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सच्ची शांति के अधिकारी


परम पूज्य संत श्री आसारामजी बापू

हमारा अधिकांश समय कुछ पाने, उसे संभालने और ʹवह नष्ट न हो जायʹ इसकी चिन्ता और मेहनत में ही नष्ट हो जाता है जबकि वास्तविकता तो यह है कि इस क्षणभंगुर मृत्युलोक में ऐसी कोई भी वस्तु और संबंध नहीं है जो सदा बना रहे। हम जो पाना चाहते हैं वह नश्वर है। हम जिसे संभालना चाहते हैं, वह पल-प्रतिपल नष्ट होता है जा रहा है लेकिन विवेक के अभाव में हम अपना अमूल्य मानव देह और समय व्यर्थ गँवा देते हैं और आखिरकार कुछ भी हाथ नहीं लगता। एक परमात्मा के शाश्वत संबंध को छोड़कर कोई भी संबंध सदा नहीं रहता। लेकिन अभागी इच्छा-वासनाओं ने हमें कभी सच्ची शांति का अधिकारी नहीं बनने दिया।

बुद्ध एक विशाल मठ में पाँच मास तक ठहरे हुए थे। गाँव के लोग शाम के समय सत्संग सुनने आते और सत्संग पूरा होता तो लोग बुद्ध के समीप आ जाते और उनके समक्ष अपनी समस्याएँ रखते। किसी को बेटा चाहिए तो किसी को धन्धा चाहिए, किसी को रोग का इलाज चाहिए तो किसी को शत्रु का उपाय चाहिए।

एक बार भिक्षु आनंद ने पूछाः

“भगवन् ! यहाँ श्रीमान लोग भी आते हैं, मध्यम वर्ग के लोग भी आते हैं और छोटे-छोटे लोग भी आते हैं। सब दुःखी ही दुःखी। इनमें कोई सुखी होगा क्या ?”

बुद्धः “हाँ, एक आदमी सुखी है।”

आनंदः “बताइये, कौन है वह ?”

बुद्धः “जो आकर पीछे चुपचाप बैठ जाता है और शान्ति से सुनकर चला जाता है। कल भी आयेगा। उसकी ओर संकेत करके बता दूँगा।”

दूसरे दिन बुद्ध ने इशारे से बताया। आनंद विस्मित होकर बोलाः “भन्ते ! यह तो मजदूर है। कपड़े का ठिकाना नहीं और झोंपड़ी में रहता है। यह सुखी कैसे ?”

बुद्धः “आनन्द ! अब तू ही देख लेना।”

बुद्ध ने सब लोगों से पूछा कि आपको क्या चाहिए ? सभी ने अपनी-अपनी चाह बतायी। किसी को धन, किसी को सत्ता तो किसी को सौन्दर्य चाहिए था। जिसके पास धन था, उसको शांति चाहिए। सभी किसी-न-किसी परेशानी में ग्रस्त थे। आखिर में उस मजदूर को बुलाकर पूछा गयाः “तेरे को क्या चाहिए ? क्या होना है तुझे ?”

मजदूर प्रणाम करते हुए बोलाः “प्रभो ! मुझे कुछ चाहिए भी नहीं और कुछ होना भी नहीं है। जो है, जैसा है, प्रारब्ध बीत रहा है। धन में या धन के त्याग में, वस्त्र और आभूषणों में सुख नहीं है। सुख तो है समता के सिंहासन पर और हे भन्ते ! वह आपकी कृपा से मुझे प्राप्त हो रहा है।”

ʹमुझे यह पाना है…. यह करना है…. यह बनना है….ʹ ऐसी खटपट जिसकी दूर हो गई हो वह अपने राम में आराम पा लेता है। वह सच्ची शांति का अधिकारी हो जाता है। आज आरोग्यता पा लेना दुर्लभ नहीं, सत्ता पा लेना दुर्लभ नहीं, साम्राज्य पा लेना दुर्लभ नहीं। दुर्लभ तो वे हैं जो कुछ पाकर सुखी होने की हमारी मान्यताएँ छुड़ाकर सत् का बोध करा दें, सच्ची शांति का अधिकारी बना दें। ऐसे ब्रह्मज्ञानी महापुरुष दुर्लभ हैं।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जुलाई 1997, पृष्ठ संख्या 31,32, अंक 55

