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दो प्रकार का शासन – पूज्य बापू जी


संयम या शासन दो तरह का होता हैः

  1. दूसरों पर शासन करना ।
  2. अपने पर शासन करना ।

दूसरों पर शासन करके शोषण करना यह अहंकारी राजाओं और नेताओं का काम है, यह स्वार्थपूर्ण होने से सद्गति नहीं देता । लेकिन दूसरों को भय से बचाकर उनकी भलाई चाहना, दूसरों के दोष मिटाने के लिए उन पर शासन करना, जैसे माँ, गुरु, भगवान करते हैं – यह उत्तम व सात्त्विक शासन है । और अपनी मन-इन्द्रियों पर शासन करके विकारों से बचना यह उत्तम शासन है ।

दूसरों पर सात्त्विक शासन करना और ‘स्व’ पर स्वाभाविक शासन होना – ये दोनों सद्गुण भगवान और भगवान को पाये हुए महापुरुषों से स्वतः सिद्ध होते हैं, साधकों को इनका यत्न करना पड़ता है । और मूर्ख लोग शासनहीन होने से नीच गतियों में, पशु-योनियों में परेशान होते हैं । तो अच्छी बातों को स्वीकार कर लो, बुरी बातों से बचने के लिए अपने मन व इन्द्रियों पर थोड़ा शासन करो और शासन करने में भगवान व भगवत्प्राप्त महापुरुषों का आश्रय और प्राणायाम – दोनों मदद करेंगे ।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, सितम्बर 2021, पृष्ठ संख्या 29 अंक 345

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ज्ञानी का कर्तव्य नहीं स्वनिर्मित विनोद होता है – पूज्य बापू जी


एक श्रद्धालु माई मिठाई बना के लायी और मेरे को दे के बोलीः ″कुछ भी करके साँईं (पूज्य बापू जी के सद्गुरुदेव साँईं श्री लीलाशाह जी महाराज) खायें ऐसा करो, हमारी मिठाई पहुँचती नहीं वहाँ ।″

मैंने ले ली । डीसा में साँईं आये थे । सुबह-सुबह सत्संग  हुआ तो कुछ गिने-गिनाये साधकों के बीच था । तो साँईं ने पूछाः ″क्या हुआ ?″

मैंने उसकी मिठाई और प्रार्थना श्रीचरणों में निवेदित की ।

साँईं बोलेः ″अब ले आओ भाई ! जो भाग्य है, भोग के छूटेंगे और क्या है ! लाओ, थोड़ा खा लें ।″

अब खा रहे हैं, ‘बढ़िया है ।’ बोल भी रहे हैं लेकिन कोई वासना नहीं है । खा रहे हैं परेच्छा-प्रारब्ध से (परेच्छा = पर इच्छा, दूसरों की इच्छा), मिल लिया परेच्छा से । अपने जो भी सत्संग-कार्यक्रम होते हैं, मैं उनके बारे में खोज-खोज के थक जाता हूँ कि ‘मेरी इच्छा से तो कोई कार्यक्रम तो नहीं कर रहा हूँ ?’  नहीं, लोग आते हैं – जाते हैं, उनकी बहुत इच्छा होती है तब परेच्छा-प्रारब्ध से कार्यक्रम दिये जाते हैं । आज तक के सभी कार्यक्रमों पर दृष्टि डाल के देख लो, कोई भी कार्यक्रम मैंने अपनी इच्छा से दिया हो तो बताओ । विद्यार्थियों के लिए होता है कि चलो, सुसंस्कार बँट जायें’ वह भी इसलिए कि उनकी इच्छाएँ होती हैं, उनके संकल्प होते हैं । या जो ध्यानयोग शिविर देता हूँ और मेरी सहमति होती है तो शिविर के लोगों की भी पात्रता होती है, उनका पुण्य मेरे द्वारा यह करवा लेता है । मैं ऐसा नहीं सोचता कि ‘चलो, शिविर करें, लोग आ जायें, अपने को कुछ मिल जाये, अपना यह हो जाय… या ‘चलो, सारा संसार पच रहा है, इस बहाने लोगों को थोड़ा बाहर निकालें ।’ ऐसा नहीं होता मेरे को ।

संत लोग कहते हैं कि ‘लोकोपकार, लोक-संग्रह यह ज्ञानी (आत्मज्ञानी) का कर्तव्य नहीं है, स्वनिर्मित विनोद है ।’ ऐसा नहीं कि संतों का कर्तव्य है कि समाज को ऊपर उठायें । कर्तव्य तो उसका है जिसको कुछ वासना है, कुछ पाना है । जो अपने-आप में तृप्त है उनका कोई कर्तव्य नहीं है । शुद्ध ज्ञान नहीं हुआ तब तक कर्तव्य है । जब तक शुद्ध ज्ञान नहीं हुआ, अपने ‘मैं’ का ज्ञान नहीं हुआ, तब तक वह अज्ञानी माना जाता है । तो

जा लगी माने कर्तव्यता ता लगी है अज्ञान ।

जब तक कर्तव्यता दिखती है तब तक अज्ञान मौजूद है, ईश्वर के तात्त्विक स्वरूप का ज्ञान (निर्विशेष ज्ञान) नहीं हुआ । ईश्वर का दर्शन भी हो जाय तब भी यदि निर्विशेष ज्ञान नहीं हुआ तो कर्तव्य मौजूद रहेगा । ईश्वर के दर्शन – कृष्ण जी, राम जी, शिवजी के दर्शन के बाद भी निर्विशेष शुद्ध ज्ञान – तत्त्व ज्ञान की प्राप्ति की जरूरत पड़ती है ।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, सितम्बर 2021, पृष्ठ संख्या 25 अंक 345

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ईश्वर से आँख-मिचौनी का खेल !


