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ईश्वरीय विधान का आदर


पूज्यपाद संत श्री आशारामजी बापू

एक होता है ऐहिक विधान और दूसरा होता है ईश्वरीय विधान। ऐहिक विधान का निर्माण ऐहिक लोगों द्वारा होता है और इसमें भिन्नता होती है। अलग-अलग राष्ट्र अपने-अपने हिसाब से अपना विधान बनाते हैं।

ऐहिक विधान बनाने वाले कभी गलती भी कर लेते हैं और अमल कराने वाले भी कई घूस, लांच-रिश्वत ले लेते हैं। ऐहिक विधान का उल्लंघन करने वाला कई बार बच भी जाता है।

ईश्वरीय विधान गाँव-गाँव के लिए, राज्य-राज्य के लिए, राष्ट्र-राष्ट्र के लिए अलग नहीं होता। अनंत ब्रह्माण्डों में एक ही ईश्वरीय विधान काम करता है। देवताओं का विधान, दैत्यों का विधान, मनुष्यों का विधान अलग-अलग हो सकता है लेकिन ईश्वरीय विधान अलग नहीं होता। ईश्वरीय विधान के अनुकूल जो चलता है वह ईश्वर की प्रसन्नता पाता है लेकिन ईश्वरीय विधान के विपरीत चलने वाले को प्रकृति पचा-पचाकर सबक सिखा देती है।

ऐहिक विधान में छूट-छाट है। उसमें पोल चल जाती है लेकिन ईश्वरीय विधान में पोल नहीं चलती। ईश्वरीय विधान का अनादर करने से आदमी को बहुत सहन करना पड़ता है। हम जब-जब दुःखी होते हैं, अशान्त होते हैं, भयभीत होते हैं तब निश्चित समझ लेना चाहिए कि हमारे द्वारा जाने-अनजाने ईश्वरीय विधान का उल्लंघन हुआ है।

द्रौपदी के साथ कितना अन्याय हुआ था ! भरी सभा में दुर्योधन ने द्रौपदी को अपनी जाँघ पर बैठने के लिए ललकारा था। कर्ण ने मजाक उड़ाते हुए उसे ʹवेश्याʹ कहा था। दुःशासन ने कौरव वंश के तमाम महानुभावों के सामने द्रौपदी के वस्त्र खींचे, फिर भी किसी ने अन्याय के खिलाफ आवाज नहीं उठायी। ऐसा घोर अन्याय करने वालों के प्रति जब पांडव कुछ प्रतिक्रिया करते हैं तो वे ही दुष्ट लोग धर्म की दुहाई देने लगते हैं।

युद्ध के मैदान में जब कर्ण के रथ का पहिया फँस गया था और वह रथ से नीचे उतर कर पहिया बाहर निकाल रहा था, उस समय अर्जुन द्वारा बाण का निशाना लगाने पर कर्ण धर्ण की दुहाई देते हुए कहताहैः

“यह धर्मयुद्ध नहीं है। मैं निःशस्त्र हूँ और तुम मेरे पर निशाना साध रहे हो ?”

तब श्रीकृष्ण ने कहाः “जब कौरवों के राजभवन में द्रौपदी के केश खींचे जा रहे थे, उसकी निर्भर्त्सना हो रही थी, तब कहाँ गया था तेरा धर्म ? अब यहाँ धर्म की दुहाई दे रहा है ?”

कभी-कभी तो लुच्चे राक्षस भी आपत्तिकाल में धर्म की दुहाई देने लग जाते हैं। आपत्तिकाल में धर्म की दुहाई देकर अपना बचाव करना, यह कोई धर्म के अनुकूल बात नहीं है। आपत्तिकाल में भी अपने धर्म में लगे रहना चाहिए, ईश्वरीय विधान के अनुसार चलना चाहिए और ईश्वरीय विधान यही है कि तुम्हारी तरक्की होनी चाहिए, जीवन में उन्नति होनी चाहिए।

यदि आप ईमानदारी से, सजग होकर तरक्की करते हैं तो ईश्वरीय विधान आपकी मदद करता है और यदि आप उन्नति से मुँह मोड़ते हैं तो बड़ी हानि होती है। कालचक्र कभी रुकता नहीं है। पेड़-पौधे, पशु-पक्षी में भी तरक्की है। ये सब भी तरक्की करते करते मानव देह में आते हैं। जब मानव देह मिल गई, बुद्धि मिल गई, फिर भी आप विकसित नहीं हुए तो ईश्वरीय विधान आपको फिर से  चौरासी लाख योनियों में ढकेल देता है।

भीष्म पितामह, द्रोणाचार्य और कृपाचार्य जैसे लोग  भी अधर्म के पक्ष में होते हैं तो ईश्वरीय विधान उनको भी युद्ध के मैदान में ठिकाने लगा देता है।