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सच्चे सुख की खोज


पूज्यपाद संत श्री आसारामजी बापू

कबीर जी ने कहा हैः

भटक मूँआ भेदू बिना पावे कौन उपाय।

खोजत-खोजत जुग गये पाव कोस घर आय।।

आत्मतत्त्व के रहस्य को जानने वाले भेदू पुरुषों के सान्निध्य बिना जीव बेचारा कितने ही जन्मों से विषय-विकार के सुख में, अहंकार के सुख में, भविष्य के सुख में, और स्वर्ग के सुख में उलझ-उलझकर भटक रहा है। फिर भी आज तक उसे कहीं भी वास्तविक सुख नहीं मिला और न ही वह स्थिर हो सका।

मनुष्यमात्र की माँग है आनंद, मुक्ति, नित्य सुख और अमरता की। मनुष्य धन-संपत्ति क्यों इकट्टी करता है ?

सुख के लिए।

नौकरी क्यों करता है ?

सुख के लिए।

वह तन्दुरुस्ती क्यों चाहता है ?

सुख के लिए।

चोर चोरी क्यों करता है ?

सुख के लिए।

मनुष्य मंदिर में भगवान के दर्शन करने क्यों जाता है ?

सुख के लिए।

आप जो कुछ मत, पंथ, देवी-देवता, गुरु अथवा धन-वैभव, सामाजिक संबंध चाहते हो, मानते हो उसकी गहराई में भी सुख की ही इच्छा होती है। जीवमात्र की प्रत्येक प्रवृत्ति सुख के लिए होती है। किंतु फिर भी आज तक उसे सच्चा सुख नहीं मिला।

एक मियाँभाई मृत्युशैय्या पर पड़े थे। उन्होंने मुल्ला जी का बुलवाया और कहाः “यह दक्षिणा लीजिये और मेरे खुदा से दुआ माँगिये।ʹʹ फिर वह मियाँ भाई खुद आकाश की तरफ देखकर खुदा से दुआ माँगने लगा।

“हे खुदाताला ! मैं तुम्हारे कहने के मुताबिक कुछ न कर सका, मुझे माफ करना। मैं जैसा भी हूँ, तुम्हारा हूँ। मेरी रक्षा करना। मैं तुम्हारी शरण में हूँ।”

उसके बाद मियाँभाई ने दूसरी प्रार्थना शुरु कीः “हे शैतान ! मैं तुझसे दोस्ती भी न निभा सका। मुझे तू माफ करना। मैं जैसा भी हूँ, तेरी शरण में हूँ।”

मुल्लाजीः “यह क्या बकवास कर रहा है ?”

मियाँभाईः “मुल्लाजी ! आप दक्षिणा लेकर जाइये। मरना तो मुझे है। क्या पता मैं किसके हाथ में जाऊँगा ? खुदाताला के पास जाऊँगा कि शैतान के पास जाऊँगा इसकी मुझे खबर नहीं है, इसलिए मैं दोनों से प्रार्थना कर रहा हूँ।”

आज के मनुष्य की ऐसी दयनीय दशा है। मनुष्य को पता ही नहीं है कि मृत्यु के बाद भगवान की शरण जायेंगे या फिर से जन्म-मरण के चक्र में ही भटकेंगे क्योंकि साधना, संयम सदाचार द्वारा अनुभूति नहीं की है न ! यदि मनुष्य तत्परता से साधना करने लगे तो कुछ ही दिनों में उसे अनुभूति होने लगेगी। जिस प्रकार यदि टेलिफोन का नंबर घुमाना आए और कोड नंबर पता हो तो नन्हें से डिब्बे के द्वारा आप किसी भी राज्य या देश में संबंध स्थापित कर सकते हो परंतु यदि नंबर घुमाना ही न आता हो या सही नंबर पता ही न हो तो ? गलत नंबर लग जाता है।