ईश्वर से आँख-मिचौनी का खेल हो रहा है । वह छिपा हुआ है, तुम ढूँढ रहे हो । प्रलयकाल में तुम छिपते हो, वह ढूँढ निकालता है । सृष्टिकाल में वह छिपता है, तुम ढूँढ रहे हो । वह कहाँ छिपा है ? वह ढूँढने वाले में छिपा है । ईश्वर है, यहीं है, अभी है । इस शरीर के भीतर जो सबसे स्थायी चीज है, उससे मिलकर रहता है । ईश्वर छिपेगा कहाँ ? जो चीज क्षण-क्षण में बदलती है, यदि ईश्वर उसमें छिपेगा तो पकड़ा जायेगा । जो चीज क्षण-क्षण में नहीं बदलती है, उसमें ईश्वर छिपा हुआ है । ईश्वर ने अपने छिपने के लिए जो लिहाफ (रजाई) बनाया है, जो खोल बनाया है,  वह तुम स्वयं हो । अपने-आप में ढूँढो ।

एक सेठ था । वह यात्रा कर रहा था । उसके पास बहुत रुपया था । एक चोर ने भाँप लिया कि सेठ के पास बहुत रुपया है । वह रेलगाड़ी में उसके साथ हो गया । सेठ के डिब्बे में ही चोर ने अपनी सीट रिजर्व करा ली ।  सेठ भी समझ गया था कि यह चोर है । अब सेठ ने दिन में तो रुपये निकाल के उसके सामने गिने और अपने तकिये के नीचे रख दिये । शाम को जब चोर शौचालय में गया तब उसके तकिये में रुपये घुसेड़ दिये । रात को जब सेठ शौचालय में गया, तब चोर ने सेठ के तकिये के नीचे रुपये ढूँढे किंतु कुछ भी हाथ नहीं लगा । जब सेठ सो गया तब चोर ने रुपये खोजे परंतु तब भी नहीं मिले । चोर बड़ा ही परेशान था । उसने सेठ को बेहोश करके बहुत देर तक रुपये ढूँढे लेकिन निराशा ही हाथ लगी । सेठ के पास रुपये हों तब मिलें, रुपये तो चोर के तकिये में छिपाये गये थे । कोलकाता-मुंबई का लम्बा सफर बीत गया, रेलगाड़ी से उतरने का समय हुआ ।

चोर ने कहाः ″सेठ मैंने तुम्हें मान लिया । मैं हूँ चोर । रुपये चुराने के लिए तुम्हारे साथ लगा था । दिन में तो तुम्हारे पास हजारों रुपये देखे और रात में कुछ भी नहीं मिला । बात क्या है ? आखिर तुम ये रुपये रखते कहाँ हो ?″

सेठ हँसने लगा । वह बोलाः ″भैया ! मैं कोलकाते में ही समझ गया था कि तुम चोर हो । बात कुछ नहीं है । मैंने सारे-के-सारे रुपये शाम को जब तुम शौचालय में गये थे, तब तुम्हारे तकिये में रख दिये थे । फिर जब सुबह गये थे तब निकाल लिये थे और अपने तकिये में रख दिये थे ।″ चोर ने लम्बी ठंडी साँस लेते हुए कहाः ″राम राम ! मेरे तकिये में हजारों रुपये आये और चले भी गये । मुझे नहीं  मिले । वाह ! सेठ तुमने छिपाने में कमाल कर दिया ।″

ईश्वर अपने को कहाँ छिपाता है ? ईश्वर अपने को तुम्हारे में छिपाये हुए है । ईश्वर अपने को आँख में नहीं छिपाता, नाक में नहीं छिपाता । वह अपने को तुम्हारे मैं में छिपाता है । तुम ढूँढते हो कि ‘ईश्वर कहीं मिल जाये’ और वह तुम्हारे हृदय में छिपा हुआ है । तुम अपने हृदयस्थ ईश्वर को ढूँढ नहीं सके । उसे प्राप्त नहीं कर सके । तुम ऐसे कच्चे खिलाड़ी हो कि अपने ही हृदय में विराजमान ईश्वर को पहचान नहीं सके । क्या खेल है तुम्हारा ? जरा उसका खेल तो देखो । अद्भुत खिलाड़ी है । गजब का खेल है ।

आप ही अमृत (आत्मा), आप अमृतघट(शरीर), आप ही पीवनहारी (आत्मरस का पान करने वाली वृत्ति)

आप ही ढूँढे (ढूँढने की क्रिया), आप ढूँढावे (ढूँढने वाला), आप ही ढूँढनहारी (परमात्मा को ढूँढने वाली वृत्ति)

आपन खेलु (खेल) आपि करि देखै ।

खेलु संकोचै (समेटे) तउ (तब) नानक एकै (एक परमात्मा ही रह जाता है) ।।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, सितम्बर 2021, पृष्ठ संख्या 24,26 अंक 345

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