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एक का ही आश्रय लें…………


(कल-कल, छल-छल करती पतित पावन गंगा, यमुना एवं सरस्वती का त्रिवेणी संगम स्थल अर्थात् तीर्थराज प्रयाग में पूज्य श्री ने तीन महीने के मौन के बाद बहायी गीता-ज्ञान गंगा….)

क्यों सिद्ध बनना चाहता, तुझी से सब सिद्ध हैं।

हैं खेल सारी सिद्धियाँ, तू सिद्ध का भी सिद्ध है।।

अपनी आत्मा को देखो, अपने परमेश्वर से नाता जोड़कर चेष्टा करो। अपने दिलबर को पीठ देकर शरीर का अहं सजाओगे तो कहीं के नहीं रहोगे। रावण और कंस इसी में तबाह हो गये। हिटलर और सिकंदर में भी बहुत-सी योग्यताएँ थीं लेकिन… शरीर का नाम भी कब तक रहेगा

परमेश्वर के नाते आप सबसे मिलें… परमेश्वर के नाते पति की, पत्नी की, साधक की, संत की, सबकी सेवा करें, बस। तभी आपको विश्रांति मिलेगी और विश्रांति आपकी मांग है। परमात्मा में विश्रांति पाने से आपका जीवन स्वाभाविक ही स्वस्थ, सुखी और सन्मानित हो जायेगा, उसके लिए आपको कोई नाटक नहीं करना पड़ेगा, उसके लिए आपको कोई नाटक नहीं करना पड़ेगा उसके लिए आपको कोई षड्यंत्र नहीं करना पड़ेगा। मैं हाथ जोड़कर आपसे प्रार्थना करता हूँ कि आप जो करें, ईश्वर के नाते करें।

‘मुझे यह सुख देगा… यह काम में आयेगा….’ ऐसा सोचकर परमेश्वर के साथ क्यों गद्दारी करता है ? जो मौत के बाद भई तेरा साथ नहीं छोड़ेगा, उसको छोड़कर तू मरने वाले का आश्रय लेता है ? मिटने वाले का आश्रय लेता है ? अमिट का आश्रय छोड़कर मिटने वाले का कब तक आश्रय लेगा ? शाश्वत को छोड़कर नश्वर की शरण कब तक जायेगा ?

‘यह मेरे काम आयेगा…. वह मेरे काम आयेगा….’ ना, ना ! ये शरीर के काम आयेंगे तो अहंकार बढ़ेगा और काम नहीं आयेंगे तो दुःख, विषाद व अशांति होगी। तेरे काम तो केवल तेरा पिया आयेगा। तू नींद में रोज उसी में जाता है, कभी ध्यान में बैठे-बैठे भी उसमें जा…. तेरा तो कल्याण होगा, तेरी मीठी निगाहें जिस पर पड़ेंगीं वह भी उन्नत होने लगेगा, महान आत्मा होने लगेगा।

‘श्रीमद् भगवदगीता’ में आता हैः

वीतरागभयक्रोधा मन्मया मामुपाश्रिताः।

बहवो ज्ञानतपसा पूता मद् भावमागताः।।

‘राग, भय और क्रोध से सर्वथा रहित, मेरे में ही तल्लीन, मेरे ही आश्रित तथा ज्ञानरूप तप से पवित्र हुए बहुत से भक्त मेरे भाव को, मेरे स्वरूप को, मेरे अनुभव को प्राप्त हो चुके हैं।’ (गीताः 4.10)

वीतराग…. राग को हटाता जा…. भयक्रोधा…. डर क्यों लगता है ? शरीर को ‘मैं’ मानता है, वस्तुओं को सच्चा मानता है इसलिए तू डरता है, विकारों को पोषता है इसलिए तू डरता है, कपट रखता है इसलिए तू डरता है। तू सच्चाई की शरण ले। भय हटा दे।

क्रोध क्यों होता है ? वासना की पूर्ति में कोई छोटा विघ्न डालता है तो उस पर क्रोध होता है, बड़े से भय लगता है, बराबरी वाले से द्वेष होता है। तू वासना को महत्व को न दे, तू परमात्मा की प्रीति को महत्व दे मेरे प्यारे ! तो तू सचमुच में प्रभु का प्यारा हो जायेगा।

तू परमात्मा की प्रीति को महत्व न दे, तू परमात्मा की प्रीति को महत्व दे मेरे प्यारे ! तो तू सचमुच में प्रभु का प्यारा हो जायेगा।

तू परमात्मा की प्रीति को महत्व देना भूल गया है इसलिए क्रोध में पचता है, भय से काँपता है, राग में फँसता है मेरे भैया ! तू  फँसने के लिए, तपने के लिए नहीं आया। तू संसार के स्वामी का अनुभव करके मुक्त होने के लिए संसार में आया है।

जरा जरा बात में क्यों डरता है ? जरा-जरा बात में क्यों चिंतित होता है ? दो रोटी ही तो खानी हैं। किसी करोड़पति की स्त्री फुटपाथ पर दो रोटी माँगे तो इज्जत किसकी जायेगी ? करोड़पति की जायेगी। ऐसे ही करोड़पतियों के बाप के भी बाप परमेश्वर ने तुझे पैदा किया है, वह अगर तुझे भूखा और नंगा रखता है तो उसकी इज्जत का सवाल है, इसमें तेरा क्या बिगड़ता है ?

