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विषय विकारों से वैराग्य करें….


 

संत श्री आसाराम जी बापू के सत्संग-प्रवचन से

‘श्रीमद्भगवद्गीता’ के तेरहवें अध्याय के आठवें श्लोक में आता हैः

इन्द्रियार्थेषु वैराग्यमनहंकार एव च।
जन्ममृत्युजराव्याधिदुःखदोषानुदर्शनम्।।

‘इस लोक तथा परलोक के सम्पूर्ण भोगों में आसक्ति का अभाव और अहंकार का भी अभाव, जन्म, मृत्यु, जरा और रोग आदि में दुःख और दोषों का बार-बार विचार करना (यह ज्ञान है)।’

‘इन्द्रियार्थेषु वैराग्यम्… इन्द्रियों के अर्थ में वैराग्य करें। वैराग्य घृणा का नाम नहीं है, उपेक्षा का नाम वैराग्य नहीं है और द्वेषबुद्धि का नाम भी वैराग्य नहीं है। वरन् इन्द्रियों के अर्थ में अर्थात् इन्द्रियों के विषय में से राग हटाने का नाम वैराग्य है।

इन्द्रियों का अर्थ है – ‘विषय’। ‘विषय’ किसको बोलते हैं ? संस्कृत भाषा में जो जीव को बाँध ले अथवा जिसमें जीव बँध जाय, उसे ‘विषय’ कहते हैं और ये विषय पाँच हैं- शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गंध। कहीं देखकर आसक्ति हो जाती है तो कहीं सूँघकर, कहीं चखकर आसक्ति हो जाती है तो कहीं सुनकर या स्पर्श करने पर…. और यह आसक्ति ही जीव को बंधन में डालती है।

‘इन्द्रियों के अर्थ में’ अर्थात् जब हम विषयों में आसक्ति करते हैं तब अनर्थ हो जाता है। इसीलिए भगवान कहते हैं कि इन्द्रियार्थेषु वैराग्यम्….. इसका मतलब यह नहीं कि आप देखना, सुनना, चखना आदि बंद कर दो। नहीं, केवल उन विषयों से राग हटा दो।

विषय भी दो प्रकार के होते हैं-

पहला है दृष्ट विषय – जैसा कि व्यास जी ने कहा हैः खान-पान, पहनावा, ऐश्वर्य और स्त्री में आसक्ति, यह दृष्ट विषय है। जो दिखता है उसमें आसक्ति होना – यह दृष्ट विषय है।

दूसरा है, अदृष्ट विषय। जब मृत्यु होगी तब शरीर प्रकृति में लय हो जायेगा। लेकिन मरने के बाद बिहिश्त (स्वर्ग) मिलेगा, शराब के चश्मे मिलेंगे, हूरें (अप्सराएँ) मिलेंगी…. ये अदृष्ट विषय हैं।

यहाँ के सुख-भोग का अर्थात् दृष्ट विषय का त्याग इसलिए किया कि स्वर्ग में सुख-भोग मिलेगा तो समझो तुम्हारी तपस्या स्वर्गीय सुख-भोग के लिए आसक्ति हो गयी। अतः दृष्ट और अदृष्ट दोनों विषयों से वैराग्य होना चाहिए।

वैराग्य उत्पन्न होता है विवेक से। विवेक क्या है ? ऐसा समझना कि सत्य क्या है, मिथ्या क्या है ? शाश्वत क्या है, नश्वर क्या है ? नित्य क्या है, अनित्य क्या है ? इसी का नाम विवेक है। विवेक से वैराग्य उत्पन्न होता है। यह संसार दिखने भर को है, वास्तविक नहीं है। वास्तव में तो केवल एक परमात्मा ही सत्य है, शेष सब माया है, ऐसे विचार से विवेक जागता है।

संसार की चीजों की भी इच्छा न करें तथा स्वर्ग के सुख को पाने की भी इच्छा न करें वरन् केवल ईश्वर को ही पाने की इच्छा करें और जब ईश्वर के मार्ग पर चलने का एक बार मन में ठान लें, फिर घबरायें नहीं, पीछे हटे नहीं। मीराबाई ने एक बार ठान लिया तो चल पड़ी।

गुजराती में कहा गया हैः

हरि नो मारग छे शूरा नो नहीं कायर नूं काम जोने।

ईश्वर का मार्ग कायरों का मार्ग नहीं है, यह शूरवीरों का मार्ग है। 5 साल के ध्रुव ने ठान लिया तो लग पड़ा और ईश्वर को पा के ही रहा। 11 साल के प्रह्लाद ने अनेक कष्ट झेले लेकिन ईश्वर को पाकर ही रहा….