कोई सोच सकता हैः “भगवान श्रीकृष्ण तो आये थे धर्म की स्थापना करने के लिए और इतने सारे लोग मारे गये ! सारे कौरव मारे गये ! अठारह अक्षौहिणी सेना खत्म हो गयी ! यह तो अधर्म हुआ….ʹ

नहीं, अधर्म नहीं हुआ। लगता तो है अधर्म हुआ लेकिन धर्म की स्थापना हुई। यदि दुर्योधन नहीं मरता, उसकी पीठ ठोकने वाले नहीं मरते और दुर्योधन जीत जाता तो अधर्म की जीत होती और धर्म का नाश हो जाता। भगवान श्रीकृष्ण ने अधर्म का नाश करके धर्म की स्थापना की। धर्म के अनुसार, ईश्वरीय विधान के अनुसार जीव की उन्नति में ही कल्याण है।

जीव की उन्नति का अवरोधक है जीव का इन्द्रियों की ओर खिंचाव, विषय-विकारों की तरफ उसका आकर्षण। जीव की तरक्की है धर्म, नियम और संयम में। ʹयह करना… यह नहीं करना….. इसका उपयोग करना…. इसका उपयोग नहीं करना….ʹ इस प्रकार के नियंत्रण करके जीव को संयमी बनाकर, अपने शिवस्वरूप में जगाने का विधान ही ईश्वरीय विधान है।

ईश्वरीय विधान का अल्लंघन करके ज्यों-ज्यों आदमी इन्द्रियों को पोसता है, किसी का शोषण करता है तो अशान्त और भयभीत रहता है और मरने के बाद भी घटीयंत्र की नाई जन्म-मरण के चक्र में फँसता है और दुःख सहता है। लेकिन ज्यों-ज्यों आदमी सीधे ढंग से, ईश्वरीय स्वभाव, ईश्वरीय ज्ञान, ईश्वरीय शांति की ओर चलने लगता है त्यों-त्यों उसका जीवन सहज और सरल हो जाता है।

सख्खर में विलायतराय नामक एक संत हो गये। वे सीधा-सादा गृहस्थ जीवन बिताते थे। गृहस्थ होते हुए भी ईश्वरीय विधान का पालन करते थे।

लीलाराम नाम के एक मुनीम पर पैसे की लेन-देने में हेराफेरी के गुनाह में अदालत में मुकद्दमा चल रहा था। लीलाराम बहुत घबराया और विलायतराय के चरणों में आकर खूब रोया और बोलाः

“महाराज ! मैं आपकी शरण आया हूँ। मुझे बचाओ। मैं दुबारा गलती नहीं करूँगा। न्यायाधीश सजा करके जेल में भेज दे उसकी अपेक्षा आप मुझे जो सजा देंगे, मैं स्वीकार कर लूँगा।”

संत विलायतराय का हृदय पिघल गया। वे बोलेः “अच्छा ! अब तू अपना केस रख दे उस शहनशाह परमात्मा पर। उन शहनशाह पर विश्वास रख। जिसके विधान का तूने उल्लंघन किया उसी की शरण हो जा।”

लीलाराम ने गुरु की बात मान ली। बस, जब देखो, तब ʹशहनशाह…. शहनशाह….।ʹ उसका मन शहनशाह में तदाकार हो गया।

लीलाराम मुकद्दमे के दिन पहुँचा अदालत में, तब न्यायाधीश ने पूछाः

“तुमने कितने पैसों का गोलमाल किया है ? सब सच-सच बता दो।”

लीलारामः “शहनशाह।”

“तेरा नाम क्या है ?”

“शहनशाह।”

“ऐसा क्यों किया ?”

“शहनशाह।”

सरकारी वकील ने खूब पूछताछ की लेकिन जवाब एक ही आता थाः

“शहनशाह।”

“यह अदालत है। ढोंग मत कर, नहीं तो तेरी खाल खींच लेंगे।” “शहनशाह।”

अनेक भय दिखाये लेकिन कोई फर्क नहीं। ईश्वरीय विधानः ʹमंत्र मूलं गुरोर्वाक्यम्ʹ में वह एकदम तदाकार हो गया… ध्यानस्थ हो गया।

लीलाराम को हथकड़ी पहनाकर सजा फरमाने की तैयारी की गयी लेकिन उस वक्त भी लीलाराम के मुख पर शोक न था। वह तो बस, ʹशहनशाह…. शहनशाह….ʹ की रट लगाये था।

जैसे अंतिम समय पर राष्ट्रपति का संदेश आ जाता है और सजा रूक जाती है वैसे ही परमात्मा की प्रेरणा से न्यायाधीश के मन में भी विचार आया कि ʹइतना अपमान करते हैं, इतनी गालियाँ देते हैं, सिपाही इतना तोछड़ा व्यवहार करते हैं फिर भी इसको कुछ असर नहीं होता ?” न्यायाधीश ने कहाः “कहाँ से पकड़ लाये इस पागल को ? यह केस रद्द है।”

लीलाराम छूट गया और आया विलायतराय के चरणों में। विलायतराय ने पूछाः “छूट गया केस से, बेटा ?”

