वास्तविक सुख किस में ?

वास्तविक सुख किस में ?


पूज्यपाद संत श्री आसारामजी बापू

मच्चित्ता गद् गतप्राणा बोधयन्तः परस्परम्।

कथयन्तश्च मां नित्यं तुषयन्ति च रमन्ति च।।

ʹनिरन्तर मुझमें मन लगाने वाले और मुझमें ही प्राणों को अर्पण करने वाले भक्तजन, सदा ही मेरी भक्ति की चर्चा के द्वारा, आपस में मेरे प्रभाव सहित मेरा कथन करते हुए संतुष्ट होते हैं और मुझ वासुदेव में ही निरंतर रमण करते हैं।ʹ (भगवद् गीताः 10.9)

भोगी को विषय-भोगों में वह सुख नहीं मिलता जो भक्त को भगवद् प्रभाव के चिंतन एवं परस्पर कथन में मिलता है।

वस्तु-व्यक्तियों से क्रिया करके जो सुख मिलता है उसे क्रियाजन्य सुख कहते हैं। सूँघने, चखने, स्पर्श करने आदि क्रियाजन्य सुख में ही मनुष्य अटका रहा तो मनुष्य रूपेण मृगाश्चरन्ति। वह मनुष्य के रूप में पशु माना गया है। क्रियाजन्य सुख तो कुत्ते-कुत्ती भी भोगते हैं, जिसमें क्रिया, परिश्रम तो ज्यादा होते हैं और सुख घड़ीभर का मिलता है। ऐसे ही खाने पीने, सूँघने-सुनने आदि से मिलने वाला सुख क्रियाजन्य सुख है।

दूसरा सुख है भावजन्य सुख। क्रियाजन्य सुख की अपेक्षा भावजन्य सुख में मेहनत कम है और सुख ज्यादा है। भगवान या गुरु की मूर्ति को निहारने से या मन में भावना करने से हृदय में सुख मिलता है। भावजन्य सुख में परिश्रम कम है और सुख क्रियाजन्य सुख से ज्यादा है।

भावजन्य सुख हृदय को शुद्ध करता है स्वतंत्रता की ओर ले जाता है। क्रियाजन्य सुख में बल-बुद्धि तेज-तन्दुरुस्ती का नाश होता है और भावजन्य सुख हृदय को भगवदभाव से भरता है।

भावजन्य सुख से भी बढ़कर है ध्यानजन्य सुख। भाव ज्यादा देर नहीं टिकता लेकिन ध्यान उससे ज्यादा देर टिकता है। हालाँकि ध्यान भी निरन्तर नहीं होता है और समाधि भी सतत नहीं होती है। अतः उससे भी आगे है विचारजन्य सुख।

विचारजन्य सुख अर्थात् भगवदविचार करना, भगवदज्ञान की, आत्मज्ञान की बातें करना। जब दो दीवानें मिल जाते हैं तो वहाँ ईश्वर विषयक चर्चा की मेहफिल शुरु हो जाती है जिससे मन भगवदाकार, ब्रह्माकार होने लगता है। ऐसा करते-करते मनुष्य तात्त्विक सुख का अधिकारी होने लगता है। आत्म-साक्षात्कारी महापुरुष तात्त्विक सुख को पाते हैं।

सदा समाधि संत की आठों प्रहर आनंद।

अकलमता कोई ऊपजा गिने इन्द्र को रंक।।

ऐसा माधुर्य, संतोष और ऐसा रस उन महापुरुष को मिलने लगता है जहाँ इन्द्र का सुख भी तुच्छ हो जाता है।

मनुष्य जन्म का लक्ष्य उसी रस को, उसी तात्त्विक सुख को पाना है। क्रियाजन्य सुख तो पशु भी ले रहे हैं, मूर्ख भी ले रहे हैं। भावजन्य सुख भक्त लेते हैं और विचारजन्य सुख भक्त और ज्ञानी लेते हैं। तत्त्व का सुख पाने के लिए परस्पर परमात्मतत्त्व का कथन-चिंतन-मनन करना चाहिए।

