Monthly Archives: March 2002

त्याग और पवित्रता


संत श्री आसाराम जी बापू के सत्संग-प्रवचन से

त्याग और पवित्रता – ये भारतीय संस्कृति के आध्यात्मिक खजाने की दो अनुपम कुंजियाँ हैं।

जीवन में त्याग होना चाहिए। आप कोई काम करते हैं और उसमें आपकी स्वार्थ बुद्धि होती है तो बुद्धि कुंठित हो जाती है और आपकी योग्यता कम हो जाती है। अगर स्वार्थरहित काम करते हैं तो थोड़ी-सी योग्यता वाले की योग्यता भी बहुत निखर जाती है।

दूसरी कुंजी है पवित्रता। खानपान में आहार-विहार में, वाणी में और कर्म में पवित्रता होनी चाहिए। कोई व्यक्ति हमसे प्रभावित हो जाय अथवा हमें उससे कुछ मिल जाय इस प्रकार की लालच होने से भी अपना कर्म नन्हा सा हो जाता है, तुच्छ हो जाता है। चाहे कोई संसार में हो अथवा ईश्वर के मार्ग पर हो… उसके जीवन में जितनी ईमानदारी होगी उतना ही जीवन सहज होता जायेगा, साधना सहज होती जायेगी।

त्याग और पवित्रता से अंतःकरण शुद्ध होता है और शुद्ध अंतःकरण में ज्ञान शीघ्र फलित होता है। शुद्ध अंतःकरण वाले का सहज साधन होता है अर्थात् उसे साधना करनी नहीं पड़ती बल्कि उससे साधना होने लगती है।

स्वाभाविक साधन में दो बाते हैं। एक तो यह कि इसमें गलती नहीं होती और दूसरी यह कि थकान भी नहीं होती। शरीर में कभी थकान होती भी है लेकिन मन प्रसन्न रहता है जिससे थकान का प्रभाव नहीं पड़ता है।

सहज साधन में सहज विश्राम है। सहज विश्राम में सब सहज हो जाता है। कबीर जी ने कहा है-

सहजो सहजो सब कहे, सहजो जाने न कोई।

इन्द्रिय आकर्षण विषय तजे, सो ही सहजो होई।।

जगत का आकर्षण, बाहर से सुखी होने का आकर्षण मिटाने के लिए साधन की आवश्यकता है। अतः, सुख लेने की जगह सुख दें, मान लेने की जगह मान दें। इससे हृदय शुद्ध होगा, साधन सहज में होगा।

सहज साधन क्या है ?

उचित श्रम और उचित विश्राम।

उचित श्रम क्या है ?

आलस्य न हो। मैं थका हूँ…. ऐसा कहकर व्यर्थ की थकान न बने और उचित विश्राम क्या है ? अति परिश्रम करके शरीर को श्रमित न बनायें। जब आराम की आवश्यकता हो तब शरीर को आराम दें ताकि फिर ध्यान-भजन में बैठने के काबिल बन जाय।

सुबह तो रातभर का आराम किया हुआ रहता है, अतः सूर्योदय से पहले नहा-धोकर बैठ जायें और भगवन्नाम सहित श्वासोच्छ्वास की गिनती करें। इससे मन की चंचलता मिटती है। प्रभात के समय में मन शांत और दिव्य भावों से जल्दी भरता है। कोई अगर सुबह दो घंटे यह साधन करे तो छः महीने में इतनी ऊँचाई पर पहुँच सकता है जहाँ सामान्यतया आठ साल में नहीं पहुँच सकता।

साधना में शीघ्र उन्नति के चार सोपान हैं-

पहला है विश्रांति, दूसरा है सजगता, तीसरा है भगवान की शरण और चौथा है कुछ भी नहीं करना। छः महीने के अंदर चौथे में पहुँच गये तो समझो, पूरा काम बन गया, लेकिन शर्त यह है कि विवेक, वैराग्य एवं तत्परता से चलना पड़ेगा। उस ईश्वर के होकर चलना पड़ेगा और उसकी कृपा होगी तब काम बनेगा।

परमात्मा कृपा कब करेंगे ?