लीलारामः “शहनशाह।”

“भूख लगी है ?”

“शहनशाह।”

गुरु ने देखा कि बिल्कुल सच्चाई से मेरे वचन लिये हैं… यह देखकर उनका हृदय प्रसन्न हो गया। उन्होंने अपने संकल्प से ʹशहनशाहʹ के भाव का नियंत्रण कर दियाः “अच्छा ! जब जरूरत पड़े तब बोलना-शहनशाह।”

फिर तो वह लीलाराम गुरु के आश्रम में ही रहने लगा।

अब लीलाराम से कोई कहे कि ʹपेट में दर्द हैʹ तो वह पेट पर हाथ घुमाकर कह देताः ʹशहनशाहʹ तो पेट का दर्द गायब हो जाता। कोई कहता कि ʹधन्धा नहीं चलता है।ʹ लीलाराम एक थप्पड़ मार देता और कहताः ʹशहनशाहʹ तो उसका धन्धा रोजगार चलने लगता।

धीरे-धीरे लोगों की भीड़ बढ़ने लगी। इधर लीलाराम को अपनी सफलता का अभिमान आ गया।

ईश्वरीय विधान पर चलने से कीर्ति तो मिलती है लेकिन कीर्ति में फँसना नहीं चाहिए, उससे भी आगे की उन्नति की ओर बढ़ना चाहिए। लीलाराम की मति बिगड़ी। लोगों का काम बन जाता तो वे लीलाराम के लिए कुछ-न-कुछ चीज वस्तुएँ लाने लगे। धीरे-धीरे लीलाराम नीचे गिरा और शराबी-कबाबी हो गया। इससे विलायतराय के हृदय को ठेस पहुँची।

गुरु इलाज तो बताते हैं, प्राणायाम आदि सिखाते हैं, आशीर्वाद देते हैं। उनमें जिसकी श्रद्धा होती है वह तो उन्नति की राह पर चल पड़ता है लेकिन जिसकी श्रद्धा इतनी न हो, अभिमान आ जाये तो वह वहीं का वहीं रह जाता है। शिष्य गुरु की आज्ञा मानकर चलता है तो गुरु का चित्त प्रसन्न हो जाता है और गुरु के चित्त की प्रसन्नता से शक्तियाँ विकसित होने लगती हैं। किन्तु उन शक्तियों का अभिमान आ जाने से गुरु के चित्त को अगर क्षोभ हो जाय तो शिष्य का अवश्य ही अमंगल होता है।

एक दिन विलायतराय कहीं जा रहे थे। रास्ते में ही लीलाराम की कुटिया आती थी। दो पाँच शिष्य भी साथ में थे। उन्होंने लीलाराम को भी साथ में ले लिया। मार्ग में नदी आने पर विलायतराय जी कहाः “अब हम नदी में स्नान करेंगे।”

सेवक ने साबुन व लोटा दिया। विलायतराय जी ने स्नान करते-करते लीलाराम से कहाः “तू भी गोता मार ले।”

लीलाराम जैसे ही गोता मारकर बाहर निकलता है तो क्या देखता है कि खुद लीलाराम से लीलाबाई बन गया ! आसपास तो न नदी है, न गुरुजी हैं, न कोई गुरुभाई है। अकेली सुंदरी लीलाबाई रह गई….! लीलाराम बहुत शरमिंदा हो गया कि ʹमैं लीलाराम…..! ʹशहनशाहʹ कहने वाला…. आज क्या बन गया हूँ !ʹ

उसी समय वहाँ चार चाण्डाल आये और पूछने लगेः “क्योंरी ! इधर बैठी है अकेली ?”

अब वह कैसे बोले कि ʹमैं लीलाराम हूँ।ʹ यह तो संत विलायतराय जी का चमत्कार था। जैसे श्रीकृष्ण ने नारदजी को नारदी बना दिया था, ऐसे ही उन्होंने लीलाराम में से लीलाबाई बना दिया।

चारों चाण्डाल आपस में झगड़ा करने लगे लीलाबाई के साथ शादी करने के लिए। आखिर चारों में से जो ज्यादा बलवान था उसके साथ लीलाबाई का गंधर्व विवाह हो गया।

समय बीता। लीलाबाई को तीन बेटे हुए, तीन बेटियाँ हुई। बेटियों की शादी चाण्डालों के घर में हुई। परिवार बढ़ता गया…। सुख-दुःख के प्रसंग आते-जाते रहे। लीलाबाई साठ साल की बूढ़ी हो गई। बहुत सारे दुःख भोगे। पति मर गया तो वह अपना सिर कूटने लगीः

ʹहाय राम ! मैं विधवा हो गयी। हे भगवान ! मैं क्या करूँ ? तुम मुझे भी अपने पास बुला लो….ʹ

ऐसा करते-करते जैसे ही आँखें खोली तो वही नदी और वही स्नान ! गुरु जी, गुरुभाई सब उपस्थित थे। लीलाराम चकित हो गया कि ʹमैं लीलाबाई बन गया था, मेरे इतने बेटे-बेटियाँ हुए, साठ साल का चाण्डाली का जीवन देखा, मेरा चाण्डाल पति मर गया….. और यहाँ तो अभी स्नान भी पूरा नहीं हुआ है ! यह सब क्या है ?

