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कर्म के प्रकार


(पुण्यतोया साबरमती के तट पर स्थित आश्रम में अपने एकांत निवास के दौरान कर्म के प्रकार का वर्णन करते हुए पूज्य श्री ने बतायाः)

कर्म तीन प्रकार के होते हैं- प्रारब्ध कर्म, संचित कर्म और क्रियमाण कर्म।

मान लो हजारों मन अनाज का ढेर पड़ा है, उसमें से आपने दस किलो अनाज पीसकर आटा बना लिया, तो जितने समय तक आप अनाज को सँम्भालकर रख सकते हैं, उतने समय तक आटे को सँभालकर नहीं रख सकते हैं। आटा जल्दी बिगड़ जाता है। अतः उसका सदुपयोग कर लेना पड़ता है। उस आटे को खाकर आप में शक्ति आयेगी, उससे आप काम करेंगे।

तो अनाज का जो ढेर है – वह है संचित कर्म। आटा है प्रारब्ध कर्म और वर्तमान में जो कर रहे हैं वह है क्रियमाण कर्म। आपके कर्मों के बड़े संचय में से अपने जरा-से कर्मों को लेकर आपने इस देह को धारण किया है। बाकी के संचित कर्म संस्कार के रूप में पड़े हैं।

किसके घर में जन्म, किसके साथ विवाह और कब मृत्यु – यह आप प्रारब्ध से ही लेकर आये हैं। जन्म प्रारब्ध के अनुसार हुआ है, शादी भी जिसके साथ होनी होगी, हो जायेगी और मृत्यु भी जब आने वाली होगी, आ ही जायेगी। संचित कर्म संस्कार के रूप में पड़े हैं, प्रारब्ध लेकर जन्मे और वर्तमान में जो कर रहे हैं – वे हैं आपके क्रियमाण कर्म।

ज्ञानी हो या अज्ञानी, भक्त हो या अभक्त, योगी हो या भोगी… प्रारब्ध का प्रभाव सबके जीवन पर पड़ता है। जैसे किसी का प्रारब्ध बढ़िया है, फिर वह भले ही दसवीं पढ़ा हुआ क्यों न हो ? महीने में वह हजारों लाखों कमा लेता है और कई होशियार हैं, पढ़े लिखे भी हैं, परन्तु प्रारब्ध साथ नही देता है तो सर्टीफिकेट लेकर घूमते हैं फिर भी नौकरी नहीं मिलती है।

किन्तु केवल प्रारब्ध का ही प्रभाव नहीं होता है, प्रारब्ध के साथ वातावरण का भी असर होता है, समाज का भी असर होता है और राजनीति का भी असर होता है। यह सब मिश्रित होता है। अतः केवल प्रारब्ध के भरोसे नहीं बैठे रहना चाहिए।

जैसे क्रियमाण कर्म करते हो, उसके हिसाब से प्रारब्ध बनता है। यदि आपने अच्छे कर्म किये तो उसके फलस्वरूप स्वर्ग मिलेगा, लेकिन पुण्य का प्रभाव क्षीण होते ही स्वर्ग से गिराये जा सकते हो। पुनः संचित कर्म के प्रभाव से धरती पर आना पड़ेगा और यदि पाप कर्म किये तो आपको नरक का दुःख भोगना पड़ता है।

इस प्रकार जब तक ज्ञानाग्नि से इस जीव के सब कर्म जल नहीं जाते, तब तक जन्म मरण होता ही रहता है। जीव बेचारा सुख-दुःख के थपेड़े खाता ही रहता है। गीताकार श्रीकृष्ण ने कहा हैः

यथैधांसि समिद्धोsग्निर्भस्मसात्कुरुतेsर्जुन।

ज्ञानाग्निः सर्वकर्माणि भस्मसात्कुरुते तथा।।

‘हे अर्जुन ! जैसे प्रज्वलित अग्नि ईँधनोंको को भस्ममय कर देती है वैसे ही ज्ञानरूप अग्नि संपूर्ण कर्मों को भस्ममय कर देती है।’ (गीताः 4.37)

ईश्वर ही सृष्टिकर्ता है, ईश्वर ही सर्जनहार है और कर्मों का नियामक, निर्वाहक एवं कर्मों का फल देने वाला वह ईश्वर आत्मरूप से साक्षीरूप में सभी के अंतःकरण में विराजमान है। हम कर्ताभाव से जैसे कर्म करते हैं उसी के अनुसार हमें अच्छा या बुरा फल मिलता है।