आत्मज्ञानी महापुरुषों का मार्गदर्शन न मिलने पर आप दुन्यावी चीजों में से सुख पाने के लिए कितने ही भटको परंतु सच्चा सुख नहीं मिलेगा। आत्मज्ञानी महापुरुष के दर्शन और सत्संग द्वारा दृढ़ निश्चय करके साधन-भजन किया जाए तो सच्चे सुख की अनुभूति हो जाएगी। उधार धर्म नहीं…. ʹमौत के बाद स्वर्ग में जाएँगेʹ ऐसा नहीं परंतु यहीं बिस्त का बिस्त, स्वर्ग का स्वर्ग जो तुम्हारा अंतर्यामी आत्मदेव है, उसको जानकर परम सुख की अनुभूति करने की कला जान लो।

यह जेट युग है, बैलगाड़ी में बैठकर मुसाफिरी करने का जमाना नहीं है। जैसे पहले अपने दादा-परदादा बैलगाड़ी में जाते थे लेकिन अभी आपको शीघ्र पहुँचाए ऐसा साधन चाहिए क्योंकि समय कम है। ऐसे ही साधना में भी तीव्रता चाहिए और शीघ्र पहुँचा दे ऐसा साधन चाहिए।

संत महापुरुष के सान्निध्य से, सत्संग से जो भी साधना की विधि सीखने को मिले, उसका अभ्यास दृढ़तापूर्वक नियम से रोज चालू रखो। आपको साधन-भजन की जो चिनगारी मिले उसकी सुरक्षा करो। जैसे, खेत में बीज उगे हों लेकिन उनकी सुरक्षा न की जाये तो बीज मुरझा जाते हैं और यदि उनकी सुरक्षा की जाये तो थोड़े ही समय में वे पौधे होकर फलते हैं। वटवृक्ष के एक छोटे से बीज में से विशाल वटवृक्ष हो सकता है। ऐसे ही नियमित रूप से साधन-भजन किया जाये और उसकी सुरक्षा की जाये तो छः महीने में अनुभवरूपी मीठे फल भी चखने को मिल सकते हैं। लेकिन साधन-भजन करने में सातत्य होना चाहिए।

कई लोग दो दिन साधन-भजन करेंगे, नये-नये नौ दिन नियम से चलेंगे और फिर बीच में छोड़ देंगे अथवा तो दूसरा साधन पकड़ेंगे। इस प्रकार वर्षों बीत जाते हैं फिर भी बेचारे ठनठनपाल ही रह जाते हैं, सच्चे सुख से वंचित ही रह जाते हैं।

सुख सबकी माँग है। हाँ, तमोगुणी, रजोगुणी और सत्त्वगुणी जीवों को सुख प्राप्त करने का माध्यम जरूर अलग-अलग होता है। जैसे की तमोगुणी जीव तामसी आहार करके, किसी भी प्रकार के कर्म किये बिना ही आलस्य तथा प्रमाद में ही जीवन बिताते हैं, उनका सुख कीचड़ का सुख है। जैसे, गोबर का कीड़ा गोबर में ही सुख मानता है और नाली का कीड़ा नाली में ही सुख पाता है वैसे ही तामसी स्वभाव का मनुष्य तामसी व्यवहार में ही सुखबुद्धि करता है।

कई मनुष्य रजोगुणी स्वभाव के होते हैं। वे थोड़ी प्रवृत्ति करेंगे और देखेंगे कि यदि माल और वाहवाही होती होगी, तो कहेंगे कि ʹवाह ! मजा ही मजा है !ʹ यह रजोगुणी सुख है।

कुछ सात्त्विक मनुष्य होते हैं। वे ध्यान-भजन करते हैं, सेवा और परोपकार करते हैं, सदाचारी पवित्र जीवन बिताते हैं, संतदर्शन-सत्संग से उनका हृदय पुलकित होता है। इसे सात्त्विक सुख कहते हैं।

परंतु संतों और सत्शास्त्रों का कहना है कि सत्त्वगुणी मनुष्य को भी तब तक सच्चा, शाश्वत् सुख नहीं मिलता, जब तक वह गुणातीत न बने। संत महापुरुषों का सान्निध्य पाकर ऐसा आत्मानुभव प्राप्त कर लेना चाहिए कि फिर उनका अनुभव अपना अनुभव हो जाय। जब-जब वृत्ति अंतर्मुख करें तो संतत्त्व ही केवल शेष रहे।

दिले तस्वीरे है यार….

