महापुरुषों के पास हजारों युक्तियाँ हैं

महापुरुषों के पास हजारों युक्तियाँ हैं


संत श्री आशाराम जी बापू के सत्संग-प्रवचन से

19-10-1982 की सत्संग कैसेट से

मनुष्य का कर्तव्य है कि उसे जिस चीज से लाभ होता है, उस लाभ को वह दूसरों तक पहुँचाये। जिस चीज से अपनी भलाई हुई, मानवता के नाते वैसी ही भलाई दूसरों की भी हो ऐसा प्रयत्न करना चाहिए। फिर भले ही वह किसी भी जाति का हो, मनुष्य होने के नाते यह उसका कर्तव्य हो जाता है।

जापान में एक इन्स्टीट्यूट खुला। उसमें प्राकृतिक आहार-विहार एवं आसनों के द्वारा चिकित्सा होती थी और लोग तंदरुस्त हो जाते थे। अखबारों में, रेडियो में, टी.वी. में उस इन्स्टीट्यूट के समाचारों को प्रकाशित किया गया एवं कई बड़े-बड़े समारोह हुए। राष्ट्र स्तर पर उसका प्रचार हो गया।

इन्स्टीट्यूट के संचालक से पूछा गया किः “आपको इन्स्टीट्यूट खोलने की प्रेरणा कहाँ से मिली ?”

तब उस जापानी ने कहाः “मुझे ये विचार भारत के श्वासन से मिले। भारतीय योग के शवासन से तंदरुस्त होने की पद्धति मैंने पायी।”

भारत के केवल एक शवासन से जापानी ने तंदरुस्त होने की तकनीक पायी, संस्था चलायी और राष्ट्र-स्तर पर प्रसिद्ध हो गया। लोगों को घर बैठे संदेश मिला किः ‘ऐसे तंदरुस्त हो सकते हैं।’ उन लोगों को भारतीय संस्कृति की दिव्यता की जरा-सी युक्ति (तकनीक) मिल जाती है तो पूरे देश में फैला देते हैं और यहाँ… इतना सारा खजाना मिल रहा है फिर भी फायदा नहीं उठाते….. कैसी दुर्दशा है !

हमारे प्राचीन ऋषि-मुनियों ने योगदृष्टि से, अंतर्दृष्टि से जीवन का सूक्ष्म निरीक्षण करके मानव जीवन की उन्नति के गहनतम रहस्य खोज लिये थे। केवल तन की तंदरुस्ती ही नहीं, बल्कि मन की प्रसन्नता एवं बुद्धि के विकास के अनेकों प्रयोग बताये थे। योगविद्या व ब्रह्मविद्या के सूक्ष्मतम रहस्यों का लाभ जाने-अनजाने में भी आम जनता तक पहुँच जाये, इसलिए प्रज्ञावान ऋषि-महर्षियों ने सनातन सत्य की अनुभूति के लिए जीवन-प्रणाली बनाई। विधि-निषेध का ज्ञान देने वाले शास्त्र और विभिन्न स्मृतियों की रचना का ताकि हम उत्तरोत्तर उन्नति के मार्ग पर चलकर अंत में आत्म-विश्रांति के पद पर पहुँच जायें। लेकिन आज के मानव का आलस्य कहो, नादानी कहो, स्वार्थपना कहो, खुदगर्जी कहो….. किसी महापुरुष के पास कितना खजाना है यह नहीं देखेंगे, उनकी वाणी से कितना लाभ होता है यह नहीं देखेंगे, उनकी वाणी से कितना लाभ होता है यह नहीं देखेंगे, उनके सान्निध्य से जीवन कितना उन्नत होता है यह नहीं देखेंगे, वरन् ‘विवेकानंद ऐसा करते थे…. स्वामी रामतीर्थ ऐसा करते थे…. और ये तो ऐसा करते हैं…. वैसा करते हैं…..’ ऐसा करके कुप्रचार में लग जाते हैं और महापुरुषों के पास जो आत्मखजाना है उसे लेने में ऐसे ही अभागे रह जाते हैं।

संत-महापुरुष आते हैं तो कई शिष्य साधक धीरे-धीरे सेवा करके कुछ आश्रमादि बनाते हैं। संत विद्यमान हैं तब तक तो सब ठीक लेकिन संत चले जाते हैं तो ट्रस्टी लोग उनके मालिक बनकर बैठ जाते हैं। फिर न किसी साधु-संत की सेवा न समाज की सेवा, बल्कि अपने अहंकार की सेवा में आश्रमों को लगा देते हैं। आश्रमों को खण्डहर जैसे बना देते हैं।

बाहर से रंग-रोगन तो बहुत करते हैं लेकिन जिस आश्रम में संत नहीं, वह आश्रम क्या, खण्डहर ही है। जैसे शरीर में प्राण, वैसे आश्रम में संत। इतने बड़े-बड़े सुंदर आश्रम बने हैं, फिर नया बनाने की कोई जरूरत नहीं है लेकिन जो बने हैं वे ऐसे खुदगर्ज लोगों के हाथों में हैं जो केवल अपना अहंकार पुजवाना चाहते हैं। साधकों के लिए, सत्पुरुषों के लिए, संतों के लिए उन आश्रमों में जगह नहीं है।