भाई कहता थाः “समय से दुकान पर आया करो।”
मैंने कहाः “अपने नियम पूरे करके ही आ सकता हूँ, नहीं तो यह चला।”
“अच्छा, 12 बजे तक आ जाना।”
“12 बजे का वचन दिया है – इस चिंता में मैं नहीं रह सकता।”
“अच्छा, दिन में एक बार तो आ जाना।”
“नहीं।”
“अच्छा, सप्ताह में एक बार आ जाया करना।”
फिर सप्ताह में एक बार जाना भी हमको भारी पड़ने लगा तो हम घर छोड़-छाड़कर चल दिये।
एक बार दृढ़ निश्चय कर लो तो फिर उस पर डट जाओ।

भाई, भाई के दोस्त तो समझाते ही थे, साथ ही भाई अन्य व्यापारी लोगों से भी कहता कि ‘इतना बढ़िया भाई है फिर भी शादी को मानता नहीं था…. शादी करा दी तो दुकान पर नहीं आता है, संसारी नहीं बनता, पूजा के कमरे में बैठा रहता है, मंदिर में चला जाता है…. आप लोग जरा समझाओ।’

तब व्यापारी लोग मुझे समझाने आते कि ‘भाई ! तुम सुधर जाओ। तुम्हारा एक ही भाई है।’

वे लोग मुझे अपने घर ले जाते और अपना पूजा का कमरा दिखाते हुए कहतेः “हम भी पूजा पाठ करते हैं। हम तुमको पूजा करने से रोकते नहीं हैं। देखो, फलाने कैसे करोड़पति बन गये ? तुम्हारी थोड़ी सी युक्ति से भाई ऊँचा उठ रहा है। तुम जाने की बात करते हो तो बेचारा रोता है। तुम सुधर जाओ।”
मैंने कहाः “बस, हम सुधर गये। हम जहाँ हैं वहीं ठीक हैं।”
दृष्ट और अदृष्ट से वैराग्य करें। वैराग्य का मतलब है स्त्री-पति, खान-पान आदि दृष्ट और स्वर्ग आदि के अदृष्ट विषयों के प्रति आकर्षण न होना। दोस्ती-दुश्मनी नहीं, ग्रहण-त्याग नहीं।

कुछ लोग त्यागी तो होते हैं लेकिन जड़ त्यागी होते हैं। एक ने कसम खा ली कि ‘हम बिल्कुल त्यागी वैरागी रहेंगे। किसी स्त्री ने छू लिया तो हम 5 दिन का उपवास करेंगे।’
फिर वह तपस्या करने चला गया। उसकी माँ को पता चला तो वह आयी और उसके सिर-कंधे पर हाथ घुमाते, सहलाते हुए बोलीः “बेटा ! घर चल।”
बेटे ने तो कसम खा ली थी।

माँ भी तो स्त्री है। उसने 5 दिन का उपवास रखा। अरे ! जिस माँ से तू पैदा हुआ उस माँ ने छू लिया तो क्या हुआ ? ये है थोपा हुआ त्याग। राग तो फँसाता ही है थोपा हुआ त्याग भी एकतरफा बना देता है।

श्री कृष्ण न तो मन-इन्द्रियों के राग में फँस मरने को कहते हैं और न द्वेष में फँस मरने को कहते हैं। श्री कृष्ण कहते हैं-

इन्द्रियार्थेषु वैराग्यमनहंकार एव च।

इन्द्रियों के विषय में वैराग्य करें और अहंकार न करें। अहंकार किसी बात का न करें। न धन का अहंकार, न सौंदर्य का, न विद्वता का, न सत्ता का, न पद का, न जाति का, न त्याग का, न वैराग्य का…. किसी का भी अहंकार न करें। अहंकार तुम्हें एक सीमित दायरे में ले आयेगा और जब तुम सीमित दायरे में आ जाओगे तो व्यापक परमात्मा से दूर हो जाओगे…..
आगे भगवान कहते हैं-

जन्ममृत्युजराव्याधिदुःखदोषानुदर्शनम्।

जन्म-मृत्यु, जरा-व्याधि आदि में दुःख होता है ?

