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हस्त चिकित्सा


शरीर के किसी भी अंग की पीड़ा में चमत्कारिक, पीड़ानिवारक, स्वास्थ्य एवं सौंदर्यवर्धक स्पर्श चिकित्सा

मानसिक पवित्रता और एकाग्रता के साथ मन में निम्नलिखित वेदमंत्र का पाठ करते हुए दोनों हथेलियों को परस्पर रगड़कर गर्म करके उनसे पाँच मिनट तक पीड़ित अंग का बार-बार सेंक कीजिये और सेंक करने के पश्चात नेत्र बन्द करके कुछ मिनट तक सो जाइये। इससे गठिया, सिरदर्द तथा अन्य सब प्रकार के दर्द दूर होते हैं।

मंत्र इस प्रकार हैः

अयं में हस्तो भगवा, नयं  में भगवत्तरः।

अयं में विश्वभेषजो यं शिवाभिमर्शन।।

अर्थात् मेरी प्रत्येक हथेली भगवान (ऐश्वर्यशाली) है, अच्छा असर करने वाली है। मेरे हाथ में विश्व के सभी रोगों की समस्त औषधियाँ हैं और मेरे हाथ का स्पर्श कल्याणकारी, सर्वरोगनिवारक और सर्वसौन्दर्य-सम्पादक है।

आपकी मानसिक पवित्रता तथा एकाग्रता जितनी अधिक होगी उसी अनुपात में आप इस मंत्र द्वारा हस्त-चिकित्सा में सफल होते चले जायेंगे। अपनी हथेलियों के इस प्रकार एकाग्र और पवित्र प्रयोग से आप न केवल अपने ही अपितु अन्य किसी के रोग भी दूर कर सकते हैं।

हथेलियों में सर्वरोगनिवारक और सौन्दर्यवर्धक शक्ति

रात्रि में सोते समय बिस्तर पर लेटकर और प्रातः बिस्तर से उठने से पूर्व इसी मंत्र को बोलते हुए दोनों हथेलियों को परस्पर रगड़कर गर्म करके उनसे सिर से लेकर पाँव के तलवों तक क्रमशः सिर, बाल, ललाट, नेत्र, नाक, कान, होंठ, गाल, ठोड़ी, गर्दन, कन्धे, भुजाएँ, वक्ष, हृदय, पेट, पीठ, नितंब, जंघाएँ, घुटने, पिंडलियाँ, टखने, पाद, पृष्ठों और पैर के तलुओं का स्पर्श बड़े स्नेह और शान्ति से कीजिये। इससे आप देखेंगे कि आपका स्वास्थ्य और सौन्दर्य गुलाब के पुष्प की भाँति सुविकसित होता जा रहा है। हथेलियों के परस्पर रगड़कर, मनोयोग के साथ मंत्र सहित सिर से पाँव कत सारे शरीर के स्पर्श द्वारा स्वास्थ्य और सौन्दर्य की वृद्धि होती है।

उदाहरणार्थ यदि आप मंत्र बोलते हुए दोनों हथेलियों को आपस में रगड़कर गर्म करके नेत्रों का स्पर्श करें और अनुभव करें कि ʹआपकी पलकों के बाल सुन्दर और आकर्षित होते जा रहे हैं, आपकी दृष्टिशक्ति बढ़ रही है और आपकी दृष्टि स्पष्ट, पवित्र और मनोहर हो रही है….ʹ तो आप कुछ ही दिनों के उपरान्त नेत्रों में वैसा ही आश्चर्यजनक सुधार पायेंगे।

मनुष्य की दोनों हथेलियों में सर्वरोगनिवारक औषधियाँ निहित हैं और दोनों हथेलियों को परस्पर रगड़कर गर्म करने से सर्वरोगनिवारक औषधियों का प्रभाव हथेलियों की त्वचा में आ जाता है।

इस प्रकार हथेलियों को परस्पर रगड़कर सिर से पाँव तक शरीर के समस्त अवयवों पर घुमाने से प्रत्येक अवयव के रोग और विकार निकल जाते हैं और उसके स्थान पर आरोग्यता एवं सुन्दरता की प्राप्ति होने लगती है।

यह हमारे देश का दुर्भाग्य ही है कि देशवासी आचारविचार की दृष्टि से भ्रष्टाचार की एवं आहार-विहार की दृष्टि से विषाक्त प्रदूषण की चक्की में पिस रहे हैं। जहाँ भ्रष्ट आचरण हमारे चरित्र और स्वभाव को दूषित कर रहा है वहीं दुषित एवं विषाक्त पर्यावरण हमारे शरीर और स्वास्थ्य का नाश कर रहा है।

जल और वायु के साथ अनाज, सब्जी, फल, दूध आदि खाद्य पदार्थ भी दूषित होते जा रहे हैं जो नाना प्रकार के रोग उत्पन्न कर रहे हैं।

