चिदानंदरूपः शिवोઽहं शिवोઽहं….

चिदानंदरूपः शिवोઽहं शिवोઽहं….


संत श्री आसारामजी बापू के सत्संग-प्रवचन से

ध्यानयोग शिविर में निःसृत पूज्यश्री की आत्मस्पर्शी अमृतवाणी

श्री भोले बाबा ने कहा हैः

पृथ्वी नहीं जल नहीं, नहीं अग्नि तू नहीं है पवन।

आकाश भी तू है नहीं, तू नित्य है चैतन्यघन।।

इन पाँचों का साक्षी सदा, निर्लेप है तू सर्व पर।

निज रूप को पहिचानकर, हो जा अमर हो जा अमर।।

आत्मा अमल साक्षी अचल, विभु पूर्ण शाश्वत मुक्त है।

चेतन असंगी निःस्पृही, शुचि शांत अच्युत तृप्त है।।

निज रूप के अज्ञान से, जन्मा करे फिर जाय मर।

भोला ! स्वयं को जानकर, हो जा अमर हो जा अमर।।

श्रीमद् आद्य शंकराचार्य जी ने इसी बात को अपनी भाषा में कहा हैः

मनोबुद्ध्यहंकारचित्तानि नाहं न च श्रोत्रजिह्वे न च घ्राणनेत्रे।

न च व्योमभूमिर्न तेजो न वायुः चिदानन्दरूपः शिवोहं शिवोहम्।।

अहं निर्विकल्पो निराकाररूपो विभुर्व्याप्य सर्वत्र सर्वेन्द्रियाणाम्।

सदा मे समत्वं न मुक्तिर्नबन्धः चिदानन्दरूपः शिवोहं शिवोहम्।।

ʹचिद्ʹ अर्थात् चैतन्य। ʹशिवोઽहम्ʹ अर्थात् कल्याणकारी आत्मास्वरूप मैं हूँ। दृढ़ भावना करो कि मैं आत्मा हूँ…. चैतन्यस्वरूप हूँ….. आनंदस्वरूप हूँ…..ʹ जिन क्षणों में हम जाने अऩजाने देहाध्यास भूल जाते हैं, उन्हीं क्षणों में हम ईश्वर के साथ एक हो जाते हैं। जाने-अनजाने जब हम देहाभिमान से ऊपर उठे हुए होते हैं, उस वक्त हमारा मन दैवी साम्राज्य में विहार करता है। जिस क्षण अनजाने में भी हम काम करते-करते ʹमैं-मेरापनाʹ भूल जाते हैं उसी समय अलौकिक आनंदस्वरूप आत्मा के राज्य में हम अठखेलियाँ करने लगते हैं और जब राज्य में हम नामरूप के जगत को सत्य समझकर देखने, सुनने एवं विचारने लगते हैं, उसी क्षण अदभुत आत्मराज्य से नीचे आ जाते हैं।

दिन में न जाने कितनी बार ऐसी सुन्दर घड़ियाँ आती हैं, जब हम अऩजाने में ही आत्मराज्य में होते हैं, आत्मसाक्षात्कार की अवस्था में होते हैं लेकिन ʹयह वही अवस्था है….ʹ इसका हमें पता नहीं चलता। इसीलिए हम बार-बार मनोराज्य में, मानसिक कल्पनाओं में बह जाते हैं। ऐसा कोई व्यक्ति नहीं जो परमात्मा का दर्शन न करता हो, साक्षात्कार न करता हो, लेकिन पता नहीं होता कि ʹयही वह अवस्था है….ʹ इसलिए प्रपंचों में उलझ जाता है।

दूसरी बात यह है कि इन्द्रियाँ भी उसे बाहर खींच ले जाती हैं, बहिर्मुख कर देती हैं। स्वरूप का ज्ञान अगर एक बार भी ठीक से हो जाये तो इन्द्रियों के बाहर जाने पर भी वह अपने वास्तविक होश (भान) में बना रहता है।

कई लोग सोचते हैं किः ʹमैं ब्रह्म तो हूँ लेकिन यह भाव दृढ़ हो जाये…. सोઽहम् अर्थात् वह मैं हूँ लेकिन यह भाव दृढ़ करूँ….ʹ तो यह दृढ़ करने का जो भाव आ रहा है वह इसीलिए कि अभी ब्रह्मतत्त्व को ठीक से नहीं समझ पाये हैं। यदि ठीक से समझ लें तो इसमें आवृत्ति की जरूरत नहीं और पा लेने के बाद खोने का भय नहीं।

उस परमात्मा को भावना करके नहीं पाया जाता क्योंकि भावनाएँ सदा बदलती रहती हैं जबकि परमात्मज्ञान सदा एकरस रहता है। जैसे भावना करो कि ʹमेरे हाथ में चाँदी का सिक्का है।ʹ आप भावना तो करेंगे लेकिन संदेह बना रहेगा कि ʹसच में है या नहीं….. या कुछ और है ?ʹ लेकिन आपने यदि एक बार भी देख लिया कि ʹयह चाँदी का सिक्का है…..ʹ तो इसका ज्ञान आपको हो गया। फिर यह ज्ञान मैं आपसे छीन नहीं सकता।

