पूज्यपाद संत श्री आसारामजी बापू
कबीर जी कहते हैं-
निरंजन वन में साधु अकेला खेलता है…..
बख्खड़ ऊपर गौ वीयाई उसका दूध बिलोता है।।
मक्खन मक्खन साधु खाये छाछ जगत को पिलाता है।
निरंजन वन में साधु अकेला खेलता है…
निरंजन वन में…. अंजन माने इन्द्रियाँ। जहाँ इन्द्रियाँ न जा सके वह है निरंजन। उस निरंजन वन में साधु अकेला खेलता है। उस वन में किसी साथी, किसी व्यक्ति का साथ में प्रवेश नहीं हो सकता। कई लोग तो सुबह के सुंदर वातावरण में घूमने जाते हैं तब भी अकेले नहीं जाते। अरे ! जन्म लेना अकेले, मरना अकेले, नींद करनी अकेले, पाप-पुण्य का फल भोगना अकेले, नींद करनी अकेले, पाप-पुण्य का फल भोगना अकेले। जब अकेले ही करना है तो किसी दूसरे पर भरोसा क्या करता ? अतः साधना-पथ में अकेले ही जाना चाहिए। इसीलिए कबीरजी ने कहा होगाः निरंजन वन में साधु अकेला खेलता है। अतः अकेला आगे बढ़ना चाहिए।
ये शब्द बहुत सीधे-सादे हैं लेकिन पूरा वेदान्त कूट-कूटकर भर दिया है कबीर जी ने। वे पूरे अनुभव की बात कर रहे हैं। अज्ञानी मनुष्य दो भी होंगे तो हजार बातें होंगी लेकिन हजार ज्ञानी मिलकर भी बोलेंगे तो एक ही अनुभव की बात आ जाती है।
बख्खड़ ऊपर गो वियाई उसका दूध बिलोता है…
जैसे गाय बियाती है तो दूध देती है ऐसे ही इड़ा और पिंगला के मध्य स्थित सुषुम्ना का द्वार जब खुलता है तब वृत्ति ब्रह्मानंद देती है। ʹबख्खड़ ऊपरʹ तात्पर्य है ऊँची अवस्था। मक्खन मक्खन साधु खाये…. वास्तव में होना तो ऐसा चाहिए कि साधु खुद छाछ पियें और दूसरों को मक्खन खिलायें किन्तु यहाँ साधु स्वयं मक्खन खाते हैं और दूसरों को छाछ पिलाते हैं। यह कैसे ? वास्तव में कबीर जी यहाँ यह आध्यात्मिक मर्म बताना चाहते हैं कि शुद्ध ईश्वरीय मस्ती तो साधु लेते हैं और उनके अनुभव को छूकर आती हुई वाणी का लाभ लोग लेते हैं। जैसे मक्खनवाली छाछ में कुछ कण मक्खन के रह ही जाते हैं ऐसे ही शुद्ध ब्रह्मानुभव है मक्खन और उस अनुभव को छूकर आती हुई वाणी है छाछ। साधु स्वयं तो ब्रह्मानुभवरूपी मक्खन का स्वाद लेता है और कभी-कभार लोकहितार्थ कुछ बोल देता है तो उस छाछरूपी वाणी का पान करने का लाभ लोगों को मिल जाता है। अगर वे छाछ भी हजम कर लें तो उनका बेड़ा पार हो जाता है।
कबीर जी आगे कहते हैं-
तन की कुण्डी मन का सोटा हरदम बगल में रखता है।
पाँच-पच्चीस मिलकर आवे उनको घोंट मिलाता है।
निरंजन वन में साधु अकेला खेलता है…
तन की कुण्डी मन का सोटा अर्थात् जैसे खरल दस्ते में ठण्डाई घोंटते हैं ऐसे ही साधु पुरुष तन-मनरूपी खरल दस्ते का उपयोग करके आत्मज्ञानरूपी ठण्डाई घोंट-घोंट कर लोगों को पिलाते हैं। जैसे खरल दस्ते को हम अपना साधन समझकर अपने नियंत्रण में रखते हैं वैसे ही साधु पुरुष तन-मन को बगल में रखते हैं अर्थात् अपने नियंत्रण में रखते हैं, अपने आदेश में रखते हैं। अपनी आज्ञा में ही क्यों रखते हैं ? क्या अहंकार सजाने के लिए ? नहीं नहीं, कोई आ जाये परमात्म-रस पीने वाले तो उनके लिए तन-मन का प्रयोग करके रामनाम का रस पिलाने के लिए तन-मन को अपनी आज्ञा में रखते हैं।
आगे कबीर जी कहते हैं-
कागज की एक पुतली बनायी उसको नाच नचाता है।
आप ही नाचे आप ही गावै आप ही ताल मिलाता है।।
निरंजन वन में साधु अकेला खेलता है…
कागज की एक पुतली बनायी अर्थात् अपनी आत्माकार वृत्ति बनायी। कागज नाम क्यों दिया ? क्योंकि वृत्ति कोई भी हो वह ठोस नहीं होती, उसमें शाश्वतता नहीं होती। जैसे कागज की पुतली ठोस नहीं होती। साधु आत्माकार वृत्ति बनाकर उसको अपनी आत्मसत्ता से नचाता है। जैसे तरंग को सत्ता पानी की है ऐसे ही अपनी वृत्ति को वृत्ति के आधार परमात्मा की, आत्मा की सत्ता है। ʹआप ही नाचे…..ʹ उस वृत्ति में फिर वह स्वयं ही गाता है, स्वयं ही नाचता है और स्वयं ही ताल मिलाता है।
