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पूज्यश्री का प्रसाद संजीवनी है


ऐसा कहा जाता है कि जो काम दवा से नहीं होता वह दुआ से हो जाया करता है। लेकिन मेरा अनुभव तो यह कहता है कि दुआ के साथ-साथ पूज्यश्री के हाथों से यदि प्रसाद मिल जाय तो हमारी दुआ भी स्वीकार हो जाती है।

मैं विगत 23 वर्षों से दमा का मरीज था और गत 10 वर्षों से यूरिक एसिड और एक वर्ष से ब्लड कॉलस्ट्राल की बीमारी से पीड़ित था। यानी मेरा शरीर बीमारियों का घर था। मैं अपनी इन बीमारियों से बुरी तरह ग्रस्त था। ऐसे में मई 1994 में हृषिकेश में मुझे पूज्यश्री के दर्शनलाभ का सुअवसर मिला। पूज्यश्री ने मुझे प्रसादस्वरूप टॉफियाँ दीं और उनको लेते ही मैं दो प्रमुख बीमारियों – अस्थमा एवं यूरिक एसिड के चंगुल से मुक्त हो गया। मानो मुझे प्रसाद में संजीवनी मिल गयी। फिर नवम्बर 1995 में मुझे ब्लड कॉलस्ट्राल ने आ घेरा जो कि 300 मि.ग्रा. (नार्मल वेल्यू) से भी अधिक था।

मुझे पुनः बापू जी के सान्निध्य का लाभ फरवरी 1996 में मिला। इस मर्तबा तो बापू जी के दर्शन से ही मेरी बीमारी गायब हो गयी। सचमुच मैं कितना भाग्यशाली हूँ कि मुझे पूज्यश्री का सान्निध्य-प्रसाद मिला और आज मैं स्वस्थ हूँ ! बस, रह-रहकर मेरे मन में यही विचार आता है कि जब बापू जी के दर्शन का इतना अनुपम फल है तो यदि उनके द्वारा मंत्रदीक्षा मिल जाय तो फिर कहना ही क्या…..?

हरिश छाबरिया

राधाकिशन वाटिका, 21/546, सिविल लाईन्स, रायपुर।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जनवरी 1997, पृष्ठ संख्या 29, अंक 49

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निरावरण तत्त्व की महिमा


पूज्यपाद संत श्री आसारामजी बापू

तत्त्वदृष्टि से जीव और ईश्वर एक है, फिर भी भिन्नता दिखती है। क्यों ? क्योंकि जब शुद्ध चैतन्य में स्फुरण हुआ तब अपने स्वरूप को भूलकर जो स्फुरण के साथ एक हो गया, वह जीव हो गया परन्तु स्फुरण होते हुए भी जो अपने स्वरूप को नहीं भूले, अपने को स्फुरण से अलग जानकर अपने स्वभाव में डटे रहे, वे ईश्वर कोटि के हो गये। जैसे, जगदम्बा हैं, श्रीराम हैं, शिवजी हैं।

अब प्रश्न उठता है कि स्फुरण के साथ अपने को एक मान लेने वाले कैसे जीता है ? जैसे किसी आदमी ने थोड़ी-सी दारू पी है, लेकिन सजग है और बड़े मजे से बातचीत करता है किन्तु दूसरे ने ज्यादा दारू पी है, वह लड़खड़ाता है। जो खड़ा है, बातचीत कर रहा है, वह तो खानदानी माना जायेगा लेकिन जो लड़खड़ाता है वह शराबी माना जायेगा। लड़ख़ड़ाने वाले को गिरने के भय से बचने के लिए बिना लड़खड़ाने वाले का सहारा चाहिए। इस तरह लड़खड़ाने वाला हो गया पराधीन और जो नहीं लड़खड़ाया है वह हो गया उसका स्वामी।

