सिंध (वर्तमान पाकिस्तान) के तलहार शहर की बात हैः
मैं (स्वामी केवलराम) और संत कृष्णदास दोनों साथ में रहते थे और गुरुद्वार पर अध्ययन करते थे। एक बार हम दोनों टंडेमहमदखान से सदगुरु स्वामी श्री केशवानंद जी की आज्ञा लेकर श्रीलीलाशाह जी के दर्शन के लिए तलहार गये।
हम सब गुरुभाई एक ही सदगुरु के श्रीचरणों में पढ़ते थे परंतु साधना की अवस्था में तो हम सब केवल विद्यार्थी ही थे। जबकि श्रीलीलाशाह जी वेदान्त का अभ्यास पूर्ण कर चुके थे। श्री लीलाशाह जी योगाभ्यास सीखते-सीखते दूसरे विद्यार्थियों एवं भक्तों को योगासन एवं योगक्रियाएँ सिखाते थे।
स्वामी श्री लीलाशाहजी तलहार शहर से दूर एक बगीचे में बनी कुटिया में रहते थे। तलहार पहुँचते-पहुँचते हमें रात हो गयी। हम उनके निवास स्थान पर पहुँचे तो द्वार खुला हुआ था। मानों, उन्हें पहले से ही हमारे आने का पता लग गया था !
हम कुटिया में गये तो भीतर कोई भी न था। तभी ‘हरि ૐ… हरि ૐ…. प्रभु ! विराजो।’ की ध्वनि सुनायी दी। लालटेन जल रही थी। हम दोनों बैठ गये। थोड़ी ही देर में श्री लीलाशाहजी महाराज गुफा से बाहर आये और हमसे बड़े प्रेम से मिले। फिर पूछाः
“आप लोग यहाँ आऩे के लिए सुबह की ट्रेन से निकले होंगे, अतः भूखे होंगे?”
इतना कहकर थोड़ी ही देर में भोजन की दो थालियाँ लाकर हमारे सामने रखते हुए बोलेः “पहले भोजन कर लो, फिर शांति से बात करेंगे।”
हमें भी जमकर भूख लगी थी लेकिन आश्चर्य तो इस बात का हुआ कि बिना पूर्व सूचना के इतनी देर रात में इस जंगल में यह भोजन कहाँ से आया? हम तो विस्मय में पड़ गये।
स्वामी जी कहाः “प्यारे ! जल्दी भोजन करके थालियाँ बाहर टंकी पर रख देना, मैं ले जाऊँगा।”
“मैं ले जाऊँगा” यह सुनकर हमें और आश्चर्य हुआ। मैं कृष्णदास के सामने देखूँ और
कृष्णदास मेरे सामने। हमें आश्चर्यचकित देखकर श्रीलीलाशाहजी हँसते हँसते बोलेः
“आप लोगों को क्या हो गया है? भोजन क्यों नहीं कर रहे हो?”
हमने कहाः “स्वामी जी ! आप साक्षात श्रीकृष्ण जैसी लीला कर रहे हैं। आप भी हमारे साथ भोजन कीजिये।”
किंतु स्वामी जी ने भोजन लेने से मना कर दिया क्योंकि वे उन दिनों केवल फलाहार ही करते थे, भोजन नहीं लेते थे एवं योग साधना में रत रहते थे।
हमने भोजन किया एवं थाली साफ करके बाहर रख आये। उसके पश्चात स्वामी जी ने सब समाचार पूछे। थोड़ी देर सत्संग की बातें हुई। फिर स्वामी जी ने कहाः “अब आपको आराम करना होगा?”
मैंने कहाः ”हाँ, जैसी आपकी आज्ञा लेकिन आराम करने से पूर्व मैं आपकी गुफा के दर्शन
करना चाहता हूँ।”
स्वामी जी ने अनुमति देते हुए कहाः ” हाँ, भले जाओ लेकिन सँभलकर उतरना, सीढ़ियाँ थोड़ी ऊँची हैं। डरना मत।”
मैने कहाः ”स्वामी जी ! इसमें डरने की क्या बात है ?”
ऐसा कहकर मैं गुफा की ओर आगे बढ़ा। अंदर दीपक जल रहा था। मुश्किल से मैं दो ही सीढ़ी उतरा होऊँगा, इतने में अंदर का परिदृश्य देखकर मैं डर के पीछे हट गया…. एक भयंकर विषधर फन निकालकर बैठा था ! मैं जल्दी से ऊपर आकर स्वामीजी के पास बैठ गया।
स्वामी जी ने पूछाः ”जल्दी वापस क्यों आ गये? गुफा में अंदर गये कि नहीं ?”
हाथ जोड़ते हुए मैंने कहाः ”स्वामी जी ! आपकी लीला अपरम्पार है। आप असीम शक्ति के भंडार हैं। साँप अंदर बैठा हो तो मैं कैसे अंदर जा सकता हूँ ?”
स्वामी जी ने हँसकर कहाः ”भाई ! अंदर साँप नहीं है, आपको भ्रांति हो गई है। चलो मैं आपके साथ आता हूँ।”
फिर हम तीनों गये। संत कृष्णदास से स्वामी जी ने कहाः ” अंदर जाकर देखोतो साँप दिखता है क्या ?”
संत कृष्णदास ने सीढ़ियों से उतरकर अंदर देखा और कहाः ”स्वामीजी ! साँप तो नहीं है।”
यह कहकर वे बाहर निकल आये। फिर स्वामी जी ने मुझसे कहाः ”अब आप जाकर देखो।”
मैं नीचे उतरा, ध्यान से देखा तो साँप फन निकालकर बैठा है ! मैं फिर से पीछे हट गया। फिर स्वामी जी हँसते-हँसते मुझे अपने साथ ले गये, उस वक्त साँप न दिखा !
पूज्य श्री लीलाशाह जी महाराज अनंत-अनंत यौगिक शक्तियों के धनी थे। अगर कोई अधिकारी होता और उसमें हित समाया होता तो कभी-कभार वे अपने उस अथाह योग-सामर्थ्य के एकाध अंश की झलक दिखा देते थे। यह भी उनकी मौज थी। अन्यथा संतों को किसी भी लीला में न तो आसक्ति होती है न ही लोकैषणा की भावना !
स्वामी केवलराम, अजमेर
(पूज्य श्री लीलाशाह जी बापू के गुरुभाई)
स्रोतः ऋषि प्रसाद, नवम्बर 2001, पृष्ठ संख्या 25-26, अंक 107
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