ʹएतत्सर्वं गुरोर्भक्त्या….ʹ

ʹएतत्सर्वं गुरोर्भक्त्या….ʹ


संत श्री आशाराम जी बापू के सत्संग-प्रवचन से

शास्त्रों के रचयिता वेदव्यासजी महाराज ने कहा हैः “काम को जीतना हो तो बीमार को देखो अथवा मन ही मन कल्पना करो की शरीर की चमड़ी हट जाये तो अंदर कौन सा मसाला भरा है। लोभ को जीतना हो तो दान करो। क्रोध को जीतना हो तो क्षमा का गुण ले आओ। मोह को जीतना हो तो शमशान में जाकर देखो कि आखिर कोई किसी का नहीं होता। अहंकार को जीतना हो तो जिस बात का अहंकार हो-धन का, सत्ता का, सौन्दर्य का इत्यादि… उसमें अपने से बड़ों को देखो। इस प्रकार एक-एक दोष पर विजय प्राप्त करने के अलग-अलग उपाय हैं लेकिन यदि मनुष्य इन सब दोषों को एक साथ जीतना चाहता हो तो उसका एकमात्र उत्तम उपाय है कि वह सच्चे सदगुरु में भक्तिभाव करे।”

एतत्सर्वं गुरोर्भक्त्या…..

पत्थर को भगवान मानना बड़ा आसान है क्योंकि पत्थर की मूर्ति तुम्हें टोकती नहीं है परन्तु भगवान के अवतारस्वरूप संत को, गुरु को भगवान मानना बड़ा कठिन है क्योंकि,

सदगुरु मेरा शूरमा, करे शब्द की चोट।

मारे गोला प्रेम का, हरे भरम की कोट।।

लाखों-करोड़ों व्यापारी मिल जायेंगे, लाखों-लाखों पंडित मिल जायेंगे, सैंकड़ों-हजारों गुरु मिल जायेंगे परंतु सदगुरु तो कभी-कभी, कहीं-कहीं मिलते हैं और ऐसे सदगुरु की शरण में जाकर पूर्ण श्रद्धा रखने वाले कोई-कोई विरले होते हैं।

सदगुरु के पास जाने वालों में भी शुरु-शुरु में तो इतनी श्रद्धा नहीं होती, ऊपर-ऊपर से थोड़ा फायदा उठाकर मन से ही गुरु मान लेते हैं। फिर कभी भाग्य जोर पकड़ता है तब गुरु से दीक्षा लेते हैं। बाद में भी कभी अपने मन के विरूद्ध बात दिखाई दी तो कहते हैं किः ʹगुरु जी को ऐसा नहीं करना चाहिए…. वैसा नहीं करना चाहिए….ʹ गुरु एक और शिष्य अनेक। लाखों शिष्यों के लाखों मन, उनकी लाखों कल्पनाएँ होती हैं। सब सोचते हैं- ʹगुरु को ऐसा करना चाहिए…. वैसा करना चाहिए….ʹ मानों, हम अपने-अपने ढाँचे में गुरु को ढालना चाहते हैं अथवा देखना चाहते हैं।

शिष्य नश्वर देह को ʹमैंʹ मानता है और जगत को सत्य मानता है जबकि सदगुरु न देह को अपना मानते हैं न ही जगत को सत्य। ऐसा भी नहीं है कि गुरु एक हैं तो सब शिष्य भी एक-से होते हैं। उनमें से भी कोई नर्क से आया है तो कोई स्वर्ग से आया है। सबके संस्कार अलग-अलग होते हैं, विचार अलग-अलग होते हैं।

उनमें आपसी मतभेद रहता है, मत-मतांतर रहता है। घर में छः लोग होते हैं तब भी मत-मतांतर होते हैं तो लाखों शिष्यों के बीच मत-मतांतर रहे यह स्वाभाविक ही है।

वे सब अपनी-अपनी मति से गुरु को तौलते रहते हैं, गुरु के व्यवहार को मापते रहते हैं। इन सबको सहते हुए, सँभालते हुए, समझाते हुए जो अपने पथ पर चलते हैं और लाखों लोगों को भी ले जाते हैं यह किसी साधारण व्यक्ति का काम नहीं है। हाँ-हाँ सबकी करना किन्तु अपनी गली न भूलना…. अपने-आप में डटे रहना यह कोई मजाक की बात नहीं है।

घर में दो-तीन बच्चों के होने पर ही माँ-बाप परेशान हो जाते हैं और तंग आकर उनकी पिटाई कर देते हैं तो जो लाखों-लाखों शिष्यों के हृदयों को एक ही धागे में बाँधकर यात्रा करवाते हैं वे सदगुरु कितने करूणासागर होंगे ! उनमें कितना धैर्य, आत्मबल और सामर्थ्य होगा !! स्नेह की वह रज्जू कितनी मजबूत होगी !!! परहित का हौसला उनका कितना बुलंद होगा !!!!