धर्मात्मा धर्म करके हर्षित होता है लेकिन अपने को धर्म करने वाला मानता है। अधार्मिक अधर्म की बातों से सुखी होता है लेकिन वह भी अपने को अधर्म करने वाला मानता है। दोनों ही अपने को कर्म का कर्ता मानते हैं, अतः, कर्म करके सभी सुखी होते हैं तो कभी दुःखी होते हैं क्योंकि,

जँह लगी है कर्तव्यता तँह लगी है अज्ञान।

‘कर्त्तव्यता अज्ञान से ही सिद्ध होती है।’

जबकि ज्ञानवान को न हर्ष होता है न शोक क्योंकि ज्ञान के द्वारा उसका कर्ताभाव समाप्त हो चुका है। ज्ञानी के द्वारा कितने भी अच्छे कर्म हो जायें उन्हें कभी नहीं होताः ‘मैंने इतने अच्छे कर्म किये…..’ अथवा वे किसी को डाँट भी देते हैं तो उन्हें ऐसा नहीं होताः ‘मुझसे बुरा कर्म हो गया…..’ क्योंकि ज्ञानी को पता है कि कर्म प्रकृति में हो रहे हैं।

प्रकृतेः क्रियमाणानि गुणैः कर्माणि सर्वशः।

अहंकारविमूढात्मा कर्ताहमिति मन्यते।।

‘वस्तुतः, सम्पूर्ण कर्म सब प्रकार से प्रकृति के गुणों द्वारा किये जाते हैं तो भी जिसका अंतःकरण अहंकार से मोहित हो रहा है, ऐसा अज्ञानी ‘मैं कर्ता हूँ’ ऐसा मानता है। (गीताः 3.27)

होता है कार्य प्रकृति में लेकिन अहंकार से जो विमूढ हो गया है वह अपने को कर्ता मानता है।

शरीर है प्रकृति का, चमड़ा अगर काला है तो वह अपने को काला मानता है। मन है प्रकृति का, लेकिन मन में अगर काम आ गया तो वह अपने को कामी मानता है। मन में क्रोध आ गया तो वह अपने को क्रोधी मानता है। मन में अगर चिंता आ गयी तो वह अपने को चिंतित मानता है। मन में अगर भय आ गया तो वह अपने को भयभीत मानता है।

वस्तुतः, काम, क्रोध, लोभ, मोह, भय, चिंता आदि सब आते जाते हैं। हम तो उनको देखऩे वाले हैं किंतु इसका हमें ज्ञान नहीं है इसीलिए उनसे प्रभावित हो जाते हैं, परंतु जिनको सत्कर्म, सदबुद्धि एवं सदगुरु की कृपा से ज्ञान हो गया है, वे महापुरुष इन सारी भ्रमणाओं से, सारी परिच्छिन्नताओं से पार हो जाते हैं।

भगवान कहते हैं-

यथैधांसि समिद्धोऽग्निर्भस्मसात्कुरुतेऽर्जुन।

ज्ञानाग्निः सर्वकर्माणि भस्मसात्कुरुते तथा।।

जैसे, लकड़ी के ढेर को आग जलाकर भस्म कर देती है, वैसे ही ज्ञान की अग्नि से जीव के सारे कर्म-बंधन, संस्कार भस्मीभूत हो जाते हैं। जो संचित कर्म हैं वे भी भस्म हो जाते हैं। क्रियमाण कर्म भी वह कर्ताभाव से नहीं करता इसलिए उसे कर्म का फल नहीं भोगना पड़ता है और प्रारब्ध कर्म भी बीत जाते हैं।

अज्ञानी अपना प्रतिकूल प्रारब्ध रो-रोकर भोगता हैः ‘हाय ! मुझे इतना दुःख है…. ऐसा है… वैसा है….’ और अनुकूल प्रारब्ध को खुश होकर भोगता हैः ‘मैं बड़ा भाग्यशाली हूँ…. मैं बड़ा सुखी हूँ….।’ लेकिन ज्ञानी को प्रारब्ध कर्म होते हुए दिखते हैं। ज्ञानी अपने को सुविधा में सुखी नहीं मानता और असुविधा में दुःखी नहीं मानता। ज्ञानवान समझता है कि ‘प्रारब्ध शरीर का है, शरीर से गुजर रहा है…।’

अज्ञानी भोगे रोकर या आसक्त होकर, ज्ञानी भोगे साक्षी-सम होकर। अज्ञानी दुःख के दिन रोकर भोगता है और सुख के दिन आसक्त होकर भोगता है। ज्ञानी सुख के दिन भी विनोदमात्र में भोगते हैं और दुःख के दिन भी।

एक महात्मा से पूछा गयाः

“महाराज ! जब देखो, आप शांत और सुखी नजर आते हैं। क्या आपको दुःख नहीं होता है ?”

