संत श्री आसाराम जी बापू के सत्संग-प्रवचन से
एक बार ऋषि-मुनियों में आपस में चर्चा चली कि कौन-सा युग श्रेष्ठ है जिसमें थोड़ा-सा पुण्य अधिक फलदायक होता है और कौन सुविधापूर्वक उसका अनुष्ठान कर सकता है ?
किसी ने कहा सतयुग ही श्रेष्ठ युग है, किसी ने कहा द्वापर तो किसी ने कुछ… ऐसे ही किसी ने ब्राह्मण को श्रेष्ठ बताया तो किसी ने तपस्वियों को तो किसी ने ऋषियों को….. तब किसी ने कहाः
“हम लोग अपने को श्रेष्ठ तो कहते हैं परन्तु वास्तव में श्रेष्ठ कौन है इस बात का पता लगाने के लिए हमें अपने से भी श्रेष्ठ के पास जाना चाहिए।”
फिर आपस में विचार-विमर्श करके सब ऋषि मुनि वेदव्यास जी आश्रम में गये। वहाँ पता चला कि वेदव्यास जी नदी में स्नान करने गये हैं, अतः वे सब नदी तट पर पहुँचे।
वेदव्यास जी के पास यह सामर्थ्य है कि वे आने वाले के प्रयोजन को सहज ही जान लेते हैं। ऋषि-मुनियों के आने के प्रयोजन को भी वे सहज में ही भाँप गये। जल में डुबकी लगाकर ज्यों ही वेदव्यास जी बाहर निकले त्यों ही बोल पड़े- शूद्रः साधुः। शूद्र साधु है।
फिर उन्होंने दूसरी डुबकी लगायी और बाहर निकल कर कहाः कलिः साधुः। कलियुग प्रशंसनीय है।
जब तीसरी डुबकी लगाकर बाहर निकले तब बोलेः योषितः साधुः धन्यास्तास्ताभ्यो धन्यतरोऽस्ति कः ? ‘स्त्रियाँ ही साधु हैं, वे ही धन्य हैं, उनसे अधिक धन्य और कौन है ?’
यह सुनकर ऋषि मुनि संदेह में पड़ गये क्योंकि व्यास जी द्वारा पढ़े गये मंत्र नदी-स्नान-काल में पढ़े जाने वाले मंत्र नहीं थे। नदी से बाहर निकलने पर ऋषि-मुनियों ने उनका अभिवादन करते हुए कहाः
“हम आये तो आपके पास कुछ पूछने के लिए ही हैं लेकिन हम पहले यह जानना चाहते हैं कि ‘कलियुग ही धन्य है, शूद्र ही साधु है, स्त्रियाँ ही श्रेष्ठ हैं, वे ही धन्य हैं, उनसे अधिक धन्य और कौन है ?’ आपने ऐसा क्यों कहा ? हमें आपके श्रीमुख से यह बड़ी जिज्ञासा हो रही है। कृपया हमारी जिज्ञासा का समाधान करें।”
वेदव्यास जी ने कहाः
“सतयुग में 10 वर्ष तपस्या करने से जो फल मिलता है वह त्रेता में 9 वर्ष तपस्या करने से, द्वापर में 1 महीना तपस्या करने से और कलियुग में मात्र एक ही दिन तपस्या करने से मिलता है। जो फल सतयुग में ध्यान, त्रेता में यज्ञ और द्वापर में देवार्चन करने से प्राप्त होता है, वही कलियुग में भगवान श्री कृष्ण का नाम-कीर्तन करने से मिल जाता है। कलियुग में थोड़े परिश्रम से ही लोगों को महान धर्म की प्राप्ति हो जाती है। इसलिए कलियुग को श्रेष्ठ कहा है।”
गोस्वामी तुलसी दास जी ने भी कहा हैः
कलिजुग सम जुग आन नहिं जौं नर कर बिस्वास।
गाइ राम गुन गन बिमल भव तर बिनहिं प्रयास।।
वेदव्यास जी ने आगे कहाः “शूद्र श्रेष्ठ है क्योंकि द्विज को पहले ब्रह्मचर्यव्रत का पालन करते हुए वेदाध्ययन करना पड़ता है और उसके पश्चात गृहस्थ आश्रम में प्रवेश करने पर स्वधर्माचरण से उपार्जित धन के द्वारा विधिपूर्वक यज्ञ-दानादि करने पड़ते हैं। इसमें भी व्यर्थ वार्तालाप, व्यर्थ भोजनादि उनके पतन के कारण होते हैं, इसलिए उन्हें सदा संयमी रहना आवश्यक होता है। सभी कार्यों में विधि का ध्यान रखना पड़ता है। विधि विपरीत करने से दोष लगता है। किन्तु शूद्र द्विज सेवा से ही सद्गति प्राप्त कर लेता है इसलिए वह धन्य है।
इसी प्रकार स्त्रियाँ भी धन्य हैं क्योंकि पुरुष जब धर्मानुकूल उपायों द्वारा तथा अन्य कष्टसाध्य व्रत-उपवास आदि करते है, तब पुण्यलोक को पाते हैं किन्तु स्त्रियाँ तो तन-मन-वचन से पति की सेवा करने से ही उनकी हितकारिणी होकर पति के समान शुभ लोकों को अनायास ही प्राप्त कर लेती हैं। इसीलिए मैंने उन्हें धन्य कहा।”
फिर वेदव्यास जी ने ऋषि-मुनियों से उनके आने का कारण पूछा तब उन्होंने कहाः “हम लोग यह पूछने आये थे कि किस युग में थोड़ा-सा पुण्य भी महान फल दे देता है और कौन उसका सुखपूर्वक अनुष्ठान कर सकता है ? इनका उचित उत्तर आपने दे ही दिया है, इसलिए अब हमें कुछ नहीं पूछना है।”
व्यासजी के वचनों में अपनी शंकाओं का समाधान प्राप्त करके ऋषिगण व्यासजी का पूजन करके अपने-अपने स्थान को लौट गये।
स्रोतः ऋषि प्रसाद, जून 2002, पृष्ठ संख्या 13,14 अंक 114
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