जैसे तरंग सरोवर से भिन्न नहीं, वैसे ही वृत्ति अपने अधिष्ठान परमात्मा से भिन्न नहीं होती। जैसे तरंगें भिन्न-भिन्न दिखती हैं वैसे ही एक ही वृत्ति के भिन्न-भिन्न नाम हैं। उस सच्चिदानंद परमात्मा से जो वृत्ति फुरती है, वह वृत्ति जब मनन करती है तब उसे ʹमनʹ कहते हैं, निश्चय करती है तब उसे बुद्धि कहते हैं, चिंतन करती है तब उसे ʹचित्तʹ कहते हैं, देह में अहं करती है तब उसे ʹअहंकारʹ कहते हैं और देह के साथ जुड़कर जब जीने की इच्छा रखती है तब उसे ʹजीवʹ कहते हैं।
ऐसा नहीं है कि मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार और जीव – ये पाँच अंदर घुसे हुए हैं वरन् चैतन्य से फुरने वाली वृत्तियों के ही ये भिन्न-भिन्न नाम हैं। साधना करने की वृत्ति है तो साधक, भक्ति करने की वृत्ति है तो भक्त, योग करने की वृत्ति है तो योगी, भोग करने की वृत्ति है तो भोगी, त्याग करने की वृत्ति है तो त्यागी, साधना का जतन करने की वृत्ति है तो जति और तप करने की वृत्ति है तो तपस्वी। चैतन्य से स्फुरित होने वाली वही वृत्ति है किन्तु जैसे-जैसे संस्कार और गुण उससे जुड़ जाते हैं वैसा-वैसा उस मनुष्य का नाम हो जाता है। है सब वृत्तियों का ही खेल।
कभी-कभी शांत होकर वृत्तियों के खेल का निहारना चाहिए। ऐसा नहीं कि सारा दिन ʹराम… राम… राम…ʹ ही करते रहे। नहीं, कभी शांत होकर बैठें और जो वृत्ति उठे उसे देखें कि ʹअच्छा, मनन कर रही है, इसीलिए तेरा नाम मन पड़ा। तुझे सत्ता तो मैं ही दे रहा हूँ।ʹ इस प्रकार का प्रयोग करने से ऐसा अदभुत लाभ होगा कि महाराज ! तपस्वियों को 12-12 वर्ष तप करने से भी कई बार वैसा लाभ नहीं हो पाता।
हम वृत्ति के साथ जुड़ जाते हैं, वृत्तियाँ इन्द्रियों के साथ जुड़ जाती हैं और इन्द्रियाँ जगत के साथ जुड़ जाती हैं, हमारा पतन हो जाता है। सबसे पहले है हमारा चैतन्य स्वरूप परमात्मा। फिर वृत्तियाँ। फिर इन्द्रियाँ और फिर जगत। इन्द्रियाँ मन को खींचे और उसके पीछे चले बुद्धि तो जीव हो गया अज्ञानी। लेकिन बुद्धि शुद्ध-अशुद्ध का निर्णय करके परमात्मा की ओर चले, मन उसमें सहयोग दे और इन्द्रियाँ उसके पीछे चलें तो हो जायेगा ज्ञान। बस, इतना ही है, ज्यादा कुछ नहीं है। इसी मे सब साधनाओं का सार आ गया। फिर चाहे तुम ʹहरि ૐʹ करो या ʹनमो अरिहंताणंʹ करो, ʹझूलेलालʹ करो या ʹराम-रामʹ करो। ये सब सात्त्विक स्थितियाँ हैं। अंत में परम लक्ष्य तो केवल परमात्मज्ञान ही है।
जैसे सरोवर की सत्ता से लहर उठती है वैसे ही अपना जो वास्तविक स्वरूप है, चैतन्यस्वरूप है, उसी की सत्ता से वृत्ति फुरती है। यदि वह वृत्ति निर्णयात्मक फुरती है तो उसे बुद्धि कहते हैं। वह परमात्मा के ज्यादा करीब है। परमात्मा के सबसे निकट हृदय होता है, फिर बुद्धि होती है, बाद में मन, इन्द्रियाँ और जगत होता है। संसार का सब कुछ त्याग करके भी जिसने परमात्मभाव बना लिया उसने लाभ का सौदा किया क्योंकि संसार की चीजें साथ में नहीं चलेंगी। साथ में चलेगा परमात्मभाव, साथ में चलेगा स्वभाव। रूपये, मकान बिगड़े तो बिगड़े लेकिन अपना स्वभाव नहीं बिगड़ना चाहिए और ʹस्वʹ माना ʹआत्माʹ अतः ʹआत्माʹ का भाव ʹस्वभावʹ नहीं बिगड़ना चाहिए।
स्रोतः ऋषि प्रसाद, जनवरी 1997, पृष्ठ संख्या 9,10,27 अंक 48
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