ऐसे ही शुद्ध चैतन्य में स्फुरण हुआ, उस स्फुरण को जो पचा गये वे ईश्वर कोटि के हो गये। उन्हें निरावरण भी कहते हैं। जो स्फुरण के साथ बढ़ गये, अपने को भूलकर लड़खड़ाने लगे वे जीव हो गये। उन्हें सावरण कहते हैं। जो सावरण हैं वे प्रकृति के आधीन जीते हैं परन्तु निरावरण हैं वे माया को वश में करके जीते हैं। माया को वश करके जीनेवाले चैतन्य को ईश्वर कहते हैं। अविद्या के वश होकर जीने वाले चैतन्य को जीव कहते हैं क्योंकि उसे जीने की इच्छा हुई और देह को ʹमैंʹ मानने लगा।

ईश्वर का चिन्मयवपु वास्तविक ʹमैंʹ होता है। जहाँ से स्फुरण उठता है वह वास्तविक ʹमैंʹ है। जितने भी उच्च कोटि के महापुरुष हो गये, वे भी जन्म लेते हैं तब तो सावरण होते हैं लेकिन स्फुरण का ज्ञान पाकर अपने चिन्मयवपु में ʹमैंʹ पना दृढ़ कर लेते हैं तो निरावरण हो जाते हैं,  ईश्वरस्वरूप हो जाते हैं। उन्हें हम ब्रह्मस्वरूप कहते हैं। ऐसे ब्रह्मस्वरूप महापुरुष हमें युक्ति-प्रयुक्ति से, विधि-विधान से निरावरण होने का उपाय बताते हैं, ज्ञान देते हैं। गुरु के रूप में हम उनकी पूजा करते हैं। यदि ईश्वर और गुरु दोनों आकर खड़े हो जायें तो…..

कबीर जी कहते हैं-

गुरु गोविन्द दोऊ खड़े किसके लागूँ पाय।

बलिहारी गुरु आपने जिन गोविंद दिया दिखाय।।

हम पहले गुरु को पूजेंगे, क्योंकि गुरु ने ही हमें अपने निरावरण तत्त्व का ज्ञान दिया है।

ईश्वरो गुरुरात्मेति मूर्तिभेदे विभागिनः।

ʹईश्वर और गुरु की आकृति दो दिखती हैं, वास्तव में दोनों अलग नहीं हैं।ʹ

पुराणों में आता है कि किसी ने पुत्र की अभिलाषा से तप किया। उसके तप से भगवान प्रसन्न हुए और वरदान माँगने के लिए कहा। तपस्वी ने पुत्र की अभिलाषा व्यक्त की। एवमस्तु कहकर भगवान अन्तर्धान हो गये। समय पाकर उनके घर पुत्र का जन्म हुआ।

जो महापुरुष निरावरण पद को प्राप्त हो जाते हैं वे ईश्वर कोटि के हो जाते हैं। वे महापुरुष मौज में आकर कह दें कि ʹऐसा हो जायेगाʹ तो वह हो जाता है। यह निरावरण तत्त्व में स्थिति की सामर्थ्य है।

जैसे पावर-हाऊस की बिजली का सप्लाई तो वही का वही है, लेकिन उसका उपयोग जहाँ होता है वह साधन जितना बढ़िया होगा उतना ही कार्य अच्छा होगा। ईश्वर का संकल्प जहाँ से स्फुरित होता है वही चैतन्य आपका भी है। आपका संकल्प भी वहीं से स्फुरित होता है। ईश्वर के साधन बढ़िया हैं और आपके अंतःकरण और इन्द्रियाँ रूपी साधन घटिया हैं। है तो वही चैतन्य, फिर भी उसका सामर्थ्य सीमित रहता है। जब आपकी निरावरण स्वरूप में स्थिति होती है, तब उसकी सत्ता-सामर्थ्य है को जान पाते हैं क्योंकि आप भी वही चैतन्य रूप हो जाते हैं। अभी भी आप वही रूप हैं मगर जानते नहीं हैं न ! नश्वर संसार के नाम और रूप में आसक्त होकर उसमें उलझ गये हैं।