अतः ऐसी स्थिति में लापरवाही न बरतें। सब्जी फल आदि को अच्छी तरह धोकर प्रयोग करें। पानी दूषित हो तो उबालकर ठण्डा करके सेवन करें। दूध को उबालकर कुनकुना गर्म ही सेवन करें। बाजारू वस्तुएँ, मिठाइयाँ, पेय पदार्थ आदि का प्रयोग भी आपके शरीर को दूषित कर सकता है, यह न भूलें। अपने शरीर को स्वस्थ और रोगप्रतिरोधक शक्ति से भरपूर रखें, जिससे कि वह इस प्रदूषण का मुकाबल कर सके। इसके लिए उचित आहार-विहार और श्रेष्ठ आचार-विचार का पालन करना अनिवार्य हैः

भावप्रकाश (पूर्वखण्ड) में आता हैः

दिनचर्या निशाचर्यामृतुचर्यां यथोदिताम्।

आचारन्पुरुषः स्वस्थः सदातिष्ठति नान्यथा।।

दिनचर्या, रात्रिचर्या और ऋतुचर्या जिस प्रकार से (आयुर्वेद ने) बतायी है, उसी प्रकार से आचरण करने वाला मनुष्य सदा स्वस्थ रह सकता है, इसके विपरीत आचरण करने वाला स्वस्थ नहीं रह सकता।

दवाओं की गुलामी कब तक ?

दिन प्रतिदिन नई-नई दवाओं के आविष्कार होते रहते हैं, फिर भी रोगों की मात्रा घटने के बजाय बढ़ती रहती है। रोगों पर नियंत्रण करने के लिए जैसे-जैसे डॉक्टरों और चिकित्सालयों में वृद्धि की जा रही है, वैसे ही नित्य नये रोग सामने आ रहे हैं।

टीके अथवा इंजेक्शन के दुष्परिणाम के कारण कुछ लोग अपनी आँखों की दृष्टि ही गँवा बैठते हैं, कुछ व्यक्ति लकवे के शिकार हो जाते हैं, कुछ रोगियों को श्वेत कुष्ठ हो जाता है। विषैली और नशीली दवाओं के प्रयोग से कई लोग बहरेपन, पागलपन, मिरगी, जोड़ों के दर्द, स्नायु की दुर्बलता, कब्ज, ब्लडप्रैशर, ब्लडकैंसर एवं हृदयरोग के शिकार हुए हैं।

बिगड़ा हुआ स्वास्थ्य सुधारने की लालच में विषैली व नशीली दवाओं के सेवन से हम अपनी जीवनशक्ति को दुर्बल बनाकर सदा के लिए रोगग्रस्त रहते हैं। विषैली एवं नशीली दवाएँ मस्तिष्क को दुर्बल बनाकर और रोग के बाहरी लक्षणों को दबाकर केवल अस्थाई लाभ करती हैं। अंग्रेजी दवाई रोग को दबा तो देती है किन्तु कालान्तर में दवाई के अखाद्य तत्त्वों के प्रभाव से कोई दूसरा रोग उभरकर सामने आता है। फिर दूसरे रोग को दबाने के लिए अन्य अंग्रेजी दवाएँ लेनी पड़ती हैं।

सच्चा स्वास्थ्य यदि दवाओं से मिलता तो कोई भी डॉक्टर, कैमिस्ट, वैद्य या उनके परिवार का व्यक्ति कभी बीमार नहीं पड़ता। स्वास्थ्य यदि खरीदने से मिलता तो संसार में कोई भी धनवान रोगी नहीं रहता।

स्वास्थ्य इंजेक्शनों, यंत्रों, चिकित्सालयों के विशाल भवनों और डॉक्टरों की बड़ी-बड़ी डिग्रियों से नहीं मिलता, परंतु स्वास्थ्य के नियमों का पालन करने से एवं संयमी जीवन जीने से मिलता है।

यजुर्वेद में आता हैः

शतं वोम्ब धामानि सहस्रमुत वो रूहः।

अधाशत क्रत्वो यूयमिमं मेअँगद्रकृत।।

मनुष्यों को चाहिए कि वे उचित पथ्य आहार और नियमों का विधिवत पालन कर शरीर को रोगरहित रखें अर्थात् स्वास्थ्य की रक्षा करें क्योंकि स्वस्थ रहे बिना धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष इन चारों पुरुषार्थों को उपलब्ध नहीं किया जा सकता है।

महात्मा गांधी कहते हैं कि शरीर में अनेक दवाइयों को ठांसने से मनुष्य अपनी जिंदगी को घटाता है। इतना ही नहीं, बल्कि अपने मन पर अधिकार भी खो बैठता है। इससे वह अपने मनुष्यत्व को भी गँवा देता है और शरीर को स्वामी बने रहने के बजाय उसका गुलाम बन जाता है।

शीतऋतु में आहार-विहार

मुख्य रूप से तीन ऋतुएँ हैं- शीत ऋतु, ग्रीष्म ऋतु और वर्षा ऋतु। आयुर्वेद के मतानुसार छः ऋतुएँ मानी गयी हैं- बसन्त, ग्रीष्म, वर्षा, शरद, हेमन्त और शिशिर। महर्षि सुश्रुत ने वर्ष के 12 मास इन ऋतुओं में विभक्त कर दिये हैं।