आपको इसका विस्मरण हो सकता है, अदर्शन हो सकता है, लेकिन अज्ञान नहीं होगा। ऐसे ही भगवान की भावना करते हो तो भावना बदल सकती है लेकिन एक बार भी भगवान के स्वरूप का ज्ञान हो जाये, भगवान के स्वरूप का साक्षात्कार हो जाये तो फिर चलते-फिरते, लेते-देते, जीते-मरते, इस लोक-परलोक में सर्वत्र, सर्व काल में ईश्वर का अऩुभव होने लगता है। आवृत्ति करके पक्का नहीं किया जाता है कि ʹमैं आत्मा हूँ… मैं आत्मा हूँ….ʹ क्योंकि परमात्मा तो आपका वास्तविक स्वरूप है, उसे रटना क्या ? जैसे आपका नाम मोहन है तो क्या आप दिन-रात ʹमैं मोहन हूँ… मोहन हूँ…ʹ रटते हो    ? नहीं, मोहन तो आप हो ही। ऐसे ही ब्रह्म तो आप हो ही। अतः यह रटना नहीं है कि ʹमैं ब्रह्म हूँ…ʹ वरन् इसका अनुभव करना है। परमात्मा के खोने का कभी भय नहीं रहता। रुपये पैसे खो सकते हैं, पढ़ाई-लिखाई के शब्द आप खो सकते हो, भूल सकते हो लेकिन उस परमात्मा को भूलना चाहो तो भी नहीं भूल सकते। जो सदा है, सर्वत्र है, आपका अपना-आपा बना बैठा है, उसे कैसे भूल सकते हो ? उसको समझने के लिए केवल तत्परता चाहिए।

उच्च कोटि के एक महात्मा थे। किसी शिष्य ने उनसे कहाः “गुरु जी ! मुझे भगवान का दर्शन कराइये।”

महात्मा ने उठाया डण्डा और कहाः “इतने रूपों में दिख रहा है, उसका तूने क्या सदुपयोग किया ? फिर से प्रभु का कोई नाय रूप तेरे आगे प्रगट कराऊँ ? कितने रुपों में वह गा रहा है ! कितने रूपों में वह गुनगुना रहा है ! उसका तूने क्या फायदा उठाया, जो फिर एक नया रूप देखना चाहता है ?”

तुलसीदासजी कहते हैं-

जड़ चेतन जग जीव जत सकल राममय जानि।

जड़ और चेतन सब परमात्ममय ही तो है ! जहाँ घन अवस्था है उसको जड़ बोलते हैं और जहाँ जाग्रत अवस्था है उसे चेतन कहते हैं। जैसे एक ही पानी बर्फ भी बन जाता है और वाष्प भी। वाष्प का एक सूक्ष्म और चेतन अवस्था है जबकि बर्फ घनीभूत और जड़ अवस्था है लेकिन हैं तो दोनों पानी ही। ऐसे ही चित्त की वृत्ति जब सूक्ष्म, अति सूक्ष्म होती है तब परब्रह्मतत्त्व का साक्षात्कार होता है और स्थूल इन्द्रियों के द्वारा जो व्यवहार हो रहा है वह परब्रह्म परमात्मा का स्थूल रूप से साक्षात्कार ही है।

अज्ञानी लोग देह को ही ʹमैंʹ मानते हैं लेकिन देह के भीतर जो सूक्ष्मातिसूक्ष्म चेतना कार्य करती है वह आनन्दस्वरूप आत्मा है, सुखस्वरूप आत्मा है। परम पुरुषार्थ यही है कि उसे जान लें।

उसे जानने की सबसे सरल युक्ति तो यही है कि ऐसी भावना करें- ʹजो कुछ दिख रहा है उसमें मेरा ही स्वरूप है।ʹ जैसे केश, नख, त्वचा, रोमकूप आदि सब भिन्न-भिन्न होते हुए भी शरीर की एकता का अनुभव होता है, ऐसे ही स्थूल जगत में सब भिन्न-भिन्न दिखते हुए भी ज्ञानवान को सर्वत्र अपने अद्वैत स्वरूप का अनुभव होता है।

ʹजन्म और मृत्यु शरीर के होते हैं, जाति स्थूल शरीर की होती है, बन्धु और मित्र सब स्थूल शरीर के संबंध हैं।

न मे मृत्युशंका न मे जातिभेदः। पिता नैव मे माता न जन्मः।।

न बन्धुर्न मित्रं गुरुर्नैव शिष्यः। चिदानन्दरूपः शिवोहं शिवोहम्।।

ʹमैं तो चिदानंदस्वरूप हूँ…. ૐ…..ૐ….ૐ….

बाह्य सुख-सुविधाओं के न होते हुए भी जितना सुख यहाँ ध्यानयोग शिविर में मिल रहा है, उतना सुख बड़ी-बड़ी होटलों में रहने पर भी नहीं मिला होगा क्योंकि वह सुख सदोष सुख था, विकारी सुख था। भगवान के रास्ते का, ईश्वरीय मार्ग का निर्दोष-निर्विकारी सुख वह नहीं था लेकिन यहाँ जो सुख मिल रहा है वह किसी विषय-भोग का नहीं, वरन् निर्विषय नारायण का सुख मिल रहा है। गोस्वामी तुलसीदास जी ने ʹश्रीरामचरितमानसʹ में कहा हैः

सकल पदार्थ इह जग मांहि। कर्महीन नर पावत नाहीं।।

इस संसार में सब प्रकार के पदार्थ हैं फिर यत्न करके चाहे नर्क का सामान इकट्ठा करो चाहे स्वर्ग का, चाहे वैकुण्ठ का करो चाहे एकदम निर्दोष, शुद्ध-बुद्ध आत्मा का ज्ञान पाकर मुक्त हो जाओ… यह आपके हाथ की बात है।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, अप्रैल 2000, पृष्ठ संख्या 8-10, अंक 88

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