विलायतराय मुस्कराते हुए बोलेः

“देख ! शूली में से काँटा हो गया। तेरा चाण्डाल होने का प्रारब्ध तो कट गया, तेरी पहले की गयी भक्ति से, पश्चाताप से। लेकिन अब तेरे पास पहले जैसी शक्ति नहीं रहेगी। वैद्य का धन्धा करके अपना गुजारा करते रहना। आज के बाद मुझे मुँह मत दिखाना।”

ईश्वरीय विधान का हम आदर करते हैं तो उन्नति होती है और अनादर करते हैं तो अवनति होती है। ईश्वरीय विधान का आदर यह है कि हमारे पास जो कुछ भी है वह सब हमारा व्यक्तिगत नहीं है। सब उस जगन्नियंता का है लेकिन जब हम ʹहमारा है….. हमारे लिए हैʹ ऐसा मानने लगते हैं, तब ईश्वरीय विधान का अऩादर करते हैं। फलस्वरूप दण्ड के रूप में दुःख, चिन्ता, क्लेश शुरु हो जाते हैं।

बाह्य वस्तुओं से अगर कोई सुखी होना चाहता है तो समझो कि तिनखों के ढेर को जलाकर उससे ठंडक पाना चाहता है अथवा तो आग को पेट्रोल के फुहारे से बुझाना चाहता है। बाह्य वस्तुओं से आज तक कोई भी न तो पूर्ण सुखी हुआ है और न होगा। यदि मनुष्य ने पूर्ण सुख पाया है तो वह केवल अपने अंतरात्मादेव में विश्रांति पाकर ही… और अंतरात्मा में विश्रांति पायी जा सकती है केवल ईश्वरीय विधान का आदर करके ही।

मुझे एक अधिकारी ने बतायाः “एक संत के लिए षडयंत्र रचने वाले कुछ लोगों में एक पुलिस अधिकारी (D.S.P.) का विशेष योगदान था और अन्ततः वह D.S.P. गोधरा (पंचमहाल, गुजरात) के जंगलों में बंदूकधारी अंगरक्षकों के होते हुए भी एक बघेड़े का (चित्ते का) शिकार हो गया।

एक संत पर मिथ्या आरोप लगाने में क्रूर भूमिका अदा करने वाली उस टुकड़ी के D.S.P.  को जंगल में बघेड़े से बचाने के लिए अंगरक्षक ने गोली चलायी लेकिन गोली बघेड़े को न लगी और बघेड़े का शिकार हो गया D.S.P.  ।

मुझे बताया गयाः “बापू जी ! अब उसे बघेड़ा बनना पड़ेगा क्योंकि मरते समय बघेड़े का चिंतन करते हुए मरा है। जंगलों में भटकेगा, जंगली प्राणियों का चिन्तन करता मरेगा और कई दुष्ट योनियों में जायेगा।”

अतः कर्म करने में मनुष्य यदि ईश्वरीय विधान का अनादर कर क्रूरता करता है तो कुदरत भी उसे देर-सबेर नीच गति में धकेलकर क्रूरता का मजा चखाती है।

अतः सावधान ! अपने से ऐसे कर्म न हों जिसमें ईश्वरीय विधान का अनादर हो हमें जंगली जानवर अथवा पेड़े-पौधे बनकर सूख-सूखकर मरना पड़े।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, अक्तूबर 1996, पृष्ठ संख्या 11,12,13,14 अंक 46

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गुरुदेव के दिये हुए गुरुमंत्र का अमोघ प्रभाव


आत्मारामी संत पूज्य बापू जी के आशीर्वाद से ही मुझे पुत्ररत्न की प्राप्ति हुई। उसका नाम नारायण रखा । पूरे परिवार में एक खुशी की लहर दौड़ गई। मैंने मन ही मन पूज्य गुरुदेव की पूजा-अर्चना की। मैं खुशी से फूली न समा रही थी।

मैंने सुना था कि कोई आत्मवेत्ता संत अपनी आत्मानंद की मस्ती में गोता लगाकर जो बोल देते हैं वह पत्थर पर लकीर हो जाता है। पूज्य बापू जी के द्वारा पुत्रप्राप्ति के लिए दिये गये प्रसाद के एक साल बाद मैं पूज्य गुरुदेव की कृपा को नवजात शिशु के रूप में प्रत्यक्ष देख रही थी।