शीत ऋतु विसर्गकाल और आदानकाल की संधिवाली ऋतु होती है। विसर्गकाल दक्षिणायन में और आदानकाल उत्तरायण में होता है।

आयुर्वेद शास्त्र के अनुसार दक्षिणायन में वर्षा, शरद और हेमन्त ऋतु होती हैं, इसे विसर्गकाल बोलते हैं। इस काल में चन्द्र का बल अधिक और सूर्य का बल क्षीण रहता है। इससे प्राणियों का रस पुष्ट होने से  बल बढ़ता है।

उत्तरायण में शिशिर, बसन्त और ग्रीष्म ऋतुएँ होती हैं। इस काल में सूर्य का बल अधिक होता है, अतः सूर्य की किरणें क्रमशः प्रखर और बलवान होती जाती हैं और सबका जलीय अंश खींच लेती हैं। अतः इसे आदानकाल कहा है।

इस प्रकार शीतकाल आदानकाल और विसर्गकाल दोनों का सन्धिकाल होने से इसके गुणों का लाभ लिया जा सकता है क्योंकि विसर्गकाल की पोषक शक्ति हेमन्त ऋतु में हमारा साथ देती है, साथ ही शिशिर ऋतु में आदानकाल शुरु होता जाता है  लेकिन सूर्य की किरणें एकदम से इतनी प्रखर भी नहीं होती कि रस सुखाकर हमारा शोषण कर सकें। अपितु आदानकाल का प्रारम्भ होने से सूर्य की हल्की और प्रारम्भिक किरणें सुहावनी लगती हैं।

वैसे तो उचित आहार लेना प्रत्येक ऋतु में जरूरी होता है पर शीत ऋतु में अनिवार्य हो जाता है क्योंकि शीतकाल में जठराग्नि बहुत प्रबल रहती है। अतः समय पर उसकी पाचक क्षमता के अनुरूप उचित मात्रा में आहार मिलना ही चाहिए अन्यथा शरीर को हानि होगी।

क्षेम कुतूहल शास्त्र में आता है किः

आहारान् पचतिशिखी दोषानाहारवर्जितः।

दोषक्षये पचेद्धातून प्राणान्धातुक्षये तथा।।

अर्थात् पाचक अग्नि आहार को पचाती है, यदि उचित समय पर उचित मात्रा में आहार न मिले तो आहार के अभाव में शरीर में मौजूद दोषों के नष्ट हो जाने पर यह अग्नि शरीर की धातुओं को जला डालने के बाद, प्राणों को जला डालती है यानी प्राणों का नाश कर देती है। जैसे चूल्हे में खूब आग धधक उठे और उस पर आपने खाली बर्तन चढ़ाया तो बर्तन ही जलकर काला पड़ जायेगा। यदि उसमें पदार्थ और जल की मात्रा कम होगी तो भी पदार्थ और जल जलकर नष्ट हो जायेंगे। अतः पर्याप्त मात्रा में उचित समय पर पौष्टिक और बलवर्धक आहार न दिया जाय तो शरीर की धातुएँ ही जलकर क्षीण होने लगेंगी। यही कारण है कि भूख सहने वालों का शरीर क्षीण और दुर्बल होता जाता है क्योंकि भूख की आग उनके शरीर को ही जलाती रहती है।

अतः शीतकाल में सबसे महत्त्वपूर्ण कार्य यही है कि सही समय पर नियमित रूप से अपनी पाचनशक्ति के अनुसार अनुकूल मात्रा में पोषक तत्त्वों से युक्त आहार खूब चबा-चबाकर खाना चाहिए। इस ऋतु में स्निग्ध (चिकने) पदार्थ, मौसमी फल व शाक, घी, दूध, शहद आदि के सेवन से शरीर को पुष्ट और बलवान बनाना चाहिए। कच्चे चने रात को गलाकर प्रातः खूब चबा-चबाकर खाना, गुड़, गाजर, मूंगफली, केला, शकरकंद, सिंघाड़े, आँवला आदि कम खर्च में सेवन किये जाने वाले पौष्टिक पदार्थ हैं।

इस ऋतु में तेल मालिश करना, प्रातः दौड़ लगाना, शुद्ध वायुसेवन हेतु भ्रमण करना, व्यायाम, योगासन करना, ताजे या कुनकुने जल से स्नान करना आदि करने योग्य उचित विहार हैं।

शीत ऋतु में ध्यान देने योग्य

इस ऋतु में कटु, तिक्त व कषाय रसयुक्त एवं वातवर्धक पदार्थ, हल्के, रूखे एवं अति शीतल पदार्थों का सेवन नहीं करना चाहिए। खटाई का अधिक प्रयोग न करें जिससे कफ का प्रकोप न हो और खांसी, श्वास, दमा, नजला, जुकाम आदि व्याधियाँ न हों। ताजे दही, छाछ, नींबू आदि का सेवन कर सकते हैं। भूख को मारना या समय पर भोजन न करना स्वास्थ्य के लिए हानिकारक होता है। आलस्य करना, दिन में सोना, देर रात तक जागना, अति ठंड सहन करना आदि शीत ऋतु में वर्जित है। बहुत ठंडे जल से स्नान नहीं करना चाहिए।

