निंदा से कोढ़ नाश ! – पूज्यपाद संत श्री आसारामजी बापू

निंदा से कोढ़ नाश ! – पूज्यपाद संत श्री आसारामजी बापू


मृत्यु के भय से तो मृत्यु तो बढ़िया है और बदनामी के भय से बदनामी अच्छी है। ʹबदʹ होना बुरा नहीं है।

इक्ष्वाकु कुल के राजा को कोढ़ की बीमारी हो गयी। दिन का चैन और रात की नींद हराम हो गयी। सारे हकीम और वैद्य अपना-अपना इलाज आजमाकर थक चुके थे। आखिर वह राजा गुरु वशिष्ठजी के श्रीचरणों में पहुँचा और बोलाः

“गुरुदेव ! आज आपके निकट मैं स्वार्थ की बात लेकर आया हूँ। प्रभु ! शांति के लिए नहीं, वरन् शरीर का रोग मिटाने के लिए आया हूँ। इस कोढ़ के इलाज में कोई भी औषधि काम नहीं कर रही है। इसने मुझे धन-वैभव एवं सारी सुविधाओं के बीच रहते हुए भी अत्यंत दुःखी कर दिया है। गुरुदेव इसका क्या कारण है ?”

वशिष्ठजी महाराज ने तनिक अपने स्वस्वरूप में गोता लगाया और समझ गये कि इसके पूर्वकाल का दुष्कृत्य अभी फल देने के लिए तत्पर हुआ है।

कभी पूर्वकाल का सुकृत फल देने को तत्पर होता है। पूर्वकाल का सात्त्विक सुकृत जब फल देने को तत्पर होता है तब संतों के यहाँ जाने की रूचि होती है। राजस सुकृत फल देता है तो भोग-वैभव मिलता है और तामस सुकृत फल देता है तो ऐशो आराम की ओर, शराब कबाब की ओर ले जाता है।

जरूरी नहीं कि पाप का फल ही दुःख होता है। कभी-कभी पुण्य का फल भी दुःख होता है। पुण्य का फल दुःख ? हाँ…. कुछ ऐसे पुण्य किये हैं कि जिसका फल दुःख हो रहा है। दुःख क्यों हो रहा है ? क्योंकि आपकी समय शक्ति संसार के इन खिलौनों में बरबाद न हो जाये। अतः प्रकृति इन खिलौनों की, सांसारिक विषयरूपी खिलौनों की प्राप्ति में विक्षेप डालकर आपकों संत और परमात्मा की शरण पहुँचाना चाहती है, इसीलिए दुःख देती है।

कुछ लोग विवेक से संसार-वैभव का आकर्षण छोड़कर संतों की शरण में पहुँच जाते हैं तो कुछ लोगों को सुकृत के बल से उस सुख-वैभव में विक्षेप डालकर उसकी नश्वरता का बोध करवाकर संतों की शरण में पहुँचा देती है प्रकृति।

वशिष्ठजी महाराज बोलेः “हे राजन ! तुम्हारा पूर्वकृत दुष्कृत्य ही अभी कोढ़ के रूप में प्रगट हुआ है।”

राजाः “गुरुदेव ! मैं कुछ समझ नहीं पा रहा हूँ।” तब वशिष्ठजी ने कहाः ठीक है मैं तुम्हें दिखा देता हूँ।” वशिष्ठजी ने राजा की आँखों पर संकल्प करके हाथ रख दिया, फिर पूछाः “राजन ! क्या दिख रहा है ?”

राजाः “गुरुजी ! दो पहाड़ दिख रहे हैं। उनमें से एक पहाड़ तो सुवर्णकाय है और दूसरा काला कलूट एवं गंदगी के ढेर जैसा दिख रहा है।”

वशिष्ठजीः “राजन ! ठीक दिख रहा है। पहला जो चमक रहा है, वह तुम्हारे शुभ सुकृत हैं और दूसरा जो दिख रहा है गंदगी के ढेर जैसा, यह तुम्हारा पाप है। राज्य और यश तुम्हारे सुकृत का फल है लेकिन अनिद्रा और कोढ़ की बीमारी ये तुम्हारे पूर्वजन्मों के दुष्कृत्यों के फल हैं।”

राजाः “गुरुदेव ! इसका उपाय क्या है ?” वशिष्ठजीः “इस गंदगी के ढेर को तुम खा सकते हो क्या ?”

राजाः “गुरुदेव ! यह तो संभव नहीं है।” वशिष्ठजीः “तो जब तक यह ढेर रहेगा, तब तक तुम्हारा यह दुःख भी बना रहेगा।”

राजाः “इस ढेर को खत्म करने का कोई दूसरा उपाय बताइये, गुरुदेव !”