गुरु धोबी शिष्य कपड़ा, साबुन सर्जनहार।

सुरत शिला पर बैठकर, निकले मैल अपार।।

हम लोगों के जन्म-जन्मांतर के अपने-अपने कर्म हैं। किसी को धन का आकर्षण है तो किसी को सत्ता का, किसी को प्रसिद्धि का आकर्षण है तो किसी को सौन्दर्य का, किसी की कोई वासना है तो किसी की कोई मान्यता…  न जाने कितना-कितना कचरा भरा पड़ा है ! ऐसे लोगों की कितनी जिम्मेदारी उठानी पड़ती है गुरु को ! ऐसे शिष्यों के कल्याण के लिए भी गुरु अगर तैयार रहते हैं तो उनके हृदय की कितनी विशालता होगी ! उनका हृदय कितने स्नेह से भरा होगा !!

गुरु का स्नेह और उनकी करुणा न हो तो एक भी शिष्य टिक नहीं सकता क्योंकि शिष्य नश्वर देह में जीता है। उसे जो दिखता है उससे गुरु को बिल्कुल निराला दिखता है। फिर भी गुरु-शिष्य का संबंध बना रहता है तो गुरु की करुणा और शिष्य की श्रद्धा की डोर से ही।

शिष्य जगत को सत्य मानता है, देह को ʹमैंʹ मानता है और भगवान को कहीं और मानता है जबकि सदगुरु जगत को मिथ्या जानते हैं, देह को नश्वर मानते हैं और भगवान को अपने से तनिक भी दूर नहीं मानते। दोनों की समझ बिल्कुल भिन्न है। गुरु का अनुभव और शिष्य की मान्यता दोनों में पूर्व-पश्चिम का संबंध है। फिर भी गुरु-शिष्य परंपरा चली आ रही है क्योंकि शिष्य की थोड़ी पुण्याई से और गुरुमंत्र के प्रभाव से श्रद्धा का धागा टूटते-टूटते फिर सँध जाता है और सदगुरु उसे माफ कर अपना लेते हैं जिससे शिष्य पतन की खाई में गिरने से बच जाता है।

रामकृष्ण परमहंस जैसे सदगुरु में नरेन्द्र (स्वामी विवेकानन्द) जैसे शिष्य की भी श्रद्धा एक बार, दो बार, चार बार क्या सात-सात बार अश्रद्धा में बदल गयी थी लेकिन कुछ शिष्य के पुरुषार्थ से औऱ कुछ सदगुरु की कृपा से गुरु-शिष्य का नाता बना रहा और आखिर में काम बन गया।

श्रीवशिष्ठजी महाराज कहते हैं- “हे राम जी ! जो गुरु में सामर्थ्य चाहिए वह मुझमें है। मुझे अपनी आत्मा हस्तामलकवत् भासती है। जैसे हाथ में आँवला होने पर किसी से पूछना नहीं पड़ता कि हाथ में आँवला है कि नहीं, ऐसे ही मुझे परमात्म तत्त्व का अनुभव हो गया है। ऐसा मेरा कोई शिष्य नहीं है जिसको मैंने आनंदित न किया हो। मैं समर्थ गुरु हूँ और तुम भी सत्पात्र शिष्य हो। शिष्य में जो सदगुण होने चाहिए-संयम, सदाचार, तत्परता औऱ गुरुभक्ति वह तुममें है और गुरु में जो सामर्थ्य होने चाहिए-ब्रह्मानिष्ठा, करूणा और अहैतुकी कृपा बरसाने का भाव वह मुझमें है। हे राम जी ! काम बन जायेगा।”

सदगुरु का पद बहुत ही जिम्मेदारी का पद है। स्वामी विवेकानंद कहते थे किः “संसार के दलदल में पड़े रहने वालों की अपेक्षा ईमानदारी से भगवान के रास्ते पर चलने वाले की स्थिति ऊँची है। उससे भी ऊँची है भगवदस्वरूप की जिज्ञासा… तत्त्वरूप से भगवान में और हमारे में क्या भेद है इसकी जिज्ञासा। उससे भी दुर्लभ है भगवद्-तत्त्व का ज्ञान होना, भगवद्-साक्षात्कार होना। इससे भी अत्यन्त ऊँची एवं दुर्लभ स्थिति है एकान्त में जीवन्मुक्त होकर रहना। इससे भी विलक्षण व आश्चर्यकारक बात तो यह है कि ब्राह्मी स्थिति की ऊँचाइयों की तरफ अग्रसर होने के लिए प्रोत्साहित करना, ले जाना। ईश्वर-प्राप्ति, जीवन्मुक्ति प्राप्त करने से भी यह विलक्षण विशालता करुणा दुर्लभ है… अत्यन्त कठिन आश्चर्यमयी है। ऐसे पुरुष धरती पर कभी-कभार, कहीं-कहीं होते हैं।”

धन्य हैं ऐसे सदगुरुओं को, जो अपनी आत्मानंद की मस्ती छोड़कर संसार में भटकते हुए जीवों का उद्धार करने में लगे हैं !