लेकिन सब एक दिन से नहीं रहते।

कुछ दिन बीते कि अचानक दिनांकः 24-7-96 को नारायण का स्वास्थ्य बिगड़ा। उसको अस्पताल में दाखिल किया। डॉक्टर ने सभी परीक्षण करके बताया कि आपके पुत्र को जहरी मलेरिया हो गया।

डॉक्टर ने तत्काल दवा व इंजैक्शन आदि से उसका उपचार आरम्भ किया लेकिन जैसे-जैसे समय गुजरता जा रहा था। वैसे-वैसे उसकी तबीयत बिगड़ती ही जा रही थी। डॉक्टर ने आशा छोड़ दी थी, फिर भी प्रयत्न चालू रखा था।

नारायण के मस्तिष्क में मलेरिया का बुरा असर हो चुका था। सारे शरीर में तनाव शुरु हो गया।  पूरा शरीर अकड़ गया। नाड़ी की धड़कनें बढ़ गयीं। मुँह से झाग आना शुरु हो गया। फिर एकाएक उसका शरीर ठंडा हो गया। हृदय की धड़कनें सी बंद हो गयीं। शरीर निस्तेज हो गया। गर्दन एक ओर झुक गयी। मैं फफककर रो पड़ी। मैं उस विधि के विधान के आगे कर भी क्या सकती थी ? अब सिर्फ एक ही रास्ता था।

मैंने उस निस्तेज शरीर के सामने बैठकर गुरुमंत्र का जप शुरु कर दिया। दृढ़ संकल्प किया कि मेरा बच्चा ठीक हो जायेगा तो श्री आसारामायण का पाठ करूँगी। दूसरी तरफ मेरी बेटी ने श्रीमदभगवदगीता के 18 वें अध्याय का पाठ प्रारंभ कर दिया था। पाठ पूरा होते ही उसने गुरुमंत्र का जप शुरु किया व सामने कटोरी में रखे पानी में निहारा। फिर वही पानी गुरु मंत्र का जप करते-करते नारायण पर छाँटा।

आश्चर्य !

बच्चे के शरीर में थोड़ी हलचल हुई। इस हलचल को देखकर हमारे हृदयों में कुछ आशाओं का संचार हुआ। कुछ ही क्षणों में नारायण ने धीरे-धीरे आँखें खोलीं। शरीर में एक दिव्य चेतना का संचार हुआ। मेरी आँखों से आनंदाश्रुओं की अविरत धारा बह निकली।

जिनके कृपा-प्रसाद से उसे यह जन्म मिला, उन्हीं की करूणा-कृपा से उसे नया जीवनदान मिला। मैं आज ऐसे सदगुरुदेव के सत्संग सान्निध्य व मंत्रदीक्षा के कारण मिले धैर्य, श्रद्धा, भक्ति के कारण अपने आप में धन्यता का अनुभव कर रही हूँ।

चंद्रिकाबहन प्रवीणचंद पांचाल, लुणावाड़ा, पंचमहाल।

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विपत्ति में गुरुदेव की दिव्य प्रेरणा ने बचाया

मैं राजेन्द्र प्रसाद शर्मा मन्डी बोर्ड उज्जैन में सब इंजीनियर पद पर कार्यरत हूँ। दिनांक 4 अप्रैल 96 को रात्रि करीब 10-30 बजे हरदा इन्दौर मार्ग पर चापड़ा से इन्दौर के लिए टैक्सी से रवाना हुआ। साथ में मेरे एक करीबी मित्र भी थे। रास्ते में टैक्सी का टायर पंक्चर हुआ। ड्रायवर ने पच्चीस-तीस मिनट के श्रम से टायर बदल दिया। रात्रि के 11 बज चुके थे। वहाँ से चार-पाँच कि.मी. ही चले थे कि हम पर विपत्तियों का पहाड़ टूटा। जंगल में घाट पर करनावद फाटा से चढ़ते ही कंजरों ने गाड़ी को घेर लिया और पत्थर बरसाने लगे। हमने टैक्सी भगानी चाही लेकिन सड़क पर झाड़-झंखार डाल रखे थे। अब क्या होगा ? मेरे मन में तुरंत विचार आयाः अपने रक्षक तो पूज्य सदगुरुदेव हैं। मैंने मौन होकर बापू को याद कियाः प्रभु ! मैं तो बस, आपका ही हूँ।

तेरे फूलों से भी प्यार तेरे काँटों से भी प्यार।

जो भी देना चाहे दे दे किरतार।।

ग्वालियर सत्संग-कार्यक्रम में पूज्य बापू ने प्रपत्तियोग का समर्पण भाव बताया थाः ʹतेरा हूँ… तेरा हूँ….ʹ बस फिर क्या था ? ʹतेरा हूँ…ʹ की महिमा याद आ गई। मेरे मुँह से निकल पड़ाः

“ड्राइवर ! गाड़ी को झाड़-झंखार के ऊपर से ही कुदा दो।”

