शब्दों का बड़ा भारी असर होता है। दिन रात अज्ञानता के शब्द सुनते रहने से अज्ञान दृढ़ हो जाता है, विकारों के शब्द सुनते रहने से मन विकारी बन जाता है, निंदा के शब्द सुनते रहने से चित्त संशयवाला बन जाता है, प्रशंसा के शब्द सुनते रहने से चित्त में अहंभाव आ जाता है। परमात्मस्वरूप के शब्द सुनकर चित्त देर सबेर आत्मा-परमात्मा में भी जाग जाता है।
‘अंधे की औलाद अंधी….’ द्रौपदी के इन शब्दों ने ही महाभारत का युद्ध करवा दिया। ये शब्द ही दुर्योधन को चुभ गये और समय पाकर भरी सभा में द्रौपदी को निर्वस्त्र करने का प्रयास इन्हीं शब्दों ने करवाया।
हाड़ मांस की देह मम, वा में इतनी प्रीति।
या ते आधी जो राम प्रति, अवश मिटे भव भीति।।
रत्नावली के इन्ही शब्दों ने अपने पति को संत तुलसीदास बना दिया।
ध्रुव को अपनी सौतेली माँ के शब्द लग गये और वह चल पड़ा तो अटल पदवी पाने में समर्थ हो गया, महान हो गया।
ऋषभदेव मुनि के शब्दों ने सम्राट भरत को योगी भरत बना दियाः
गुरुर्न स स्यात्स्वजनो न स स्यात् पिता न स स्याज्जननी न सा स्यात्।
दैवं न तत्स्यान्न पतिश्च स स्यान्न मोचयेद्यः समुपेतमृत्युम्।।
‘जो अपने प्रिय संबंधी को भगवदभक्ति का उपदेश देकर मृत्यु की फाँसी से नहीं छुड़ाता, वह गुरु गुरु नहीं है, स्वजन स्वजन नहीं है, पिता पिता नहीं है, माता माता नहीं, इष्टदेव इष्टदेव नहीं है और पति पति नहीं है।’ (श्रीमद् भागवत 5.518)
अजनाबखण्ड के एकछत्र सम्राट भरत जिनके नाम से हमारे देश का नाम ‘भारत’ पड़ा, अपने पिता के इन दो शब्दों को याद रखते हुए चल पड़े तो वे योगी भरत बन गये।
एक बार ऋषभदेव मुनि यात्रा करते-करते अयोध्या पहुँचे। वहाँ पंडितों-साधुओं ने उनका खूब सम्मान किया क्योंकि वे राजा होने के साथ-साथ महाराज भी थे। भोग के सम्राट अब योग के सम्राट थे। किसी ने कहा किः “जैसे, ऋषभदेव मुक्तात्मा हैं वैसे ही उनके सपूत भी मुक्तात्मा बनेंगे।”
तब दूसरे ने कहाः “यह कैसे हो सकता है ? वे तो पूरे अजनाबखण्ड के राजा बन बैठे हैं। उनके जीवन में त्याग, तपस्या, एकांत, मौन, ध्यान-साधना आदि कहाँ हैं ? तुम कैसी बातें कर रहे हो ?”
अयोध्या के पंडितों में वाद-विवाद चल पड़ा। दो पक्ष हो गये। एक पक्ष कहने लगा किः “हाँ, वे योग के सम्राट बन सकते हैं क्योंकि विचारवान हैं।” जबकि दूसरा दल कहने लगा किः “यह कैसे हो सकता है ? वे तो राज्य के दलदल में पड़े हैं।”
बात ऋषभदेव जी के पास पहुँची, तब उन्होंने कहाः “हाँ, भरत मुक्तात्मा होगा। मेरा पुत्र है इसलिए नहीं कहता हूँ।”
तब पंडितों ने निवेदन किया किः “आपके पुत्र हैं इसलिए नहीं, फिर भी वे मुक्तात्मा होंगे, इसका क्या कारण है ?”
