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उन्नत होने का संदेश देता है – मकर संक्रांति का पर्व


 

ऋषि – मुनियों व ब्रह्मवेत्ता महापुरुषों ने दिशाहीन मानव को सही दिशा देने के लिए सनातन धर्म में पर्वों व त्यौहारों की सुंदर व्यवस्था की है | यह व्यवस्था आध्यात्मिक शक्ति की प्राप्ति, चित्तशुद्धि, संकल्पशक्ति की वृद्धि, ईश्वर की भक्ति और श्रद्धा के विकास, वातावरण की पवित्रता, विचारों को उच्च एवं परिष्कृत करने, आत्मिक आनंद – उल्लास प्रकटाने तथा उत्तम स्वास्थ्य-लाभ के लिए हैं | कोई सत्पात्र साहसी ८४ लाख योनियों के जन्म-मरण के चक्कर से छूटना चाहे तो आत्मसाक्षात्कार भी कर सकता है | ऐसे त्यौहारों में एक है मकर संक्रांति | मानव – जीवन में व्याप्त अज्ञान, संदेह, जड़ता, कुसंस्कारों आदि का निराकरण कर मानव – मस्तिष्क में ज्ञान, चेतना, ऊर्जा एवं ओज का संचार तथा मानव – जीवन में सुसंस्कारों की प्रेरणा उत्पन्न कर सम्यक दिशा एवं सम्यक मार्ग की ओर प्रवृत्त करने के लिए क्रान्तिकाल को संक्रांति कहते हैं | संक्रांति का अर्थ है कलुषित विचारों का त्याग और सद्विचारों का आलम्बन |

संक्रांति क्या है ?

पृथ्वी का गोलाई में सूर्य के चारों ओर घूमना ‘क्रांति चक्र’ कहलाता है | ज्योतिष में इसीको ‘राशि चक्र’ भी कहते हैं | इस परिधि को १२ भागों में बाँटकर १२ राशियाँ बनी हैं | इन राशियों का नामकरण १२ नक्षत्रों के आधार पर हुआ है | सूर्य एक राशि में एक माह अर्थात लगभग ३० दिन विचरण करता है जबकि चन्द्रमा एक राशि में लगभग सवा दो दिन रहता है | जब भी सूर्य एक राशि से दूसरी राशि में प्रवेश करता है तब संक्रांति होती है लेकिन सूर्य के मकर राशि में प्रवेश करने का विशेष महत्त्व होता है जिसे हम मकर संक्रांति के रूप में मनाते हैं | सूर्य के इस संक्रमण के साथ – साथ जीवन का संक्रमण भी जुड़ा हुआ है | इस बात को हमारे पूर्वज जानते थे इसलिए इस दिन को उन्होंने सांस्कृतिक तथा आध्यात्मिक प्राधान्य भी दिया है और निसर्ग के इस परिवर्तन को ध्यान मे रखते हुए उसे जीवन-व्यवहार के साथ भी गूँथ लिया है |

अमिट पुण्यप्राप्ति का काल

सूर्य ऊर्जा, चेतना,शक्ति, आयुष्य, ज्ञान एवं प्रकाश के देवता हैं | मकर संक्रांति सूर्योपासना का विशिष्ट पर्व है | शास्त्रों के अनुसार उत्तरायण का समय देवताओं का दिन एवं दक्षिणायन देवताओं की रात्रि होती है | वैदिक काल में उत्तरायण को ‘देवयान’ तथा दक्षिणायन को ‘पितृयान’ भी कहा गया है | शास्त्रों के अनुसार मकर संक्रांति के दिन धार्मिक कार्यों, जैसे – सत्संग-भजन, सेवा, दान एवं महापुरुषों का दर्शन आदि अमिट पुण्य प्रदान करता है |

आध्यात्मिक महत्त्व

भगवान श्रीराम ने रावण पर विजय प्राप्त करने से पहले सूर्य की उपासना की थी | भीष्म पितामह ने भी इस काल की प्रतीक्षा की थी :

धारयिष्याम्यहं प्राणानुत्तरायणकांक्षया |

ऐश्वर्यभूत: प्राणानामुत्सर्गो हि यतो मम ||

“मैं उत्तरायण की प्रतीक्षा में अपने प्राणों को धारण किये रहूँगा क्योंकि मैं जब इच्छा करूँ तभी अपने प्राणों को छोडूँ,  यह शक्ति मुझे प्राप्त हैं |” ( महाभारत, भीष्म पर्व : ११९.१०६)