महात्मा बोलेः “दुःख आता है।”

“महाराज ! आपको दुःख नहीं होता है ?”

“नहीं, दुःख आता है। मैं दुःखी क्यों होऊँ ? मैं उससे मिलता नहीं हूँ। दुःख आता है, मैं उसे देखता हूँ।”

ऐसे ही आप भी दुःख से मिलो नहीं उसे देखो तो वह गुजर जायेगा। दुःख होता है मन में और हम मन से जुड़ जाते हैं इसीलिए दुःखी हो जाते हैं।

श्रीमद् आद्यशंकराचार्य जी ने कहा हैः

‘मनोबुद्धि अहंकारचित्तानि नाहं…. अर्थात् मन, बुद्धि, चित्त और अहंकार हम नहीं हैं…’

इस बात का ज्ञान महापुरुषों से पाकर फिर इसका अभ्यास करें, पवित्र आहार-विहार करें तो परमात्मा का अनुभव भी कर सकते हैं और एक बार अनुभव हो गया तो समझो, काम बन गया।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, दिसम्बर 2001, पृष्ठ संख्या 14,15 अंक 108

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उत्तम पद


(महर्षि बाल्मीकि कृत श्री योगवाशिष्ठ महारामायण में उत्तम पद की व्याख्या कर रहे हैं ब्रह्मर्षि वशिष्ठ और सुन रहे हैं भगवान श्रीराम।)

भगवान श्री राम ने वशिष्ठ से पूछाः

हे मुनिशार्दूल ! त्रिभुवन में सबसे उत्तम चीज कौन-सी है, उत्तम पद कौन सा है और उत्तम पुरुष कौन सा है ?

वशिष्ठ जी ने कहाः हे रामचन्द्र जी ! इन्द्रियों के भोगों में लिप्त होकर, मान-बड़ाई की जंजीरों में फँसकर जीव बेचारे चहुँ और भटकते हैं। कोई-कोई विरला इन आकर्षणो से बचकर परम पद को पाता है, आत्मज्ञान को पाता है वह उत्तम है।

मेरे मत में देवता उत्तम नहीं है क्योंकि वे भोग की खाई में पड़े हैं और अपने को भाग्यवान मानते हैं। पुण्यनाश होने के बाद, भोग नष्ट हो जाने के बाद वे दुःखी हो जाते हैं और फिर उन्हें नीचे आना पड़ता है।

मेरे मत में वे गंधर्व भी उत्तम नहीं हैं क्योंकि उन्हें तो आत्मज्ञान की गंध भी नहीं है। वे रूप बदल सकते हैं, सर्वत्र गति करने वाले विमान में आ जा सकते हैं, इधर-उधर के लोकों में गति कर सकते हैं, लेकिन जिससे गति होती है उस गतिदाता की  मुलाकात नहीं करते, उन गंधर्वों को धिक्कार है।

उन विद्याधरों को भी धिक्कार है जो वेदों की विद्या तो जानते हैं, वेद की ऋचाएँ भी बोल लेते हैं लेकिन आत्मविद्या में उनको रस नहीं है। वेद के लक्ष्य का अमृत जिनको प्राप्त नहीं हुआ उन विद्याधरों को धिक्कार है।

यक्ष और किन्नरों को भी धिक्कार है जो आत्मपद से वंचित होकर इधर-उधर नाच-गान में, रूप लावण्य में और विषय-वासना में जीवन बरबाद कर रहे हैं।

पाताल लोक में जो नाग रहते हैं वे भी सुंदर नागिनियों के पीछे मोहांध हो जाते हैं। उन नागों को भी धिक्कार है जो आत्मरस से वंचित होकर काम विकार में अपना जीवन नष्ट कर रहे हैं।

हे राम जी ! मनुष्यों को तो तुम जानते ही हो। मेरा अपना घर हो जाये.. धंधे में बरकत हो जाये… धन बढ़ जाये… पुत्र मिल जाये… इसी चिंता में बेचारे चूर हो रहे हैं। वे नराधम यह नहीं जानते कि जिस आत्मपदको जानने के लिए जीवन मिला है उसकी पहचान करनी चाहिए। वे ब्रह्मविचार नहीं करते। अपना घर हो, पत्नी सुंदर हो, पुत्र आज्ञाकारी हो, पड़ोसी अच्छा हो, इधर ऐसा हो, उधर वैसा हो… इन विचारों में तो जिंदगी नष्ट कर देते हैं लेकिन उन्हें ब्रह्मविचार के लिए समय नहीं मिलता है।