नाम और रूप का आधार तो एक ही है। तत्त्वज्ञान के अभाव में भेद दिखता है। वास्तव में भेद नहीं है। जीव और ईश्वर भी कहने भर को दो हैं। वास्तव में दो नहीं हैं।

भगवान परम कृपालु हैं

किसी ने मुझसे प्रश्न कियाः

“यदि भगवान सबका भला ही चाहते हैं तो किसी व्यक्ति के चोरी करने पर उसके हाथ में लकवा कर दें ताकि फिर कोई चोर ही न बनें। यदि ऐसा चमत्कार कर दें कि किसी के झूठ बोलने पर उसकी जीभ कट जाय – तो आगे से कोई झूठ ही न बोल पाये। हमारी बहन पर किसी पड़ोसी के लड़के की बुरी नजर हो तो उस लड़के को ही अंधा बना डालें ताकि दूसरे किसी की ऐसा करने की हिम्मत ही न हो। भगवान यदि अपनी शक्ति को इस प्रकार का ʹमहाप्रसादʹ देने में लगायें तो इतने सारे पुलिस, सिपाही, थाने और कोर्ट-कचहरी आदि की आवश्यकता ही न रहे और सारी झंझटें खत्म हो जायें तथा संसार सुखमय, शांतिमय बन जाये।”

सवाल तो बढ़िया लग रहा है लेकिन ऐहिक ज्ञान के संदर्भ में बढ़िया लग रहा है। कोई झूठ बोले और उसकी जीभ कट जाये, बुरी नजर से देखे और अंधा हो जाये, यदि ऐसा होने लगे तो मनुष्य का विकास रूक जायेगा। आपके कपड़े खराब हो जाते हैं तो क्या आप उन्हें फेंक डालते हो ? नहीं, वरन् आप उसे अच्छे-से-धोकर साफ-सुथरा बनाने की कोशिश करते हो। आपका बेटा कोई गलत काम करता है तो क्या आप उसे घर से बाहर निकाल देते हो ? नहीं, घर से बाहर निकाल देना यह समस्या का हल नहीं है। आप उसे शांति से, प्रेम से समझाकर, आगे से ऐसी गलती न करने का सिखाकर, अच्छे जीवन की ओर प्रोत्साहित करके उसे सुधारने का प्रयास करते हो, विकसित करने का प्रयास करते हो।

चार दिन की जिन्दगानी में भी आप अपने बेटे के विकास के लिए इतने दयालु बनते हो। यदि आपका पुत्र चोरी करता है तो ʹलकवा हो जायेʹ – आप सोच भी नहीं सकते हो, यदि आपका पुत्र किसी लड़की की ओर बुरी नज़र से देखने का अपराध करता है तो आपको उसकी आँखें फोड़ डालने की इच्छा नहीं होती है वरन् आप उसे समझाकर, टोककर, डाँट फटकारकर, मारकर, ʹदूसरी बार ऐसी गलती न होʹ ऐसी चेतावनी जरूर देते हो। फिर भी यदि वह जीवनभर अपराध ही करता रहे तब भी आपको उसके लिए लकवा होने या अंधे हो जाने का विचार हरगिज नहीं आयेगा।

जो पहले आपका न था, मरने के बाद आपका न रहेगा, उस पुत्र के लिए आप इतने उदारहृदयी बनते हो तो जो सदियों से हमारा पिता है, उस परम पिता परमेश्वर के हृदय में हमारे लिए कितनी करूणा होगी ? यदि भगवान इतने कठोर दिल के बन जायें तो मनुष्य के गिरने के बाद सँभलने की योग्यता का विकास नहीं होगा। सिपाहियों को काम नहीं मिलेगा, न्यायधीशों को अपराधी नहीं मिलेंगे तो संसार सुखद नहीं, अपितु भोगप्रधान बन जायेगा।