उसकी शान  वह सँभलता है। फिर क्यों कपट करें ? क्यों चिंता करें ? क्यों डरें ? क्यों रोयें ? राग, भय और क्रोध को आज से ही अलविदा कर दे। जैसे त्रिवेणी में बालू और तिनके बह जाते हैं ऐसे ही सत्संग की त्रिवेणी में आज वे तीनों चीजें बहा दें, बस ! ‘भय, क्रोध और राग तू जा…. प्रीति, नम्रता और प्रभु-आस्था तू मेरे दिल में आ…’

‘मुझे बड़ी चिंता है, मैं क्या करूँ….?’ अरे ! जन्म लेना तेरे हाथ में नहीं है। बालों को सफेद होने से रोकना तेरे हाथ में नहीं है। मौत को थाम लेना तेरे हाथ में नहीं है। अन्न पचाना तेरे हाथ में नहीं है। भूख लगाना तेरे हाथ में नहीं है। रक्त का संचार करना तेरे हाथ में नहीं है। वह परमात्मा ये सब कर रहा है तो बाकी का भी उसके चरणों में सौंपकर तू विश्रांति पा। फिर देख, हँसने का भी मजा…. खाने का भी मज़ा… पीने का भी मज़ा…. जीने का भी मज़ा… मरने का भी मज़ा… तू चिंता मत कर, चिंतन कर, भैया !

मन्मया….. अर्थात् उसी ब्रह्म परमात्मा के चिंतन के एकाकार होना। मामुपाश्रिताः…. मेरे आश्रित हो जा ! जैसे, बच्चा माँ-बाप, दादा-दादी के आश्रित होता है तो मध्यरात्रि में भी उन्हें दोड़-धूप करा देता है क्योंकि बच्चा उनके आश्रित है। ऐसे ही तुम भी परमात्मा के आश्रित हो जाओ। फिर देखो, वह कितना सँभालता है….

‘मुझे तो बहुत मिला है। मैं आपको क्या बताऊँ ? मैं एक आसाराम नहीं, हजार आसाराम हों और एक-एक आसाराम की हजार-हजार जिह्वाएँ हो फिर भी उसने जो दिया है, उसका बयान नहीं कर सकता हूँ ! आपको सच बोलता हूँ। आप उसका आश्रय लें, आपसे मैं हाथ जोड़कर प्रार्थना करता हूँ।

जो सभी का आश्रय है, आपका भी सचमुच में वही आश्रय है लेकिन आप कपट का आश्रय लेकर अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मारते हैं…. आप काम का आश्रय लेकर अपने को नोचते हैं… आप द्वेष का आश्रय लेकर अपने को सताते हैं… आप लोभ का आश्रय लेकर अपने को डुबोते हैं। आप उसी का आश्रय लीजिये, जो ब्रह्माण्डों का आश्रयदाता है, आपका भी वही आश्रयदाता है। जो मेरी जीभ का आश्रयदाता है, आपके कानों का भी वही आश्रयदाता है। इतने निकट के आश्रयदाता को छोड़कर कब तक भटकते रहोगे ? कब तक गिड़गिड़ाते रहोगे ? कब तक पचते रहोगे ?… क्या आपकी बुद्धि निर्णय कर सकती है उसके आश्रय के बिना ? क्या आपका मन सोच सकता है उसके आश्रय के बिना ? क्या आपका शरीर चल सकता है उसके आश्रय के बिना ? क्या धरती टिक सकती है उसके आश्रय के बिना ?

इतने समर्थ प्रभु का आश्रय छोड़कर कहाँ तक भटकोगे ? कब तक भटकोगे ? भैया !