आप हरिद्वार में साधना करने जाओ तो बड़े-बड़े आश्रम दिखेंगे लेकिन आप साधना नहीं कर पाओगे। आपको पर्णकुटीर बाँधनी पड़ेगी। नर्मदा किनारे भी बड़े-बड़े आश्रम हैं लेकिन आप वहाँ साधना करने जाओ तो नहीं कर सकते क्योंकि वहाँ ऐसे-ऐसे नाग बैठे हैं कि उनकी गुलामी से ही आपको ऊँचे नहीं आने देंगे।

भारत में कई ऐसे महापुरुष हैं जिनके पास अमाप सामर्थ्य है, अखूट आत्म-खजाना है, दिव्य आत्म-अमृत है लेकिन ऐसा कोई दुर्भाग्य है भारतवासियों का कि वे पूरा लाभ नहीं उठा पाते। सारा  विश्वव जिनके दिव्य अमृत की एक बूँद को पाकर ही परितृप्ति का एहसास कर सकता है उनके अमृत की एक बूँद पाना भी मुनासिब नहीं हो पा रहा।

खेत सूख रहा है और कुएँ में पानी लबालब भरा है ! मोटर लगी हुई है, नालियाँ भी बनी हुई हैं लेकिन मोटर चालू करके खेत में पानी पिलाने का किसी को सूझता नहीं नहीं है। समाज में अशांति, भय, विरोध, परेशानियों से जीवनरूपी खेत सूख रहा है और उसको हरा भरा बनाने में समर्थ तत्त्ववेत्ता, योगी, ज्ञानी, परोपकारी, प्रसन्नात्मा महापुरुषरूपी कुएँ लबालब भरे हुए हैं। फिर भी समाजरूपी खेत बेचारा सूखता जा रहा है। धनभागी हैं वो संत और समाज के बीच सेवा की धारा बनकर, समाजरूपी खेत को सींचकर सुपल्लवित करना चाहते हैं। जिनमें ईर्ष्या, अहंकार और दम्भ को छोड़कर सच्चाई, स्नेह, विनम्रता का सदगुण है, आप अमानी रहकर दूसरों को मान देने का सदगुण है वे धनभागी लोग समाज व संत के बीच धारा बनने में सफल हो जाते हैं।

ईश्वर को पाना कोई कठिन नहीं है। केवल अपनी बुद्धि को छोड़ना कठिन है, अपना स्वार्थपना छोड़ना कठिन है, अपने अहंकार की पूजा छोड़ना कठिन है।

स्वामी विवेकानन्द ने किसी से कहाः “मेरा शिष्य, मेरा शेर किसी की गुलामी करे ? किसी के यहाँ रहे ?”

उसने कहाः “स्वामी जी ! फिर मैं क्या करूँ ?”

विवेकानंदः “क्या करूँ, क्या ? त्यागपत्र दे दे, संन्यासी हो जा। भिक्षापात्र ले, भीख माँगकर आ….. ‘नारायण हरि कर…. अपने को बिखेर दे।”

शिष्य गया। भिक्षा लेकर आया तो विवेकानन्द ने कहाः “तुमको भिखारी बनाने के लिए यह भिक्षापात्र नहीं दिया है लेकिन जन्म मरण का भिखारीपना मिटाने के लिए मैंने यह भिक्षापात्र दिया है।”

संत-महापुरुषों की प्रत्येक चेष्टा में बड़ा राज होता है। हमारा मन जिसको अच्छा मानता है उसको करता है और जिसको अच्छा नहीं मानता उसको नहीं करता। लेकिन गुरु को जैसा अच्छा लगता है, महापुरुषों को जैसा अच्छा लगता है वैसा करो तो कल्याण ही कल्याण है।

महापुरुषों की इच्छानुसार चलने वाले तो कोई विरले ही होते हैं, बाकी तो अपना स्वार्थ सिद्ध करने वालों की भीड़ होती है कुछ तो ऐसे अभागे होते हैं कि संत-महापुरुषों के पास जाना तो दूर, उनके व्यवहार की कमियों को ढूँढकर उनके ही कुप्रचार में लग जाते हैं। ऐसे अभागे मनुष्य स्वयं तो अपना नुकसान करते ही हैं, औरों की श्रद्धा को ठेस पहुँचाने को बड़ा पाप भी अपने सिर पर ले लेते हैं।

भारतवासियो ! सावधान !! ऐसे लोगों के कुचक्रों एवं षडयन्त्रों से सावधान रहना। उनके चक्कर में कभी न आना। याद रखनाः तुम उन्हीं ऋषि-मुनियों की संतान हो जिन्होंने केवल तन की तंदरुस्ती के ही उपाय नहीं खोजे हैं वरन् मन की प्रसन्नता और बुद्धि को बुद्धिदाता में लगाने की युक्तियाँ भी खोजी हैं। मानव को उसके महेश्वर पद तक पहुँचाने की युक्तियाँ जिन्होंने बतायी है, तुम उन्ही ऋषि-मुनियों की  संतान हो। एक जापानी केवल शवासन से स्वस्थ रहने की तकनीक जानकर जापानियों को लाभान्वित कर सकता है तो तुम्हारे महापुरुषों के पास तो ऐसी हजारों तकनीकें है, हजारों युक्तियाँ हैं जिन्हें आजमाकर तुम सुखी, समृद्ध एवं सम्मानित जीवन जी सकते हो और परम सुखस्वरूप परमात्मा के आनंद को भी पा सकते हो। उठो…. जागो…. देर मत करो। अभी भी वक्त है चेतने का। अतः चेत जाओ।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, मई 2001, पृष्ठ संख्या 10-12, अंक 101

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