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कौनसा सौंदर्य कल्याणकारी ? – पूज्य बापू जी



सौंदर्य की प्रति सहज ही आकर्षित होना मानव की स्वाभाविक वृत्ति
है किंतु सांसारिक सौंदर्य के प्रति आकर्षण भोगवृत्ति उत्पन्न करके काम
के चंगुल में फंसाता है, जिसका फल दुःख, क्लेश और बंधन है कारण
कि यह मोहजनित (अज्ञानजनित) है । अतः आकर्षण उस परमात्मा के
प्रति ही होना चाहिए जिसकी रचना या कृति यह सांसारिक सौंदर्य है ।
तब यह आकर्षण वास्तव में असत् नहीं सत् है क्योंकि यह उस परम
सौंदर्य़ के प्रति है जो निर्गुण-निराकार, सगुण-साकार, अनुपम और सत्-
चित्-आनंदस्वरूप होकर जड़ जंगम में समाहित है ।
हमें अपनी रूपासक्ति-वृत्ति को वर्जित नहीं परिवर्तित करना है ।
मनुष्य अपनी किसी भी वृत्ति का सदुपयोग या दुरुपयोग कर सकता है ।
यह उसके विवेक पर निर्भर करता है । सौंदर्य के प्रति आकर्षण की इसी
वृत्ति के दुरुपयोग के स्थान पर स्वकल्याण हेतु सदुपयोग करने का
सकेत करते हुए रत्नावली ने संत तुलसीदास जी से कहा थाः
हाड़ मांस की देह मम, ता में इतनी प्रीति ।
या ते आधी जो राम प्रति, तो अवसि मिटे भवभीति ।।
मानव की सहज, स्वाभाविक रूपासक्ति की वृत्ति यदि भगवान या
भगवान को पाये हुए महापुरुषों के प्रति हो जाय तो कल्याण हो जाय ।
भक्ति-जगत में रूप-उपासना की यही विलक्षणता है । जब यह
अवधारणा (विचारपूर्ण धारणा) अत्यंत पुष्ट हो जाती है कि परमात्मा के
समान कोई दूसरा नहीं है तब रूपासक्ति संसार से हटकर ईश्वर के
किसी सगुण-साकार रूप के प्रति सहज ही दृढ़ हो जाती है । सभी
सगुण-साकार भक्तों ने अपनी इसी दृढ़ अवधारणा से ही सांसारिक
रूपासक्ति की वृत्ति को परिष्कृत और परिमार्जित करके भगवान की

रूपमाधुरी का पान किया है । इष्ट अथवा गुरु के साकार स्वरूप के
ध्यान व चिंतन से भक्त अपनी चित्तवृत्तियों का निरोध करके अपने को
वास्तविक प्रेम की पराकाष्ठा तक पहुँचा देता है ।
परमात्मा तक पहुँचा देता है ।
परमात्मा की सम्पूर्ण सृष्टि त्रिगुणमयी है, केवल परमात्मा ही
गुणातीत है अतः लौकिक सौंदर्य़ भी 3 वर्गों में विभाजित किया जा
सकता हैः 1.सात्त्विक 2 राजस 3. तामस सौंदर्य । श्री रामचरितमानस में
लौकिक सौंदर्य के ये तीनों रूप दृष्टिगत होते हैं ।
1.सात्त्विक सौंदर्यः यह तप, तेज, शील, शुचिता, मर्यादा आदि दैवी
सम्पत्ति युक्त सौंदर्य है । जैसे – सती (पतिव्रता), तपस्वी, ऋषि, बालक
आदि का सौंदर्य एवं नदी, पर्वत आदि का प्राकृतिक सौंदर्य ।
श्रीरामचरितमानस (अयो.कां. 324.2) में वर्णित भरतजी का सौंदर्य
सात्त्विक सौंदर्य का सुंदर उदाहरण हैः
सम दम संजम नियम उपासा ।
नखत भरत हिय बिमल अकासा ।।
‘शम, दम, संयम, नियम और उपवास आदि भरत जी के हृदरूपी
निर्मल आकाश के नक्षत्र (तारागण) है ।’
2.राजस सौंदर्यः बाह्य संसाधनों उपकरणों आदि से शरीर या स्थान
को सुसज्जित करना राजस सौंदर्य है । जैसे राजा-रानी, महल, नगर,
उद्यान आदि का सौंदर्य ।
3.तामस सौंदर्यः कालुष्य (मन की मलिनता), दुर्भावना, व्यभिचार,
किसी के अनिष्ट आदि से संबंधित सौंदर्य तामस सौंदर्य है । जैसे
शूर्पणखा व कालनेमि का सौंदर्य ।