भगवान तो सदैव हमें बुरे कर्मों से बचाने के लिए हमारे हृदय में अंतर्यामी अवतार लेकर प्रगट होते रहते हैं। यदि हम बुरे कर्म करके सफलता प्राप्त करते हैं और हमारे मित्र हमारी वाहवाही करते हैं फिर भी हमें हृदय में शांति, संतोष और सुख नहीं मिलता है। तब हमें बाह्य रूप से सजा देने के बजाय परम कृपालु परमेश्वर हमारे हृदय में ही अंतर्यामी अवतार लेकर हमें टोकता है, बुरे कर्मों से बचाकर हमें सुधारने की कोशिश करता है। इसी प्रकार जब हम सत्कर्म करते हैं, तब टोकने वाले टोकते हैं फिर भी हमें आंतरिक खुशी मिलती है, हमारा अंतरात्मा, अंतर्यामी परमात्मा हमें धन्यवाद देता है।

हमें सजग रखने के लिए इतना कुछ करने पर भी यदि हम गलत मार्ग पर ही आगे बढ़ते रहते हैं तो अंत में भी वह परम कृपालु परमात्मा निराश न होकर, इस जन्म में तो क्या दूसरा जन्म देकर भी हमें ऊपर उठने का मौका देता है। वह परमात्मा कितना उदार है ! कितना कृपालु है ! वास्तव में तो वही प्राणिमात्र का परम सुहृद एवं अकारण हित करने वाला परम मित्र है। उसी की शरण में रहने में आनंद है…. उसी की स्मृति में आनंद है।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जनवरी 1997, पृष्ठ संख्या 15,16,17 अंक 49

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निरंजन वन में साधु अकेला खेलता है…


पूज्यपाद संत श्री आसारामजी बापू

कबीर जी कहते हैं-

निरंजन वन में साधु अकेला खेलता है…..

बख्खड़ ऊपर गौ वीयाई उसका दूध बिलोता है।।

मक्खन मक्खन साधु खाये छाछ जगत को पिलाता है।

निरंजन वन में साधु अकेला खेलता है…

निरंजन वन में…. अंजन माने इन्द्रियाँ। जहाँ इन्द्रियाँ न जा सके वह है निरंजन। उस निरंजन वन में साधु अकेला खेलता है। उस वन में किसी साथी, किसी व्यक्ति का साथ में प्रवेश नहीं हो सकता। कई लोग तो सुबह के सुंदर वातावरण में घूमने जाते हैं तब भी अकेले नहीं जाते। अरे ! जन्म लेना अकेले, मरना अकेले, नींद करनी अकेले, पाप-पुण्य का फल भोगना अकेले, नींद करनी अकेले, पाप-पुण्य का फल भोगना अकेले। जब अकेले ही करना है तो किसी दूसरे पर भरोसा क्या करता ? अतः साधना-पथ में अकेले ही जाना चाहिए। इसीलिए कबीरजी ने कहा होगाः निरंजन वन में साधु अकेला खेलता है। अतः अकेला आगे बढ़ना चाहिए।

ये शब्द बहुत सीधे-सादे हैं लेकिन पूरा वेदान्त कूट-कूटकर भर दिया है कबीर जी ने। वे पूरे अनुभव की बात कर रहे हैं। अज्ञानी मनुष्य दो भी होंगे तो हजार बातें होंगी लेकिन हजार ज्ञानी मिलकर भी बोलेंगे तो एक ही अनुभव की बात आ जाती है।