कबीरा माँगे माँगणा प्रभु दीजे मोहे दोय।

संत समागम हरि कथा मो उर निशदिन होय।।

संत समागम, हरि-कथा हरि स्वरूप के आश्रय में स्थित करते हैं। उस आश्रय में गोता मारना ही सत्संग का उद्देश्य है।

हम आश्रय तो भगवान का लेते हैं और प्रीति संसार से करते हैं। नहीं, आश्रय भी भगवान का और प्रीति भी भगवान की। आपका तो  काम बने जायेगा, आपकी मीठी निगाहें जिस पर पड़ेंगी उसका भी मंगल होने लगेगा। यह बिल्कुल सच्ची बात है। उसका आश्रय लेकर तो देखो ! हम परमात्मा का थोड़ा बहुत आश्रय लेते भी हैं लेकिन प्रीति संसार की होने से उस आश्रय का पूरा लाभ, पूरा सुख नहीं ले पाते। उसका पूरा लाभ व पूरा सुख पाने के लिए आश्रय भी उसी का और प्रीति भी उसी की हो।

आश्रय तो श्रद्धालु भी लेते हैं लेकिन उसको बाहर खोजते हैं, दूर खोजते हैं। कहते तो हैं- ‘हम भगवान की शरण में हैं।’ लेकिन आप अपने को तो जानो कि शरण में जाने वाला कौन है ? और जिस भगवान की शरण में जाते हो उसकी शरण को भी जान लो। कैसे जानें ? ज्ञानरूपी तप से।

भगवान कहते हैं-

…..बहवो ज्ञानतपसा पूता मद् भावमागताः।।

……. बहुत से भक्त ज्ञानरूप तप से पवित्र हुए मेरे भाव को प्राप्त हो चुके हैं।’ अर्थात् जैसे भगवान मुक्तात्मा, ब्रह्म परमात्मा हैं ऐसे ही अपने को मुक्तात्मा, ब्रह्म परमात्मा समझकर कई भक्त भगवान को प्राप्त हो चुके हैं। आप भी भगवान को जानकर मुक्तात्मा हो जाओ। अपना लक्ष्य ऊँचा बना लो और उसका बार-बार सुमिरन करो। दोहराओः

लक्ष्य न ओझल होने पाये, कदम मिलाकर चल।

सफलता तेरे चरण चूमेगी, आज नहीं तो कल।।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, नवम्बर 2001, पृष्ठ संख्या 3,4 अंक 107

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भक्त मोहन


(अमदावाद में मार्च 2001 में आयोजित विद्यार्थी शिविर में देश के नन्हें-नन्हें भावी कर्णधारों को प्रेरक प्रसंग के माध्यम से भक्तिकी महिमा समझाते हुए पूज्य श्री ने कहाः)

मोहन की माँ ने उसे पढ़ने के लिए गुरुकुल में भेजा। मोहन के पिता का बचपन में ही स्वर्गवास हो गया था। गरीब ब्राह्मणी ने अपने इकलौते बेटे को गाँव से  5 मील दूर गुरुकुल में प्रवेश करवाया। गुरुकुल जाते समय बीच में जंगल का रास्ता पड़ता था।

एक दिन घर लौटने में मोहन को देर हो गयी। भयानक जानवरों की आवाजें आने लगीं। कहीं चीता, कहीं शेर तो कहीं सियार…. मोहन थर-थर काँपने लगा। मोहन जैसे-तैसे करके जंगल से बाहर निकला। उसकी माँ राह देख रही थी। माँ ने कहाः

”बेटा ! क्यों डरता है?”

मोहनः ”माँ ! अँधेरा हो गया था। हिंसक प्राणियों की भयानक आवाजें आ रही थीं। माँ ! इसलिए बड़ा डर लगता था। भगवान का नाम लेता-लेता मैं किसी तरह भाग आया।”

माँ- ”तू अपने भाई को बुला लेता।”

मोहनः ”माँ ! मेरा कोई भाई भी है क्या ?”

माँ- ”हाँ, हाँ,बेटा ! तेरा बड़ा भाई है।”

मोहनः ”कहाँ है?”

माँ- ”जहाँ से बुलाओ, आ जाता है।”

मोहनः ”भाई का नाम क्या है ? माँ !”

माँ- ”बेटा! तेरे भाई का नाम है गोपाल। कोई उसको गोपाल बुलाता है,कोई गोविन्द,कोई कृष्ण बोलता है,कोई केशव। वही तेरा बड़ा भाई है, बेटा ! जब भी डर लगे तब तू ‘गोपाल भैया…. गोपाल भैया’ करके उसको पुकारना तो वह आ जायेगा।”

दूसरे दिन गुरुकुल से लौटते वक्त जंगल में मोहन को डर लगा। उसने पुकाराः

”गोपाल भैया ! गोपाल भैया ! आ जाओ न, मुझे बड़ा डर लग रहा है… गोपाल भैया।”

इतने में मोहन को बड़ा ही मधुर स्वर सुनायी दियाः ”भैया ! तू डर मत। मैं यह आया।”

गोपाल भैया का हाथ पकड़कर मोहन निडर होकर चलने लगा। जंगल की सीमा तक मोहन को लौटाकर गोपाल लौटने लगा।

मोहनः ”गोपाल भैया ! घर चलो।”