जबकि गरदन झुका ली और मुलाकात कर ली।

जब तक अपने स्वरूप का ज्ञान नहीं होता। तब तक मन स्थिर नहीं होता।

स्वामी विवेकानन्द कहते थेः

“थोड़ी साधना करो परंतु उत्साह और सावधानी के साथ करो। शास्त्र और महापुरुषों की बात को मोक्षप्राप्ति के लिए सुनो, न कि सत्संग में गये और मजा लेकर आ गये।”

भगवान श्रीकृष्ण ने कहा हैः

अभ्यासयोगयुक्तेन चेतसा नान्यगामिना।

परमं पुरुषं दिव्यं याति पार्थानुचिन्तयन्।।

“हे पार्थ ! यह नियम है कि परमेश्वर के ध्यान के अभ्यासरूप योग से युक्त, दूसरी ओर न जाने वाले चित्त से निरन्तर चिन्तन करता हुआ मनुष्य परम प्रकाशरूप दिव्य पुरुष को अर्थात् परमेश्वर को ही प्राप्त होता है।” भगवदगीताः 8.8

आपकी वृत्ति जिस-जिस वस्तु और व्यक्तियों में जाए उस-उस वस्तु और व्यक्ति में एक अनन्य परमात्मा ही विराजमान हैं – ऐसी दृढ़ता से छः महीने लगातार और सावधानी से अभ्यास किया जाय तो कल्याण हो जाता है।

अभ्यास करने वाले साधक को आहार विहार का ख्याल रखना चाहिए। अति बहिर्मुख, अति पामर, अति तामसी और अति राजसी लोगों का संपर्क नहीं करना चाहिए। असाधक या निगुरों के संपर्क से साधक की साधना क्षीण होती है जबकि साधकों का संपर्क साधक को मददरूप बनता है। इसलिए विरोधी वृत्ति के लोगों के साथ कदापि मेल नहीं रखना चाहिए। केवल ऐसे ही लोगों के साथ संग करना चाहिए जो आपकी नाईं आध्यात्मिक मार्ग पर चलते हों, आपके जैसे ही विचार के हों, सदाचारी हों और सुशील हों। अन्य के साथ फालतू बैठना भी नहीं चाहिए क्योंकि कुसंग की लालच और उसका प्रभाव बहुत ही घातक होता है। इसीलिए कुसंगियों से सावधान रहकर अपनी साधना की रक्षा करनी चाहिए।

सावधानीपूर्वक आत्मज्ञान के नियमित अभ्यास से आत्मशांति और आत्मसुख की अनुभूति होने लगती है। प्रथम फायदा यह होगा कि आपका शरीर निरोग हो जायेगा। कर्कश वाणी मिटकर आपकी वाणी मधुर हो जायेगी। आपके संकल्प में अनुपम सामर्थ्य आ जायेगा। कुटिल स्वभाव दूर होकर मोह, मद, मत्सर आदि विकारों पर विजय मिल जायेगी। फिर विषय विकार आप पर हमला नहीं कर सकेंगे। जैसे एक बार आप जेबकतरे को पहचान लो फिर वह आप पर विजय प्राप्त नहीं कर सकता। मान लो कि आप बस में जा रहे हो। आप जान गये हो कि जेबकतरा कौन है और आप अपनी जेव सँभालने में सावधानी भी रख रहे हो, फिर यदि जेबकतरे का हाथ आपकी जेब पर  पड़ता है तो आप तुरंत कहोगे किः “क्यों भाई साहब ! आपको पैसे चाहिए ?”

