योदय से पहले उठने से
सत्त्वगुण बढ़ेगा, मन लगाने में मदद मिलेगी । जरूरत से दो कौर कम

खाने वाले का मन शांत होगा और भगवद्-भजन में लगेगा । जीभ को
मुँह में ऊपर नहीं – नीचे नहीं, बीचे में रखो और भगवद्-मूर्ति, गुरुमूर्ति
के सामने एकटक देखो । आँख की पुतली स्थिर हुई तो मन को स्थिर
होना ही है । नींद में से उठ के थोड़ा शांत हो जाओ फिर ॐकार का
ह्रस्व उच्चारण करो फिर दीर्घ व प्लुत उच्चारण करो – ॐ ॐ ॐ ॐ
ओऽऽऽऽऽम्ऽऽ… । नींद में से उठने पर मन वैसे ही थोड़ा शांत होता है
तो थोड़ी शांति के बाद मन में ॐकार मंत्र जपते-जपते और शांत होते
जाओ, रस आयेगा । कभी ताल मिलाक स्नेहपूर्वक भगवान को, सद्गुरु
को याद करते हुए अपने ढंग से गुनगुनाओ, उनसे मन ही मन बातचीत
करो तो मन को रस आयेगा ।
….तो मन अपने आप खिंच के आयेगा
मेरे गुरुदेव अपने-आपसे बात करते थेः “शरीर लीलाशाह है, मैं
ब्रह्म हूँ । भोजन करेगा ?”
(मन कहताः) “हाँ-हाँ साँईं ! भूख लगी है ।”
“लेकिन देख, भोजन तब मिलेगा जब सत्संग सुनेगा । पहले
सत्संग करना पड़ेगा । सत्संग सुना है बेटा ?”
बोलेः “हाँ” ।
“हाँ तो खा ले, खा ले पियूऽऽ… मोर की आवाज निकाल कर) हा
हा हा ! हँसते थे । सत्संग सुना है तो खा ले ! कितने फुलके (रोटियाँ)
चाहिए ?”
“साँईं ! तीन चाहिए ।”
“अरे भाई ! ज्यादा है, कुछ तो यार कमी कर !”
“अच्छा साँईं ! ढाई दे दो ।”
“ले भला बेटा ! खा ।”

मैं पहले-पहले गया तो चकित हो जाता था कि ‘गुरु जी कुटिया में
अकेले हैं फिर ‘बेटा’ और ‘यह खा…’ यह सब क्या बोलते हैं ? फिर पता
चला कि यह विनोद है । भोजन करते समय प्रसन्नता चाहिए और यह
प्रसन्नता महापुरुष तात्त्विक ढंग से उत्पन्न करते थे । मन को बेटा बना
दिया, स्वयं मन से पृथक हो गये ।
तो इस प्रकार मन से पृथक हो गये तो उसके संकल्प-विकल्प की
सच्चाई और जोर कम हो जायेंगे । आप अपने शांत-स्वभाव में आयें तो
मन अपने-आप खिंच के आयेगा ।
संकर सहज सरूपु सम्हारा । लागि समाधि अखंड अपारा ।।
मन को रस कैसे आता है ?
मन क्यों नहीं लगता ? क्योंकि उसे रस नहीं आता ।
न रसः यस्य सः आलसः ।
रस नहीं आता तो आलस्य होता है, मन नहीं लगता । अभक्तों का
संग, विषय-विकारों में फँसे लोगों का संग भगवद् भावों को क्षीण कर
देता है । सत्संगियों का संग, सत्पुरुषों का संग, नियम, व्रत, अनुष्ठान –
इनसे मन को रस आता है, फिर लगने लगता है । लोग आश्रम के मौन
मंदिर में आते हैं तो ‘हइशो-हइशो’ करके आये होते हैं । शुरुआत के 1-2
दिन घर की याद आती है, इसकी-उसकी याद आती है । फिर जब मन
लगने लगता है तो 7 दिन कैसे बीत गये पता नहीं चलता । मन को
रस आने लगता है, बड़े फायदे होते हैं ।
तो भगवद् रस के माहौल में, भगवद् रस आये ऐसे साधन में और
भगवद् रस उभारें ऐसे विचारों में रहें, बस हो गया ! और लम्बे-चौड़े
उपाय क्या हैं, इतना ही काफी है । तो भगवद् रस आये कैसे ? जो
अपना होता है उसके प्रति प्यार होता है । झोंपड़पट्टि वाली माई को