बुद्धिमान मनुष्य तो वह है जो भगवदचिंतन, भगवदस्वरूप का श्रवण करे कि ʹभगवान क्या हैं ? जीवात्मा क्या है ? परमात्मा क्या है ? सुख-दुःख आते हैं, चले जाते हैं लेकिन उनको भी जो देखने वाला है उस साक्षीस्वरूप में मैं कैसे टिकूँ ? इससे भी आगे चलकर साक्षी और साक्ष्य के पार परमात्मपद में पूर्णता कैसे पाऊँ ?ʹ ऐसा विचार करने वाला व्यक्ति उस परम सुख को पाता है, तात्त्विक सुख को पाता है।

छः व्यक्तियों से हमें कभी हानि नहीं होती, लाभ ही लाभ होता हैः

सात्त्विक एवं बुद्धिमान मित्र, विद्वान पुत्र, पतिव्रता स्त्री, दयालु मालिक, सोच-समझकर बोलने वाला, सोच-समझकर काम करने वाला। इनसे कभी हानि नहीं होती है।

श्रीकृष्ण अथवा श्रीकृष्णतत्त्व को पाये हुए महापुरुषों को हम ʹसाधुʹ कहते हैं। गुरुवाणी में आता हैः

साधु ते होवहि न कारज हानि।

ब्रह्मज्ञानी ते कछु बुरा न भया।।

जिन्होंने तात्त्विक सुख पा लिया है, परम सुख पा लिया है, आत्मा का सुख पा लिया है उनसे कभी हमारा बुरा नहीं होता है। ऐसे तत्त्ववेत्ता होने के लिए जो दीवाने चल पड़ते हैं, उनकी ही बात भगवान यहाँ कर रहे हैः मच्चिता मद् गतप्राणाः।

परमेश्वर की ही बातों के परस्पर कथन से ज्ञान पुष्ट होता है, तात्त्विक सुख दृढ़ होता है। जिज्ञासु द्वारा ईश्वर विषयक ज्ञान सुनने से जिज्ञासा की पूर्ति तो होती है, आत्मज्ञान सुनकर कुछ संतोष तो होता है किन्तु उससे सब दुःख नहीं मिटते। सत्संग से कुछ दुःखों की निवृति अवश्य होती है किन्तु बाकी के दुःख मिटाने के लिए उस सत्संग से जो ज्ञान मिला, उस ज्ञान का परस्पर कथन करके उस ज्ञान में टिकने का प्रयास करना चाहिए।

जब तक गुरु का ज्ञान नहीं मिला था, गुरूदीक्षा नहीं मिली थी तब तक संसार की छोटी-छोटी बातें भी बड़ा प्रभाव डालती थीं लेकिन गुरुदीक्षा मिलने के बाद, सत्संग सुनने के बाद उनका पहले जैसा प्रभाव तो नहीं पड़ता किन्तु दुःख बना रहता है, विक्षेप बना रहता है। निगुरे को ज्यादा तो सगुरे को कम। ….और यह विक्षेप तब तक बना रहता है जब तक आत्मनिष्ठा दृढ़ नहीं हुई। इसलिए निष्ठा को दृढ़ करने के लिए भी आत्मा की बातें, सत्संग की बातें करनी चाहिए और उसी में संतुष्ट होना चाहिए। इधर उधर की बातें करके अपने चित्त से सत्संग की बातों का प्रभाव घटने नहीं देना चाहिए अपितु सत्संग की बातों से इधर-उधर की बातों के प्रभाव को हटा देना चाहिए।

अगर चारों तरफ से मुसीबतें आ जायें, चारों ओर अंधेरा ही अंधेरा दिखने लगे, तब भी यह चिंतन करना चाहिए किः ʹदुःख आये हैं तो जाएँगे, सदा नहीं रहेंगे। जब सृष्टि पहले नहीं थी, बाद में भी नहीं रहेगी और अभी भी ʹनहींʹ की ओर ही जा रही है तो दुःख भी पहले नहीं था, बाद में नहीं रहेगा और अभी भी ʹनहींʹ की ओर ही जा रही है तो दुःख भी पहले नहीं था, बाद में नहीं रहेगा और अभी भी नहीं की ओर ही जा रहा है। परमात्मा  तो पहले भी था, अब भी है और बाद में भी रहेगा। वही परमात्मा मेरा आत्मा है, वही श्रीराम है, वही यशोदानन्दन श्रीकृष्ण है और वही गुरु है।ʹ ऐसा चिंतन करके दुःख के बीच भी आप दो मिनट के लिए पूरे सुख में आ सकते हैं।