सात्त्विक सौंदर्य से सात्त्विक भाव, राजस सौंदर्य से राजस भाव तथा
तामस सौंदर्य से तामस भाव का मन में उदय होता है । इस आधार पर
अपना कल्याण चाहने वाला व्यक्ति तामस सौंदर्य को सर्वथा त्याज्य
माने, राजस सौंदर्य के प्रति उदासीन भाव रखे और सात्त्विक सौंदर्य को
श्रेष्ठ मानकर उसकी अभिवृद्धि हेतु प्रयत्न करे ।
ऐसा जो करते हैं वे मानव धनभागी हैं ! आप जपते हैं, औरों को
जपाते हैं, आप ऋषि प्रसाद पढ़ते हैं, औरों को घर बैठे इसे देते-दिलाते
हैं, वे सात्त्विक सौंदर्य के धनी दिव्य प्रेरणा का प्रसाद देकर समाज का
सात्त्विक सौंदर्य, सज्जनता बढ़ा रहे हैं । उनसे महामानवता की सुवास
आती है, पृथ्वी पर के देवत्व की झलक मिलती है । उनके माता-पिता
को भी खूब धन्यवाद और प्रणाम हैं !
जितना-जितना मानव आत्मज्ञान से वंचित हुआ है और उसके मन,
बुद्धि मोह-माया में, अहंकार मे लगे हैं उतनी-उतनी व्यक्ति की, देश
की, मानव जाति की अधोगति हुई है और जितना-जितना वह
आत्मविचार की तरफ आय़ा है उतना-उतना उसका बल बढ़ा है, उसे
सफलता आ मिली है । – पूज्य बापू जी
स्रोतः ऋषि प्रसाद, मई 2023, पृष्ठ संख्या 22,23 अंक 365
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निर्मल वैराग्य का स्वरूप – स्वामी अखंडानंद जी



जो ईश्वर की प्राप्ति चाहते हैं, आत्मतत्त्व का ज्ञान चाहते हैं उन्हें
जीवन में साधना की आवश्यकता होती ही है । जब तुम कहीं जाना
चाहते हो तो जहाँ ठहरे हो उस स्थान और वहाँ की सुख-सुविधा का मोह
तो छोड़ना ही पड़ता है । इसी प्रकार परमार्थ के पथ पर चलने के लिए
संसार का राग छोड़ ही देना पड़ता है । इसीलिए आद्य शंकराचार्य जी
अपरोक्षानुभूति ग्रंथ (श्लोक 4) में पहले वैराग्य का स्वरूप बतलाते हैं-
ब्रह्मादिस्थावरान्तेषु वैराग्यं विषयेष्वनु ।
यथैव काकविष्ठायां वैराग्यं तद्धि निर्मलम् ।।
‘ब्रह्मा से लेकर स्वार्थपर्यंत सब विषय-विकारों से वैराग्य होना
चाहिए । जैसी हेयबुद्धि काकविष्ठा में है वैसी समस्त विषयों में हो
जाय तो वह वैराग्य निर्मल होता है ।’
ब्रह्मा के पद से लेकर तृणपर्यंत विषयों में जिसे वैराग्य है वह
वैराग्यवान है । वैराग्य का अर्थ घृणा नहीं है । द्वेष का नाम भी वैराग्य
नहीं है । घृणा में वस्तु को निकृष्ट समझा जाता है । द्वेष होने पर
चित्त में जलन होती है । किसी वस्तु से इतना लगाव न हो कि उसके
पीछे हम ईश्वर तथा अपने आत्मा को भी भूल जायें, इसी का नाम
वैराग्य है ।
संसार के विषय-विकारों से राग करेंगे तो उनमें फँसेंगे । किसी से
द्वेष करेंगे तो जलेंगे । जो मन को बाँध ले उसे विषय कहते हैं । हम
विषयों से बँधे क्यों ? मार्ग में कौए की बीट पड़ी हो और हम चले जा
रहे हों तो क्या करेंगे ? उससे राग करेंगे या द्वेष । उसे जहाँ-का-तहाँ
छोड़कर चलते बनेंगे । इसी प्रकार अपनी दृष्टि संसार की ओर से
हटाकर परमात्मा में लगा लेने का नाम वैराग्य है । विषय का राग या