नाक से गंदगी बहाता लड़का उसका अपना है तो प्यारा लगता है ।
अपनी पुरानी जूती भी चाचा को प्यारी लगती है । कोई उस पर पैर
रखे, उसे फेंक दे तो उसको बोलेगा कि ‘मेरी जूती पर पैर क्यों रखा रे ?
मेरी जूती क्यों फेंकी ? जूती मेरी है ।’ जूती फेंकने वाले ने किसी
मेमसाहब का सैंडिल फेंक दिया तो जूतीवाला बोलता हैः ‘कोई बात नहीं’
या ‘अच्छा किया’ लेकिन उसकी जूती फेंक दी तो बोलता हैः ‘मेरी जूती
क्यों फेंकी ?’ जैसे जूती-जूता अपने लगते हैं तो प्यारे हो जाते हैं ऐसे ही
भगवान अपने लगें जो वास्तव में अपने हैं, इससे भगवान में प्रेम हो
जायेगा । शरीर अपना नहीं है – पहले नहीं था, बाद में नहीं रहेगा ।
चीज-वस्तु, पद अपने नहीं हैं । तो यह जगत मिथ्या है, माना हुआ है,
यह अपना नहीं है किंतु ईश्वर अपने हैं, थे और रहेंगे । तो ईश्वर इतने
शाश्वत हैं ! 4 दिन के लिए मकान अपना है तो प्यारा लगता है, जूता
अपना है तो प्यारा लगता है, जो पहले अपने थे, अभी हैं और बाद में
भी रहेंगे उन ईश्वर में अपनत्व का भाव बढ़ाओ तो वे भी प्यारे लगेंगे
और उनमें भी मन लगेगा । इस प्रकार मन को रस आता जायेगा ।
स्रोतः ऋषि प्रसाद अप्रैल 2023 पृष्ठ संख्या 8,9 अंक 364
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परमात्म साक्षात्कार के लिए यह भजन नींव का काम करेगा –
पूज्य बापू जी



जिनका आयुष्य पूरा हो रहा है (जो मृत्युशैय्या पर हो) अथवा
जिनका शरीर शांत हो गया है उनके लिए एक भजन बनाया है ताकि
उनको ऊँची गति, मोक्षप्राप्ति में मदद मिले । मृतक व्यक्ति के लिए
रुदन नहीं करना चाहिए, कीर्तन करना चाहिए । कीर्तन तो लोग करते हैं
लेकिन मृतक व्यक्ति की सदगति करने वाला ऐसा भजन बना है कि
यह सुनो-सुनाओ तो महाकीर्तन हो जायेगा ।
ऐसा कोई शरीर है ही नहीं जो मरे नहीं । चो आप जिसका शरीर
शांत हो गया है उसकी सद्गति के लिए इस भजन के द्वारा प्रार्थना
करना और उसके लिए यह भाव करना, उसे प्रेरणा देना कि ‘तुम
आकाशरूप हो, चैतन्य हो, व्यापक हो…।’
यह भजन मृतक व्यक्ति के लिए सद्गतिदायक बनेगा और अपने
लिए भी अब से ही काम में आयेगा । सद्गति की सूझबूझ, सत्प्रेरणा
और सत्स्वरूप अंतरात्मा की मदद सहज में पायें, मृतक और आप स्वयं
अपने सत्स्वरूप में एक हो जायें ।
मृतक व्यक्ति सत्स्वरूप परमात्मा से पृथक नहीं होता, वह
पुण्यात्मा पुण्यस्वरूप ईश्वर का अविभाज्य अंग है । अपनी और उस
महाभाग की परमात्मा-स्मृति जगाइये । अर्जुन कहते हैं- नष्टो मोहः
स्मृतिर्लब्धा त्वत्प्रसादान्मयाच्युत । स्थितोऽस्मि गतसन्देहः करिष्ये वचनं
तव ।।
ऐसे ही सभी की स्मृति जगह । भगवत्प्रसाद, भगवद्ज्ञान, भगवद्-स्मृति,
अंतरात्मा भगवान की भक्ति, प्रीति पाइये, जगाइये… जगाइये, पाइये ।

