पूज्यपाद संत श्री आसारामजी बापू
हमारे अंदर तीन शक्तियाँ मौजूद हैं-
करने की शक्ति, मानने की शक्ति और जानने की शक्ति।
बच्चा जब थोड़ा सा समझने लायक होता है तब पूछता हैः “यह क्या है ?… वह क्या है ?….ʹ बच्चा माता-पिता, भाई-बहन सबसे पूछता है क्योंकि जानने की शक्ति उसमें मौजूद है। मनुष्य इस जानने की शक्ति का यदि सदुपयोग करे तो वह अपने-आपको भी जान सकता है र अपने आपको यदि उसने जान लिया तो विश्वनियंता को भी ठीक से जान लेगा। जैसे चावल की देग में से दो दानों को ठीक से जान लिया तो और सब दानों को भी मनुष्य जान लेता है। इसी प्रकार अपने अंतःकरण में स्थित उस सच्चिदानंद को ठीक से जान लिया तो पूरे विश्व को जानना आसान हो जाता है।
मनुष्य में जानने की जिज्ञासा तो छिपी हुई है, जिसकी वजह से बालक ʹयह क्या है…. वह क्या है…ʹ पूछता है किन्तु ʹमैं क्या हूँ ?ʹ यह पूछे उससे पहले ही उसके ऊपर नाम थोप दिया जाता हैः “तेरा नाम मोहन है… तेरा नाम सोहन है….”आदि-आदि। ये ʹमोहन-सोहनʹ आदि जो नाम रखे जाते हैं, वे वास्तव में हमारे नहीं हैं वरन् नाम हैं हाड़-मांस के शरीर के व्यवहार को चलाने के लिए। जन्म के समय शिशु का कोई नाम नहीं होता। जन्म के 6-8 दिन के बाद या 21-40 दिन के बाद नाम रखा गया और मृत्यु के पश्चात भी वह नामवाला शरीर नहीं रहता है। किन्तु शरीर के जन्म के पहले भी तुम थे, शरीर के जन्म के समय भी तुम थे और शरीर के मरने के बाद भी तुम रहोगे क्योंकि तुम्हारा वास्तविक स्वरूप है आत्मा, वास्तविक स्वरूप है परमात्मा और परमात्मा अबदल है। उसी को जानने के लिए ही यह जानने की शक्ति मिली थी किन्तु जिससे जानने की शक्ति मिली थी उसे नहीं जाना और जिसे न जानने पर भी चल जाता उसी को जानने में अपने पूरे समय-शक्ति का व्यय कर दिया ! ʹयह मारवाड़ी है….यह पंजाबी है… यह सिन्धी है… यह मि. फलाने हैं….ʹ – यह सब तो जाना किन्तु जानने की शक्ति का सदुपयोग नहीं किया इसीलिए बंधन में पड़े।
मानने की शक्ति सब के पास है। मानने की शक्ति की वजह से सब मानते रहते हैं लेकिन अज्ञानियों की बात मान-मानकर, संसार की आसक्तिवालों की बात मान-मानकर हम भी अपने-आपको उसी आसक्ति में धकेलते हैं। मानने की शक्ति का अगर हम सदुपयोग करें तो जहाँ से मानने की शक्ति उत्पन्न होती है उसी सच्चिदानंद कृष्ण तत्त्व को, राम तत्त्व को, शिव तत्त्व को मानकर हम मुक्त भी हो सकते हैं।
इसी प्रकार मानव में करने की शक्ति भी छुपी हुई है लेकिन करने की शक्ति जहाँ से आयी है उस सच्चिदानंद परमात्मा की प्रसन्नता के लिए उसका प्रयोग करें तो हमारा करना, हमारा व्यवहार भी भक्ति बन जायेगा। लंबी-लंबी पूजाएँ करो, लंबी-लंबी नमाजें पढ़ो लेकिन इन्सान-इन्सान में अगर वैर है, दुश्मनी है तो लंबी-लंबी पूजाएँ करना, लंबी-लंबी नमाजें पढ़ना व्यर्थ हैं क्योंकि जिसकी तुम बंदगी करते हो वही ला-इल्लाह-इल्लिलाह, वही रोम-रोम में रमने वाला राम हर इन्सान की गहराई में छुपा हुआ है। शाह हाफिज ने कहा हैः