जब आप कृपा के लायक बनते जायेंगे तो कृपा मिलती जायेगी। सूर्य का  प्रकाश तो मिलता ही रहता है लेकिन किसान बीज बोये तभी सूर्य की कृपा को पा सकता है। ऐसे ही आप परमात्मा के लिए त्यागमय एवं पवित्र जीवन बितायें तो उसकी कृपा तो राह देख ही रही है।

जीवन में पवित्रता और त्याग जितना ईमानदारी पूर्वक होगा उतना ही आप परमात्मा की शरण जा पाओगे तथा जितनी शरणागति होगी मन-बुद्धि उतनी ही विश्रांति पा सकेंगे, उतने ही आप विकारों से सजग रह सकेंगे, उतने ही विलक्षण अनुभव कर पायेंगे और उतने ही परमात्मा में रहकर दिव्य अनुभव पाते जायेंगे।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, मार्च 2002, पृष्ठ संख्या 8,9 अंक 111

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तीन तनावों में पिसा जा रहा है संसार…


संत श्री आसाराम जी बापू के सत्संग-प्रवचन से

सारा संसार तीन तनावों में तना जा रहा हैः शारीरिक तनाव, मानसिक तनाव और भावनात्मक तनाव।

इन तीनों तनावों की भीषण चक्की में देश विदेश के सभी मनुष्य पिसे जा रहे हैं। आत्महत्या के कारणों की जाँच करने वाले एक अध्ययन के अनुसार 98 प्रतिशत आत्महत्याएँ मानसिक एवं भावनात्मक तनावों के कारण ही होती हैं। लाख आत्महत्याओं में 98000 का कारण मानसिक एवं भावनात्मक तनाव है। सारे सुख-सुविधाएँ होते हुए भी इन तनावों के कारण बेचारे लोग आत्महत्या करके मर जाते हैं।

इसी प्रकार 95 % हृदयघात भी मानसिक तनाव के शिकार लोगों को ही होता है। कई लोगों को खानपान का उचित विवेक नहीं होता है इस कारण भी वे हृदयघात का शिकार बन जाते हैं।

‘सुख-दुःख में सम रहना, सदैव प्रसन्न रहना ईश्वर की सर्वोपरि भक्ति है।’ गीता का यह ज्ञान, इस प्रकार का सत्संग जिन्होंने पाया है ऐसे लोग इन तनावों से नहीं तनते। उन्होंने ही जीवन जीने का सही ढंग सीखा है।

ऐसा ज्ञान पाने वाला साधक इन तनावों का शिकार होने से काफी तक बच जाता है, क्योंकि वह न तो अति परिश्रम करेगा और न ही अति आराम करेगा। साधक परिश्रम भी करेगा तो उसे कठिन नहीं लगेगा, क्योंकि वह ऐसा नहीं मानेगा, ‘मैं परिश्रम कर रहा हूँ’ वरन् वह तो मानेगा, ‘परिश्रम शरीर कर रहा है।’ ऐसा समझकर वह शारीरिक तनाव से बचता चला जायेगा और मानसिक तथा भावनात्मक तनाव से बचने की विधि भी वह सत्संग के द्वारा जान लेता है।

मेरो चिंत्यो होत नाहीं हरि को चिंत्यो होय।

हरि को चिंत्यो हरि करे मैं रहूँ निश्चिंत।।

तुलसी भरोसे राम के निश्चिंत होई सोय।

अनहोनी होती नहीं होनी होय सो होय।।

सब अपना-अपना प्रारब्ध लेकर आते हैं। फिर भी मनुष्य को अपना पुरुषार्थ करना चाहिए और पुरुषार्थ तो करे लेकिन उसका फल पाने की इच्छा न रखे बल्कि ‘भगवान ! तेरी मर्जी पूरण हो… मेरी इच्छा, वासना, कामना जल जाय और तेरी इच्छा पूरी ही जाय।’ इस भाव से प्रयत्न करे, सदगुरु के इस प्रकार के वचन सुनकर एवं उसका अभ्यास करके  विवेक, वैराग्यसम्पन्न सुदृढ़ सत्संगी मानसिक तनावों से इतने नहीं पीड़ित होते हैं जितने कि निगुरे पीड़ित हो जाते हैं।