बख्खड़ ऊपर गो वियाई उसका दूध बिलोता है…

जैसे गाय बियाती है तो दूध देती है ऐसे ही इड़ा और पिंगला के मध्य स्थित सुषुम्ना का द्वार जब खुलता है तब वृत्ति ब्रह्मानंद देती है। ʹबख्खड़ ऊपरʹ तात्पर्य है ऊँची अवस्था। मक्खन मक्खन साधु खाये…. वास्तव में होना तो ऐसा चाहिए कि साधु खुद छाछ पियें और दूसरों को मक्खन खिलायें किन्तु यहाँ साधु स्वयं मक्खन खाते हैं और दूसरों को छाछ पिलाते हैं। यह कैसे ? वास्तव में कबीर जी यहाँ यह आध्यात्मिक मर्म बताना चाहते हैं कि शुद्ध ईश्वरीय मस्ती तो साधु लेते हैं और उनके अनुभव को छूकर आती हुई वाणी का लाभ लोग लेते हैं। जैसे मक्खनवाली छाछ में कुछ कण मक्खन के रह ही जाते हैं ऐसे ही शुद्ध ब्रह्मानुभव है मक्खन और उस अनुभव को छूकर आती हुई वाणी है छाछ। साधु स्वयं तो ब्रह्मानुभवरूपी मक्खन का स्वाद लेता है और कभी-कभार लोकहितार्थ कुछ बोल देता है तो उस छाछरूपी वाणी का पान करने का लाभ लोगों को मिल जाता है। अगर वे छाछ भी हजम कर लें तो उनका बेड़ा पार हो जाता है।

कबीर जी आगे कहते हैं-

तन की कुण्डी मन का सोटा हरदम बगल में रखता है।

पाँच-पच्चीस मिलकर आवे उनको घोंट मिलाता है।

निरंजन वन में साधु अकेला खेलता है…

तन की कुण्डी मन का सोटा अर्थात् जैसे खरल दस्ते में ठण्डाई घोंटते हैं ऐसे ही साधु पुरुष तन-मनरूपी खरल दस्ते का उपयोग करके आत्मज्ञानरूपी ठण्डाई घोंट-घोंट कर लोगों को पिलाते हैं। जैसे खरल दस्ते को हम अपना साधन समझकर अपने नियंत्रण में रखते हैं वैसे ही साधु पुरुष तन-मन को बगल में रखते हैं अर्थात् अपने नियंत्रण में रखते हैं, अपने आदेश में रखते हैं। अपनी आज्ञा में ही क्यों रखते हैं ? क्या अहंकार सजाने के लिए ? नहीं नहीं, कोई आ जाये परमात्म-रस पीने वाले तो उनके लिए तन-मन का प्रयोग करके रामनाम का रस पिलाने के लिए तन-मन को अपनी आज्ञा में रखते हैं।

आगे कबीर जी कहते हैं-

कागज की एक पुतली बनायी उसको नाच नचाता है।

आप ही नाचे आप ही गावै आप ही ताल मिलाता है।।

निरंजन वन में साधु अकेला खेलता है…

कागज की एक पुतली बनायी अर्थात् अपनी आत्माकार वृत्ति बनायी। कागज नाम क्यों दिया ? क्योंकि वृत्ति कोई भी हो वह ठोस नहीं होती, उसमें शाश्वतता नहीं होती। जैसे कागज की पुतली ठोस नहीं होती। साधु आत्माकार वृत्ति बनाकर उसको अपनी आत्मसत्ता से नचाता है। जैसे तरंग को सत्ता पानी की है ऐसे ही अपनी वृत्ति को वृत्ति के आधार परमात्मा की, आत्मा की सत्ता है। ʹआप ही नाचे…..ʹ उस वृत्ति में फिर वह स्वयं ही गाता है, स्वयं ही नाचता है और स्वयं ही ताल मिलाता है।

जैसे तरंग सरोवर से भिन्न नहीं, वैसे ही वृत्ति अपने अधिष्ठान परमात्मा से भिन्न नहीं होती। जैसे तरंगें भिन्न-भिन्न दिखती हैं वैसे ही एक ही वृत्ति के भिन्न-भिन्न नाम हैं। उस सच्चिदानंद परमात्मा से जो वृत्ति फुरती है, वह वृत्ति जब मनन करती है तब उसे ʹमनʹ कहते हैं, निश्चय करती है तब उसे बुद्धि कहते हैं, चिंतन करती है तब उसे ʹचित्तʹ कहते हैं, देह में अहं करती है तब उसे ʹअहंकारʹ कहते हैं और देह के साथ जुड़कर जब जीने की इच्छा रखती है तब उसे ʹजीवʹ कहते हैं।