बाहर से तो दुःख, दुःख ही दिखता है लेकिन दुःख दिखता है दुःखाकार वृत्ति से। उस दुःखाकार वृत्ति को यदि दो मिनट के लिए भी भगवदाकार वृत्ति बना दें तो आप दो मिनट के लिए निर्दुःख हो सकते हैं तो दस मिनट भी हो सकते हैं। हृदय में जब दुःखाकार वृत्ति होती है तब दुःख होता है। अनुकूलवेदनीयं सुखं प्रतिकूलवेदनीयं दुःखं। जो अनुकूल लगता है उसे हम सुख मानते हैं और प्रतिकूल लगता है उसे दुःख मानते हैं। जैसे बेटे की शादी में माँ को गालियाँ मिलती हैं तो उसे दुःख नहीं होता है। दुश्मन का आशीर्वाद भी खटकता है और सज्जन की गाली भी अच्छी लगती है। गाली तो गाली होती है लेकिन वहाँ दुःखाकार वृत्ति उत्पन्न नहीं होती वरन् ʹमित्र की गाली हैʹ ऐसा सोचकर सुखाकार वृत्ति बनने के कारण सुख होता है।

धन चले जाने से सबको दुःख होता है लेकिन वही धन जब सत्कर्म में लगाते हैं तो अंदर से औदार्य की वृत्ति उत्पन्न होती है। अतः धन देते समय भी सुख होता है। नहीं तो धन देना अच्छा लगता है क्या ? कुछ भी न मिले और धन देना पड़े तो…..? फिर भी सत्कर्म में धन देने पर सुख होता है क्योंकि वहाँ धन का महत्त्व नहीं है वरन् आपकी वृत्ति सुखाकार होती है इसीलिए आप मठ-मंदिर, आश्रम आदि में धन अर्पण करते हो। वही पचास रूपये हैं – यदि सत्कर्म में लगाते हो तो सुख होता है और दण्ड के रूप में भरना पड़े तो दुःख होता है।

मदालसा जब अपने बेटों को दूध पिलाती, तब ब्रह्मज्ञान की बातें करती थी। मच्चित्ता मद् गतप्राणा बोधयन्तः परस्परम्। मानो, गीता का यह वचन चरिथार्थ कर रही हो। इस प्रकार शैशव से ही भगवदभाव के विचारों से ओतप्रोत बातें करके उसने अपने बच्चों को ब्रह्मज्ञानी बना दिया।

बाल्यकाल में ही एक के बाद एक बालक ब्रह्मज्ञानी होकर विरक्त होने लगा। तब मदालसा के पति ने कहाः “यदि सभी बच्चों को तुम इस प्रकार विरक्त बना दोगी तो मेरी गादी कौन संभालेगा ? राजगादी संभालने के लिए कुछ तो आसक्ति चाहिए, कुछ तो अज्ञान चाहिए… तभी वह संभाली जा सकेगी। विरक्त क्या संभालेगा ? अतः एक बालक को तो अज्ञानी रखो।

अलर्क नामक छोटे बेटे को ब्रह्मज्ञान देने से राजा ने मदालसा को इन्कार कर दिया। मदालसा ने सोचा किः ʹचलो, भले यह अलर्क राज्य संभाले लेकिन मेरा बेटा राज्य करके अंत में मरे और फिर दुबारा जन्म ले तो मेरा जन्म देना व्यर्थ है।ʹ अतः उसे ब्रह्मज्ञान के थोड़े संस्कार तो दिये ही, जाते-जाते एक ताबीज भी दे गयी और बोलीः

“बेटा ! यह ताबीज कभी खोलना मत। जब चारों तरफ से अंधेरा नजर आने लगे, चारों ओर से मुसीबतों के पहाड़ टूटने लगें, तभी इस ताबीज को खोलना।”