गोपालः ”नहीं भैया ! मुझे और भी काम हैं।”

घर जाकर मोहन ने माँ को सारी बात बतायीः ”माँ ! माँ ! आज भी देर हो गयी। जंगल में डर लगने लगा तो मैंने गोपाल भैया को पुकारा। वे मुझे गाँव की सीमा तक छोड़ गये।”

माँ समझ गयी  कि जो दयामय द्रौपदी और निर्दोष गजेन्द्र की पुकार  पर दौड़ पड़े थे, मेरे भोले, निर्दोष और दृढ़ श्रद्धावाले बालक की पुकार पर भी वे ही आये थे।

अब मोहन वन में पहुँचते ही गोपाल भैया को पुकारता और वे झट आ जाते।

एक दिन गुरुकुल में गुरुजी के यहाँ सारे बच्चे और कुछ शिक्षक उपस्थित हुए। गुरुजी के यहाँ दूसरे दिन श्राद्ध था। कौन बच्चा इस निमित्त क्या लायेगा, इस पर बातचीत हो रही थी। किसी ने कहाः ”मैं दूध लाऊँगा।”

किसी ने कहाः ”मैं शक्कर लाऊँगा.”

किसी ने कहाः ”चावल लाऊँगा।”

किसी ने कहाः ”चारोली और इलायची लाऊँगा।”

मोहन गरीब था फिर भी उसने कहाः ”गुरु जी ! गुरु जी ! मैं दूध लाऊँगा। अपनी माँ से जाकर कहूँगा तो मेरी माँ दूध का खूब बड़ा लोटा भर देगी, मैं ले आऊँगा।

गुरु जी को पता था कि ”यह गरीब है क्या लायेगा ?”

मोहन ने घर जाकर गुरु के यहाँ श्राद्ध की बात कही और कहाः ”माँ ! मुझे भी एक लोटा दूध ले जाना है।”

गरीब माँ कहाँ से दूध लाती ? माँ ने कहाः ”बेटा जब गुरुकुल जायेगा न तो गोपाल भैया को पुकारना। तू गोपाल भैया से दूध माँग लेना, वे ले आयेंगे।”

दूसरे दिन मोहन ने जंगल में जाते ही गोपाल भैया को पुकारा और कहाः आज मेरे गुरु जी के पिता का श्राद्ध है। मुझे एक लोटा दूध लेकर जाना है। माँ ने कहा है कि गोपाल भैया से माँग लेना।

गोपाल ने मोहन के हाथ में देते हुए कहाः अपने गुरु जी को दे देना।

मोहन लोटा लेकर गुरुकुल पहुँचा। कोई ढेर सारे चावल लाया, तो कोई शक्कर और यह तो केवल एक लोटा दूध लाया !

मोहनः गुरु जी, गुरु जी ! गोपाल भैया ने दूध भेजा है।

गुरु जी व्यस्त थे, सामने तक न देखा। उन्हें पता न था कि गरीब मोहन क्या लाया होगा।

मोहन ने फिर से कहाः गुरु जी, गुरु जी ! मैं दूध लाया हूँ,गोपाल भैया ने दिया है।

गुरु जीः बैठ, अभी।

थोड़ी देर बाद मोहन फिर बोलाः गुरु जी, गुरु जी मैं दूध लाया हूँ, गोपाल भैया ने दिया।

गुरु जी ने कहाः सेवक ! ले जा। जरा-सा दूध लाया है और सिर खपा दिया। जा, इसका लोटा खाली कर दे।

सेवक लोटा ले गया। खाली बर्तन में दूध डाला बर्तन भर गया। दूसरे बर्तन में डाला, दूसरा बर्तन भी भर गया। जितने बर्तनों में दूध डालता बर्तन भर जाते,पर लोटा खाली न होता होता  सेवक चौंका। उसने गुरु जी को जाकर बताया।

गुरु जीः कहाँ से लाया है यह अक्षय पात्र?

मोहनः एक मेरा गोपाल भैया है, उनसे माँगकर लाया हूँ।

गुरुजीः तेरी आवाज सुनकर गोपाल भैया कैसे आ गये?

मोहनः मेरी माँ ने बताया था कि कोई यदि प्रेम से और विश्वास से उसको पुकारे, ध्यान करे तो वह प्रकट हो जाता है। एक दिन घर जाने में देर हो गयी थी। जंगल में शेर चीतों की आवाज सुनकर मैं घबरा गया और उसको पुकारा तो वह आ गया। आज मैंने गोपाल भैया से कहा कि दूध चाहिए। तो वह दूध ले आया।

गुरु जी ने मोहन को प्रणाम किया और कहाः मोहन, मुझे भी ले चल, अपने गोपाल भैया के दर्शन करा।

मोहनः चलिये, गुरु जी। जब मैं घर जाऊँगा तब जंगल के रास्ते में गोपाल भैया को बुलाऊँगा। आप भी देख लेना।

श्राद्ध विधि पूरी होने के बाद गुरु जी मोहन के साथ चले। रास्ते में जंगल आया। मोहन ने आवाज लगायीः गोपाल भैया, गोपाल भैया, आ जाओ न।

मोहन को आवाज सुनायी दीः आज तुम अकेले तो हो नहीं, डर तो लगता नहीं, फिर मुझे क्यों बुलाते हो ?

