संत श्री आसाराम जी बापू के सत्संग-प्रवचन से
श्रीकृष्ण के स्वधामगमन के बाद अर्जुन उनकी आज्ञा के अनुसार द्वारिका से यदुवंश की स्त्रियों, वृद्धों एवं बच्चों को लेकर इन्द्रप्रस्थ की ओर चल पड़े। चलते-चलते बुद्धिमान एवं सामर्थ्यशाली अर्जुन ने अत्यंत समृद्धशाली पंचनद देश (पंजाब) में पहुँचकर पड़ाव डाला।
एकमात्र अर्जुन के संरक्षण में ले जायी जाती हुई इतनी अनाथ स्त्रियों को देखकर वहाँ रहने वाले लुटेरों के मन में लोभ पैदा हुआ। आपस में चर्चा करके उन्होंने अर्जुन के साथ आये हुए लोगों पर धावा बोल दिया। यह देखकर अर्जुन अपने गांडीव धनुष पर प्रत्यंचा चढ़ाने लगे। बड़ी मुश्किल से गांडीव पर प्रत्यंचा चढ़ी परन्तु जब वे अपने अस्त्र-शस्त्रों का, मंत्रों का चिंतन करने लगे तब उनकी याद बिल्कुल नहीं आयी। वे बड़े लज्जित हुए। लुटेरे यदुवंशी स्त्रियों को ले चले।
समय बड़ा बलवान है, मनुज नहीं बलवान।
काबे अर्जुन लूटिया, वही धनुष वे ही बाण।।
जिस गांडीव से अर्जुन ने अनेक महारथियों को परास्त किया था, उसी गांडीव से आज वे यदुवंश की स्त्रियों की रक्षा तक न कर सके। लुटेरों से वे परास्त हो गये। अर्जुन के देखते ही देखते लुटेरे स्त्रियों को ले गये। कुछ स्त्रियों को वे जबरन ले जा रहे थे तो कुछ स्त्रियाँ उनके आतंक के भय से चुपचाप स्वयं ही उनके साथ चली गयीं।
अर्जुन ने अपहरण से बची हुई कुछ स्त्रियों को जहाँ-तहाँ बसा दिया तथा कुछ वृद्धों, बालकों एवं स्त्रियों को लेकर वे इन्द्रप्रस्थ आये। इस प्रकार सबकी समयोचित व्यवस्था करके अर्जुन आँसू बहाते हुए महर्षि व्यासजी के आश्रम पर गये एवं वहाँ उनके दर्शन किये।
अर्जुन ने वेदव्यासजी को प्रणाम किया। वेदव्यासजी ने उनकी तेजोहीन अवस्था देखकर पूछाः “पार्थ ! क्या तुमने रजस्वला स्त्री से समागम किया है या किसी ब्राह्मण का वध कर दिया है ? कहीं तुम युद्ध में परास्त तो नहीं हो गये क्योंकि तुम श्रीहीन से दिखाई देते हो ? भरतश्रेष्ठ ! तुम कभी पराजित हुए हो – यह मैं नहीं जानता, फिर तुम्हारी ऐसी दशा क्यों है ? पार्थ ! यदि मेरे सुनने योग्य हो तो अपनी इस मलिनता का कारण मुझे शीघ्र बताओ।”
तब अर्जुन ने कहाः “भगवन् ! भगवान श्रीकृष्ण ने अपनी लीला समेट ली है। हम उनके दर्शन करते थे, तब हमारे बाणों में बल था। हमारे कई असंभव से कार्य भी श्रीकृष्ण की कृपा से सफल हो जाते थे। श्रीकृष्ण मुझे छोड़कर चले गये। मैं इस संसार में उनके बिना नहीं रहना चाहता। इसके सिवा जो दूसरी घटना घटित हुई है, वह इससे भी अधिक कष्टदायक है। आप इसे सुनिये।