ज्ञान – प्रकाश ही आत्मा का स्वरूप है | अत: इस दिन सत्संग व सेवा द्वारा ह्रदयस्थ ज्ञान-प्रकाशस्वरूप अन्तर्यामी आत्मा-परमात्मा को जानना ही मकर संक्रांति पर्व मनाने का लक्ष्य हो | बाहर सूर्य का दर्शन और अंदर सबको प्रकाशित करनेवाले ( जाननेवाले ) प्रकाशों – के – प्रकाश चैतन्यस्वरूप का दर्शन कल्याणकारक है | इस प्रकार मकर संक्रांति के दिन अंदर-बाहर चैतन्य-दर्शन को मोक्षदायी माना गया है |

बाहरि भीतरि एको जानहु, इहु गुर गिआनु बताई ||  ( गुरुवाणी)

स्त्रोत – लोक कल्याण सेतु – दिसम्बर – २०१६ (निरंतर अंक: २३४ ) से

 

सूर्य नारायण देते जीवन-निर्माण की सीख


 

-पूज्य बापू जी

(मकर सक्रान्तिः 14 जनवरी)

सब पर्वों की तारीखें बदलती जाती हैं किंतु मकर सक्रांति की तारीख नहीं बदलती। यह नैसर्गिक पर्व है। किसी व्यक्ति के आने-जाने से या किसी के अवतार से यह पर्व नहीं हुआ। प्रकृति में जो मूलभूत परिवर्तन होता है, उससे संबंधित है यह पर्व और प्रकृति की हर चेष्टा व्यक्ति के तन और मन से संबंध रखती है।
इस काल में भगवान भास्कर की गति उत्तर की तरफ होती है। अंधकार वाली रात्रि छोटी होती जाती है और प्रकाश वाला दिन बड़ा होता जाता है। अब ठंडी का जोर कम होता जायेगा। न गर्मी, न ठंडी, अब वसंत ऋतु आयेगी, बहारें आयेंगी। अगर प्यार से सूर्यनारायण का हृदयपूर्वक चिंतन करते हो और आरती घुमाते हो तो हृदय में मस्ती, आनंद उभरेगा। वसंत ऋतु की बहारें तो आयेंगी लेकिन अंतरात्मा-परमात्मा की बहार भी शुरु और जायेगी।

महाशुभ दिन
मकर सक्रांति या उत्तरायण सत्त्व-प्रदायक व सत्त्ववर्धक दिन है, महाशुभ दिन है। अच्छे-अच्छे कार्य करने के लिए शुभ मुहूर्त भी मकर सक्रांति के बाद ज्यादा निकलते हैं। पुराणों का कहना है कि इन दिनों देवता लोग जागृत होते हैं। मानवीय 6 महीने बीतते हैं, तब देवताओं की एक रात होती है। उत्तरायण के दिन से देवताओं की सुबह मानी जाती है। इस दिन से देवता लोग धरती पर होम हवन, यज्ञ-याग, नैवेद्य, प्रार्थना आदि के स्वीकार करने के लिए (सूक्ष्म रूप से) विचरण करते हैं।

मकर सक्रांति का लाभ उठायें
इस दिन सुबह जल्दी उठकर जल में तिल डाल के जो स्नान करता है, उसे 10 हजार गोदान का फल मिलता है। इस दिन सूर्यनारायण का मानसिक रूप से ध्यान करके उनसे मन ही मन आयु और आरोग्य के लिए प्रार्थना करने से प्रार्थना विशेष प्रभावशाली होती है।

तिल-उबटन से, गौ-गोबर व तिल आदि के मिश्रण से स्नान करना एवं तिल खाना हितकारी व पुण्यदायी माना गया है। इस दिन भगवान सूर्य को तिलमिश्रित जल से अर्घ्य दें और पीने के पानी में, हवन में तिल का उपयोग करें। सक्रांति के दिन तिल का दान पापनाश करता है, भोजन में तिल आरोग्य देता है, तिल हवन पुण्य देता है। पीने के पानी में भी थोड़े तिल डालकर पीना स्वास्थ्यप्रद होता है। किंतु रात्रि को तिल व तिल के तेल से बनी वस्तुएँ खाना वर्जित हैं।

सूर्यकिरण चिकित्सा
निर्दोष चिकित्सा पद्धतियों की औषधियों में सूर्य और चन्द्रमा की कृपा से ही रोगनाशक शक्तियाँ आती हैं। सूर्यस्नान से बहुत सारे रोग मिटते हैं। सिर को ढककर सूर्य की कोमल किरणों में लेट जाओ। लेटे-लेटे किया गया सूर्य स्नान विशेष फायदा करता है। सारे शरीर को सूर्य की किरणें मिलें, जिससे आपके अंगों में जिन रंगों की कमी है, वात-पित्त का जो असंतुलन है वह ठीक होने लगे। सूर्यस्नान करने के पहले एक गिलास गुनगुना पानी पी लो और सूर्यस्नान करने के बाद ठंडे पानी से नहा लो तो ज्यादा फायदा होगा। सूर्य की रश्मियों में अदभुत रोगप्रतिकारक शक्ति है। दुनिया का कोई वैद्य अथवा कोई मानवी इलाज उतना दिव्य स्वास्थ्य और बुद्धि की दृढ़ता नहीं दे सकता है, जितना सुबह की कोमल सूर्य-रश्मियों में छुपे ओज-तेज से मिलता है।
शरीर को स्वस्थ रखने के लिए सूर्य स्नान बाहर से ठीक है लेकिन मन और मति को ठीक करने के लिए भगवान के नाम का जप आवश्यक है।