मोहनः गोपाल भैया, डर तो नहीं लगता लेकिन मेरे गुरु जी तुम्हारे दर्शन करना चाहते हैं।

गुरु जीः मेरे कर्म ऐसे हैं कि मुझे देखकर भगवान नहीं आते। तू दूर जाकर पुकार।

मोहन ने दूर जाकर पुकारा। गोपाल भैया दिखे। मोहन ने कहाः मेरे गुरु जी को भी दर्शन दो न।

गोपालः वे मेरा तेज सहन नहीं कर सकेंगे। तेरी माँ तो बचपन से भक्त थी, तू भी बचपन से भक्ति करता है। तुम्हारे गुरु जी ने इतनी भक्ति नहीं की है। गुरु जी से कहो कि जो प्रकाश पुंज  दिखेगा, वही गोपाल भैया है। जाओ, गुरु जी को मेरे प्रकाश का दर्शन हो जायेगा। उसी से उनका कल्याण हो जायेगा।

मोहन ने आकर कहाः देखो, गुरु जी गोपाल भैया खड़े हैं।

गुरु जीः मेरे को गोपाल भैया नहीं दिखते, केवल प्रकाश दिखता है।

मोहनः हाँ, वही है, वही है गोपाल भैया।

गुरु जी गदगद हो गये। उनका रोम रोम आनंदित हो उठा, अष्टसात्विक भाव प्रकट हो गये। गुरुजीः गोपाल,गोपाल करके पुकार उठे। अब तो गुरुजी मोहन को अपना गुरु मानने लगे क्योंकि उसी ने भगवद् दर्शन का रास्ता बताया।

तुम भी मोहन की नाँईं भगवन्नाम जपते जाओ। गोपाल भैया तुम पर भी प्रसन्न हो जायेंगे… स्वप्न में भी दर्शन दे देंगे। बच्चों पर तो वे जल्दी खुश होते हैं। तुम भी भगवान के साथ सेवक स्वामी, सखा भैया के भाव से कोई भी सम्बंध जोड़कर प्रेम से उन्हें पुकारोगे तो तुम्हारे हृदय में भी आनंद प्रकट हो जायेगा।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, नवम्बर 2001, पृष्ठ संख्या 27-29, अंक 107

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अन्तःकरण के मुख्य दोष


(जाबल्य ऋषि की तपस्थली, साबरमती के तट पर बने मोटेरा आश्रम में पूज्य श्री ने अंतःकरण के मुख्य दोषों पर प्रकाश डालते हुए अपने प्यारे साधकों को कहाः)

भक्तियोग, ज्ञानयोग और कर्मयोग का आखिरी फल तो एक ही हैः उस परमतत्व को जानना, जो सत्यस्वरूप है, ज्ञानस्वरूप है और अनंत है। श्रुति कहती हैः

सत्यं ज्ञानं अनंतं ब्रह्म।

लेकिन बाबा ! भक्ति के, ज्ञान के और कर्म के आरम्भ में क्या कोई फर्क है ?

हाँ थोड़ा होता है। भक्ति सगुण, साकार ब्रह्म के लिए प्रेम उभारने हेतु अंतःकरण की भावमय, रसमय दशा है। निष्काम कर्म सेवामय वृत्ति बनाकर अंतःकरण को सुख देने वाला है और जहाँ से भक्ति का भाव या रस आता है अथवा जहाँ से सेवा के फलस्वरूप शांति या सुख आता है, उस मूल के विचार को बोलते हैं-तत्वज्ञान।

