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नित्य गुरुज्ञान में रमण करो ! – पूज्य बापू जी


जीवन में उतार-चढ़ाव तो आते रहते हैं । राग-द्वेष अनादि काल से है, वह भी तुम्हें झकझोरता होगा लेकिन तुम अपना लक्ष्य बना लो कि ‘जैसे मेरे सद्गुरु हर परिस्थिति में सम हैं, शांत हैं सजग हैं, सस्नेह हैं, सविचार हैं, ससत् हैं, सचित् हैं, सानंद हैं अर्थात् सत् के साथ, चेतन के साथ, आनंद के साथ जैसे मेरे गुरुदेव रमण करते हैं वैसे मैं भी करूँ ।’

इस प्रकार की सूझबूझ और सतत सावधानी जो रखता है वह यदि साधारण से साधारण व्यक्ति हो तो भी अपने उच्च आत्मा को पा लेता है, समझ लेता है ।

‘मैं बीमार हूँ, मैं बीमार हूँ….’ ऐसा चिंतन नहीं करो । ‘बीमार शरीर है, मैं इसको जानता हूँ ।’ ‘मैं दुःखी हूँ….’ नहीं, दुःखी मन है, मैं इसको जानता हूँ । मैं अमर आत्मा हूँ, मैं गुरु का हूँ – गुरु मेरे हैं, मैं प्रभु का हूँ – प्रभु मेरे हैं !’ ऐसा चिंतन करो तो दुःख बीमारी, परेशानी चले जायेंगे । भले देर-सवेर जायें पर जायेंगे जरूर । और अगर फिर आयेंगे तो इनका महत्त्व नहीं रहेगा । बाह्य जगत में तुम जिसको महत्त्व देते हो, जिससे प्रभावित होते हो वही तुम्हारे को नन्हा बना देता है और ईश्वर एवं सद्गुरु को महत्त्व देते हो, उनसे प्रभावित रहते हो तो वे तुम्हें अपने स्वभाव में मिला लेंगे और तुच्छ को महत्त्व देते हो तो वे तुम्हें तुच्छ बना देंगे । कभी भी रोग को, दुःख को बीमारी को, भूतकाल को महत्त्व न दो । गुरु-तत्त्व को, चैतन्य तत्त्व को, गुरुज्ञान को महत्त्व देकर नित्य उस गुरुज्ञान में रमण करो ।

सावधानी ही साधन है…

सजगता, सावधानी ही साधन है । दूसरे सब साधन छोटे हैं । गुरु से प्राप्त उपदेश में हम सजग रहें, सावधान रहें और कभी यह पकड़ न रखें कि ‘ऐसा क्यों ?’ वैसा क्यों ?…’ इसी का नाम तो दुनिया है । जो बीत गया वह भूतकाल है, जो आयेगा वह भविष्य है – अभी हमारे पास नहीं है, अभी जो वर्तमान है वह देखते-देखते पसार हो रहा है, उसमें रुकने की ताकत ही नहीं है । जो प्रकृति (माया) के दायरे में है और सतत (बीतता) जा रहा है उसका भय क्यों ? उसका आकर्षण क्यों उसकी चिंता क्यों ? और जाने को जो निहार रहा है, जो सदा है उस गुरु-तत्त्व, चैतन्य तत्त्व, आत्मतत्त्व से विमुखता क्यों ? जो सदा है उसके सम्मुख  हो जायें और जो जा रहा है उसका ठीक उपयोग कर लें बस, तुम्हारे दोनों हाथों में लड्डू !

स्रोतः ऋषि प्रसाद, अगस्त 2021, पृष्ठ संख्या 2, अंक 344

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आप कहाँ समय लगा रहे हैं ? – पूज्य बापू जी


व्यक्ति ज्यों छोटे विचारों को महत्त्व देता है त्यों धीरे-धीरे पतन की खाई में गिरता है और ज्यों-ज्यों वफादारी से सेवा को महत्त्व देता है त्यों-त्यों उन्नति के शिखर पर चढ़ता जाता है । अपनी योग्यता चाहे अभी न के बराबर हो लेकिन जो योग्यता है उसे ईश्वर की प्रीति के लिए, धर्म की सेवा-रक्षा के लिए ठीक ढंग से उपयोग में लाते हैं तो उस योग्यता का विकास हो जायेगा । अपने जो बच्चे-बच्चियाँ सेवा करते हैं उनके पास कौनसा प्रमाणपत्र है ? क्या उनके पास कोई पदवियाँ हैं इसलिए वो सेवा में सफल हो रहे हैं ? नहीं, तत्परता है तो सफल होते हैं । किसी में तत्परता नहीं है तो वह पड़ा रहेगा संस्था पर बोझा होकर । तत्परता नहीं तो बस, मुफ्त का खाना सत्यानाश जाना ! फिर बुद्धि ऐसी मारी जायेगी कि इधर-का-इधर, उधर-का-इधर… ऐसा-वैसा करके अशांत हो जायेगा । प्रशांत  आत्मा होना है । वैसा चला गया तो फिर कमा सकते हैं, स्वास्थ्य चला गया तो फिर ठीक हो सकता है, मित्र रूठ गया तो उसको मना सकते हैं, मकान छूट गया तो दूसरा ले सकते हैं, गाड़ी निकल गयी तो दूसरी गाड़ी में बैठ सकते हैं पर समय निकल गया, आयुष्य बीत गया तो वह वापस नहीं आयेगा । इसलिए समय को आप कहाँ लगा रहे हैं – कहाँ बरबाद कर रहे हैं इसका ध्यान रखना पड़ेगा । समय बड़ा कीमती है, व्यर्थ की गप्पें मारने में अथवा व्यर्थ की चेष्टाओं में समय बरबाद न करके उसका सदुपयोग करना चाहिए । भगवत्स्मरण, भगवद्गुणगान, भगवच्चिंतन और भगवत्सेवा-सत्कार्य में समय व्यतीत करना ही समय का सदुपयोग है ।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, अगस्त 2021, पृष्ठ संख्या 17 अंक 344

