संत श्री आसाराम जी बापू के सत्संग प्रवचन से
हमारी संस्कृति के पाँच स्तम्भों में उसका इतिहास विशिष्ट है।
432000 वर्ष का कलियुग, 864000 वर्ष का द्वापर युग, 1326000 वर्ष का त्रेता युग, 1728000 वर्ष का सतयुग होता है। इस प्रकार कुल मिलाकर 4320000 वर्ष बीतते हैं तब एक चतुर्युगी पूरी होती है। ऐसी 71 चतुर्युगियाँ बीतती हैं तब एक मन्वन्तर और ऐसे 14 मन्वन्तर बीतते हैं तब एक कल्प होता है अर्थात् करीब एक हजार चतुर्युगी बीतती हैं तब एक कल्प अर्थात् ब्रह्मा जी का एक दिन होता है। ऐसे ब्रह्माजी अभी 50 वर्ष पूरे करके 51वें वर्ष के प्रथम दिन के दूसरे प्रहर में है अर्थात् सातवाँ मन्वन्तर, अट्ठाइसवीं चतुर्युगी, कलियुग का प्रथम चरण और उसके भी 5227 वर्ष बीत चुके हैं।
ऐसा इतिहास दूसरी किस संस्कृति में है ?
श्राद्ध, पितृलोक और स्वर्गलोक की खोज हमारी संस्कृति के उपासकों ने की है।
अमेरिका की खोज करने वाला कोलम्बस जन्मा भी नहीं था उससे भी करीब 5000 वर्ष पहले भारत का वीर अर्जुन स्वर्ग से दिव्यास्त्र ले आया था, यह तो यहाँ का बच्चा-बच्चा जानता है। उससे भी वर्षों पहले खटवाँग, मुचकन्द आदि राजा स्वर्ग जाकर आ चुके थे।
एक ऐसा जमाना था जब आपके देश भारत में लोग सोने की थालियाँ एवं कटोरियों में भोजन किया करते थे एवं सोने के प्यालों में पानी पीते थे। युधिष्ठिर महाराज यज्ञ करते तब हाथ जोड़कर साध-ब्राह्मणों से प्रार्थना करके कि ‘हे ब्राह्मणों ! आपको जिस सोने की थाली-कटोरी एवं प्याले में भोजन परोसा गया है उन्हें आप दक्षिणा के रूप में स्वीकार करके घर ले जायें।’
कुछ साधु-ब्राह्मण दक्षिणा के रूप में सोने के बर्तन ले जाते तो कुछ कहते कि ‘हम आत्महीरा सँभालेंगें कि तुम्हारे इन ठीकरों को ?’ और वे उन्हें छोड़कर चले जाते। ऐसे थे, आपके भारत के साधु पुरुष !
धीरे-धीरे बाहरी लोग आकर भारत को लूटते चले गये। पहले तो फेरीवाले बोलते थेः ‘देना हो तो दे दो सोने-चाँदी के टूटे-फूटे बर्तन !’
किन्तु लोग लुट गये तो फिर आवाज बदलीः ‘देना हो तो दो ताँबे-पीतल के पुराने बर्तन !’ आज से 45-50 वर्ष पहले जब हम बालक थे, तब यह आवाज सुनते थे। किन्तु आज हमारे बच्चे सुनते हैं- ‘देना है तो दो प्लास्टिक के पुराने जूते चप्पल !’
हम बालक थे तो सौ रूपयों में एक माह तक पूरे कुटुम्ब का भरण-पोषण मजे से हो जाता था। और आज…. दो हजार रूपये मासिक कमाने वाले लोग बेचारे कैसे जीते होंगे, यह पचीस हजार रूपये मासिक कमाने वालों को क्या पता ? अपने गाल में थप्पड़ मारकर, गाल लाल करके मध्यम वर्ग जी रहा है बेचारा। बेटे-बेटियों की शादी में तो माँ बाप बेचारे गिरवी रखा गये हों, ऐसी उनकी दशा हो जाती है। जिन्होंने परदेश में रूपयों की थप्पियाँ जमाकर रखी हों उऩ्हें इस बात का क्या पता चले ? अथवा जिनको देश में ही ऊँचा पद एवं ऊँची कमाई हो उन्हें भी क्या पता चले ? धन वैभव तो विदेशी लूट गये, राजनीति की समझ भी लूट गये तभी तो हमारे अधिकारियों को प्रशिक्षण के लिए विदेश भेजा जाता है। मानों, अपने देश में सब नष्ट हो चुका है। पहले राजकुमारों को किन्ही ऋषिद्वार या संतद्वार पर भेजते थे और अब अधिकारियों को शोषकों के यहाँ भेजा जाता है।
फिर भी एक बात की खुशी है कि हमारा देश कृषि प्रधान, भावना प्रधान, सहिष्णुता प्रधान तो है ही, साथ ही उसमें एक बड़ा सदगुण यह भी है कि पड़ोसी के प्रति उसका हाथ उदार है। पर्व-त्यौहार पर गरीब-गुरबों को भी कुछ-न-कुछ देने की भावना है भारतवासियों में। और दूसरा भी एक बड़ा गुण है हमारे देश का कि हमारे पास भगवद् भक्ति का पाथेय है। चित्त की शांति, प्रसन्नता बनी रहे एवं आरोग्यशक्ति मिलती रहे ऐसे शुभ संस्कारों को अभी तक हमने खोया नहीं है। इन संस्कारों को वे लोग नहीं लूट पाये। हमारे भक्ति, ज्ञान, एवं धर्म के संस्कारों को कोई लूट नहीं पाया।
वे ही शुभ संस्कार प्रत्येक भारतवासी में ज्यादा से ज्यादा फले फूलें तो बाह्य रूप से भी हम पुनः पहले की तरह सुखी एवं समृद्ध हो सकते हैं, अपनी खोयी हुई गरिमा को पुनः लौटा सकते हैं। जागो, भारतवासियो ! जागो !!
स्रोतः ऋषि प्रसाद, जनवरी 2002, पृष्ठ संख्या 25,26 अंक 109
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