वशिष्ठजीः “तुम ऐसा किया करो कि अपनी भाभी के महल के प्रांगण में अपना खाट बिछवाओ और रोज शाम को ऐसे ढंग से वहाँ जाकर रहो ताकि  लोगों के मन में ऐसा हो कि ʹभाभी के साथ राजा का नाजायज संबंध है।ʹ लोगों को तुम दोनों का रिश्ता गलत प्रतीत हो। तुम गलत नहीं हो और गलती करोगे भी नही किन्तु लोगों को ʹतुम गलत होʹ ऐसी प्रतीति कराओ।”

राजाः “गुरुदेव ! मेरी भाभी ! वे तो माँ के समान हैं !! मैं वहाँ इस ढंग से जाकर बिस्तर लगाऊँ कि लोग मुझे गलत समझें !! गुरुदेव ! इससे तो मरना श्रेष्ठ है।”

वशिष्ठजीः “बेटा ! बद होना बुरा है किन्तु बदनाम होना बुरा नहीं है। तुम्हारे इस दुष्कृत्य को नष्ट करने का सबसे सुगम उपाय मुझे यही लगता है।”

आखिर हाँ-ना करते-करते राजा सहमत हुआ और उसने गुरुआज्ञा को शिरोधार्य किया।

सैनिक को जब अपने सेनापति का कोई आदेश मिलता है तो अपनी जान की परवाह किये बिना ही वह उस आदेश का पालन करता है। जो चार पैसे कमाता है, वह सैनिक भी आदेश मानकर अपनी जान दे देता है तो जिसको परमात्मतत्त्व पाना है, वह अपने गुरु का आदेश मानकर उऩ्हें अपना अहं दे दे तो इसमें उसका घाटा क्या है ?

तू मुझे तेरा उर-आँगन दे दे, मैं अमृत की वर्षा कर दूँ।

तू मुझे तेरा अहं दे दे, मैं परमात्मा का रस भर दूँ।।

राजा को तीन दिन हो गये अपनी भाभी के प्रांगण में बिस्तर बिछाए हुए, उसका तीन हिस्सा कोढ़ गायब हो गया और एक दो घण्टे की नींद भी आने लगी। राजा प्रसन्न होकर पहुँचा अपने गुरुदेव के श्रीचरणों में एवं प्रणाम करता हुआ बोलाः “गुरुदेव ! बिना औषधि के ही तीन हिस्सा कोढ़ गायब हो गया ! थोड़ी-थोड़ी नींद भी आने लगी है।”

गुरुदेव ने पुनः संकल्प करके राजा की आँखों पर हाथ रखा तो राजा क्या देखता है कि गंदगी का ढेर जो काला पहाड़ था वह तीन हिस्सा गायब हो चुका है।

फिर गुरुदेव बोलेः “चार दिन और यही प्रयोग करो।”

राजा ने चार दिन पुनः वही प्रयोग किया तो पूरा कोढ़ मिट गया, केवल एक नन्हीं सी फुँसी बच गयी। तब राजा ने कहाः “गुरुदेव ! पूरा कोढ़ मिट गया है और अब तो नींद भी बढ़िया आती है लेकिन एक छोटी सी फुँसी बच गयी है और इसमें जरा सी खुजलाहट होती रहती है।”

तब गुरुदेव ने कहाः “राजन् ! अगर मैं भी थोड़ी निंदा कर दूँ तो यह मिट जायेगी। लेकिन मैं जानता हूँ कि तुम निर्दोष हो। अतः निंदा करके मैं अपने सिर पर पाप क्यों चढ़ाऊँ ? इसे अब तुम ही भोग लो।”

निर्दोष व्यक्ति की जब बदनामी होती है तब भगत लोग, सीधे-सादे लोग घबरा जाते हैं। “बापू ! हमने किसी का कुछ नहीं बिगाड़ा फिर भी पड़ोसी लोग हमारे साथ ऐसा-ऐसा दुर्व्यवहार करते हैं….”

अरे भाई ! तुम्हारे चेहरे पर खुशी या  प्रसन्नता देखकर कोई ऐसा वैसा सोचता या बदनामी करता है तो तुम घबराओ मत। ऐसे अवसर पर इक्ष्वाकु कुल के राजा की इस कथा को याद कर लिया करो। कभी-कभी तुम्हारा धन-वैभव एवं यश देखकर अथवा किसी संत महापुरुष का तुम पर प्रेम है-यह देखकर कोई जलता है। तुम तो उसे जलाने का प्रयत्न नहीं करते हो, अतः इसमें तुम्हारा दोष नहीं है।

जब बिजली चमकती है तब बिजली का कोई इरादा नहीं होता कि हम गधी को परेशान करें। बिजली को तो पता तक नहीं होता कि गधी परेशान हो रही है लेकिन जब बिजली चमकती है तो गधी दुलत्ती मारती है। हालाँकि बिजली को वह दुलत्ती लगती भी नहीं है। इसी प्रकार जब तुम्हारे जीवन में चमक आये और किसी की बुद्धि दुलत्ती मारने लगे अर्थात् निंदा करने लगे तो तुम चिंता क्यों करते हो ? तुम तो टिके रहो अपनी गरिमा में, अपनी महिमा में।

स्वामी रामतीर्थ कहते थेः “अपने सिद्धान्तों के लिए अपने प्राण न्योछावर करने की अपेक्षा जीवित रहकर अपने सिद्धान्तों के विरोधियों से टक्कर लेना श्रेष्ठ है।”

एकांत में बैठकर समाधि करने से जो फायदा होता है, वही फायदा, वही आनंद और वही सामर्थ्य, संसार में ईश्वर को साक्षी रखकर दैवी कार्य करते-करते व्यक्ति पा सकता है। योगी को गिरि-गुफा में बैठकर निर्विकल्प समाधि से, ध्यान करने से जो उपलब्धियाँ होती हैं वे ही उपलब्धियाँ उऩ्हें भी मिल जाती हैं जो संसार में सुख बाँटने की दृष्टि से काम करते हैं और कभी-कभार संतों के चरणों में बैठकर अपनी बुद्धि को बुद्धिदाता का ज्ञान पाने में लगा देते हैं।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जून 1999, पृष्ठ संख्या 23-25, अंक 78

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