वही हुआ। गाड़ी वहाँ से ऐसे दौड़ी कि गाँव की चौकी पर ही जाकर रुकी। हमने रिपोर्ट लिखाई। पुलिस स्थल घटना स्थल को रवाना हुआ और हम अपने सफर में चल पड़े। दूसरे दिन 5 अप्रैल को इन्दौर से प्रकाशित सभी समाचार पत्रों में छपा था कि उस रास्ते आ रही शिवशक्ति बस को लूटा गया। हम दोनों मित्र एक दूसरे की ओर देखने लगे क्योंकि वह बस हमारे पीछे-पीछे ही आ रही थी।

गुरुदेव  कृपा से हम विपत्तियों से किस तरह बचे यह पूरा-पूरा वर्णन करना हमारे बस की बात नहीं। मैं तो बस, इतना ही कहूँगा कि विपत्ति में पूरी श्रद्धा से ऐसे आत्मारामी संतों का स्मरण करने पर दिव्य प्रेरणा मिलती ही है। श्रद्धाहीन, नास्तिक निगुरे बेचारे क्या जानें ?

गुरुदेव का चरणसेवक,

राजेन्द्र प्रसाद शर्मा, 2/6, अलखधाम नगर, उज्जैन (म.प्र.)

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असंभव कुछ नहीं…. सब कुछ संभव है….


पूज्यपाद संत श्री आसारामजी बापू

सन् 1910 की एक घटित घटना हैः

जर्मनी का एक लड़का वुल्फ मेहफिन स्कूल में ढंग से पढ़ता न था। मास्टर की मार के भय से एक दिन वह स्कूल छोड़कर भाग गया। भागकर वह गाड़ी में जा बैठा किन्तु उसके पास टिकट नहीं था। जब टिकट चेकर टिकट चैक करने के लिए आया तो वह सीट के नीचे जा छुपा किन्तु उसके मन में आया कि ʹयदि टिकट चेकर आकर मुझसे पूछेगा तो मैं क्या करूँगा ? हे भगवान्…! मैं क्या करूँ तू ही बता….ʹ इस प्रकार प्रार्थना करते-करते उसे कुछ अन्तःप्रेरणा हुई। उसने पास में पड़ा हुआ कागज का एक टुकड़ा उठाया और मोड़कर टिकट के आकार का बना दिया। जब टिकट चेकर ने टिकट माँगा तो वुल्फ मेहफिन ने उसी कागज के टुकड़े को देते हुए कहाः “This is my Ticket. यह मेरा टिकट है।” उसने इतनी एकाग्रता और विश्वास से कहा कि टी.सी. को वह कागज का टुकड़ा सचमुच टिकट जैसा लगा। तब उसने कहाः “लड़के ! जब तेरे पास टिकट है तो तू नीचे क्यों बैठा है ?”

यह कहकर टी.सी. ने उसे सीट दे दी। वुल्फ मेहफिन को युक्ति आ गयी कि प्रार्थना करते-करते मन जब एकाग्र होता है तब आदमी जैसा चाहता है वैसा हो जाता है। धीरे-धीरे उसने ध्यान करना शुरु किया और उसका तीसरा नेत्र (जहाँ तिलक करते हैं वह आज्ञा चक्र) खुल गया।

फिर तो वह तीसरे नेत्र के प्रभाव से लोगों को जादू दिखाने लगा। जो चीज ʹहैʹ उसे ʹनहींʹ दिखा देता और जो चीज ʹनहींʹ है उसे ʹहैʹ दिखा देता। धीरे-धीरे उसका नाम दूर-दूर तक प्रसिद्ध होने लगा। यहाँ तक कि रशिया के प्रेसिडेण्ट स्तालिन के कान में भी वुल्फ मेहफिन की बात पहुँची।

स्तालिन नास्तिक था। अतः उसने कहाः “ध्यान व्यान कुछ नहीं होता। जाओ पकड़कर लाओ वुल्फ मेहफिन को।”

वुल्फ मेहफिन एक मंच पर खड़ा होकर लोगों को चमत्कार दिखा रहा था, वहीं उसे स्तालिन के सैनिकों ने कैद करके स्तालिन के पास पहुँचा दिया।

स्तालिन ने कहाः “यह जादू वादू कैसे संभव हो सकता है ?”

मेहफिनः “Nothing is impossible. Everything is possible in the world.”