उत्तरायण का संदेश
जैसे सूर्यनारायण समुद्र, नदियों, नालों, कीचड़ आदि विभिन्न जगहों से जल तो उठा लेते हैं लेकिन समुद्र के खारेपन एवं नालों आदि के गंदेपन से स्वयं प्रभावित नहीं होते। साथ ही बादलों की उत्पत्ति में एवं जीव-जगत को स्फूर्ति-ताजगी प्रदान करने में कारण रूप होकर परोपकार के कार्यों में सूर्यदेव संलग्न रहते हैं। उनकी नाई आप भी सदगुणों को कहीं से भी उठा लें और परोपकार में संलग्न रहें लेकिन स्वयं किसी के दुर्गुणों से प्रभावित न हों। इस प्रकार आप अपना लक्ष्य ऊँचा बना लीजिये और उसे रोज दोहराइये। फिर तो प्रकृति और परमात्मा आपको कदम-कदम पर सहयोग और सत्प्रेरणा देंगे।

आप आपने लक्ष्य पर अडिग रहने की प्रतिज्ञा कीजिये और एकांत में उसे जोर-से दोहराइये। जैसे – ‘मेरी इस प्रतिज्ञा को यक्ष, गंधर्व, किन्नर आदि सब सुनें ! आज से मैं गुरुदेव के भगवान के हृदय को ठेस पहुँचे ऐसा कोई काम नहीं करूँगा।’ ऐसा करने से आपका मनोबल बढ़ेगा। बस, इतना कर लिया तो बाकी सब रक्षक गुरुकृपा, भगवत्कृपा अपने-आप सँभाल लेती है और आपको ऊपर उठाती है। अनपढ़ लोग भी पूजनीय बन जाते हैं गुरुकृपा से।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, दिसम्बर 2015, पृष्ठ संख्या 6,7 अंक 276
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उत्तरायण हमें प्रेरित करता है जीवत्व से ब्रह्मत्व की ओर


पूज्य बापू जी

उत्तरायण कहता है कि सूर्य जब इतना महान है, पृथ्वी से 13 लाख गुना बड़ा है, ऐसा  सूर्य भी दक्षिण से उत्तर की ओर आ जाता है तो तुम भी भैया ! नारायण जीवत्व से ब्रह्मत्व की ओर आ जाओ तो तुम्हारे बाप का क्या बिगड़ेगा ? तुम्हारे तो 21 कुल तर जायेंगे।

उत्तरायण पर्व की महत्ता

उत्तरायण माने सूर्य का रथ उत्तर की ओर चले। उत्तरायण के दिन किया हुआ सत्कर्म अनंत गुना हो जाता है। इस दिन भगवान शिवजी ने भी दान किया था। जिनके पास जो हो उसका इस दिन अगर सदुपयोग करें तो वे बहुत-बहुत अधिक लाभ पाते हैं। शिवजी के पास क्या है ? शिवजी के पास है धारणा, ध्यान, समाधि, आत्मज्ञान, आत्मध्यान। तो शिवजी ने इसी दिन प्रकट होकर दक्षिण भारत के ऋषियों पर आत्मोपदेश का अनुग्रह किया था।

गंगासागर में इस दिन मेला लगता है। प्रयागराज में गंगा यमुना का जहाँ संगम है वहाँ भी इस दिन लगभग छोटा कुम्भ हो जाता है। लोग स्नान, दान, जप, सुमिरन करते हैं। तो हम लोग भी इस दिन एकत्र होकर ध्यान भजन, सत्संग आदि करते हैं, प्रसाद लेते देते हैं। इस दिन चित्त में कुछ विशेष ताजगी, कोई नवीनता हम सबको महसूस होती है।

सामाजिक महत्त्व

इस पर्व को सामाजिक ढंग से देखें तो बड़े काम का पर्व है। किसान के घर नया गुड़, नये तिल आते हैं। उत्तरायण सर्दियों के दिनों में आता है तो शरीर को पौष्टिकता चाहिए। तिल के लड्डू खाने से मधुरता और स्निग्धता प्राप्त होती है तथा शरीर पुष्ट होता है। इसलिए इस दिन तिल-गुड़ के लड्डू (चीनी के बदले गुड़ गुणकारी है) खाये खिलाये बाँटे जाते हैं। जिसके पास क्षमता नहीं है वह भी खा सके पर्व के निमित्त इसलिए बाँटने का रिवाज है। और बाँटने से परस्पर सामाजिक सौहार्द बढ़ता है।