पूरे वर्ष में यही समय हमें मिलता है जब प्रकृति हमें स्वास्थ्य की रक्षा और वृद्धि करने में सहयोग देती है। अतः इस ऋतु में उचित आहार-विहार द्वारा अपने शरीर को पुष्ट और बलवान अवश्य बनाना चाहिए जिससे कि अन्य ऋतुओं में भी हमारा शरीर बलवान बना रह सके।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, नवम्बर 1996, पृष्ठ संख्या 21, 22, 23 अंक 47

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शरीर की अमूल्य निधिः आँख


नगरी नगरस्येव रथस्येव रथी यथा।

स्वशरीरस्य मेधावी कृत्येष्ववहितो भवत्।।

(चरक संहिता)

जैसे नगरपति नगर के योगक्षेम और वाहन चालक वाहन की सुरक्षा और सही राह पर चलाने के प्रति सदैव सतर्क रहता है वैसे ही मेधावी व्यक्ति अपने शरीररूपी नगर और जीवन की यात्रा कराने वाले वाहन की देखरेख और सुरक्षा करने तथा इसे सही राह पर चलाने के प्रति सतर्क और सचेष्ट रहता है।

आजकल किशोर अवस्था में ही नजर कमजोर होने से बच्चों को चश्मा लग जाता है। कारण है सिर्फ असंतुलित आहार, ब्रह्मचर्य का पालन न करना एवं उचित पोषक तत्त्वों का अभाव। कुछ बच्चों में यह बीमारी वंशानुगत भी पायी जाती है। आजकल तो दूरदर्शन के साथ-साथ Zee T.V, M.T.V. आदि की बीमारी बच्चों को ऐसी लगी है कि बस, जब देखो तब टी.वी. के सामने। फलस्वरूप पढ़ाई में मन नहीं लगता। देर रात तक जगने व सुबह देरी से उठने से पाचन तंत्र अव्यवस्थित होना, बुद्धि शक्ति का मंद होना, सिर दर्द आदि रोग तो होते ही हैं, साथ ही अधिक टी.वी. देखने से उसमें से निकलने वाली हानिकारक किरणों से आँखों पर ऐसा खराब असर होता है कि परिणामतः चश्मा लगवाना पड़ता है। अतः अपने ही हाथों से अपने पैरों पर कुल्हाड़ी न मारो। थोड़ा विवेक से काम लो। आँखों की सुरक्षा के लिए उचित देखभाव व आहार-विहार पर ध्यान दो।

सावधानियाँ

सुबह सूर्योदय से पहले शय्या का त्याग कर दो। शीतल जल से कुल्ला करके चेहरे को धो लो। तदुपरांत मुँह में पानी भरकर आँखों पर शीतल जल के छीँटे मारों। इससे आँखों को शीतलता मिलती है। जलन शाँत होती है। नेत्ररोग दूर करने में मदद मिलती है।

प्रभातकाल में स्वच्छ वातावरण में घूमना एवं हरियाली देखना भी नेत्रज्योति में वृद्धि करता है।

सुबह-सुबह हरी-हरी घास पर नंगे पैर घूमने से भी आँखों को फायदा होता है।

शहरों में मोटर गाड़ियों के विषाक्त धुएँ, धूल एवं तेज रोशनी से आँखों पर बहुत बुरा प्रभाव पड़ता है। अतः जितना सम्भव हो इससे बचो। ऐसे वातावरण में से आने के बाद स्वच्छ शीतल जल से आँखों को धोकर ठण्डी पट्टी आँखों पर रखकर थोड़ी देर लेट जाओ।

देर रात तक जगने एवं सुबह सूर्योदय के बाद उठने से आँखों में गर्मी बढ़ जाती है। आँखों में रूखापन, सूनापन आ जाता है। सौम्यता गायब हो जाती है।

आँखों से तेज हवा का सीधा टकराना, मल मूत्र, छींक, जम्हाई एवं अधोवायु आदि के वेग को बलपूर्वक रोकना, ऋतु के अनुकूल आहार-विहार न करना, भोग-विलास में अतिशयता करना…. ये सब शरीर के सर्वाधिक कोमल एवं संवेदनशील अंग आँख को बहुत ज्यादा हानि पहुँचाते हैं। अतः इन सबसे बचो।

नेत्रज्योति को बढ़ाने के अन्य उपाय

त्रिफला चूर्ण को रात्रि में पानी में भिगोकर सुबह साफ कपड़े में छानकर उस पानी से आँख धोने से नेत्रज्योति बढ़ती है।

