Tag Archives: Vivek Vichar

‘यदि तू इस धर्मयुक्त युद्ध को नहीं करेगा तो पाप को प्राप्त होगा’


कई बार धार्मिक लोगों के जीवन में ऐसा अवसर आ जाता है जब वे अर्जुन की भाँति कर्तव्य का निर्णय करने में असमर्थ से हो जाते हैं । ऐसे में  वेद भगवान मार्ग दिखाते हैं- हे मनुष्य ! मनुष्यकृत बातों से हटता हुआ ईश्वरीय वचन को श्रेष्ठ मान के स्वीकार करता हुआ तू इन देवी उत्तम नीतियों, सुशिक्षाओं को अपने सब साथी-मित्रों सहित सब प्रकार से आचरण कर । (अथर्ववेदः कांड 7, सूक्त 105 मंत्र 1)

आत्मसाक्षात्कारी महापुरुषों के वचन ईश्वरीय वचन होते हैं । स्वामी शिवानंद सरस्वती जी कहते हैं कि ″गुरु की आज्ञा का पालन करना ईश्वर की आज्ञा का पालन करने के बराबर है ।″ देश, काल, परिस्थिति के अनुसार दी गयी उनकी सीख दैवी उत्तम नीति है अतः वे जो कहें उसी का अनुसरण करना एवं जो मना करें उसका त्याग करना चाहिए ।

अर्जुन सोचता हैः ‘अपने ही परिजनों से युद्ध करके क्या करूँगा ? इससे तो हमें पाप ही लगेगा ।’ तब श्रीकृष्ण ने उसे फटकारते हुए कहाः क्लैव्यं मा  स्म गमः पार्थ…. ″हे अर्जुन ! तू नपुंसकता को त्याग और युद्ध के लिए खड़ा हो जा ।″ भगवान आगे कहते हैं-

अथ चेत्त्वमिमं धर्म्यं सङ्ग्रामं न करिष्यसि । ततः स्वधर्मं कीर्तिं च हित्वा पापमवाप्स्यसि ।। ″यदि तू इस धर्मयुक्त युद्ध को नहीं करेगा तो  स्वधर्म और कीर्ति को खोकर पाप को प्राप्त होगा ।″ (गीताः 2.3 व 2.33)

अर्जुन कहता हैः ″युद्ध करूँगा तो हमें पाप लगेगा ।″

भगवान कहते हैं कि ″युद्ध नहीं करेगा तो पाप लगेगा ।″ भगवान एवं महापुरुषों का आशय स्पष्ट है कि रिश्ते-नातों से भी अधिक महत्त्व धर्म का है । अतः अर्जुन ने अधर्मियों का डटकर मुकाबला किया । अर्जुन यदि भगवान के वचनों की अवज्ञा करता एवं एकनिष्ठ शिष्य-धर्म नहीं निभाता तो जीवन-संग्राम में सफल भी नहीं होता तथा आत्मसाक्षात्कार की उच्चतम अनुभूति भी उसे नहीं होती और वह भगवान के अनुसार पाप को ही प्राप्त होता ।

अधर्म की भर्त्सना करने को शास्त्रों, संतों ने पवित्र धर्म कार्य ही बताया है । संत कबीर जी, स्वामी विवेकानंद जी, स्वामी दयानंद सरस्वती, संत अखा भगत,,, आद्य शंकराचार्य जी आदि सभी महापुरुषों ने तत्कालीन पाखंडी लोगों द्वारा समाज को शोषित होने से बचाने के लिए उनकी पोल खोली है ।

वर्तमान में एक दम्भी, अज्ञानी छोरी स्वयं को ‘प्रभु जी’, ‘श्री जी’, ‘भगवान’ कहलवाकर पुजवाने लगी है और साधकों का श्रद्धांतरण करके उनका शोषण कर रही है । पूज्य बापू जी जैसे ब्रह्मनिष्ठ महापुरुष तो उनकी सीख माने ही नहीं, उलटा दूसरों को भी भटकाने लगे तो दूसरों को सावधान करना, बचाना तो बड़ा धर्मकार्य है, दैवी कार्य है पर कुछ बहके हुए श्रद्धांतरित मूर्ख लोग या छोरी के चाटुकार धूर्त लोग इसे ‘निंदा करना’ बोलते हैं तो यह उनकी मंदमति है या पाखंड ही है ।

यत्र योगेश्वरः कृष्णो यत्र पार्थो धनुर्धरः । तत्र श्रीर्विजयो भूतिर्ध्रुवा निर्तिमतिर्मम ।। (गीताः 18.78)