“अय इन्सान ! तू सौ मन्दिर तोड़ दे, सौ मस्जिद तोड़ दे लेकिन एक जिन्दे दिल को मत सताना क्योंकि उसमें खुदा खुद रहता है।”
मुसलमान अपने ढंग से संतों-फकीरों और शास्त्रों की बात माने, हिन्दू अपने ढंग से माने तो संसार नंदनवन हो जाये। पड़ौसी अपने ढंग से माने और हम अपने ढंग से मानें तो संसार में जो कलह, अशान्ति, स्वार्थ है, एक दूसरे को निचोड़कर सुखी होने की जो बेवकूफी है, वह संसार से विदा हो जाये।
आज मनुष्य खुद तो सुख की नींद लेना चाहता है लेकिन दूसरे का शोषण करके। तलवार, पिस्तौल, बंदूक या बम का सहारा लेकर वह सुखी होना चाहता है लेकिन हिंसा सदैव डरपोक होती है। आपने देखा-सुना होगा कि शेर जब जंगल में चलता है तो बार-बार मुड़कर देखता है कि ʹमुझे कोई खा तो नहीं जायेगा ?ʹ अब, उस कम्बख्त को कौन खा जायेगा ? उसने तो हाथी के सिर का खून पिया है। उसकी हिंसा ही उसे डराती है। ऐसे ही हम स्वार्थमय व्यवहार में लगकर भयभीत हो रहे हैं कि ʹयह तो नहीं हो जायेगा…! वह तो नहीं हो जायेगा…!ʹ
करने की शक्ति का उपयोग जिससे किया जाता है उसके लिये नहीं करते हैं वरन् व्यर्थ की आसक्ति के लिए करते हैं तो करने की शक्ति हमको बाँध देती है। जानने की शक्ति है लेकिन जिससे जानने की शक्ति आती है उसको नहीं जानते हैं तो हम जन्म-मरण के चक्र में फँसते हैं। मानने की शक्ति छुपी है लेकिन जिसको मानना चाहिए उस सत्यस्वरूप अपने आत्मा को नहीं मानते हैं और हाड़ मांस के शरीर को अपना मानते हैं कि ʹमैं फलाना भाई हूँ… मैं सेठ हूँ…. मैं नौकर हूँ…ʹ
यह सारा थोपा हुआ कचरा अपनी खोपड़ी में लेकर घूमते हैं तभी डर लगता है कि ʹनहीं, मेरी इज्जत न चली जाये… कहीं मेरा पद न चला जाये….ʹ
अरे ! तू कितना भी संभाल लेकिन जब शरीर ही नहीं रहेगा तो मिला हुआ पद, मिले हुए मकान, दुकान, पुत्र-परिवार कब तक रहेंगे ? तू तो वहाँ नजर रख जिसको काल भी नहीं छू सकता। उस अकाल-स्वरूप आत्मा का श्रवण कर। उसी का सहारा ले। इससे तेरा तो मंगल हो ही हो जायेगा, साथ-ही-साथ तेरी मीठी निगाहें जहाँ तक पड़ेंगी उन लोगों का हृदय भी पावन होने लगेगा। तू वह चीज है।
मन तू ज्योतिस्वरूप अपना मूल पिछान।
तू ज्योतिस्वरूप है, तू ज्ञानस्वरूप है, तू प्रेमस्वरूप है, तू आनंदस्वरूप है, तू मुक्तिस्वरूप है। उसी को तू जान। आटा-दाल, घी-तेल और मिर्च मसाले में ही सारी जिन्दगी खपाने के लिए तू पैदा नहीं हुआ है। बड़े शर्म की बात है कि मनुष्य जन्म पाकर भी तू दुःखी, चिन्तित और भयभीत रहता है। दुःखी, चिंतित और भयभीत तो वे रहें जिनके माई बाप मर गये हैं, जो निगुरे हैं। तेरे माई-बाप तो तेरा चैतन्य तेरे साथ है…. तेरे पास तो गुरु का ज्ञान है। जो होगा, देखा जायेगा। फिकर फेंक कुएँ में… हरि ૐ… हरि ૐ… हरि ૐ….