सृष्टि बनाने का और प्रलय करने का सामर्थ्य  आ जाये फिर भी सदगुरु की कृपा के बिना देह की परिच्छिन्नता नहीं मिटती। अंतःकरण में परिच्छिन्न चैतन्य औऱ व्यापक चैतन्य की अभिन्नता का अनुभव जब तक नहीं होता तब तक हमारा काम अधूरा ही रहता है।

गुरु बिनु भव निधि तरइ न कोई।

जों विरंचि संकर सम होई।।

(श्रीरामचरित. उत्तर. 92.3)

ज्यों-ज्यों शिष्य भीतर से समर्पित होता जाता है, त्यों-त्यों गुरुकृपा, ईश्वरकृपा उसके हृदय में विशेष रूप के उतरती जाती है। शिष्य जितने-जितने अहोभाव से गुरु को याद करता है, उतना-उतना उसके हृदय का कब्जा गुरु लेते जाते हैं और शिष्य शहंशाह होता जाता है। बीज जितना मिटता है वृक्ष उतना ही पनपता है। ऐसे ही जीवन में जीवत्व जितना मिटता है उतना ही अंदर का शिवत्व प्रगट होने लगता है।

बारिश के दिन में कोई भीगता हुआ हमारे दरवाजे पर आकर कहे किः ʹभाई ! दरवाजा खोलिये।ʹ ….तो हम उसे अपने घर में आश्रय देते हैं। वह आदमी पहले खड़ा रहता है…. फिर धीरे से बैठ जाता है.. कुछ देर के बाद पैर पसारता है… फिर तकिया लेकर आराम करने लगता है। फिर जब उससे कहा जाये किः ʹअब जाइये।ʹ तब वह कहे किः ʹमैं क्यों जाऊँ ? यह घर तो मेरा है।ʹ ऐसे ही गुरुदीक्षा के द्वारा गुरुकृपा किसी कोने में बैठ जाती है। फिर धीरे-धीरे अपने पैर पसारती है और हमारे अहं को कान पकड़कर बाहर निकाल देती है।

घर के मालिक के लिए अपने एक किरायेदार को घर से निकालना आसान नहीं है तो जन्म-जन्मांतरों के संस्कार से बने शरीररूपी घर से अहं को निकालना यह कोई मजाक की बात है क्या ? ….किन्तु सदगुरु अपने शिष्य के अहं को निकालने के लिए बड़ा परिश्रम करते हैं क्योंकि वे उसे परम तत्त्व का दीदार कराना चाहते हैं और परम तत्त्व का साक्षात्कार अहं के मिटे बिना नहीं हो सकता।

जब मैं था तब हरि नहीं, अब हरि हैं मैं नाहीं।

प्रेम गली अति सांकरी, ता में दो न समाहीं।।

कैसी करूणा है उन सदगुरुओं की ! आज गुरूपूर्णिमा के पावन पर्व पर हम उन सभी सदगुरुओं को प्रणाम करते हैं…. नमन करते हैं !

हम व्यास भगवान को प्रणाम करते हैं ! तमाम शरीरों में साकार रूपों में जो आये हैं, आ गये हैं और आयेंगे उन सभी ब्रह्मज्ञानियों को इस व्यासपूर्णिमा के पर्व पर हम फिर-फिर से नमन करते हैं !

भगवान चाहे पत्ते के रूप में हो चाहे व्यासजी के रूप में, चाहे वल्लभाचार्य के रूप में हों या रामानुजाचार्य के रूप में, चाहे आद्य शंकराचार्य के रूप में हों या पतंजलि महाराज के रूप में, और भी अनेक महापुरुषों के रूप में हों, जिनके हृदय में भगवान प्रकट हुए हैं ऐसे सभी ब्रह्मज्ञानी महापुरुषों को हमारा बार-बार प्रणाम है ! हमारे साधकों के अंतःकरण पर उन सभी की कृपा जल्दी-से-जल्दी बरसे और सारे दोष निकालकर निर्दोष नारायण की लहरें उछलने लगें, ऐसी आसाराम की भावना है।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जुलाई 2000, पृष्ठ संख्या 3-5 अंक 91

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