क्योंकि निगुरे आदमी को तो गुरु के वचन सुनने को नहीं मिलते। कभी पुण्यवश संत-महापुरुष के वचन सुनने को मिल भी जायें तो वह उन्हें सुनता तो है लेकिन उस प विचार नहीं कर पाता है, उन वचनों को स्वीकार नहीं कर पाता है। उसे लगता है ‘यह तो करना चाहिए, वह तो करना चाहिए….’ तो करो और मरो, कर्त्ता हो कर पचते रहो तनावों में।

‘मैं कुछ बनकर दिखाऊँ, कुछ करके दिखाऊँ….’ का जो भूत है वह निगुरे लोगों को मानसिक और भावनात्मक तनाव में ताने रखता है। अरे, बनकर क्या देखना है ? तू मिट जा भैया ! बनेगा तो अहंकारी हो जायेगा। तू बनने की कोशिश न कर, मिटने का यत्न कर।

जो तिद् भावे सो भलिकार…..

फिर भी कुछ बनने का शौक है तो भगवान का बनकर देख, सदगुरु का बनकर देख।

संसार में थोड़े-बहुत सफल हो गये तो अहंकार मार गिराता है और विफल हो गये तो विषाद दबोच लेता है। इसलिए ‘मैं कुछ होकर दिखाऊँ, कुछ बनकर दिखाऊँ, कुछ प्रसिद्ध होकर दिखाऊँ….’ ऐसी कामना सत्शिष्य को नहीं होती।

कुछ बनकर नहीं दिखाना है वरन् यह जो कुछ बनकर दिखाने का भूत है उसको हटाओ। फिर देखो, वह घड़वैया तुम्हें कैसा घड़ता है ! हमने कभी नहीं सोचा, ‘मैं आसुमल हूँ, आसाराम बनकर दिखाऊँ… प्रसिद्ध होकर दिखाऊँ….’ नहीं नहीं।

मेरी हो सो जल जाय तेरी हो सो रह जाय….

कुम्हार के हाथ में मिट्टी को जाने दो फिर वह घड़ा बनाये, सुराही बनाये, कुल्हड़ बनाये उसकी मर्जी…. संसार का कुम्हार तो बनता है अपने स्वार्थ के लिए लेकिन परमात्मा और सदगुरुरूपी कुम्हार अपने स्वार्थ के लिए नहीं बनायेंगे वरन् तुम्हें ही परमेश्वरमय बना देंगे।

यदि तू अपनी अकड़-पकड़ छोड़ दे, अपनी वासना छोड़ दे और अपने व्यक्तिगत स्वार्थ के लिए चिंतन करना छोड़ दे तो बहुतों की भलाई के लिए ईश्वर तेरे द्वारा बहुत कुछ करवाने को तैयार है। अगर तू कुछ बनने की कोशिश करेगा तो मानसिक तनाव में, भावनात्मक तनाव में और अहंकार में ही तनता रहेगा। इसी प्रकार भावनात्मक तनाव भी लोगों को पीड़ित कर रहा है।

एक आदमी बीच सड़क से जा रहा था। उससे पूछ गयाः “भाई ! तू बीच सड़क पर क्यों रहे हो ?”

आदमी बोलाः “एक बार कोई आदमी सड़क के किनारे से जा रहा था और किनारे के किसी मकान की दीवार गिर गयी तो उससे वह आदमी दब गया था। अब मुझे भी डर लगता है कि कहीं किनारे वाली दीवार गिर जायेगी तो मैं भी दबकर मर जाऊँगा। इसीलिए बीच सड़क पर चलता हूँ।”

ऐसे ही किसी को आठ साल की एक बेटी है और दूसरी संतति भी बेटी ही हुई तो माँ को चिंता लग गयी कि इसके लिए दहेज देना पड़ेगा….। दहेज तो देना पड़ेगा 18-20 साल के बाद लेकिन तनाव अभी से घुस गया… और 18-20 साल के बाद परिस्थितियाँ बदल जायेंगी। अभी कन्याएँ कम हो रही हैं और लड़के ज्यादा। इन आँकड़ों के हिसाब से आने वाला समय इससे कुछ दूसरा ही होगा। अभी बेचारे कन्या वाले गिड़गिड़ाते हैं, तब लड़के वाले आजी-निजारी, मन्नतें करते, कन्या माँगते रहेंगे जो कि सन् 1947 के पूर्व की स्थिति थी। लड़कों की इतनी कीमत नहीं रहेगी, लड़की मिले तो कृपा हो गयी ऐसा होने वाला है।