तू अपने ज्ञानस्वरूप में, अपने प्रेमस्वरूप में, अपने आनंदस्वरूप में गोता मार। उसको सदा साथ मान। बाहर की ʹतू-तू… मैं-मैंʹ वाहवाही और निंदा यह इन्द्रियों का धोखा है। बाहर का सुख भी धोखा है और बाहर का दुःख भी धोखा है। बाहर का धन भी धोखा है और बाहर की गरीबी भी धोखा है। वास्तव में तू न सुखी है न दुःखी है, न अमीर है न गरीब है, न मोटा है न पतला है, न काला है न गोरा है। काला-गोरा चमड़ा होता है, मोटा-पतला शरीर होता है, सुखी-दुःखी मन होता है किन्तु तू इतना भोला महेश हो जाता है कि चमड़े से मिलकर अपने को काला-गोरा मानने लगता है, मांस से जुड़कर अपने को मोटा-पतला मानने लगता है और मन से जुड़कर अपने को सुखी-दुःखी मानने लगता है, वरना तू तो इन सबको देखने वाला, इनका साक्षी चैतन्य आत्मा है, सुखस्वरूप है, ज्ञानस्वरूप है… बस, तू अपने उसी स्वरूप को जानकर मुक्त हो जा…. दृश्य में मत उलझ वरन् दृष्टा बन जा… अपने आत्मस्वभाव में आ जा।
जब-जब दुःख आये तो समझ लेना कि बेवकूफी का फल है। दुःख, भय, चिंता जब-जब आये, तब-तब पानी के तीन घूँट पीकर पंजों के बल पर थोड़े कूदना और सोचना किः ʹदुःख आया है यह तो मेहमान है और मेहमान घर आये तो कुलीन लोग दरवाजा बंद थोड़े ही करेंगे वरन् उसकी आवभगत करेंगे कि ʹआओ भाई ! आओ।ʹ ऐसे ही तुम दुःख का भी स्वागत करो कि ʹदुःखरूपी अतिथि आये हो तो आओ। कितने दिन रहोगे यह हम भी देखते हैं। आओ, भाई ! आओ। ʹ ऐसा चिंतन करने मात्र से दुःख हँसी में बदल जायेगा यह बिल्कुल पक्की बात है। ऐसे ही सुख आये तो उसको भी कह दो कि, ʹभाई ! तू भी आया है ? जो आता है वह जाता है लेकिन मैं तो ज्यों-का-त्यों रहता हूँ अखण्ड, एकरस, नित्य मुक्त, साक्षी, चैतन्यरूप… तेरे आने-जाने से मैं अपनी महिमा से च्युत क्यों होऊँ ?”
सुख से चिपकना नहीं, दुःख से डरना नहीं।
तेरे साथ सच्चिदानंद स्वयं है यह समझ खोना नहीं।।
हरि ૐ….ૐ….ૐ…..ૐ…हरि ૐ…..ૐ…ૐ… ૐ….
इस प्रकार के विचार बार-बार करो। परमेश्वर के नाम का जप करो। अपने परमेश्वरीय स्वभाव को जगाओ। हिम्मत, सदगुण, सदाचार, सहानुभूतिभरा व्यवहार तुम्हारे सोहं स्वभाव को जगा देगा। तुम्हारी जानने की शक्ति का सदुपयोग सत्य-स्वरूप परमात्मा को जानने में करो। सत्य का साक्षात्कार करो।
हे साधक ! हम तुम्हारा स्वर्णमय सूर्योदय देखना चाहते हैं। वाह… वाह… वाह… ૐ….ૐ….ૐ… शांति…. शांति…. शांति…
स्रोतः ऋषि प्रसाद, जुलाई 1997, पृष्ठ संख्या 24,25,26 अंक 55
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