तब ऋषभदेव जी बोलेः “भरत के अन्दर विवेक है। उसने पुरोहितों से कह रखा है कि ‘तुम लोग राजाधिराज महाराज ! आपकी जय हो….’ ऐसा मत बोला करो। आप मेरा हित चाहते हो तो केवल इन्हीं दो शब्दों से मेरा अभिवादन करोः ‘वर्धते भयं….. वर्धते भयं…. भय बढ़ रहा है… भय बढ़ रहा है…..’ यही मुझे सुनाया करो। अर्थात् ज्यों-ज्यों दिन बीत रहे हैं, त्यों-त्यों के दिन नजदीक आ रहे हैं। इतना आप कहा करो।
इस प्रकार का विवेक है भरत के पास, इसलिए वह संसार के दलदल में नहीं फँसेगा। मौत आकर गला दबोचे उसके पहले भरत अमरता की तरफ चल पड़ेगा।”
हुआ भी ऐसा ही। सम्राट आगे चलकर योगी भरत हो गये।
आप भी अपने घर की दीवार पर ये शब्द लिख दोः ‘आखिर कब तक ?’
‘इतना मिला…. इतना पाया…. फिर क्या ? आखिर कब तक ?’
पंडित जवाहर लाल नेहरू और उनकी बेटी श्रीमती इंदिरा गाँधी जिनके चरणों में मस्तक नवाते थे, उन आनंदमयी माँ को सत्संग सुनाने की योग्यता खेत की रखवाली करने वाले शांतनु में कैसे आ गयी ?
शांतनु के पिता पुरोहिती का कार्य करते थे और थोड़ी बहुत खेतीबाड़ी भी करते थे। दिन में उनके पिता और दादा खेत की रखवाली करते और शाम को वे स्वयं चक्कर लगाते।
खेत में रोज एक बकरा घुस जाता। वह मजबूत और कुशल था कि खेत बिगाड़ कर चला जाता और हाथ में नहीं आता था। एक दिन सात साल का शांतनु सुबह-सुबह हाथ में चाकू लेकर यह सोचकर खेत में कहीं छुप गया किः ‘यह बकरे का बच्चा मेरा खेत खा जाता है। आज इसका पेट फाड़ डालूँगा।’
इतने में उसी गाँव का एक पंडित वहाँ से गुजरा। उसकी नजर शांतनु पर पड़ी तो पूछाः “हे ब्राह्मणपुत्र शांतनु ! इस प्रकार छुपकर क्यों बैठे हो ? क्या बात है ?”
पहली बार पूछने पर उसने जवाब नहीं दिया। तब उस पंडित ने आग्रहपूर्वक दो तीन बार यही बात पूछी। शांतनु के हाथ से चाकू गिर पड़ा और उसने सारी बात सच-सच बता दी।
पंडितः “शांतनु ! यह काम तुम्हारे योग्य नहीं है, तुम्हारे लायक नहीं है। तुम ब्राह्मण हो। बकरे को चाकू मारना तो कसाई का काम है।”
‘यह तुम्हारे योग्य नहीं है….’ ये शब्द सुनकर शांतनु के जीवन ने करवट बदली और वही शांतनु ‘स्वामी अखण्डानन्द सरस्वती’ के नाम से प्रसिद्ध हुए।
कितना सामर्थ्य छुपा है शब्दों में ! किताबें पढ़कर, लकीर के फकीर होकर अथवा अनपढ़ होकर भी क्या करोगे ? न अधिक ऐहिक पढ़ाई अच्छी है न अनपढ़ रहना अच्छा है। अच्छे में अच्छा तो परमात्मदेव का ज्ञान है, परमात्मप्रीति है, परमात्मरस है, वही सार है।
न निर्धन होने में सार है, न धनवान होने में सार है। महिला होने में भी सार नहीं। मूर्ख होने में भी सार नहीं, विद्वान होने में भी सार नहीं। बहुत जीने में भी सार नहीं, जल्दी मरने में भी सार नहीं। यक्ष-गंधर्व होने में भी सार नहीं और देवता होने में भी सार नहीं। वशिष्ठजी महाराज कहते हैं किः “हे राम जी ! मैं चौदह भुवनों में घूमा। अतल, वितल, तलातल, रसातल, पाताल एव भूर्लोक, भुवर्लोक, जनलोक आदि में भी घूम आया किन्तु कहीं भी सार नहीं। केवल एक जगह पर ही सार दिखा। जहाँ संत का मन ठहरता है उस आत्मा में सार है, उस परमात्मा में सार है।”
अतः उसी का नाम-स्मरण करो, उसी के शब्द सुनो, उसी की ओर ले जाने वाले शब्द बोलो-सोचो और उसी की शांति, आनंद पाने का पुनः पुनः अभ्यास करो।
स्रोतः ऋषि प्रसाद, जून 2001, पृष्ठ संख्या 15-16, अंक 102
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