जब मैं इस घटना का चिंतन करता हूँ, तब मेरा हृदय बारंबार विदीर्ण होने लगता है। ब्रह्मन् ! पंजाब में लुटेरों ने मुझसे युद्ध ठानकर मेरे देखते-देखते यदुवंश की हजारों स्त्रियों का अपहरण कर लिया। मैंने अपने गांडीव धनुष से उनका सामना करना चाहा परन्तु उन्हें परास्त न कर सका। मेरी भुजाओं में पहले जैसा बल था, वैसा अब नहीं रहा। महामुने ! नाना प्रकार के अस्त्रों का जो मुझे ज्ञान था वह अब विलुप्त हो गया है। मेरे सभी बाण सब ओर जाकर क्षण भर में नष्ट हो गये। मेरा पराक्रम नष्ट हो गया।”
वेदव्यासजी बोलेः “कुन्तीकुमार ! वे समस्त यदुवंशी देवताओं के अंश थे। वे देवाधिदेव श्रीकृष्ण के साथ ही यहाँ आये थे और साथ ही चले गये। यही कालचक्र का प्रभाव है।
समय-समय की बात है। वह भी समय था जब तुम विजयी होते थे और शत्रु हारते थे। यह भी समय का ही प्रभाव है साधारण लोगों से तुम हार गये।
यदवंशीजन ब्राह्मणों के शाप से दग्ध होकर नष्ट हुए हैं। अतः तुम उनके लिए शोक न करो। उन महामनस्वी वीरों की भवितव्यता ही ऐसी थी। तुम्हारे देखते-देखते स्त्रियों का जो अपहरण हुआ है उसमें भी एक रहस्य है।
वे स्त्रियाँ पूर्वजन्म में अप्सराएँ थीं। एक बार आत्मज्ञानी अष्टावक्र मुनि जल में खड़े-खड़े अपने ब्रह्मानंद में विश्रांति पा रहे थे। मुनि के सिर पर केवल जटाओं का ही भार था, शेष पूरा शरीर जलाशय में था। ये अप्सराएँ वहाँ से गुजरीं और उन्होंने मुनि की स्तुति करके उन्हें प्रसन्न किया।
मुनि ने कहाः ‘तुम्हारी स्तुति से मैं प्रसन्न हूँ। जो तुम्हें चाहिए, माँग लो।’
उर्वशी ने कहाः ‘हमने आपकी प्रसन्नता प्राप्त कर ली, अब और क्या माँगना ? हमें तो सब मिल गया।’
….लेकिन दूसरी अप्सराओं ने कहाः ‘हम यही वरदान चाहती हैं कि हम श्रीहरि के साथ क्रीड़ा करें। हमारे पति वासुदेव हों।’
अष्टावक्र मुनिः ‘अच्छा….ऐसा ही होगा।’
ऐसा कहकर जब वे जल से बाहर निकले तो उनके शरीर के टेढ़े मेढ़े अंग देखकर अप्सराओं को हँसी आ गयी। मुनीश्वर को पता चल गया कि मेरी देह को देखकर इन्हें हँसी आ रही है। वे बोलेः
‘श्रीकृष्ण को तुम वरोगी लेकिन अंत में तुम्हारी दुर्गति होगी। तुमको दस्यु ले जायेंगे।’
मुनि ने शाप दे दिया। अप्सराओं ने क्षमायाचना की तो प्रसन्न होकर मुनि ने कहाः
‘अच्छा… उसके बाद तुम्हारा देहत्याग होगा और तुम पुनः स्वर्ग में पहुँच जाओगी।’
मुनि के शापवश वे लुटेरों (दस्युओं) के हाथों पड़ीं। इसीलिए अर्जुन ! तुम्हारे बल का क्षय हुआ ताकि वे शाप से छुटकारा पा जायें। अब वे अपना पूर्व रूप और स्थान पा चुकी हैं अतः उनके लिए भी शोक करने की आवश्यकता नहीं है।