समय पाकर मदालसा और उसके पति का देहान्त हो गया और अलर्क राज-काज संभालने लगा। ऐसा कोई राजा नहीं, जिसके जीवन में कभी कोई दुःख न आया हो। ज्यों ही राज्य को ʹमेराʹ माना, आसक्ति हुई त्यों ही दुःख आना शुरु हो जाता है। यह ईश्वर की नियति है।

जहाँ तुमने वस्तुओं में, व्यक्ति में, परिस्थिति में आसक्ति की कि ʹहाश ! अब मजे से जियेंगेʹ तभी कोई-न-कोई दुःख आना शुरु हो जायेगा क्योंकि परमात्मा तुम्हें सदैव इस मिथ्या मजे में ही नहीं रखना चाहते हैं। इसीलिए दुःखहारी श्रीहरि दुःख देकर भी तुम्हें परिपक्व करना चाहते हैं। यदि आप ʹवेलसेटʹ हो गये हो तो समझ लो कि ʹअपसेटʹ होने का सामान भी तैयार हो रहा है और यह कहानी केवल एक-दो की ही हो ऐसी बात नहीं है, सबकी यही कहानी है।

अलर्क भी राज-काज संभालते-संभालते उसमें ही गरकाव होने लगा तब उसके भाइयो को हुआ कि ʹहमारा भाई अज्ञानी क्यों रह जाए ? अब वह राज्य में आसक्त होता जा रहा है अतः उसकी आसक्ति छुड़ाने का उपाय भी करना होगा।ʹ

वे जीवन्मुक्त भाई गये अलर्क के पास और बोलेः “हमें हमारे राज्य का हिस्सा दे दो।”

अलर्कः “राज्य मुझे मिला है, आप लोगों को कैसे दे दूँ ?”

भाईः “हम तुम्हारे भाई लगते हैं, अपना हक क्यों छोड़ें ?”

जितना संसार से सुख मिलता है उतनी ही उससे आसक्ति भी होती है। अलर्क ने राज्य देने से इन्कार कर दिया। तब उसके भाइयों ने काशीनरेश से विचारविमर्श किया कि ʹहमें अपने भाई को जगाना है, उसे मुसीबत में डालकर सदा के लिए जन्म-मरणरूपी मुसीबत से छुटकारा दिलवाना है। अतः आप हमारी सहायता करें।ʹ काशीनरेश ने अपना सैन्य भेज दिया।

अलर्क का राज्य तो छोटा-सा था और काशीनरेश की विशाल सेना। अलर्क को हुआ कि ʹइतनी बड़ी सेना लेकर आये हुए अपने संत भाइयों से मैं कैसे लड़ूँगा ? वह बड़ा दुःखी और चिंतित हो उठा और ऐसी मुसीबत के समय में उसने माँ का दिया हुआ ताबीज खोला जिसमें एक छोटी चिट्ठी थी। उस चिट्ठी में लिखा थाः

दुःख पड़े तो संतशरण जाइये।

उस समय नगर के बाहर जोगी गोरखनाथ ठहरे हुए थे। अलर्क पहुँचा जोगी गोरखना के श्रीचरणों में और बोलाः “महाराज ! मैं बड़ा दुःखी हूँ।”

गोरखनाथः “तू मदालसा का बेटा होकर दुःखी है ? मैं अभी तेरा दुःख निकाल देता हूँ। बता, कहाँ है दुःख ?”

अलर्कः “महाराज ! हृदय में बड़ा दुःख है।”

जोगी गोरखनाथ ने तपाया चिमटा और बोलेः “बता, कहाँ है दुःख ? अभी उसे यह चिमटा लगाता हूँ।”

अलर्कः “महाराज ! आप चिमटा मेरे दुःख को कैसे लगाओगे ?”

गोरखनाथः “दुःख है कहाँ ?

अलर्कः “भीतर है।”

गोरखनाथः “चल, अभी लगाता हूँ।”

अलर्कः “महाराज ! यह क्या ? चिमटे से दुःख दूर कैसे होगा ?”