जेबकतरा अपने को बचाने के लिए गिड़गिड़ाते हुए बोलेगा किः “नहीं, नहीं, मैं तो मजाक करता था कि आपको पता चलता है कि नहीं। माफ करना, भैया !”

आप चोर पर नजर नहीं रखते हो इसलिए चोर चोरी कर जाता है। इसी प्रकार आप अपने मन पर सतर्क नजर रखने पर आप उस पर विजय पा सकते हो।

अतः मनुष्य जीवन का अंतिम ध्येय प्राप्त करने के लिए, महासत्य को पाने के लिए अत्यंत व्याकुलता का भाव प्रकट कर देना चाहिए। जिस प्रकार मकान को आग लगने के अवसर पर आलस्य-प्रमाद, निद्रा-तंद्रा, दिन-रात या ठंडी गर्मी का भी ख्याल नहीं रहता, ऐसे ही आंतरिक वैराग्य की अग्नि प्रज्वलित होने पर इन सब बातों में मनुष्य नहीं फँसता और सावधानी से लग जाता है। जन्म-जन्मांतरों के इकट्ठे हुए पाप-ताप और विरूद्ध संस्काररूपी इंधन को ज्ञानरूपी आग लगा दो जिससे वे भस्मीभूत हो जाएँ और अंतःकरण शुद्ध एवं निर्मल हो जाए तथा परम सुख, परम आनंद एवं परम शांति की झलकें आने लगे।

उठो…. जागो….कमर कसो… किसी संत महापुरुष की शरण में पहुँच जाओ…. और अभ्यास करके सच्चे सुख को पा लो।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जुलाई 1997, पृष्ठ संख्या 34,35,36,37,43 अंक 55

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माँ पार्वती व जीवन्मुक्त संत


पूज्यपाद संत श्री आसारामजी बापू

पूरा प्रभु आराधिया पूरा जा का नाँव।

पूरे को ही पाइया पूरे के गुण गाँव।।

ऐसे पूरे प्रभु की आराधना करने वाले एक जीवन्मुक्त संत बैठे हुए थे। पार्वती जी एवं शिवजी विचरण करते हुए उधर से निकले, तब पार्वती जी ने शिवजी से कहाः

“देखिये तो सही, आपका यह भक्त ! घर बार, राज-पाट छोड़कर साधु हुआ है। अब चिंता की अग्नि में बाटी सेंक रहा है। इसको कुछ दे दीजिये।”

शिवजीः “इनको मैं क्या दूँ… इन्होंने तो ऐसा पाया है कि दूसरों को जो चाहे वह दे सकते हैं।”

पार्वती जीः “प्रभु ! क्यों ऐसा कहते हैं ? बेचारे दुःखी हैं, चलिये।”

शिवजीः “तुम कहती हो तो चलो।”

दोनों गये उन महापुरुष के पास और शिवजी बोलेः “भिक्षां देहि।”

महापुरुष में जो दो बाटी सेंक रखी थीं, वे उठाकर पीछे देखे बिना ही दे दी। तब शिवजी ने कहाः “अरे ! जरा पीछे देखो तो सही, किसको भिक्षा दे रहे हो ?”

उन संत पुरुष ने पीछे देखा और बोलेः “अच्छा भोलेनाथ आप आये हैं ?”

शिवजीः “कुछ माँग लो।”

महापुरुषः “क्या माँगू ?”

शिवजीः “मैं तुम्हें इस धरती का राजा बनाता हूँ।”

महापुरुषः “मेरी बाटी वापिस दे दो। अभी मैं प्रेम से निश्चिन्त बैठा हूँ, फिर राज्य की झंझट कहाँ सँभालूँ ? आपकी सेवा का फल मुक्ति होना चाहिए कि राज्य की झंझट ?”