अंतःकरण के तीन दोष हैं- मल, विक्षेप और आवरण।

मल क्या है ? उचित-अनुचित का विचार किये बिना मन में जैसा आये वैसा करके सुख लेना।

या पर्यंत जीवेत् सुखेन जीवेत् ऋणं कृत्वा घृतं पीवेत्।

‘जब तक जीयें, सुख से जीयें, ऋण करके भी घी पियें….।’ मल माने, न करने जैसा करके भी मजा लेना, न खाने जैसा खाकर भी मजा लेना, न बोलने जैसा बोलकर भी मजा लेना…. अर्थात् केवल मजे के लिए लपक पड़ना। जैसे, मछली स्वाद के मजे के लिए लपक पड़ती है और फँस जाती है, पतंगा रूप के मजे के लिए दीये पर लपक पड़ता है और जल मरता है, भ्रमर सुगंध के मजे के लिए लपक पड़ता है और कमल में कैद हो जाता है, हिरण शब्द के मजे के लिए लपक पड़ता है और मारा जाता है, हाथी स्पर्श के मजे के लिए लपक पड़ता है और जीवनभर महावत की गुलामी करता है। ऐसे ही हम लोगों का मन लपक पड़ता हैः ‘पान मसाला खाऊँ, बीड़ी पीऊँ, शराब पीऊँ, दुराचार करूँ, चोरी करूँ…. कुछ भी करके मजा लूँ।’ यह अन्तःकरण की मलीनता का प्रभाव है। पाप-वासना, अशुद्ध आसक्ति, भोग-वासनाएँ, ये मल दोष हैं।

निष्काम कर्म करके अंतःकरण का मलदोष निकाला जा सकता है। बाहर के सुख की वासना मिटाने के लिए निष्काम कर्म सहायक होते हैं। औरों को सुख देने के कार्य करने से अपने सुख की वासना निवृत्त होती है और मलदोष निवृत्त होने लगता है।

भक्तियोग से भी मलदोष निवृत्त होता है। निगुरे और अभक्त लोग जितना शास्त्र-मर्यादा का उल्लंघन करते हैं और उनका मन जहाँ-तहाँ लपक पड़ता है, उतना भक्तों और सगुरों के द्वारा नहीं होता। भक्तों और सगुरों के जीवन में पचासों गलतियाँ दिखेंगी लेकिन वे भक्त या शिष्य नहीं बनते तो पाँच सौ गलतियाँ करते और गलती को गलती नहीं मानते। भक्त या शिष्य गलती को गलती तो मानते हैं।

भक्त कभी यह न सोचेः ‘अरे रे रे…. मुझमें इतनी गलतियाँ हैं, मुझमें इतने दोष हैं…. भगवान ! मैं तेरे दर्शन के योग्य नहीं हूँ।’ नहीं, नहीं, भक्त ऐसा न सोचे और न ही भक्ति छोड़कर संसारियों के खिंचाव में आकर्षित हो जाय। वरन् वह प्रार्थना करेः ‘अपने दोष छोड़ने में मैं असमर्थ हूँ प्रभु ! लेकिन मैं तेरा हूँ… अब तू ही कृपा कर।‘ भक्त जब भगवान का बनता है तो दोष भक्त के नहीं रहते, भगवान अपने समझकर उनको हटाने का सामर्थ्य दे देते हैं।

दूसरी बात, यदि भक्त अपने में दोष मानता है तो दोष को बल मिलता है। भक्त अंतःकरण में दोष देखे, अपने में नहीं। ‘दोष अंतःकरण में होते हैं, मल अंतःकरण में होता है, विक्षेप अंतःकरण में होता है, आवरण अंतःकरण में होता है। मुझमें तो परमात्मा है और मैं परमात्मा में हूँ।’ इस प्रकार का चिंतन करने से भी अंतःकरण के दोष जल्दी निवृत्त होते हैं।

किसी के अंतःकरण में कोई गुण है लेकिन भक्ति नहीं है, भगवान का आश्रय नहीं है तो वह गुण ज्यादा समय नहीं टिक सकता। रावण, कंस, दुर्योधन, हिटलर, सिकंदर आदि एकदम गये-बीते नहीं थे। उनमें भी गुण थे। रावण और कंस के पास इतना सामर्थ्य था कि देवता तक उनसे काँपते थे। दुर्योधन ऐसा प्राणनिरोध करता था कि जल में समाधिस्थ हो जाता था। हिटलर, सिकंदर भी एकाग्रता में आगे थे। लेकिन…..

गुण होते हैं उस दैव के, आत्मचैतन्य के, इसीलिए गीता में 26 गुणों को दैवी सम्पदा कहा गया है। अभय, सत्य, संशुद्धि…. आदि 26 गुणों का वर्णन गीता के 16वें अध्याय के प्रथम तीन श्लोकों में आता है, जिन्हें बोलते हैं दैवी गुण। दैवी गुण माने, जो गुण उस देव के हैं, लेकिन उस देव का आश्रय नहीं है तो अहं अपने गुण मान लेता है तथा उसमें उलझ जाता है और वे गुण दुर्गुण हो जाते हैं।

अगर भक्त में अवगुण हैं तो वह अपने को अवगुणी न माने और गुण हैं तो गुणवान न माने। लेकिन अपने को भगवान का माने और भगवान को अपना माने तो भगवान का देवत्व अपने में बढ़ते-बढ़ते दैवी गुण बढ़ जायेंगे और वे दैवी गुण अवगुणों को समाप्त कर डालेंगे। इससे अंतःकरण का मलदोष निवृत्त होगा।