तिळ गुड़ घ्या गोड गोड बोला।

अर्थात् तिल गुड़ लो और मीठा-मीठा बोलो। सिंधी जगत में इस दिन मूली और गेहूँ की रोटी का चूरमा व तिल खाया खिलाया जाता है अर्थात् जीवन में कहीं शुष्कता आयी हो तो स्निग्धता आये, जीवन में कहीं कटुता आ गयी हो तो उसको दूर करने के लिए मिठास आये इसलिए उत्तरायण को स्नेह सौहार्द वर्धक पर्व के रूप में भी देखा जाये तो उचित है।

आरोग्यता की दृष्टि से भी देखा जाये तो जिस-जिस ऋतु में जो-जो रोग आने की सम्भावना होती है, प्रकृति ने उस-उस ऋतु में उन रोगों के प्रतिकारक फल, अन्न, तिलहन आदि पैदा किये हैं। सर्दियाँ आती हैं तो शरीर में जो शुष्कता अथवा थोड़ा ठिठुरापन है या कमजोरी है तो उसे दूर करने हेतु तिल का पाक, मूँगफली, तिल आदि स्निग्ध पदार्थ इसी ऋतु में खाने का विधान है।

तिल के लड्डू देने-लेने, खाने से अपने को तो ठीक रहता है लेकिन एक देह के प्रति वृत्ति न जम जाय इसलिए कहीं दया करके अपना चित्त द्रवित करो तो कहीं से दया, आध्यात्मिक दया और आध्यात्मिक ओज पाने के लिए भी इन नश्वर वस्तुओं का आदान-प्रदान करके शाश्वत के द्वार तक पहुँचो ऐसी महापुरुषों की सुंदर व्यवस्था हो। सर्दी में सूर्य का ताप मधुर लगता है। शरीर को विटामिन डी की भी जरूरत होती है, रोगप्रतिकारक शक्ति भी बढ़नी चाहिए। इन सबकी पूर्ति सूर्य से हो जाती है। अतः सूर्यनारायण की कोमल किरणों का फायदा उठायें।

सूत्रधार की याद करना न भूलें

पतंग उड़ाने का भी पर्व उत्तरायण के साथ जोड़ दिया गया है। कोई लाल पतंग है तो कोई हरी है तो कोई काली है….। कोई एक आँख वाली है तो कोई दो आँखों वाली है, कोई पूँछ वाली है तो कोई बिना पूँछ की है। ये पतंगे तब तक आकाश में सुहावनी लगती हैं, जब तक सूत्रधार के हाथ में, उड़ानेवाले के हाथ में धागा है। अगर उसके हाथ से धागा कट गया, टूट गया तो वे ही आकाश से बातें करने वाली, उड़ाने भरने  वाली, अपना रंग और रौनक दिखाने वाली, होड़ पर उतरने वाली पतंगे बुरी तरह गिरी हुई दिखती हैं। कोई पेड़ पर फटी सी लटकती है तो कोई शौचालय पर तो कोई बेचारी बिजली के खम्भों पर बुरी तरह फड़कती रहती है। यह उत्सव बताता है कि जैसे पतंगे उड़ रही हैं, ऐसे ही कोई धन की, कोई सत्ता की, कोई रूप की तो कोई सौंदर्य की उड़ानें ले रहा है। ये उड़ानें तब तक सुन्दर-सुहावनी दिखती हैं, ये सब सेठ-साहूकार, पदाधीश तब तक सुहावने लगते हैं, जब तक तुम्हारे शरीररूपी पतंग का संबंध उस चैतन्य परमात्मा के साथ है। अगर परमात्मारूपी सूत्रधार से संबंध कट जाये तो कब्रिस्तान या श्मशान में ये पतंगे बुरी हालत में पड़ी रह जाती हैं इसलिए सूत्रधार को याद करना न भूलो, सूत्रधार से अपना शाश्वत संबंध समझने में लापरवाही न करो।

उत्तरायण ज्ञान का पूजन व आदर करने का दिन है और ज्ञान बढ़ाने का संकल्प करने का दिन है।

उत्तरायण का मधुर संदेश

उत्तरायण मधुर संदेश देता है कि ‘तुम्हारे जीवन में स्निग्धता और मधुरता खुले। आकाश में पतंग चढ़ाना माने जीवन में कुछ खुले आकाश में आओ। रूँधा-रूँधा (उलझा-उलझा) के अपने को सताओ मत। इन्द्रियों के उन गोलकों में अपने को सताओ नहीं, चिदाकाशस्वरूप में आ जाओ।’

स्रोतः ऋषि प्रसाद, दिसम्बर 2016, पृष्ठ संख्या 22,23 अंक 288

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