शिवजी पार्वती जी की ओर देखकर मंद-मंद मुस्कराये। दोनों वहाँ से अन्तर्ध्यान हो गये।

समय पाकर माता पार्वती जी अकेली आयीं। उस समय वे महापुरुष गुदड़ी सी रहे थे। माँ पार्वती ने कहाः “बाबा ! कुछ माँग लो।”

महापुरुषः “माँ ! कुछ देना ही चाहती हो तो जरा यह गुदड़ी सी दीजिये।”

पार्वतीजीः “गुदड़ी क्या गादी तकिये से सजा-सजाया भवन दे दूँ।”

महापुरुषः “माताजी ! छोड़िये ये सब झंझट।”

माता जी चली गयी। कुछ समय बीता। पुनः माता पार्वती जी पधारीं। उस समय वे महापुरुष टाँग पर टाँग चढ़ाकर आकाश की ओर निहारते हुए ब्रह्मानंद की मस्ती में बैठे हुए थे। पार्वती जी आयीं तो वे न खड़े हुए, न कुछ बोले। तब पार्वती जी ने कहाः “क्या बैल की तरह बैठे हो ! जाओ, बैल बन जाओ।”

समय पाकर वे महापुरुष बैल के रूप में प्रगट हुए। पार्वती जी ने पूछाः “क्यों महाराज ! कैसे हैं ?”

बैलरूपी महापुरुष बोलेः “माता जी ! आपकी बड़ी कृपा है। मनुष्य रूप में तो जरा मल-मूत्र त्याग के लिए स्थान का विचार करना पड़ता था। अब तो चलते-चलते भी कर लिया तो कोई हर्ज नहीं है। पहले तो भोजन बनाकर खाना पड़ता था किन्तु अब तो भूख लगी, चारा तैयार।”

माता जी को हुआ कि इनको तो कोई असर ही नहीं होता। ये तो ऊँट जैसे हैं। अतः बोलीं “ऊँट की नाईं गर्दन ऊँची किये बैठे हो, जाओ ऊँट बनो।”

कहानी कहती है कि समय पाकर वे ऊँट बने। कुछ समय बीतने के बाद माता जी ने पूछाः “क्या…. क्या हाल है ?”

ऊँट रूपी महापुरुषः “माँ ! बैल को तो हरा या सूखा घास चाहिए। कभी मिले न भी मिले। किन्तु ऊँट बनाकर तो आपने एकदम आराम दे दिया। जब भूख लगे तो गर्दन ऊँची करके पेड़ों से भोजन मिल जाता है। माताजी ! आप दे-देकर भी क्या देंगी ? या तो अनुकूल वस्तुएँ या प्रतिकूल वस्तुएँ देंगी लेकिन देंगी इस नश्वर शरीर को ही। आप चाहे बैल बनायें चाहे ऊँट, शरीर है प्रकृति का। आपका श्राप प्रकृति के इस बदलने वाले शरीर को लग सकता है। मुझ आत्मा तक उसकी पहुँच नहीं। माता जी ! अब आपको कुछ चाहिए तो आप ही कुछ माँग लीजिये।”

कैसे हैं ब्रह्मवेत्ता संत !

माता पार्वती जी ने कहाः “यदि आप मुझ पर प्रसन्न ही हैं तो मुझे एक वरदान दे दीजिये कि आप जैसे जीवन्मुक्त पुरुष मेरे यहाँ बालक रूप अवतरें।”

उन संत महापुरुष ने स्वीकार कर ली बात और वे ही स्वामी कार्तिकेय होकर माता पार्वती के घर अवतरित हुए।

औलिया की जूती

निजामुद्दीन औलिया एक सूफी फकीर एवं बाबा फरीद के प्रेमभाजन थे। एक बार निजामुद्दीन औलिया के पास एक गृहस्थ मुसलमान आया और बोलाः “बाबा ! मुझे अपनी लड़की के हाथ रंगने हैं। हो जाये कुछ रहमत…”

औलियाः “आज कोई धनवान नहीं दिखता। कल आना।”