लड़की दस साल की हो गयी… तब भी चिंता हो रही है कि इसकी शादी करनी पड़ेगी। लड़की 18 वर्ष की हो गयी…. 20 की हो गयी… सगाई नहीं हो रही है तब भी चिंता हो रही है, भावनात्मक तनाव की लकीरें दिन-प्रतिदिन खिंचती चली जाती हैं। अरे ! जो होना होगा सो होगा। तुम प्रयत्न करो, कार्य में ध्यान रखो लेकिन चिंता मत करो।

शारीरिक रूप से स्वस्थ रहने के लिए खूब आविष्कार हो रहे हैं परन्तु व्यक्ति अगर तीन-चार घंटे भी नींद कर ले तो आराम से स्वस्थ रह सकता है, परन्तु खानपान और आहार-विहार की गड़बड़ी करता है तो 7-8 घंटे सोने पर भी अपने को थका हुआ महसूस करता है। फिर थोड़ा काम करता है तो ‘मैंने बहुत काम कर लिया और मैं बहुत थक गया हूँ… मैं बीमार हूँ और मैं कुछ नहीं कर सकता हूँ….’ ऐसे बेकार के चिंतनों में पड़कर शारीरिक तनाव से पीड़ित हो जाता है।

शारीरिक और मानसिक तनाव बढ़ने से फिर उस आदमी को सिगरेट की, दारू की जरूरत पड़ने लगती है। पति अथवा पत्नी के साथ अपना सत्यानाश करने की इच्छा – यह शारीरिक और मानसिक तनाव का फल है। बिनजरूरी काम विकार, बिन जरूरी खाना, बिनजरूरी बोलना – ये भी शारीरिक और मानसिक तनाव के लक्षण हैं।

मनुष्य अगर इसी ढंग से जीवन जीता रहे तो उसके पास मौत की चार चिट्ठियाँ आ जाती हैं- शरीर पर झुर्रियाँ, बालों की सफेदी, आँखों की रोशनी में कमी और नसों की कमजोरी।

अगर कोई इन मुसीबतों से बचना चाहता है तो उसे चाहिए कि आसन प्राणायाम के द्वारा शरीर को स्वस्थ रखे, श्वासोच्छ्वास की गिनती करे और ‘मैं शरीर नहीं हूँ तो रोग मुझे कैसे छू सकता है ?’ ऐसा सोचे, संतों के सत्संग का लाभ ले तो वह शारीरिक और मानसिक तनाव से मुक्ति पा लेगा।

अपनी जीवन में तीन बातों का ध्यान रखोः

शरीर को अति थकाओ मत।

मैं थक गया हूँ – ऐसा सोचकर मन से भी मत थको। मन को तनाव में न डालो। जो होगा देखा जायेगा।

भावनाओं एवं कल्पनाओं में मत उलझो।

सारा संसार इन्हीं तीन तनावों से तप रहा है – शारीरिक तनाव, मानसिक तनाव और भावनात्मक तनाव। कोई भगत है, मंदिर में भी जाता है फिर भी यदि उसके जीवन में सत्संग नहीं है, संत पुरुषों का मार्गदर्शन नहीं है तो वह भी भावनात्मक तनाव से तन जाता है। कुछ अच्छा हो गया तो खुश हो जायेगा कि ‘भगवान की बड़ी कृपा है’ और कुछ बुरा हो गया तो कहेगाः “भगवान ने ऐसा नहीं किया, वैसा नहीं किया।’ लेकिन उसे क्या पता कि भगवान उसका कितना हित चाहते हैं ? इसलिए कभी भी अपने को दुःखद चिंतन में नहीं गिराना चाहिए, निराशा की खाई में नहीं गिराना चाहिए और न ही अहंकार के दलदल में फँसना चाहिए वरन् यह विचार करें कि संसार सपना है इसमें ऐसा तो होता रहता है।….