गोरखनाथः “तू केवल बता कि दुःख भीतर कहाँ पर है और कैसे है ? दुःख है कि दुःख का भाव है ?”

अलर्कः “महाराज ! भाई लोग काशीनरेश की सेना लेकर राज्य पर चढ़ाई करने आये हैं, इसलिए मन में दुःख का भाव है।”

गोरखनाथः “यह दुःख नहीं है, वरन् ʹयह राज्य जाये नहींʹ इस आसक्ति के कारण दुःखाकार वृत्ति है। इस दुःखाकार वृत्ति को तू बदलना चाहे तो बदल सकता है। यह केवल एक वृत्ति है और वृत्ति जहाँ से उत्पन्न होती है वह उत्पन्न करने वाला पूर्ण स्वतन्त्र है। उसे जान ले तो सब दुःखों से सदा के लिए मुक्त हो जायेगा।”

“महाराज ! उसे कैसे जानूँ ?”

“अलर्क ! संसार तू लाया नहीं था, राज्य तू लाया नहीं था, ले भी नहीं जायेगा और अभी भी नहीं के तरफ ही जा रहा है। उसमें आसक्ति मत कर।”

इस प्रकार परस्पर आत्मबोध की बात सुनते-सुनते अलर्क को अनुभव होने लगा।

मच्चित्ता मद् गतप्राणा बोधयन्तः परस्परम्।

कथयन्तश्च मां नित्यं तुष्यन्ति च रमन्ति च।।

अलर्क को उस तात्त्विक सुख का अनुभव हुआ जो उसे राज्य-भोग में कभी नहीं मिला था। राज्य सुख तो क्रियाजन्य सुख था, कभी-कभार पूजा में भावजन्य सुख मिला था किन्तु यह सुख तात्त्विक सुख था। तात्त्विक सुख ही सब सुखों का मूल है।

कृतकृत्य होकर अलर्क ने गुरु गोरखनाथ के चरणों में प्रणाम करके विदा माँगी और राज्य में जाकर अपने भाइयों को संदेश भिजवायाः “आज तक मैंने यह राज्यरूपी बैलगाड़ी खूब खींची। आप लोग मेरे बड़े भाई हैं अतः इस झंझट को अब आप ही संभाल लें। अब मैं राज्य से निवृत्त हो जाना चाहता हूँ।”

तब भाइयों ने कहाः “पागल ! इस झंझट को झंझट समझकर निवृत्ति का सुख तुझे मिल जाये इसीलिए हमने यह आयोजन किया था। बस, अब तू ही इसे संभाल। हमें इसकी जरूरत नहीं है। राज्य के प्रति तेरी आसक्ति एवं तेरी नासमझी को मिटाने के लिए ही हमने यह सारा स्वांग रचा था।”

ऐसे ही परमात्मा तुम्हारे साथ स्वाँग रचता है। परमात्मा परम सुहृद है। वह जो भी करता है हमारे मंगल के लिए ही करता है। हम हार न जाएँ, घबरा न जाएँ, थक न जायें और तुच्छ सुख-दुःख में बह न जाएँ – केवल इतनी ही सावधानी रखें और यह सावधानी तब आयेगी जब भगवान के प्यारों के बीच जायेंगे, उनसे भगवदसंबंधी वार्तालाप सुनेंगे, भगवदविचार का मनन-चिंतन करेंगे एवं बार-बार भगवदाकार वृत्ति उत्पन्न करेंगे…. ऐसा करने से उन परम सुहृद परमात्मा में रमण करने की योग्यता अपने आप विकसित हो उठेगी। इसलिए भगवान ने कहा हैः मच्चित्ता मद् गतप्राणा….

ʹनिरन्तर मुझमें मन लगाने वाले और मुझमें ही प्राणों को अर्पण करने वाले भक्तजन, सदा ही मेरी भक्ति की चर्चा के द्वारा, आपस में मेरे प्रभाव सहित मेरा कथन करते हुए संतुष्ट होते हैं और मुझ वासुदेव में ही निरंतर रमण करते हैं।ʹ

स्रोतः ऋषि प्रसाद, मार्च 1997, पृष्ठ संख्या 2,3,4,5,6 अंक 51

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