दूसरे दिन भी वह गृहस्थ आया किन्तु उस दिन औलिया का कोई सेठ भक्त नहीं आया। पुनः निजामुद्दीन औलिया ने कहाः “कल आना।” इस प्रकार ʹकल… कल…ʹ करते कुछ दिन बीत गये किन्तु कोई सेठ आया नहीं।

तब वह गृहस्थ बोलाः “बाबा ! मुझ गरीब का भाग्य भी गरीब है। अब आपसे जो रहमत हो सके, वही दे दीजिये।”

निजामुद्दीन औलियाः “भाई ! मेरे पास तो इस वक्त मेरी जूती पड़ी है। वही ले जाओ।”

औलिया की जूती लेकर वह गृहस्थ निकल पड़ा और सोचने लगा कि,  ʹइस जूती के तो दो चार आने मिल जायेंगे। चलो, उसी पैसों से गुड़ लेकर खा लेंगे।ʹ इस प्रकार के विचार करते-करते वह जा रहा था।

इधर अमीर खुसरो अपने वजीरपद से इस्तीफा देकर चालीस ऊँटों पर अपने पूरे जीवन की कमाई लदवाकर औलिया के चरणों में जीवन धन्य बनाने के लिए आ रहा था। इस गृहस्थ के पास आने पर उस प्यारे शिष्य अमीर खुसरो को अपने गुरुदेव निजामुद्दीन की बू आयी तो वह सोचने लगा कि मानो-न-मानो, मेरे औलिया की खुशबू इसी आने वाले आदमी की ओर से आ रही है। अमीर खुसरो ने फिर गौर किया। जब वह आदमी पीछे गया तो खुशबू पीछे से आने लगी। उसे जाते देखकर अमीर खुसरो ने आवाज लगायीः “ठहरो भाई ! मेरे औलिया के यहाँ से तुम क्या लिये जा रहे हो ? मेरे औलिया का ओज दिखाई दे रहा है। क्या है तुम्हारे पास ?”

उस आदमी ने सारी बात अमीर खुसरो को बता दी और कहाः “उन्होंने मुझे अपनी यह जूती दी है।”

खुसरोः “अच्छा ! बताओ, तुम कितने में इसे दोगे ?”

व्यक्तिः “आप जो मूल्य लगायें।”

अमीर खुसरोः “मेरे औलिया की जूती का मूल्य चुकाने की सामर्थ्य तो मुझमें नहीं है। फिर भी मैं मुफ्त में लेना भी नहीं चाहूँगा। मेरे जीवन की सारी कमाई चालीस ऊँटों पर लदी है। इनमें से एक ऊँट, जिस पर सीधा-सामान है, केवल वही मैं रखता हूँ बाकी के उनतालीस ऊँट तुम्हें देता हूँ। यदि दे सको तो मेरे शहंशाह की यह जूती मुझे दे दो।”

वह व्यक्ति तो हैरान हो गया कि जिसे मैं दो चार आने की जूती मान रहा था, उसके लिए अमीर खुसरो अपने पूरे जीवन की कमाई देने पर भी सौदा सस्ता मान रहा है ! उसने औलिया की जूती भी अमीर खुसरो को दे दी।

अमीर खुसरो पहुँचा गुरु के द्वार पर और प्रणाम किया अपने औलिया को। एक रेशमी रूमाल से ढँककर सौगात पेश की औलिया के कदमों में।

निजामुद्दीनः “क्या लाये हो ?”

अमीर खुसरोः “आपकी दी हुई चीज आपके चरणों में लाया हूँ।”

निजामुद्दीनः “आखिर क्या लाये हो ? कौन से मेवे-मिठाइयाँ हैं ?”

अमीर खुसरोः “गुरुदेव ! मेरे औलिया ! मेवे-मिठाइयों से भी ज्यादा कीमती चीज है।”

निजामुद्दीनः “क्या है ?”

अमीर खुसरोः “औलिया ! मेरे सारे जीवन की कमाई का सार है।”

निजामुद्दीनः “आखिर है क्या ?”