इन तीनों तनावों से छुटकारा पाने का एक ही उपाय है, बाकी के सब उपाय तो तनावरूपी वृक्ष के पत्ते और टहनियों के तोड़ने  के समान हैं। तनावरूपी वृक्ष की जड़ में कुल्हाड़ी मारना हो तो एक ही कुल्हाड़ी है – वह है आत्मयोग की।

आत्मयोग क्या है ?

जो दिख रहा है वह सब स्वप्न है, स्फुरणमात्र है और जिससे दिख रहा है वह आत्मा ही सत्य है। उस सत्य में विश्रांति पाने का नाम ही है – आत्मयोग। इससे तीनों तनाव अपने आप दूर हो जाते हैं।

सब लोग इन तीन तनावों में से किसी न किसी तनाव से कम या अधिक अंशों में पीड़ित हैं। कोई एक से तो कोई दो से अथवा कोई-कोई तो तीनों तनावों से पीड़ित हैं। इन तीनों तनावों से पार हुआ अपने परमेश्वर स्वभाव में, अपने आत्मस्वभाव में जगा हुआ तो कोई विरला महापुरुष ही मिलता है।

ऐसे आत्मवेत्ता महापुरुष इन तीन तनावों से पार होने की कुंजी बताते हैं, प्रयोग बताते हैं और परमात्म-प्रसन्नता की प्राप्ति भी करा देते है। धनभागी है वे लोग जो उनके पदचिन्हों पर सच्चाई एवं श्रद्धापूर्वक चलाते हैं।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, मार्च 2002, पृष्ठ संख्या 10-12, अंक 111

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अध्यात्मज्ञान का नित्य अभ्यास करें….


संत श्री आसाराम जी बापू के सत्संग-प्रवचन से

अध्यात्मज्ञाननित्यत्वं तत्त्वज्ञानार्थदर्शनम्।

एतज्ज्ञानमिति प्रोक्तमज्ञानं यदतोऽन्यथा।।

‘अध्यात्मज्ञान में नित्य स्थिति और तत्त्वज्ञान के अर्थरूप परमात्मा को ही देखना-यह सब ज्ञान है और जो इससे विपरीत है, वह अज्ञान है- ऐसा कहा है।’ भगवद्गीताः 13.11

संसार में जितने भी दुःख हैं, सब आत्मा के अज्ञान के कारण हैं, अध्यात्मज्ञान की कमी के कारण हैं। अध्यात्मज्ञान का आदर न करना ही सब दुःखों का मूल है। अतः जो सदा के लिए सब दुःख मिटाना चाहता है, उन्नति की पराकाष्ठा पर पहुँचना चाहता है और अपना मानव-जीवन सफल करना चाहता है उसे नित्य, निरंतर अध्यात्मज्ञान में निमग्न रहना चाहिए।

समर्थ रामदासजी ने कहा है- ‘भैंस के सींग पर राई का दाना जितनी देर ठहर जाय, उतनी देर भी मन अगर अध्यात्मज्ञान से रहित हो जाता है तो पतन होने की सम्भावना रहती है।’

भगवान कहते हैं- अध्यात्मज्ञाननित्यत्वं ……

अध्यात्मज्ञान और लौकिक ज्ञान में फर्क है। अध्यात्मज्ञान है अपने-आपका ज्ञान और लौकिक ज्ञान है इधर-उधर का ज्ञान। इधर-उधर का ज्ञान तो ढेर सारा है किन्तु अपने-आपके ज्ञान की कमी है, अपने-आपको पता नहीं है। शरीर के सभी अवयवों का ज्ञान डॉक्टरों को भले रखें, लोहे-लकड़ी, ईंट-चूने का ज्ञान भले इंजीनियर के पास हो, राजनीति का ज्ञान राजनेता भले रखें परन्तु जब तक अपने आपका ज्ञान नहीं है तब तक दुनियाभर का सब ज्ञान मिलने पर भी सच्चा सुख मिलना संभव नहीं, सच्चा जीवन जीना संभव नहीं।