कोई-कोई विरला होता है जो ब्रह्मविचार के अमृत तक पहुँचता है। सागर में जंतु बहुत होते हैं, घोंघे बहुत होते हैं लेकिन सीप तो कहीं-कहीं होती है जो मोती पकाती है। ऐसे ही संसार-सागर में अज्ञानी, मूढ़ तो बहुत होते हैं, कोई-कोई विरला होता है जो ब्रह्मविचार करके आत्म साक्षात्कार कर लेता है। उसको मेरा नमस्कार है।

हे राम जी ! लोगों की नजर में जो ऊँचे दिखते है, वे भी भोग के कीचड़ में खदबदाते हैं। लोगों की दृष्टि से जो बड़े पद पर हैं, बड़ी सत्ता पर हैं, अपार धनराशि के स्वामी हैं, लोगों की दृष्टि से मान देने योग्य हैं, ऐसे लोग भी इन्द्रियों के विषयों में तपते हैं। कोई विरला ही होता है, जो इन्द्रियातीत, देशातीत, कालातीत तत्व को पाकर अपना जन्म सार्थक करता है।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, दिसम्बर 2001, पृष्ठ संख्या 5-6, अंक 108

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अंग्रेजों की व्यक्तिगत मान्यताओं का पुलिन्दा……


दिनांकः 11 फरवरी 1871 के राजपत्र में प्रकाशित गृहमंत्रालय के संकल्पानुसार अंग्रेजी सरकार ने भारत के इतिहास संबंधी खोजों के विषय में अपनी रूचि दिखाते हुए पुरातत्वीय एवं अन्य ध्वंसावशेषों के एक शास्त्रीय, रीतिबद्ध अभिलेख एवं वर्णानात्मक विवरण की आवश्यकता पर बल दिया था।

इस पुरातत्व सर्वेक्षण का प्रमुख जनरल कनिंघम को बनाया गया। यद्यपि ब्रिटिश राजशाही की इच्छा यह थी कि इस सर्वेक्षण में जहां तक संभव हो बुद्धिमान भारतीयों को रखा जाय ताकि शिलालेखों की पढ़ाई तथा अन्य उत्खनन संबंधी कार्य कुशलता से किया जा सके। फिर भी जनरल कनिंघम ने अपने साथ अंग्रेजों को ही रखा।

जनरल कनिंघम की इस योजना के पीछे छिपे एक खतरनाक षडयन्त्र को हम उसके एक पत्र द्वारा प्रगट करना चाहते हैं। कनिंघम ने 15 सितम्बर 1842 के लंदन निवासी तथा ईस्ट इण्डिया कम्पनी के तत्कालीन डायरेक्टर कर्नल साइक्स को एक सुझाव दिया था कि यदि भारतीय ऐतिहासिक इमारतों का पुरातत्वीय सर्वेक्षण कराया जाय तो ब्रिटिश शासन एवं जनता को बड़ा लाभ होगा।

इसी गुप्त षडयन्त्र के तहत लगभग 1860 में सेना के मेजर जनरल पद से मुक्त हुए कनिंघम को पुरातत्व सर्वेक्षण का मुख्य बनाया गया। जनरल कनिंघम के इस सर्वेक्षण को ही पत्थर की लकीर मानकर आज तक भारतीय छात्रों का पढ़ाया जा रहा है। प्रिय पाठको ! जनरल कनिंघम की रगों में उन्हीं कपटियों का रक्त बह रहा था, जिन्होंने समस्त हिन्दू जनता को आर्य एवं द्रविड़ नामक दो खण्डों में बाँटकर अलगाव पैदा किया। उन्होंने आर्य जाति को बाहर से आये बर्बर आक्रमणकारी कहा, जिन्होंने भारत की धरा को अपने तपो-तेज एवं रक्त से हरा-भरा किया है।

जिन अंग्रेजों के रक्त में ही भारतीय संस्कृति को विनष्ट करने के सस्कार भरे पड़े थे, ऐसे व्यक्तियों की तथ्यविहीन एवं सिद्धान्तहीन मान्यताओं को स्वतन्त्रता के बाद भी भारतीय इतिहास के रूप में पढ़ाया जाता है। जिसने भारतीय जनजीवन को कभी निकट से देखा नहीं था, जो भारत के प्राचीन इतिहास के बारे में तथा वास्तु एवं शिल्प के बारे में गूँगा-बहरा था ऐसे व्यक्ति की व्यक्तिगत मान्यताओं का पुलिन्दा भारतीय छात्रों को इतिहास के नाम पर पढ़ाया जा रहा है।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, दिसम्बर 2001, पृष्ठ संख्या 27, अंक 108

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