धर्म-स्थापना के लिए भगवान श्रीकृष्ण के साथ अर्जुन के पुरुषार्थ की भी आवश्यकता होती है अतः अपनी व औरों की श्रद्धांतरण व लूट से रक्षा के लिए पुरुषार्थ करना सभी का कर्तव्य है, धर्म है ।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, अक्तूबर 2021, पृष्ठ संख्या 2, अंक 346

ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ

…तो छोटे-से-छोटा बालक भी महान हो जायेगा – पूज्य बापू जी


माता-पिता और गुरुजनों को जो प्रणाम नहीं करते हैं उन्हें उनके
आगे झुकने में बड़ी मेहनत लगती है लेकिन जिन बच्चों को प्रणाम
करने का अभ्यास हो गया है उनको क्या मेहनत लगती है ! वे तो दिन
में एक बार क्या तीन बार भी प्रणाम कर लेंगे, उनको तो कोई कठिनाई
नहीं होगी । माँ-बाप के हृदय से आशीर्वाद ही तो निकलता है !
तो अच्छा अभ्यास कर दें । आत्मज्ञान का अभ्यास, जप का
अभ्यास, शास्त्र पढ़ने का, मौन रखने का, कम बोलने का, सार रूप
बोलने का अभ्यास और अच्छे व श्रेष्ठ पुरुषों के संग का अभ्यास – इस
प्रकार के अभ्यास पर थोड़ा ध्यान दें तो कैसा भी – छोटे-से-छोटा बालक
भी बड़ा बन जायेगा, महान आत्मा हो जायेगा ! बाहर से बड़े होने या
बड़ी जगह बर बैठने से कोई बड़ा थोड़े ही होता है ! सद्गुणों से बड़ा
होता है न !
सूरज उगने से पहले ही प्राणायाम करें, नहा धोकर संध्या करें ।
इससे बुद्धि विकसित होगी । फिर पढ़ने के पहले भगवान के नाम का
सुमिरन करें । परीक्षा के समय भगवन्नाम सुमिरन करें और ‘यह कठिन
है, कठिन है’ ऐसा नहीं सोचें तो पढ़ाई मे भी अच्छा सफल होगा ।
स्रोतः ऋषि प्रसाद, नवम्बर 2021, पृष्ठ संख्या 19 अंक 347
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ

अपने हृदय को आत्मज्ञान का कवच चढ़ा लो – पूज्य बापू जी


अपने को खोजो तो ईश्वर मिलेगा और ईश्वर को खोजो तो अपना आपा मिल जायेगा – ऐसा है । जो कभी नहीं मरता वह ईश्वर है । अब खोजो ‘कौन नहीं मरता ?’ शरीर मरने के बाद भी जो मरता नहीं है वह कैसा है ? कहाँ है ?’ खोजो । सुख-दुःख आया तो खोजो ‘किसको हुआ ?’ इसने दुःख दिया, इसने सुख दिया…. ऐसा तो अल्प मति के लोग मानते हैं । अरे ! सारा संसार सुख-दुःख के ताने-बाने से ही चलता है । राग-द्वेष से, निंदा-स्तुति से ही सारे संसार का खेल है । इसी में से खिलाड़ी (साक्षी आत्मस्वरूप) को समझ के अपना छक्का मार के पार हो जाओ । सदा किसी को सुख नहीं मिलता, सदा किसी को दुःख नहीं मिलता । सदा कोई शत्रु नहीं रहते, सदा कोई मित्र नहीं रहते – यह सब होता रहता है । कोई तरंग सदा चलती है क्या ? और बिना तरंग के दरिया होता है क्या ? तरंग जहाँ है, है और दरिया गहराई में ज्यों-का-त्यों है । ऐसे ही आपका आत्मा भी गहराई में ज्यों-का-त्यों है । मन की तरंगों में संसार की सब आपा-धापी-हइशो-हइशो… चलती रहती है । ‘ऐसा हो जाये, वैसा हो जाये…’ इस झंझट में मत पड़, यह तो चलता रहेगा । भगवान के पिताश्री भी संसार को ठीक नहीं कर सके । भगवान आये उस समय भी संसार ऐसा-वैसा था, अब भी ऐसा-वैसा है… यह तो चलता रहेगा । ऐसा हो जाय तो अच्छा… इसमें मत पड़ । तू तो अपने पैरों में जूते पहन ले बस ! सारे जंगल में से काँटे-कंकड़ हट जायें यह सम्भव नहीं है लेकिन अपने पैरों में जूते पहन ले तो तुझे काँटे-कंकड़ न लगेंगे ! ऐसे ही अपने हृदय को आत्मज्ञान का कवच चढ़ा ले तो तुझे  संसार के काँटे-कंकड़ न चुभेंगे, बस !

स्रोतः ऋषि प्रसाद, सितम्बर 2021, पृष्ठ संख्या 2 अंक 345