अतः अध्यात्मज्ञान का नित्य अभ्यास करें। अध्यात्मज्ञान में नित्य, निरंतर रत रहें और सर्वत्र, सब की गहराई में जो सत्-चित्-आनंदस्वरूप परमात्मा है उसको देखने की सावधानी रखें। जैसे पंखा अलग है, टयूबलाइट अलग है, बल्ब अलग है, टी.वी. अलग है, फ्रिज अलग है, हीटर अलग है फिर भी तत्त्वरूप से सत्ता सबमें विद्युत की है, ऐसे ही गाय घोड़े आदि पशुओं में, पक्षियों में, मनुष्यों में, सबमें नेत्रों के द्वारा सुनने की सत्ता उस परमेश्वर की है, कानों के द्वारा सुनने की सत्ता उस परमेश्वर की है, नाक के द्वारा सूँघने की सत्ता भी उस सच्चिदानंद की है। उस सच्चिदानंदस्वरूप को सबमें देखने का नित्य अभ्यास करें। नित्य इस अध्यात्मज्ञान में स्थित रहें और तत्त्वज्ञान के अर्थरूप उस परमात्मा को सर्वत्र देखें। यही ज्ञान है, यही ज्ञान का सदुपयोग है और इसके विपरीत जो है वह अज्ञान है।

‘मैं और मेरा… तू और तेरा… यह अच्छा है… यह बुरा है… यह ब्राह्मण है… यह क्षत्रिय है… यह वैश्य है… यह शूद्र है….’ सबको भिन्न न मानकर इन सबकी गहराई में उस परमात्मा का ज्ञान रखना ही सार है, बाकी का सब व्यवहारिकता है। अध्यात्मज्ञान प्रगाढ़ होता है तो बुद्धि विशाल होती है और अल्प होता है तो बुद्धि संकीर्ण होती है। संकीर्ण मति में ही ‘मैं-मेरे… तू-तेरे…’ का भेद उत्पन्न होता है। जिसने ‘मेरे-तेरे’ के भेद को मिटाकर सर्वत्र एवं सदा स्थित सच्चिदानंदस्वरूप का ज्ञान प्राप्त कर लिया उसके लिए कौन अपना और कौन पराया ?

जो भगवान के पूर्ण भक्त हैं, जो तत्त्वज्ञान के अर्थरूप परमात्मा में नित्य रमण करते हैं वे महापुरुष ईश्वर के अभिन्नस्वरूप होते हैं। उनके हृदय में नित्य, निरंतर भगवद्स्मरण होता रहता है। उनके रोम-रोम से भगवद्भाव उभरता है। उनके चित्त में सच्चिदानंद परमात्मा के अनुभव की तरंगें निरंतर उभरती रहती हैं।

ऐसे महापुरुष बनने के लिए क्या करना चाहिए ?

श्री रामानुजाचार्य ने कुछ उपाय बताये हैं, जिनका आश्रय लेने से साधक सिद्ध बन सकता है। वे उपाय हैं।

विवेक- आत्मा अविनाशी है, जगत विनाशी है। देह हाड़-मांस का पिंजर है, आत्मा अमर है। शरीर के साथ आत्मा का कतई सम्बन्ध नहीं है और वह आत्मा ही परमात्मा है। इस प्रकार का तीव्र विवेक रखें।

विमुखता– जिन वस्तुओं, व्यसनों को ईश्वर-प्राप्ति के लिए त्याग दिया फिर उनकी ओर न देखें, उनसे विमुख हो जायें। घर का त्याग कर दिया तो फिर उस ओर मुड़-मुड़कर न देखें। व्यसन छोड़ दिये तो फिर दुबारा न करें। जैसे कोई वमन करता है तो वह पुनः उस वमन को चाटने नहीं जाता, ऐसे ही ईश्वर-प्राप्ति में जो विघ्न डालने वाले कर्म हैं उन्हें एक बार छोड़ दिया तो उन कर्मों को फिर दुबारा न करें।

अभ्यास– भगवान के नाम-जप का भगवान के ध्यान का, सत्संग में जो ज्ञान सुना है उसका नित्य, निरंतर अभ्यास करें।

कल्याण- जो अपना कल्याण चाहता है वह औरों का कल्याण करे। निष्काम भाव से औरों की सेवा करें।