जलनेति करने से भी नेत्रज्योति बढ़ती है। इससे आँख, नाक, कान के समस्त रोग मिट जाते हैं। आश्रम से प्रकाशित ʹयोगासनʹ पुस्तक में कई प्रकार के रोग आसनों द्वारा मिटाने के लिए एवं आँखों के लिए जलनेति का संपूर्ण विवरण दिया गया है।

एक चम्मच ताजा मक्खन, आधा चम्मच पिसी मिश्री, थोड़ी सी पिसी काली मिर्च मिलाकर चाट लो। तत्पश्चात सफेद नारियल के 2-3 टुकड़े खूब चबा-चबाकर खा लो। ये सभी द्रव्य बहुत पौष्टिक होने से नेत्रज्योति में वृद्धि होती है।

तेज मिर्च-मसालेदार पदार्थ, उष्ण प्रकृति के पदार्थ, खटाई आदि आँखों को नुकसान पहुँचाते हैं। अतः इनका सेवन यदा-कदा अल्प मात्रा में ही करो।

पैरों के तलवों व अंगूठे पर सोम, बुध और शनिवार के दिन सरसों के तेल की मालिश करने से नेत्रज्योति बढ़ती है एवं आँखों के रोग नहीं होते हैं।

आँखों के अन्य रोग एवं निदान

बेलपत्र का रस पीने से और आँखों में आंजने से रतौंधी रोग में आराम होता है।

हल्दी एवं लौंग को पानी में घिसकर थोड़ा-सा गर्म करके पलकों पर लगाने से गुहेरी (अंजनी) दो-तीन दिन में मिट जाती है।

सौ ग्राम पानी में एक नींबू का रस डालकर आँख धोने से कचरा निकल जाता है।

रात्रि को आँवला चूर्ण खाने से, हरियाली देखने से तथा कड़ी धूप से बचने से आँखों की सुरक्षा होती है।

तुलसी का काढ़ा

तुलसी के 10-12 पत्ते, 3-4 काली मिर्च, चुटकी भर सौंठ का चूर्ण, चुटकी भर सैन्धा नमक, इन सबको एक गिलास पानी (लगभग 250 मि.ली.) में डालकर उबालो। जब पानी आधा रह जाय तब उतारकर छान लो। रात को यह काढ़ा पीकर सो जाओ। इसके सेवन के आधा घंटे तक पानी न पियो।

यह काढ़ा सर्दी, जुकाम, मलेरिया, टांसिल्स आदि रोगों को दूर करने में बहुत गुणकारी है। इन रोगों के कारण हाथ-पैर में होने वाले दर्द को भी यह दूर करता है। खाँसी एवं गले की खिंच खिंच (खराश) में भी लाभप्रद है।

सर्पदंश चिकित्सा

सर्प के काटने पर शीघ्र ही तुलसी का सेवन करने से जहर उतर जाता है एवं प्राणों की रक्षा होती है। तुलसी के 50-60 पत्ते खिलाने से विष का फैलना रूक जाता है। इसकी जड़ को मक्खन के साथ पत्थर पर घिसकर लेप बनाकर सर्प के काटे हुए स्थान पर लगाओ। विशेष बात यह कि लगाते समय इस लेप का रंग सफेद होता है और जैसे-जैसे यह लेप जहर खींचता है वैसे-वैसे यह लेप काला पड़ता जाता है। लेप का रंग काला होते ही इसे हटाकर दूसरा लेप लगा देना चाहिए। ऐसा तब तक करो जब तक लेप का रंग काला होना बंद न हो जाय।

यदि सर्प का काटा हुआ व्यक्ति बेहोश हो जाय तो तुलसी के पत्तों का रस, कपाल, गले, पीठ और छाती पर लगाकर मालिश करना चाहिए। रस की दो-दो बूँद कान एवं नाक में थोड़े-थोड़े समय के अन्तराल से टपकाते रहना चाहिए। रोगी होश में आने पर तुलसी का रस पिला देना चाहिए।

विविध प्रयोग

मुँहासों के रोगः तुलसी के पत्तों को पीसकर लुगदी बनाकर मुँह पर लगाने से मुँहासे के दाग धीरे-धीरे दूर हो जाते हैं।

मुँहासेः एक कप दूध को खूब उबालो। जब दूध गाढ़ा हो जाय तब उसे नीचे उतार लो। उसमें एक नींबू निचोड़ दो। साथ ही हिलाते रहो जिससे दूध व नींबू का रस एक हो जाय। फिर ठण्डा होने के लिए रख दो। रात को सोते समय इसे चेहरे पर लगाकर मसलो। चाहो तो एक डेढ़ घण्टे के अन्दर चेहरा धो सकते हो या रात भर ऐसे ही रहने दो। सुबह में धो सकते हो। इस प्रयोग से मुँहासे ठीक होते हैं। चेहरे की त्वचा कांतिमन बनती है।