दूसरा होता है अंतःकरण का विक्षेप। जैसे दर्पण गंदा है तो समझो मल है और दर्पण हिलडुल रहा है तो है विक्षेप। हिलते डुलते दर्पण में चेहरा ठीक से नहीं दिखेगा। यदि दर्पण स्थिर होगा तभी चेहरा ठीक से दिखेगा। ऐसे ही अंतःकरण पवित्र तो है लेकिन जप-ध्यान करने बैठते हैं तो बस, जैसे फिल्म की पट्टी  चलती वैसे विचार-पर-विचार आने लगते हैं, यह है विक्षेप।

मलदोष निवृत्त होता है सेवा, सत्कर्म, दान पुण्य आदि स और विक्षेप दूर होता है भक्ति उपासना, जप-ध्यान आदि से। इसके बाद एक ही दोष रहता है, ईश्वरप्राप्ति में एक ही सोपान बाकी रहता है आवरण अर्थात् अज्ञान। वस्तुतः ‘मैं क्या हूँ’ इसका पता नहीं है और देह को ‘मैं’ मानकर ‘मैं फलाना हूँ, मैं फलानी हूँ….’ मान बैठे। मैं वास्तव में क्या हूँ’ इसका अज्ञान ही आवरण है।

आवरण दो प्रकार का होता हैः

असत्वादपादक आवरण और अभानापादक आवरण।

असत्वादपादक आवरण आम आदमी को होता है। उसे ईश्वर के अस्तित्व का पता नहीं होता। वह सोचता हैः ‘भगवान होते तो दिखते….’

अभानापादक आवरण भक्तों को, साधकों को होता है। उनको ईश्वर के अस्तित्व का भान नहीं होता है। वे मानते तो हैं कि भगवान हैं, उनकी प्रेरणा भी मानते हैं, उन्हें ईश्वर के अस्तित्व के विषय में तो समझ तो आता है लेकिन अनुभव नहीं होता है।

असत्वापादक आवरण गुरु के ज्ञान से हट जाता है। भक्त ने, साधक ने, जिसने सत्संग सुना है, वह मानता है कि भगवान हैं और मेरी आत्मा होकर बैठे हैं।

‘भ’ माने भरण-पोषण की सत्ता, ‘ग’ माने गमनागमन की सत्ता, ‘वा’ माने वाणी का उदगम स्थान, ‘न’ माने यह सब नहीं होने के बाद भी जो रहता है, वह भगवान मेरा आत्मा है। यह सार सत्संग के द्वारा वह समझ तो लेता है लेकिन अभी केवल समझा है अनुभव नहीं हुआ। इसे बोलते हैं अभानापादक आवरण।

जब तक यह आवरण दूर नहीं हुआ, जब तक ईश्वर का अनुभव नहीं हुआ तब तक यात्रा अधूरी है। ईश्वर का साक्षात्कार नहीं हुआ तब तक जीवन अधूरा है।

अभानापादक आवरण दूर करने के लिए आत्मा-परमात्मा के विषय में ‘श्रीयोगवाशिष्ठ महारामायण’, ‘ब्रह्मसूत्र‘ व उपनिषदों का श्रवण करें, सुने हुए का मनन करें, निदिध्यासन करें (अर्थात् गोता मारें)।

मुझे थोड़ा आनंद आता था, थोड़ी अनुभूतियाँ भी हुई थीं लेकिन मन में होता था कि ‘पूज्य श्री लीलाशाह बापू को साक्षात्कार हुआ उतना तो मुझे नहीं हुआ। बापू को इतना लोग मानते हैं, मुझे तो कोई चिड़िया भी नहीं मानती।’ यह अभानापादक आवरण खटक रहा था। मेरा यह आवरण मिटाने के लिए मेरे गुरु जी को भी कसम खानी पड़ी, लीला करनी पड़ी थी।

पूज्य गुरुदेव उपदेश देते तब तो लगता थाः “स्थूल शरीर मैं नहीं, आनंदमय कोष भी मैं नहीं, मैं तो साक्षी हूँ, आनंदस्वरूप हूँ, ब्रह्म हूँ।” ये सब बुद्धिपूर्वक मान लिया था, ध्यान में थोड़ा आनंद भी आता था लेकिन अभानापादक आवरण खटक रहा था। पूर्णता की कमी खटक रही थी।

सुबह में गुरु जी किसी को वेदांत का शास्त्र पढ़ने के लिए देते थे। गुरुजी अपने नियम करते और शास्त्र भी सुनते। बीच में पर्दा रहता था। कभी कभी गुरुजी पर्दा हटा लेते थे। कमरे में हम 4-5 साधक ही रहते।