भगवद्प्राप्तिजन्य क्रिया- जो कार्य तन से करें उनमें भी भगवद्प्राप्ति का भाव हो, जो विचार मन से करें उनमें भी भगवद्प्राप्ति का भाव हो और जो निश्चय बुद्धि से करें उन्हें भी भगवद्प्राप्ति के लिए करें।

अनवसाद- बहुत दुःखी न हों। कोई भी दुःखद घटना घट जाये तो उसे बार-बार याद करके दुःखी न हों।

अनुहर्षात्- किसी भी सुखद घटना में हर्ष से फूलें नहीं।

जो साधक इन सात उपायों को अपनाता है वह सिद्धि को प्राप्त हो जाता है।

है तो सबके चित्त में अनन्त ब्रह्माण्डनायक परमात्म की सत्ता और शक्ति किन्तु बाहर का, ‘मेरे-तेरे’ का चिन्तन करके चित्त अध्यात्मज्ञान से रहित होकर अज्ञान में भटकने लगता है और स्थूल हो जाता है। जैसे, पानी वाष्प के रूप में होता है तो उसको रोकना मुश्किल होता है लेकिन शीतगृह (Cold Storage) में रखो तो बर्फ बन जाता है, फिर उसे हटाना भी भारी पड़ता है। ऐसे ही मानव है तो सच्चिदानंदस्वरूप आत्मा लेकिन मन, बुद्धि और इन्द्रियों में, फिर धीरे-धीरे शरीर की स्थूलता में आ गया तो वह लाचार हो गया। वह अगर शरीर में रहते हुए भी चित्त का परमात्मा के चिंतन मनन में लगाये, सात्त्विक आहार विहार करे, जप ध्यान करे तो मन-बुद्धि धीरे-धीरे सूक्ष्म होने लगती है और साधक परम सूक्ष्म परमात्मा को पाने में सफल हो सकता है।

…किन्तु इस सब साधनों में भी सातत्य चाहिए। ऐसा नहीं कि जप-ध्यान तो किया किन्तु जैसा-तैसा खा-पी लिया, जहाँ तहाँ स्पर्श कर लिया, जैसा तैसा बोल दिया। इससे साधनों के पालन से जो धारणाशक्ति बनती है वह बिखर जाती है। इसमें ज्यादा समय चला जाता है। अतः सातत्य चाहिए। जो साधक लगातार सात दिन तक मौन मंदिर में रहते हैं, उन्हें जो लाभ होता है उसे वे जिंदगी भर याद रखते हैं क्योंकि वहाँ कोई दुःखद, भोगों में भटकाने वाला वातावरण नहीं होता अपितु सुखद परमात्मप्रेम में प्रवेश करने वाला पावन प्रभुमय वातावरण होता है, जिससे साधक को दिव्य अनुभव होते हैं।

यह दिव्यता और आनंद आपके ही भीतर छुपा हुआ है। ज्यों-ज्यों चित्त सूक्ष्म होता जाता है, पवित्र होता जाता है, त्यों-त्यों दिव्यता उभरने लगती है, निर्मलता का एहसास होने लगता है और,

निर्मल मन जन सो मोहि पावा….

जिसका मन निर्मल है, भाव निर्मल है, कर्म निर्मल है, उद्देश्य निर्मल है वह परम निर्मलस्वरूप परमात्मा को पाने में भी सफल हो जाता है।

जगत के भोग भोगना यह मलिन उद्देश्य है और परमात्मसुख पाना यह निर्मल उद्देश्य है। जगत के ‘तेरे-मेरे’ के ज्ञान को दिमाग में भरना यह तुच्छ उद्देश्य है और अंतःकरण में परमात्मज्ञान को भरना यह निर्मल उद्देश्य है। जगत के भोगों की आकांक्षा करना यह मलिन उद्देश्य है और जगदीश्वर की प्राप्ति की आकांक्षा करना यह निर्मल उद्देश्य है।

जिसके जीवन में इस प्रकार का विवेक होता है वह थोड़े ही समय में परमात्मसुख, परमात्म-सामर्थ्य और परमानंद पाकर सब दुःखों और कर्मबन्धनों से सदा के लिए छूट जाता है।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, मार्च 2002, पृष्ठ संख्या 2-4, अंक 111

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