जो स्नेहवश तुम्हारे रथ के आगे चलते थे, सारथि का काम करते थे तो वे वासुदेव कोई साधारण पुरुष नहीं अपितु साक्षात चक्र-गदाधारी पुरातन ऋषि चतुर्भुज नारायण थे। वे विशाल नेत्रों वाले श्रीकृष्ण इस पृथ्वी का भार उतार कर शरीर त्याग करके अपने उत्तम परम धाम को जा पहुँचे हैं।
पुरुषप्रवर ! महाबाहो ! तुमने भी भीमसेन और नकुल-सहदेव की सहायता से देवताओं का महान कार्य सिद्ध किया है। कुरुश्रेष्ठ ! मैं समझता हूँ कि अब तुम लोगों ने अपना कर्तव्य पूर्ण कर लिया है। तुम्हें सब प्रकार से सफलता प्राप्त हो चुकी है। अब तुम्हारे परलोकगमन का समय आया है और यही तुम लोगों के लिए श्रेय़स्कर है।
भरतनंदन ! जब उदभव का समय आता है तब इसी प्रकार मनुष्य की बुद्धि, तेज और ज्ञान का विकास होता है और जब विपरीत समय उपस्थित होता है, तब इन सबका नाश हो जाता है।
कालमूलमिदं सर्वं जगद्वीजं धनंजय।
काल एव समादत्ते पुनरेव यदृच्छया।।
‘धनंजय ! काल ही इन सबकी जड़ है। संसार की उत्पत्ति का बीज भी काल है और काल ही फिर अकस्मात सबका संहार कर देता है।’
(श्रीमहाभारत, कौसल पर्वः 8.33,34)
काल का प्रभाव सब पर पड़ता ही है अतः मनुष्य को चाहिए कि वह कालातीत श्रीहरि के तत्त्व में विश्रांति पा ले।”
श्रीहरि के तत्त्व में विश्रांति पा लें तो फिर उतारर-चढ़ाव की तकलीफें नहीं सहनी पड़तीं।
वेदव्यास जी कहते हैं- “अर्जुन ! अब तुम भी अपने भाइयों समेत परम गति को प्राप्त हो जाओ। हिमालय में जाकर तप करो। इन्द्रियों को मन में, मन को बुद्धि में और बुद्धि को अपने परब्रह्म परमात्मा में लीन करो तभी तुम्हें शांति मिलेगी। इसी में तुम्हारा परम कल्याण निहित है।”
जिसके साथ श्रीकृष्ण थे ऐसे अर्जुन को भी इन्द्रियों को समेटकर मन में, मन को बुद्धि में और बुद्धि को अपने वास्तविक स्वरूप में लाना पड़ता है। यही बात अगर हमें अभी समझ में आ जाये तो हमारा भी बेड़ा पार हो जाये।
इसके लिए समय बचाकर अन्तर्मुख होना चाहिए। अन्तर्मुख नहीं हुए तो महाराज ! समय बड़ा बलवान…. वही बात। समय के फेर से कभी कोई ऊँचा तो कभी कोई नीचा, कभी कोई धनवान तो कभी निर्धन, कभी कोई राजा तो कभी रंक हो जाता है। कभी कोई व्यक्ति कुटुम्बियों से पूजा जाता है तो कभी कोई उन्हीं से धिक्कारा जाता है।
वही व्यक्ति जो दुकान पर था, कमाता था, बच्चों के लिए परिश्रम करता था, मकान बनवाता था तो सबको प्रिय लगता था। अब बूढ़ा हो गया, दुकान चलाने के लायक न रहा तो घर में अपने ही बेटों से दुतकारा जाता है।
वही व्यक्ति था जो सप्ताह भर के लिए एकान्त में, मौनमंदिर जाना चाहता था तो घरवाली रोती थी, बच्चे रोते थे…. जब बूढा हो जाता है तो लोग मनौतियाँ मानते हैं कि ‘काका का कुछ हो जाये ! (यह बूढ़ा मर जाये तो अच्छा।)’ समय बड़ा बलवान्….