एक दिन गुरु जी को आ गयी मौज…. गुरु जी सीधा प्रहार नहीं करते थे, सांकेतिक भाषा में कहते थे। गुरु जी ने कहाः “कुछ लोग बेचारे….” ऐसा कहकर गुरु जी ने मेरी ओर देखा। मैं समझ गया कि इशारा मेरी ओर है। उस दिन हम तीन ही थे।

गुरु देव ने कहाः “कुछ बेचारे यह सोचते रहते हैं कि हूँ तो मैं ब्रह्म, शरीर मैं नहीं हूँ लेकिन मेरे गुरु जी को कितने लोग जानते हैं, उतने मुझे नहीं जानते। गुरु जी के अनुभव में और मेरे अनुभव में कुछ कमी है। वे कमी है की बात मानकर कमी बना लेते हैं। मुझमें दोष हैं, मुझमें दोष हैं ऐसा करके दोष बना लेते हैं। मैं ऐसे लोगों को क्या कहूँ ?”

गुरुदेव के पास ही गीता-ग्रंथ रखा था, उसे उठाते हुए उन्होंने कहाः “लीलाशाह सिर पर गीता रखता है और कसम खाता है कि जो लीलाशाह है वह तू है, जो तू है वही लीलाशाह है। अब तो मान ले, भाई !”

कृपालु गुरुदेव ने इस तरह मेरे अभानापादक आवरण को भी मार भगाया।

यह अभानापादक आवरण हटाने का एक तरीका है शास्त्रीय तरीका। भक्ति करते-करते फिर भीतर से भगवान की आवाज आयेगीः “तू किसको खोजता है ? मैं तेरे साथ हूँ, तू मेरा स्वरूप है।” सोSहं की ध्वनियाँ होने लगेंगी।

सनातन धर्म के जो पाँच प्रमुख देव हैं उन पाँचों में से किसी एक की भी भक्ति आप करें तो उनकी भक्ति में यह ताकत है कि वे आपका लौकिक मनोरथ तो पूरा करते हैं, लेकिन यदि आप किसी लौकिक कामना के बिना ही देवों की भक्ति करते हैं तो देव आपको अलौकिक आत्मसुख देने वाले संत के पास पहुँचा देते हैं।

फिर चाहे कोई शैव उपासक हो और शिव की उपासना करते हो, चाहे वैष्णव हो और भगवान विष्णु के अवतारों की उपासना करता हो, शाक्त उपासक हो और लक्ष्मी माता, सरस्वती देवी, नवदुर्गा या गायत्री आदि की उपासना करता हो चाहे गाणपत्य हो और गणपति जी की उपासना करता हो, चाहे सूर्य उपासक हो। इन पंच देवों की उपासना में बड़ा बल है। इनकी उपासना आपकों संतों से, सदगुरुओं से, सच्चे महापुरुषों से मिला देता है।

असत्वापादक आवरण सत्संग से मिटता है और अभानापादक आवरण साधना एवं गुरुकृपा से मिटता है। दोनों आवरण हट जाने से आत्मा बेपरदा हो जाता है, ईश्वर का साक्षात्कार हो जाता है। आम आदमी को, निगुरे को दोनों आवरण होते हैं। भक्त को, साधक को एक ही आवरण होता है और ज्ञानवान को दोनों ही आवरण नहीं रहते। अपने आत्मा-परमात्मा के अऩुभव में ज्ञानी निरावरण होते हैं। 33   करोड़ देवता और ब्रह्मा, विष्णु, महेश मिलकर भी ज्ञानी के अनुभव की अन्यथा नहीं कर सकते ! ज्ञानी की ऐसी ज्ञाननिष्ठा होती है ! भावना बदल जाती है, मान्यता भी बदल जाती है लेकिन ज्ञान नहीं बदलता, तत्व ज्ञान नहीं बदलता।

जैसे, यह रूमाल है। इसका आपको ज्ञान हो गया कि इस रंग का है, इतना बड़ा है। अब अगर इसको छिपा दिया जाय और आपको अन्य बातों में लगा दिया जाय तो इसका अदर्शन हो सकता है लेकिन इसका अज्ञान नहीं हो सकता है। आपसे इसका ज्ञान कोई छीन नहीं सकता है। आपके इसका ज्ञान कोई छीन नहीं सकता है। रूमाल का तो अदर्शन होगा, विस्मृति भी होगी परन्तु परमात्मा का एक बार दर्शन हो जाने पर, एक बार उसका ज्ञान हो जाने पर, एक बार उसके निरावरण हो जाने पर फिर उसका अदर्शन और उसकी विस्मृति ज्यादा समय नहीं टिकती। ऐसा दिव्य है उस परमात्मा का अनुभव !

स्रोतः ऋषि प्रसाद, नवम्बर 2001, पृष्ठ संख्या 4-7, अंक 107

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