असंभव कुछ नहीं है। इस दुनिया में आत्मा की शक्ति से सब कुछ संभव है। जहाँ आप आत्मशक्ति को लगायें वहाँ वह कार्य हो जाता है।

जैसे विद्युत को आप फ्रीज में लगायें तो पानी ठण्डा होगा, गीजर में लगायें तो पानी गर्म होगा और सिगड़ी में लगायें तो आग पैदा करेगा। पंप में लगायें तो पानी को ऊपर टंकी तक पहुँचा देगा। विद्युत एक शक्ति है। उसे जहाँ भी लगायेंगे, वहाँ उस साधन के अनुरूप कार्य करेगी। विद्युत शक्ति, अणु शक्ति, परमाणु शक्ति आदि सब शक्तियों का मूल है आत्मा और वह अपने हृदय में रहता है। अतः असंभव कुछ नहीं।

स्तालिनः “यदि सब संभव है तो मैं जैसा कहूँ वैसा तुम करके बताओ। मास्को की बैंक से एक लाख रूबल लेकर आओ तो मैं तुम्हें मानूँगा। बैंक के चारों ओर मेरे सैनिक होंगे। तुम किसी ओर से पैसे लेकर नहीं जाओगे। बैंक में खाली हाथ जाओगे और बैंक वाले से एक लाख रूबल लेकर आओगे।”

मेहफिनः “मेरे लिए असंभव कुछ नहीं है। मुझे ध्यान की कुँजी पता है।”

मेहफिन गया बैंक के कैशियर के पास और कागज लेकर उसे भरा, और भी जो कुछ करना था वह किया। फिर वह पर्ची कैशियर को दी। कैशियर ने एक लाख रूबल गिनकर मेहफिन को दे दिये। मेहफिन ने वे रूबल ले जाकर स्तालिन को दे दिये। स्तालिन हतप्रभ रह गया कि “यह कैसे संभव हुआ ! तुम्हारे सिवा उस बैंक में दूसरा कोई न जा सके, ऐसा कड़क बंदोबस्त किया गया था। फिर भी तुम पैसे कैसे निकाल लाये ? अच्छा, अब उसे वापस देकर आओ।”

मेहफिन पुनः गया बैंक में कैशियर के पास और बोलाः  “कैशियर ! मैंने तुम्हें जो सैल्फ चेक दिया था लाख रूबल का, वह वापस करो।”

कैशियर ने वह कागज निकालकर देखा तो दंग रह गया। ʹइस साधारण कागज की पर्ची पर मैंने लाख रूबल कैसे दे दिये !ʹ सोचकर वह घबरा उठा। मेहफिन ने कहाः “इस पर्ची पर तुमने मुझे लाख रूबल कैसे दे दिये ?”

कैशियरः “मुझे माफ करो, मेरा कसूर है।”

मेहफिनः “यह तुम्हारा कसूर नहीं है। मैंने ही दृढ़ संकल्प किया था कि यह कागज तुम्हें लाख रूबल का ʹसेल्फ चैकʹ दिखे इसीलिए तुमने लाख रूबल गिनकर मुझे दे दिये। लो, ये लाख रूबल वापस ले लो और मुझे यह कागज दे दो।”

कागज ले जाकर स्तालिन को बताया। स्तालिन के आश्चर्य का पार न रहा। फिर भी वह बोलाः “अच्छा, अगर आत्मा की शक्ति में इतना सामर्थ्य है तो तुम एक चमत्कार और दिखाओ। मैं रात को किस कमरे में रहूँगा यह मुझे भी पता नहीं है। अतः आज रात के बारह बजे मैं जिस कमरे में सो रहा होऊँगा वहाँ आकर मुझे जगा दो तो मैं आत्मा की शक्ति को स्वीकार करूँगा।”

स्तालिन बड़ा डरपोक व्यक्ति था। ʹकोई मुझे मार न डालेʹ इस डर से उसके पाँच सौ कमरे में से वह किस कमरे में रहेगा इस बात का पता उसके अंगरक्षकों तक को नहीं चलने देता था। 112 नंबर के कमरे में सोयेगा कि 312 में, 408 में सोयेगा कि 88 में… इसका पता किसी को नहीं रहता था। स्तालिन ने अपने महल के चारों ओर इस प्रकार सैनिक तैनात कर रखे थे कि कोई भी उसके महल में प्रवेश न कर सके। उसने आदेश दे दिया कि आज रात को कोई भी व्यक्ति उसके महल में प्रवेश न कर सके इस बात का पूरा ध्यान रखा जाये।

फिर भी रात्रि के ठीक बारह बजे स्तालिन के कमरे में पहुँच कर मेहफिन ने दरवाजा खटखटाया। स्तालिन दंग रह गया और बोलाः “तुम यहाँ कैसे आ सके ?”

मेहफिनः “आपने पूरी सेना तैनात कर दी थी ताकि कोई भी महल में प्रवेश न कर सके। सैनिक किसी को भी आने नहीं देंगे किन्तु सेनापति को तो नहीं रोक सकेंगे ? मैंने सेनापति बेरिया (तत्कालीन के.जी.बी. का चीफ) का ड्रेस पहना और दृढ़ संकल्प किया कि ʹमैं सेनापति मि. बेरिया हूँ…. मैं मि. बेरिया हूँ….ʹ और उसी अदा से तुम्हारे महल में प्रवेश किया। मैंने ध्यान कर के पता कर लिया कि आप किस कमरे में सो रहे हो। मुझे आता देखकर आपके सैनिकों ने मुझे सेनापति बेरिया समझा और सलाम करके मुझे आसानी से अंदर आने दिया। इसलिए मैं आपके कमरे तक इतनी सरलता से, आत्मा की शक्ति से ही आ गया।”