ऐसा नहीं है कि मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार और जीव – ये पाँच अंदर घुसे हुए हैं वरन् चैतन्य से फुरने वाली वृत्तियों के ही ये भिन्न-भिन्न नाम हैं। साधना करने की वृत्ति है तो साधक, भक्ति करने की वृत्ति है तो भक्त, योग करने की वृत्ति है तो योगी, भोग करने की वृत्ति है तो भोगी, त्याग करने की वृत्ति है तो त्यागी, साधना का जतन करने की वृत्ति है तो जति और तप करने की वृत्ति है तो तपस्वी। चैतन्य से स्फुरित होने वाली वही वृत्ति है किन्तु जैसे-जैसे संस्कार और गुण उससे जुड़ जाते हैं वैसा-वैसा उस मनुष्य का नाम हो जाता है। है सब वृत्तियों का ही खेल।

कभी-कभी शांत होकर वृत्तियों के खेल का निहारना चाहिए। ऐसा नहीं कि सारा दिन ʹराम… राम… राम…ʹ ही करते रहे। नहीं, कभी शांत होकर बैठें और जो वृत्ति उठे उसे देखें कि ʹअच्छा, मनन कर रही है, इसीलिए तेरा नाम मन पड़ा। तुझे सत्ता तो मैं ही दे रहा हूँ।ʹ इस प्रकार का प्रयोग करने से ऐसा अदभुत लाभ होगा कि महाराज ! तपस्वियों को 12-12 वर्ष तप करने से भी कई बार वैसा लाभ नहीं हो पाता।

हम वृत्ति के साथ जुड़ जाते हैं, वृत्तियाँ इन्द्रियों के साथ जुड़ जाती हैं और इन्द्रियाँ जगत के साथ जुड़ जाती हैं, हमारा पतन हो जाता है। सबसे पहले है हमारा चैतन्य स्वरूप परमात्मा। फिर वृत्तियाँ। फिर इन्द्रियाँ और फिर जगत। इन्द्रियाँ मन को खींचे और उसके पीछे चले बुद्धि तो जीव हो गया अज्ञानी। लेकिन बुद्धि शुद्ध-अशुद्ध का निर्णय करके परमात्मा की ओर चले, मन उसमें सहयोग दे और इन्द्रियाँ उसके पीछे चलें तो हो जायेगा ज्ञान। बस, इतना ही है, ज्यादा कुछ नहीं है। इसी मे सब साधनाओं का सार आ गया। फिर चाहे तुम ʹहरि ʹ करो या ʹनमो अरिहंताणंʹ करो, ʹझूलेलालʹ करो या ʹराम-रामʹ करो। ये सब सात्त्विक स्थितियाँ हैं। अंत में परम लक्ष्य तो केवल परमात्मज्ञान ही है।

जैसे सरोवर की सत्ता से लहर उठती है वैसे ही अपना जो वास्तविक स्वरूप है, चैतन्यस्वरूप है, उसी की सत्ता से वृत्ति फुरती है। यदि वह वृत्ति निर्णयात्मक फुरती है तो उसे बुद्धि कहते हैं। वह परमात्मा के ज्यादा करीब है। परमात्मा के सबसे निकट हृदय होता है, फिर बुद्धि होती है, बाद में मन, इन्द्रियाँ और जगत होता है। संसार का सब कुछ त्याग करके भी जिसने परमात्मभाव बना लिया उसने लाभ का सौदा किया क्योंकि संसार की चीजें साथ में नहीं चलेंगी। साथ में चलेगा परमात्मभाव, साथ में चलेगा स्वभाव। रूपये, मकान बिगड़े तो बिगड़े लेकिन अपना स्वभाव नहीं बिगड़ना चाहिए और ʹस्वʹ माना ʹआत्माʹ अतः ʹआत्माʹ का भाव ʹस्वभावʹ नहीं बिगड़ना चाहिए।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जनवरी 1997, पृष्ठ संख्या 9,10,27 अंक 48

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