पेटदर्दः वायु प्रकोप के कारण पेट फूलने से एवं अधोवायु के न निकलने से पेट का तनाव बढ़ता है जिससे बहुत पीड़ा होती है। चला भी नहीं जाता है। अतः अजवायन एवं काला नमक दोनों को पीसकर समान मात्रा में मिलाकर रख लो। इस मिश्रण को एक चम्मच मात्रा में गर्म पानी के साथ फांकने से अधोवायु निकल जाती है। साथ ही पेट का तनाव व दर्द भी मिट जाता है।

आधे सिर का दर्द (आधासीसी)- गाय का शुद्ध ताजा घी सुबह शाम दो-दो बूँद नाक में टपकाने से दर्द में लाभ होता है।

सिर के जिस तरफ के भाग में दर्द हो उस तरफ के नथुने में चार-पाँच बूँद सरसों का तेल डालने से दर्द बंद हो जाता है।

मुँह के छालेः छाले कब्जियत एवं जीर्णज्वर के कारण होते हैं। अतः रात को भोजन के पश्चात एक दो हरड़ चूसो। इससे आमाशय व अन्तड़ियों के दोषों के कारण महीनों तक ठीक न होने वाले मुँह के छाले जल्दी ठीक हो जाते हैं।

सुबह 8-10 तुलसी के पत्ते खाकर ऊपर से पानी पियो। इससे भी फायदा होता है।

सुहागा, शहद मिलाकर छालों पर लगाने से, मुलहठी का चूर्ण चूसने से छालों में लाभ होता है।

जिसे मुँह के छाले बार-बार होते हों उसे टमाटर अधिक खाना चाहिए।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, अक्तूबर 1996, पृष्ठ संख्या 15,16,17 अंक 46

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काम-क्रोध से बचो – पूज्य पाद संत श्री आशारामजी बापू


अर्जुन ने भगवान श्रीकृष्ण से प्रश्न कियाः

अथ केन प्रयुक्तोयं पापंच चरति पूरूषः।

अनिच्छन्नपि वार्ष्णेय बलादिव नियोजितः।।

ʹहे कृष्ण ! तो फिर यह मनुष्य स्वयं न चाहता हुआ भी बलात् लगाये हुए की भाँति किससे प्रेरित होकर पाप का आचरण करता है ?ʹ (गीताः3.36)

भगवान श्रीकृष्ण ने कहाः

काम एष क्रोध एष रजोगुणसमुद्भवः।

महाशनो महापाप्मा विद्धयेनमिह वैरिणम्।।

ʹहे अर्जुन ! रजोगुण से उत्पन्न हुआ यह काम ही क्रोध है। यही महाशन अर्थात् अग्नि के सदृश भोगों से तृप्त न होने वाला बड़ा पापी है। इस विषय में इसको ही तू वैरी जान।ʹ (गीताः 3.37)

काम और क्रोध जीव को वास्तविक सुख से, वास्तविक जीवन से दूर ले जाते हैं। ये ʹमहापाप्माʹ हैं। जीव का पतन करने वाले हैं। चित्त में अनेक कामनाएं उठती हैं और वह उन कामनाओं की पूर्ति करके सुखी होना चाहता है किन्तु जब कामनापूर्ति करने जाता है तो कामनापूर्ति होने पर लोभ, लालच बढ़ जाते हैं। अगर कामनापूर्ति नहीं होती है और उसमें कोई बड़ा आदमी विघ्नरूप बनता है तो भय होता है, छोटा आदमी विघ्नरूप बनता है तो क्रोध होता है और बराबरी का आदमी विघ्नरूप बनता है तो ईर्ष्या होती है, द्वेष पैदा होता है। सच्चा सुख तो कामना निवृत्त करने से मिलता है।

प्रजहाति यदा कामान्सर्वान्पार्थ मनोगतान्।

आत्मन्येवात्मना तुष्टः स्थितप्रज्ञस्तदोच्यते।।

ʹहे अर्जुन ! जिस काल में पुरुष मन में स्थित संपूर्ण कामनाओं को त्याग देता है, उस काल में आत्मा से ही आत्मा में संतुष्ट हुआ स्थिर बुद्धिवाला कहा जाता है।ʹ (गीताः 2.55)

वह स्थिरबुद्धि वाला पुरुष ही आत्मशांति को प्राप्त हो सकता है। जैसे सागर में तरंगें उठती रहती हैं वैसे ही जिसके चित्त में इच्छारूपी तरंगें उठती रहती हैं वह आत्मशांति नहीं पा सकता है। वासनायुक्त चित्त से उठती हुई इच्छाओं की पूर्ति करते रहने से इच्छाएँ शांत नहीं होती हैं अपितु बढ़ती चली जाती हैं, चित्त में गहरी उतरती जाती हैं। इसी इच्छापूर्ति में तो आयुष्य पूरा हो जाता है परन्तु इच्छाएँ पूरी नहीं होती हैं। इसलिए भर्तृहरि ने कहा हैः

तृष्णा न जीर्णा वयमेव जीर्णाः।

इच्छा-तृष्णा तो जीर्ण नहीं होती है किन्तु हम जीर्ण हो जाते हैं। हमारा मन, हमारी बुद्धि, इन्द्रियाँ जीर्ण होती जाती हैं।