आत्मा की यह शक्ति जब तीसरे केन्द्र में आती है तो असंभव सा दिखने वाला कार्य भी संभव हो जाता है। इस शक्ति को अगर योग में लगाये तो व्यक्ति योगी हो जाता है और अगर भगवान को पाने में लगाये तो व्यक्ति भगवान को भी पा लेता है। जिस-जिस कार्य में यह शक्ति लगायी जाती है वह-वह कार्य अवश्य सिद्ध हो जाता है लेकिन शर्त केवल इतनी ही है कि दूसरों को सताने में यह शक्ति न लगाई जाय। अगर दूसरों को सताने में इस शक्ति का उपयोग किया जाता है तो हिरण्यकशिपु जैसी या रावण और कंस जैसी दुर्दशा होती है। यदि अच्छे कार्यों में उपयोग किया जाता है तो व्यक्ति हजारों-लाखों लोगों को उन्नत करने में भी सहायक हो जाता है। फिर वही व्यक्ति महापुरुष बन जाता है….. जैसे, एकनाथ जी महाराज।

एकनाथ जी महाराज के पास कोई ब्राह्मण पारस रखकर यात्रा करने के लिए निकल पड़ा। एकनाथजी महाराज ने उस पारस को पूजा के पाटिये के नीचे रख दिया। उनके श्रीखण्डया नामक सेवक ने उस पारस को पत्थर समझकर गोदावरी में फेंक दिया।

जब वह ब्राह्मण यात्रा करके वापस आया और उसने अपना पारस वापस माँगा तब सेवक ने कहाः

“अरे ! मैंने तो उसे सामान्य पत्थर समझकर गोदावरी में फेंक दिया।”

ब्राह्मण उदास हो गया। उसे उदास देखकर एकनाथजी महाराज ने कहाः “चलो, गोदावरी के तट पर।”

गोदावरी के तट पर पहुँचकर एकनाथजी महाराज ने गोता मारा और ब्राह्मण का जैसा पारस पत्थर था उसी प्रकार के बहुत सारे पत्थर लेकर बाहर निकले और उस ब्राह्मण से बोलेः “अपना पारस पहचान कर ले  लो।”

वह ब्राह्मण तो देखकर दंग रहा गया कि ʹमैं तो पारस-पारस करके दुःखी हो रहा था लेकिन एकनाथजी महाराज ने अपने योगबल से सभी पत्थरों को पारस करके दिखा दिया!ʹ

महापुरुषों के पास ऐसी शक्ति है लेकिन वे उसका उपयोग अपने अहं के पोषण अथवा प्रजा के शोषण में नहीं करते। उनकी दृष्टिमात्र से लोगों का चरित्र भी उन्नत होने लगता है। उनकी नूरानी नजर से अभक्त भी भक्त बनने लगता है। वे अपने कृपा-प्रसाद से लोगों के हृदय में भक्ति, ज्ञान, आनंद और माधुर्य भर देते हैं…. प्रेम भर देते हैं…. यह शक्ति का सदुपयोग है।

महापुरुष अपनी आत्मशक्ति से लोगों का मन भगवान में लगा देते हैं। कीर्तन कराते-कराते संप्रक्षेण शक्ति बरसाकर लोगों की सुषुप्त शक्तियाँ जगा देते हैं। महापुरुष ऐसे होते हैं। नानक जी कहते हैं-

ब्रह्मज्ञानी का दर्शन बड़भागी पावहि।

ब्रह्मज्ञानी को बलि-बलि जावहि।।

सच्चे संतों के नेत्रों से आध्यात्मिक ऊर्जा निकलती रहती है जो हमारे पाप-ताप मिटाती है। सच्चे संतों की वाणी से हमारे कान पवित्र होते हैं, हमारा आत्मिक बल जगता है।

पहले के समय में बड़े-बड़े राजा-महाराजा बारह-बारह कोस दूर तक रथ में जाते थे महापुरुषों के श्रीचरणों में मस्तक नवाने के लिए। संतों-महापुरुषों के श्रीचरणों में मस्तक नवाने के लिए। संतों महापुरुषों में जिसकी श्रद्धा नहीं है उसे समझना कि या तो वह शोषक है या उसके मन में कोई बड़ा पाप है इसलिए उसके हृदय में महापुरुषों के लिए नफरत है। अगर महापुरुषों के लिए नफरत है तो वह व्यक्ति नरकगामी होगा। सच्चे संतों के प्रति किसी को नफरत है तो समझ लेना कि उसके ऊपर कुदरत का कोप होगा। सच्चे संतों के प्रति जिनको श्रद्धा है तो समझ लेना कि देर-सबेर उनके हृदय में भगवान प्रगट होने वाले हैं।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, अक्तूबर 1996, पृष्ठ संख्या 6,7,8,14 अंक 46

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