अमीर खुसरोः “मेरे मालिक ! मेरे आका ! मैं क्या बोलूँ ? मेरे लिये तो मेरे पूरे जीवन की कमाई है।”

निजामुद्दीनः “अच्छा ! खोलो तो सही !”

धीरे से रेशम का रूमाल हटाया अमीर खुसरो ने। देखते ही चौंक पड़े निजामुद्दीन औलिया और बोलेः “अरे ! यह तो मेरी जूती ! थोड़ी देर पहले ही एक गरीब को दी थी। क्या तूने छीन ली उससे ?”

अमीर खुसरोः “मेरे रब ! मैंने छीनी नहीं है।”

निजामुद्दीनः “तो क्या खरीदी है ?”

अमीर खुसरोः “इस बंदे में क्या ताकत कि आपकी जूती खरीद सके ?”

निजामुद्दीनः “फिर कैसे लाया है ?”

अमीर खुसरोः “मेरे औलिया ! मेरे जीवन भर की कमाई से लदे जो चालीस ऊँट थे उनमें से एक सीधे सामान, बोरी-बिस्तरवाले ऊँट को छोड़कर बाकी के उनतालीस ऊँट देकर इसे लाया हूँ।”

तब निजामुद्दीन बोलेः “फिर भी सौदा सस्ता है।”

संतों का समय व्यर्थ न करो

चाणोद करनाली में श्री रंगअवधूत महाराज नर्मदा के किनारे बैठकर नर्मदा की शांत लहरों को निहार रहे थे। वहाँ एक अधिकारी ने देखा कि जिनका काफी नाम सुना है, वे ही श्री रंगअवधूत महाराज बैठे हुए हैं। अतः वह उनके पास जाकर प्रणाम करके बोलाः

“बाबा जी ! बाबाजी ! 42 वाँ साल चल रहा है…. अभी तक घर में झूला नहीं बँधा, संतान नहीं हुई।”

श्रीरंगअवधूत जी बोलेः ʹ”यहाँ भी संतान की बात करता है ? जा अब।”

अधिकारी बोलाः “किन्तु बाबा जी ! अभी तक संतान नहीं हुई… मुझे संतान होगी कि नहीं ?”

“हाँ ! जा अब यहाँ से।”

“बाबा जी ! बेटा होगा क्या मुझे ?”

“हाँ बाबा, हाँ। जा अब यहाँ से।”

“बाबा जी ! क्या सचमुच मुझे बेटा होगा ?”

“अरे ! तुझे कहा न ! जा यहाँ से।”

“किन्तु बाबा जी ! एक बार फिर से कह दीजिये न कि बेटा होगा।”

“जा साले ! अब कभी नहीं होगा।”

जो संत दिव्य सात्त्विक भाव में होते हैं उनका संकेत भी काफी होता है। अतः बार-बार एक ही बात पूछकर ऐसे निजानंद की मस्ती में मस्त रहने वाले संतों का समय नष्ट करना मूर्खता है। संतों के पास श्रद्धा-भक्ति से बैठकर सत्संग-श्रवण करना और उसका मनन-चिंतन करना तो बढ़िया है किन्तु संसार की नश्वर वस्तुओं के लिए बार-बार उनका समय लेना अपराध है।

कोई जाय संत के पास और कहेः “महाराज ! इसे यह बीमारी है… डाक्टरों ने ऐसा कहा है।”

संतः “अच्छा….. जाओ, देखो कोई इलाज करो।”

अब वह इलाज करे न करे फिर भी उसे स्वतः फायदा होने लगेगा। केवल महापुरुष के कानों में बात पहुँचायी तो भी फायदा हो जाता है। सत्त्वगुण में जागे हुए महापुरुष का संकेत भी काफी होता है। सत्त्वगुण में जो महापुरुष हैं वे तो नजरों-नजरो में ही दे देते हैं। उनके आगे माँगना नहीं पड़ता। अतः एक ही बात बार-बार पूछकर उनका समय खराब करना माने अपना भाग्य ही खराब करना है।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जुलाई 1997, पृष्ठ संख्या 12 से 15, अंक 55

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