जिसको यह बात समझ में आ जाती है वह फिर इच्छापूर्ति में नहीं, इच्छानिवृत्ति में लग जाता है। नासमझ आदमी इच्छापूर्ति में लगा रहता है और अपनी आयुष्य गंवाता रहता है।

मिथिला का राजा निमि भी इच्छापूर्ति करके सुखी होना चाहता था। कामनापूर्ति से कामना बढ़ती है। एक रानी होते हुए भी उसे दूसरी रानी लाने की इच्छा हुई। फिर तीसरी, चौथी, पाँचवीं…. ऐसे कई रानियाँ ले आया। जो जी में आया वह खाया-पिया और भोगा। इस तरह भोगते-भोगते शरीर रोगी हो गया लेकिन कामना नहीं मिटी।

राजा निमि को दाहज्वर हो गया। उसकी हालत देखकर हकीमों ने कहाः

“राजन् ! मृत्यु का समय निकट है। अब केवल एक ही उपाय है। कोई प्रेम से चंदन घिसे और आपके शरीर पर उसका लेप करे तो दाहज्वर में आपको थोड़ा आराम हो सकता है।”

कामनाएँ दाह और तपन पैदा करती हैं। भय, शोक, ईर्ष्या और चिंता पैदा करती हैं। नरकों की यात्रा करने वाली कमबख्त कामनाएँ ही हैं। नहीं तो आपको भला कौन नरक में ले जा सकता है ?

राजा दाहज्वर से पीड़ित अवस्था में सोया हुआ था। रानियाँ प्रेम से चंदन घिसने लगीं। चंदन घिसते वक्त रानियों के हाथ की जो चूड़ियाँ खनकती थीं। राजा को चूड़ियों की आवाज से भी पीड़ा हो रही थी। उसने रानियों सेः “चंदन घिसना है तो घिसो, किन्तु आवाज मत करो।”

पतिपरायणा नारियों ने सौभाग्य की निशानी के रूप में एक-एक चूड़ी रखी। बाकी की चूड़ियाँ उतारकर रख दीं तो चंदन घिसते वक्त जो आवाज हो रही थी, वह बंद हो गई। राजा ने पूछाः

“चंदन घिसना बंद कर दिया क्या ?”

“नहीं। चंदन तो घिस रहे हैं लेकिन आपने कहा इसलिए हमने आवाज बंद कर दी है।”

“कैसे बंद की ?”

“हाथों में चूड़ियाँ ज्यादा थीं तो खनक रही थीं। अब केवल एक ही रखी है, बाकी की चूड़ियाँ उतार दी हैं।”

राजा निमि का पूर्व का कोई पुण्य उदय हुआ। उसे हुआ कि बहुतों में खटपट होती है, अकेले में ही शांति है। वह तो उसी दाहज्वर में उठा। गृहलक्ष्मी और राज्यलक्ष्मी को दूर से प्रणाम करके आत्मलक्ष्मी पाने के लिए गुरु के द्वार जा बैठा।

अमीरी की तो ऐसी की कि सब जर लुटा बैठे।

फकीरी की तो ऐसी की कि गुरु के दर आ बैठे।।

वह ऐसा फकीर बन गया कि उसने इच्छा-वासनाओं की फाकी कर ली, संशय व फिकर की फाकी कर ली। मौत के पहले अमर आत्मपद में स्थित हो गया। भोगसम्राट में से योगसम्राट हो गया।

वास्तव में जीवमात्र योगसम्राट है लेकिन अभागी कामनाएँ ही उसे भोग का कीड़ा बना देती हैं।

सब लोगों की सब कामनाएँ-इच्छाएँ पूरी हो जाएँ, यह संभव नहीं है। यह किसी के वश की बात भी नहीं है। इच्छा पूर्ति में प्रारब्ध चाहिए, पुरुषार्थ चाहिए। साथियों का, समाज का सहयोग चाहिए लेकिन इच्छानिवृत्ति में हम स्वतंत्र हैं। ज्यों-ज्यों इच्छा निवृत्त करते जायेंगे, त्यों-त्यों इच्छारहित आत्मपद में विश्रांति पाते जाएँगे। विश्रांति से सामर्थ्य प्रगट होता है। उस सामर्थ्य के सदुपयोग की कला आ जाए तो सत्यस्वरूप आत्मा की यात्रा पूर्ण हो जायेगी।

यदि इस संसाररूपी दलदल से आप बचना चाहते हैं तो सदा सावधानी रखें। इन्द्रियाँ बार-बार फिसल जाती हैं, कामनाएँ चित्त को घसीटती रहती हैं। इसको रोकने के लिए विवेक-वैराग्य को सदा जागृत रखें।

श्रद्धा, भक्ति, विवेक से हमारी रक्षा होती है। कामनापूर्ति करते-करते तो युग बीत जाते हैं लेकिन जन्म-मरण के चक्कर से हमारा पिंड नहीं छूटता। इसलिए बुद्धिमान पुरुष को चाहिए कि वह कामना-निवृत्ति में ही लगा रहे। इस संदर्भ में एक कहानी हैः