जैसे कुम्हार के भट्ठे (आंवां) में घड़ा पकता है, वैसे ही गर्भाग्नि में शरीर पकता है। माता-पिता के द्रवरूपी रज-वीर्य से निर्मित अस्थि-मांसमय शरीर गर्भाग्नि में ही पककर बनता है। 8-10 माह तक शरीर का निर्माण होता है फिर जन्म के समय भी बड़ी पीड़ा होती है। इसी प्रकार मृत्यु भी कष्टदायी ही होती है और रोग तथा वृद्धावस्था कितनी कष्टदायी होती है यह तो सभी जानते ही हैं।

शरीर को कितना भी खिलाओ-पिलाओ, अंत में यह साथ नहीं देता। अतः इस शरीर के पीछे व्यर्थ समय नहीं गँवाना चाहिए वरन् संसार दुःखमय है और विकार दोषमय हैं – ऐसा विचार करके अपना समय और शक्ति सुखस्वरूप, चैतन्यस्वरूप, अपने शाश्वत आत्मस्वरूप की ओर लगाना चाहिए।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, अगस्त 2002, पृष्ठ संख्या 4,5 अंक 116
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विवेक की महिमा


संत श्री आसाराम जी बापू के सत्संग-प्रवचन से
विवेकी मनुष्य को संसार के भोगों से वैराग्य होता है और विषय-रस में नीरस बुद्धि होती है। ‘संसार के भोग बाहर से कितने सुंदर, रसदायी और सुखदायी दिखते हैं किन्तु अंत में देखो तो कुछ भी नहीं….’ ऐसा विचार विवेकी को होता है।
जैसे मलिन वस्त्रों को साफ करने से उनका मैल निकल जाता है, वैसे ही वैराग्य से विकाररूपी भाव निकल जाते हैं और मन निर्मल हो जाता है। निर्मल मन में ही भगवद् रस प्रकट होता है, भगवान का आनंद प्रकट होता है और भगवान का सामर्थ्य आता है।
जो विवेकी है वह जानता है कि ‘अस्थि, मांस, मज्जा, रक्त, मल-मूत्रवाला यह शरीर मैं नहीं हूँ अपितु मैं आकाश से भी सूक्ष्म तथा व्यापक चैतन्य आत्मा हूँ।’
बाल के अग्रभाग के लाख हिस्से करिये, उस लाखवें हिस्से के भी करोड़ भाग करिये, फिर भी वह चैतन्य आत्मा बाल के करोड़वें हिस्से से भी अधिक सूक्ष्म है और व्यापक इतना है कि पूरे आकाश को उसने ढाँप रखा है। वही परमेश्वर मैं चैतन्य आत्मा मैं हूँ – ऐसा जो जानते हैं वे ही बड़भागी महापुरुष हैं।
जो अपने को शरीर मानता है, जो अपने को जन्मने-मरने वाला मानता है वह वेदान्त की दृष्टि में अज्ञानी है लेकिन जो अपने को शुद्ध-बुद्ध, चैतन्य आत्मा जानता है वही यथार्थ को जानता है और वही विवेकी है।
जो सत्-असत् को देखता है और सत्-असत् को प्रकाशता है वह शिवात्मा मैं हूँ। मैं ही जीभ के द्वारा खारा-खट्टा आदि स्वाद लेता हूँ, मैं ही नेत्रों के द्वारा अच्छा-बुरा देखता हूँ, कोई मेरे शरीर को काट के टुकड़े-टुकड़े कर दे फिर भी जो नहीं मरता वह मैं हूँ। चाहे कितनी भी वाहवाही हो फिर भी जो बढ़ता नहीं है और चाहे कितनी भी निंदा हो तो भी वह घटता नहीं है वह साक्षी स्वरूप ‘मैं’ हूँ – ऐसा जो जानता है वही सबको जानता है। ऐसे विवेकी महापुरुष महेश्वरस्वरूप होते हैं। वे तम – प्रकाश से परे, कामनाओं से परे, चैतन्यघन में स्थित रहने वाले होते हैं।