द्वेष ही अंतःकरण का मल है तथा वैराग्य अंतःकरण को निर्मल करता
है । जिसने संसार से दृष्टि हटा ली है उसे निश्चय ही निर्मल करने
वाला वैराग्य प्राप्त है ।
स्रोतः ऋषि प्रसाद, अप्रैल 2023, पृष्ठ संख्या 23 अंक 364
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चलता पुरजा चलता ही रहेगा – पूज्य बापू जी



कुछ लोग समझते हैं कि छल-कपट करने वाला व्यक्ति बड़ा होता
है । बोलते हैं- ‘यह बड़ा चलता पुरजा है ।’ तो वह पुरजा चलता ही
रहेगा कई चौरासी लाख योनियों में । चतुराई चूल्हे पड़ी… यह बात माने
तो ठीक है, नहीं तो बने चतुर । जो जितना ज्यादा चतुर बनता है वह
संसार में उतना ही ज्यादा फँसता है, उतने ही ज्यादा जन्म-मरण के
चक्कर में डालने वाले संस्कार उसके अंतःकरण में पड़ते हैं ।
सुकरात के पास एक देहाती गरीब व्यक्ति आया और उसने
निवेदन किया कि ‘मेरे को परमात्म-शांति चाहिए, मेरे सोल का – मेरे
आत्मा का अनुभव चाहिए । क्या मुझे हो सकता है ?”
सुकरात बोलेः “क्यों नहीं हो सकता, जरूर हो सकता है !”
“मेरे को कितने समय में हो जायेगा आत्मा का अनुभव ?”
“जैसी अभी तड़प है वैसी ही बनी रहे और तुम ठीक से लगो तो 6
महीने में हो जायेगा ।”
उस गरीब के साथ एक चतुर व्यक्ति, बड़ा व्यक्ति भी आया था,
उसने कहाः “इस देहाती को 6 महीने में हो सकता है तो मेरे जैसे को
तो जल्दी हो जायेगा !”
सुकरात बोलेः “तुम्हारे को तो 2 साल में भी होना मुश्किल है !”
“क्यों ?”
“तुम ज्यादा चतुर हो, तुम्हारे दिमाग में संसार का कचरा ज्यादा
घुसा हुआ है । यह तो समतल जमीन है, इस पर 6 महीने में इमारत
खड़ी हो जायेगी और तुम्हारा तो मजबूत नीँव वाला ऊँचा भव्य बना हुआ
है, यह सब हटाना पड़ेगा । समतल जमीन नहीं है, तुम्हारी तो इमारत
है । तुम्हारे अंदर तो संस्कार पड़े हैं इधर-उधऱ के । इसको पटाया,

उसको पटाया… इसलिए ज्यादा देर लगेगी । जो सीधा-सादा होता है वह
जल्दी आनंदित हो जाता है और जो चतुर होता है उसको बहुत देर
लगती है ।”
सच्चा चतुर तो वह है जिसकी भगवान में रुचि हो जाय, जो
परिणाम का विचार करके व्यवहार करे । मूर्ख का नाम सीधा-सादा नहीं
है, जो छल-कपटरहित है ऐसा सीधा-सादा । कुछ लोग सीधे-सादे होते हैं
लेकिन अक्ल नहीं होती, परिणाम का विचार किये बिना काम करते हैं ।
‘आखिर यह सब कब तक ? आखिर क्या ?’ इस प्रकार परिणाम का
विचार करके तत्परता से परमात्मा में लगे ।
स्रोतः ऋषि प्रसाद, अप्रैल 2023, पृष्ठ संख्या 25 अंक 364
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