इसीलिए ईश्वर के सिवाय कहीं भी मन लगाया तो अंत में पछताना ही पड़ता है, रोना ही पड़ता है।
अभी जो मित्र दिखते हैं वे ही समय पाकर पराये हो जाते हैं और जो पराये दिखते हैं वे अपने हो जाते हैं। अपना-पराया यह मन और बुद्धि का धोखा है। वास्तव में अपने आत्मा-परमात्मा के सिवाय कोई अपना नहीं है।
जैसे नदी की धारा में सब बह जाता है, ऐसे ही समय की धारा में सब प्रवाहित हो जाता है। नदी दो पहाड़ियों के बीच से बह रही है…. लकड़ियाँ गिरी, नदी के बहाव में मिलीं, थोड़ी दूर पर फिर दूसरी मिलीं, कोई किसी किनारे रूकी तो कोई किसी किनारे रूकी और कोई सागर में चली गयीं…. ऐसे ही शादी ब्याह हुआ, पति पत्नी मिले, संतति हुई, समय चलता रहा….. आखिर में कोई किसी किनारे पर गया तो कोई किसी किनारे पर गया….. यही तो संसार है। और क्या है ? ऐसे ही मित्र मिले, पड़ोसी मिले… फिर बिछुड़े। जैसे, बहती गंगा की धारा में बालू के कण मिलते हैं, पत्थर-कंकड़ मिलते हैं फिर बिछुड़ते हैं ऐसे ही काल की धारा में कोई मिलता है तो कोई बिछुड़ता है… सब सपना हो जाता है। शिवजी कहते हैं-
उमा कहउँ मैं अनुभव अपना।
सत हरि भजन जगत सब सपना।।
(श्रीरामचरित.)
इस संसार में केवल ईश्वर भजन ही सार है।
कोई कहे कि हरि के जाने के बाद उनके कुल की स्त्रियों को ही लुटेरे ले गये, उनका धन छीनकर ले गये तो ऐसे हरि का भजन करके हमें क्या फायदा होगा ? नहीं…. ऐसी बात नहीं है। श्री हरि का विग्रह माया में लीन हो सकता है लेकिन श्रीहरि का तत्त्व तो सदैव, सर्वत्र सब दिलों में विद्यमान है। उन श्रीहरि का चिन्तन ध्यान करने से मन-बुद्धि की चंचलता एवं बेवकूफी दूर होती है, जीव के कल्मष दूर होने लगते हैं तथा वह अपने हरि-स्वरूप के निकट आने लगता है। उन श्रीहरि को सत्य समझकर अंतर्मुख होने से जीव का वास्तविक कल्याण हो जाता है। बाकी तो समय के फेर से महारथी अर्जुन जैसे भी दस्युओं से हार गये। कभी धनी निर्धन हो जाते हैं, अमीर गरीब हो जाते हैं, गरीब अमीर हो जाते हैं।
श्री वशिष्ठजी महाराज कहते हैं- “हे राम जी ! यह कालचक्र बड़ा विलक्षण है। जो धन मिला सो मिला, जो गया सो गया। जो मान मिला सो मिला, जो अपमान हुआ सो हुआ। जो सुखद अवस्थाएँ आयीं सो आयी और जो दुःखद अवस्थाएँ गयीं सो गयीं। समय की धारा में सब बीता जा रहा है।” अतः हे साधक ! बीते हुए पर शोक न कर। आने वाले भविष्य में बाह्य जगत में कुछ विशेष बनने की वासना न कर। वर्त्तमान में अपने परमात्म-स्वभाव में, साक्षी सच्चिदानंद ईश्वर में स्थित होना ही सब सारों का सार है। उसी के सुमिरन, उसी के आनंद, उसी के चिंतन में लगे रहो।
स्रोतः ऋषि प्रसाद, पृष्ठ संख्या 15-18, अंक 100
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