मृत्यु के जो नजदीक हैं वे भी लगें, जिनकी हो गयी हैं उनके लिए भी
करें । इससे अपने पिया स्वभाव (परमात्म-स्वभाव) को पाओगे,
अंतरात्म-स्वभाव में आओगे, विकारों से, जन्म-मरण के चक्कर से छूट
जाओगे । ॐ आनंद… ॐ शांति… ॐॐॐ प्रभु जी… ॐॐॐ प्यारे
जी… ॐॐॐ मेरे जी… ॐॐॐ अंतरात्मदेव… परमात्मदेव…। मंगलमय
जीवन और मृत्यु भई मंगलमय ! ‘
मंगलमय जीवन-मृत्यु’ पुस्तक पढ़ना उसमें भी मृतक व्यक्ति के
लिए प्रेरणा है, उसके अनुसार उसे प्रेरणा देना और जहाँ भी कोई व्यक्ति
संसार से चले गये हों अथवा जाने वाले हों वहाँ इस भजन दोहरा दिया

यह भजन परमात्म-साक्षात्कार के लिए नींव का काम करेगा,
सत्संगी-सहयोगी साथी का काम करेगा । धन्य हैं वे लोग जो इसको
सुन पाते हैं, सुना पाते हैं ! देखें वीडियो
http://www.bit.ly/sadgatibhajan
https://www.youtube.com/watch?v=yzQBgMZviek
मृतक की सद्गति के प्रार्थना
परमात्मा उस आत्मा को शांति सच्ची दीजिये
हे नाथ ! जोड़े हाथ सब हैं प्रेम से ये माँगते ।
साँची शरण मिल जाय हिय से आपसे हैं माँगते ।।
जो जीव आया तव निकट ले चरण में स्वीकारिये ।
परमात्मा उस आत्मा को शांति सच्ची दीजिये ।।1।।
फिर कर्म के संयोग से जिस वंश में वह अवतरे ।
वहाँ पूर्ण प्रेम से आपकी गुरु भक्ति करे ।।
चौरासी लक्ष के बंधनों को गुरुकृपा से काट दे ।

है आत्मा परमात्मा ही ज्ञान पाकर मुक्त हो ।।2।।
इहलोक औ परलोक की होवे नहीं कुछ कामना ।
साधन चतुष्टय और सत्संग प्राप्त हो सदा ।।
जन्मे नहीं फिर वो कभी ऐसी कृपा अब कीजिये ।
परमात्मा निजरूप में उस जीव को भी जगाइये ।।3।।
संसार से मुख मोड़कर, जो ब्रह्म केवल ध्याय है ।
करता उसी का चिंतवन, निशदिन उसे ही गाय है ।।
मन में न जिसके स्वप्न में भी, अन्य आने पाय है ।
सो ब्रह्म ही हो जाय है, न जाय है ना आय है ।।4।।
आशा जगत की छोड़कर, जो आप में ही मग्न है ।
सब वृत्तियाँ हैं शांत जिसकी, आप में संलग्न है ।।
ना एक क्षण भी वृत्ति जिसकी, ब्रह्म से हट पाय है ।
सो तो सदा ही है अमर, ना जाय है ना आय है ।।5।।
संतुष्ट अपने आप में, संतृप्त अपने आप में ।
मन बुद्धि अपने आप में, है चित्त अपने आप में ।।
अभिमान जिसका गल गलाकर, आप में रत्न जाय है ।
परिपूर्ण है सर्वत्र सो, ना जाय है ना आय है ।।6।।
ना द्वेष करता भोग में, ना राग रखता योग में ।
हँसता नहीं है स्वास्थ्य में, रोता नहीं है रोग में ।।
इच्छा न जीने की जिसे, ना मृत्यु से घबराय है ।
सम शांत जीवन्मुक्त सो, ना जाय है ना आय है ।।7।।
मिथ्या जगत है ब्रह्म सत्, सो ब्रह्म मेरा तत्त्व है ।
मेरे सिवा जो भासता, निस्सार सो निस्तत्त्व है ।।
ऐसा जिसे निश्चय हुआ, ना मृत्यु उसको खाय है ।

सशरीर भी अशरीर है, ना जाय है ना आय है ।।8।।
ब्रह्मानन्दं परमसुखदं केवलं ज्ञानमूर्तिं ।
द्वन्द्वातीतं गगनसदृशं तत्त्वमस्यादिलक्ष्यम्।।
एकं नित्यं विमलमचलं सर्वधीसाक्षिभूतं ।
भावातीतं त्रिगुणरहितं सद्गुरुं तं नमामि ।।
ब्रह्मस्वरूपाय नमः ।
स्रोतः ऋषि प्रसाद, फरवरी 2023, पृष्ठ संख्या 27, 29 अंक 362
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