सिंध देश की बात है। किसी गुंडे आदमी ने एक व्यापारी से 100 रूपये उधार लिये। उस समय के 100 रूपये माने आज के करीब 8000-9000 रूपये या डेढ़ तोला सोना।

कुछ दिन बीतने पर व्यापारी ने उस गुंडे से कहाः

“तुमने मुझसे 100 रूपये लिये थे। मैं तुमसे ब्याज तो नहीं माँगता हूँ लेकिन 100 रूपये दे दो तो ठीक होगा।”

हालांकि व्यापारी जानता था कि वह देने वाला नहीं है, फिर भी मिल जायें तो ठीक।

गुंडे ने कहाः “रूपये तो मैं देना चाहता हूँ किन्तु मेरी एक बात तुम्हें माननी होगी।”

“अरे ! एक तो क्या तीन-तीन बात मान लूँगा। तुम पैसे वापस दे दो, बस।”

“मैं पैसे वापस तो देना चाहता हूँ किन्तु तुम सौ के कर दो साठ।”

“ठीक है चलो, साठ ही सही।”

“आधा कर दो काट।”

“ठीक है। बाकी के 30 तो दे दो !”

“दस देंगे, दस दिलवायेंगे और दस के जोड़ेंगे हाथ।”

तो अब बाकी क्या बचा ? कुछ नहीं। ऐसे ही आपके मन में सौ-सौ कामनाएँ उठें तो आप मन से कह दोः “सौ की कर दे साठ। आधा कर दे काट। दस कामनाएँ पूरी करेंगे। दस बाद में पूरी करवायेंगे। दस के लिए हाथ जोड़ेंगे। अभी तो राम में लगने दे, यार ! अभी तो समाहितचित्त होने दे…. अंतर्यामी आत्मा में शांत होने दे।ʹ

मन की ʹयह चाहिए….. वह चाहिए…..ʹ की आदत पुरानी है। जिसकी चाह होगी वह नहीं मिलेगा तो मन अशांत होगा। काम-क्रोध में बह जाएगा। इसलिए प्रयत्नपूर्वक मन को काम-क्रोधादि आवेगों में बहने से बचाकर बार-बार आत्मा में लगाओ। क्योंकि…..

त्रिविधं नरकस्येदं द्वारं नाशनमात्मनः।

काम क्रोधास्तथा लोभस्तस्मादेतत्त्रयं त्यजेत्।।

ʹकाम, क्रोध और लोभ ये तीन प्रकार के नरक के द्वार हैं, आत्मा का नाश करने वाले अर्थात् अधोगति में ले जाने वाले हैं। अतः इन तीनों को त्याग देना चाहिए।ʹ (गीताः 16.21)

धन के ढेर इकट्ठे करना, सत्ता के ऊँचे शिखरों पर पहुँचने की कामना करना मूर्खता है। मन को कामना-वासनारहित करके प्रारब्धवेग से निष्काम प्रवृत्ति करना या निवृत्ति में रहना बुद्धिमानी है। बुद्धिमान पुरुष बुद्धि की धारा में, विचार की धारा में जीता है लेकिन बुद्धि को जहाँ से सत्ता-स्फूर्ति मिलती है उसी चैतन्य में बुद्धि को स्थित करना चाहिए। विचार की धारा के बीच माने एक विचार  उठा, दूसरा उठने को है उसके बीच जो अवकाश है उसमें जो टिकता है वह चैतन्य, साक्षी, शुद्धस्वरूप में जीता है। कामनापूर्ति के पीछे यदि भागता रहे तो उस भागदौड़ का कभी अंत नहीं होगा किन्तु कामनानिवृत्ति में जो लगता है वह देर-सबेर बुद्धत्व को पा लेता है। इसलिए श्रीकृष्ण ने कहा हैः

एवं बुद्धेः परं बुद्धवा संस्तभ्यात्मानमात्मना।

जहि शत्रुं महाबाहो कामरूपं दुरासदम्।।

ʹइस प्रकार बुद्धि से परे अर्थात् सूक्ष्म तथा सब प्रकार से बलवान और श्रेष्ठ अपने आत्मा को जानकर बुद्धि के द्वारा मन को वश में करके हे महाबाहो ! अपनी शक्ति को समझकर इस दुर्जय कामरूप शत्रु को तू मार।ʹ (गीताः 3.43)

कई जन्मों से हम कामनाओं के पीछे बरबाद होते आ रहे हैं। अब इस जन्म में तो दृढ़ निश्चय कर लो कि अमर आत्मपद को पाकर ही रहेंगे। जिन्होंने भी दृढ़ निश्चय किया और तत्परता से लगे रहे, काम-क्रोधादि से सावधान होकर संयमी जीवन जिये उन्होंने उस आत्मपद को पा लिया। आप भी उस पद को पा सकते हैं, इसमें कोई संदेह नहीं है।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, अक्तूबर 1996, पृष्ठ संख्या 3,4,5 अंक 46

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