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परिप्रश्नेन



प्रश्नः भगवत्कृपा, संतकृपा और गुरुकृपा क्या है ?
पूज्य बापू जीः भगवत्कृपा है कि तुम्हें संसार फीका लगने लगे
और भगवद्-शांति, भगवद्-ज्ञान, भगवद्-रस में सार दिखने लगे । कैसी
भी मुसीबत या कठिनाई आ जाय, आर्तभाव से भगवान को पुकारो तो वे
मुसीबत में से निकालने का रास्ता देते हैं ।
भगवान कहते हैं-
ये यथा मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम् ।
जो मुझे जिस भाव से, जैसा भजता है मैं उसको उसी भाव से फल
देता हूँ । यह भगवत्कृपा है पर संतकृपा इससे कुछ विलक्षण है ।
भगवान को तो जिस भाव से भजो, जितना भजो उस भाव से उतनी
कृपा देंगे परंतु संत को भजो चाहे न भजो, उनकी दृष्टि में आ जाओ
और तुम्हारे को जो जरूरत, तुम जो माँगो वह तो ठीक है लेकिन तुम्हारे
को धीरे-धीरे फुसला के, पटा के, रेलगाड़ी चलाकर, प्रसाद फेंके के… कैसे
भी करके संत तुमको चिन्मय सुख की तरफ ले जायेंगे । जिससे
भगवान भगवद्-रस में तृप्त हैं, तुमको उस रसस्वरूप में पहुँचा देंगे ।
पिता की कृपा में अनुशासन होता है, माता की कृपा में ममता होती है
किंतु माँ दया, कृपा करती है तो ममता से करती है, पिता कृपा करता है
तो अनुशासन करके अपने काम-धंधे के योग्य बनाने की कृपा करता है
और भगवान की कृपा में जो जैसा भजता है उसको वैसा ही फल मिलता
है परंतु संत व सद्गुरु की कृपा में ऐसा होता है कि आप कृपा न चाहो
तो भी वह बरसती रहती है । जितना भी ले सकता है ले और नहीं लेता
है तो लेने योग्य भी बनाते जाते है ।

संत की कृपा में प्रेम होता है, उदारता होती है क्योंकि संत
भुक्तभोगी होते हैं – जहाँ तुम रहते हो वहीं से संत आये हैं तो संसार के
दुःखों को, आपाधापी को, संसार में कैसा पचना होता है, कैसी बेवकूफी
होती है, कैसा आकर्षण होता है, कैसी फिसलाहट होती है – इन सबको
वे जानते है । इसलिए कैसा भी साधक हो…. चलो, चलो, चलो –
डाँटकर, प्यार करके, कुछ पुचकार के, न जाने क्या-क्या करके उठाते हैं
और पहुँचा भी देते हैं । अब तुम जैसा भजो वैसा फल देने को संत नहीं
तौलेंगे । ‘तुम कैसे भी हो, हमको जो मिला है वह तुमको कैसे मिले’
इस प्रयोजन से सारा आयोजन करेंगे, करायेंगे । यह संतकृपा ऐसी ऊँची
होती है । मैंने कभी सोचा नहीं था कि मेरे गुरु जी मेरे को इतना ऊँचा
पहुँचायेंगे ।
गुरुकृपा ही केवलं शिष्यस्य परं मङ्गलम् ।
मैं गुरु जी के पास गया तो मैं आशाराम बनूँ या मुझे
ब्रह्मसाक्षात्कार हो ऐसा तो सोचा ही नहीं था । बचपन से भगवान की
तड़प तो थी लेकिन समझता था कि ‘शिवजी आयेंगे, दर्शन देंगे और
बोलेंगेः ‘क्या चाहिए ? मैं बोलूँगाः ‘कुछ नहीं चाहिए ।’ तो शिवजी
प्रसन्न हो जायेंगे । हम समझते थे कि इसी को बोलते हैं भगवत्प्राप्ति
। बाद में पता चला कि ‘अरे, यह तो कुछ भी नहीं । इतनी मेहनत करो
और भगवान आये, दिखे फिर चले गये तो अपन वैसे-के-वैसे ।’ गुरु जी
ने ऐसी कृपा की कि पता चला शिवजी जिससे शिवजी हैं, विष्णुजी
जिससे विष्णुजी हैं, ब्रह्मा जी जिससे ब्रह्माजी हैं और दुनिया जिससे
चेतना पाती है वही मेरा आत्मदेव है, यह सब मेरे आत्मदेव का ही
विस्तार है । ‘मैं कल्पना भी नहीं कर सकता था ऐसी ऊँची अवस्था में
गुरु जी ने रख दिया । यह है गुरुकृपा !

स्रोतः ऋषि प्रसाद, अगस्त 2021, पृष्ठ संख्या 34 अंक 344
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