जब एक बार उस चैतन्य परमेश्वर का ज्ञान हो जाता है, फिर कोई भी उस ज्ञान को छीन नहीं सकता। जैसे, तुम लोगों को यह ज्ञान हो गया कि यह घड़ी है, अब अगर मैं यह घड़ी छुपा दूँ तो इसका अदर्शन हो सकता है किन्तु इसका ज्ञान तुमसे छीना नहीं जा सकता, क्योंकि तुमको एक बार इसका ज्ञान हो चुका है। ऐसे ही ज्ञानस्वरूप आत्मा का ज्ञान हो जाय तो फिर उसका अदर्शन हो सकता है, उसकी विस्मृति हो सकती है लेकिन उसका अज्ञान कभी नहीं हो सकता।
ज्ञान का फिर अज्ञान नहीं होता है। एक बार तुम्हें ज्ञान हो जाय कि तुम शुद्ध चैतन्य स्वरूप आत्मा हो फिर कोई तुम्हें बोले कि ‘तुम फलाने के बेटे हो…. फलानी के पति हो…. फलाने के भाई हो…. फलाने के बाप हो….’ तो तुम व्यवहार में तो बोल दोगे कि ‘हाँ भाई ! ठीक है।’ परन्तु भीतर से तुम्हें पता होगा कि तुम वास्तव में क्या हो।
जिसे अपने वास्तविक स्वरूप का ज्ञान हो जाता है उस पुरुष के लिए राज्य करना, युद्ध करना, लाखों लोगों से सम्मानित होना अथवा भिक्षा माँगकर खाना सब खेल जैसा हो जाता है क्योंकि उसने जान लिया है कि सत्य केवल परमात्मा है, बाकी सब खिलवाड़मात्र है, स्वप्नमात्र है।
सुख-दुःख, मान-अपमान आदि सब आने-जाने वाले हैं। सुख भी सदा नहीं रहता और दुःख भी सदा नहीं रहता। मान भी सदा नहीं रहता और अपमान भी सदा नहीं रहता। जवानी भी सदा नहीं रहती और बुढ़ापा भी सदा नहीं रहता। मित्र भी सदा नहीं रहते और शत्रु भी सदा नहीं रहते। अमीरी भी सदा नहीं रहती और गरीबी भी सदा नहीं रहती – ये सब प्रकृति के परिवर्तनशील खिलवाड़ हैं।
जो सदा रहता है वह मेरा आत्मा ही सत्य है। पिछले जन्म के सगे-सम्बन्धी, मित्र, धन-दौलत आदि इस जन्म में साथ नहीं हैं लेकिन वह परमात्मा तो जन्म-जन्मांतरों से हमारे साथ है। ऐसे ही इस जन्म के सगे-सम्बन्धी, मित्र, धन-दौलत आदि भी हमारा साथ छोड़ देंगे लेकिन वह परमात्मा मरने के बाद भी हमारे साथ रहेगा…. इसलिए उस परमात्मा के ही विषय में श्रवण करें और उसी का विचार करें तो बुद्धि आत्मविषयिणी हो जायेगी। आत्मविषयिणी बुद्धि होते ही धीरे-धीरे ईश्वरप्राप्ति की तड़प बढ़ती जायेगी।
फिर महापुरुषों से प्रार्थना करेंगे और कुछ अपना पुरुषार्थ करेंगे तो धीरे-धीरे बुद्धि उस सत्यस्वरूप परमात्मा में टिक जायेगी। अगर एक बार केवल तीन मिनट के लिए भी बुद्धि सत्य स्वरूप ईश्वर में टिक गयी तो फिर बुद्धि को कर्मबंधन नहीं रहता है। जैसे, एक बार पारस से लोहे की पुतली का स्पर्श हो गया, वह सोना हो गयी तो फिर उसे जंग नहीं लगता है।
जैसे साधारण आदमी को राग-द्वेष आदि का कर्मबंधन लगता है, वैसे उस मुक्तात्मा पुरुष को राग-द्वेष का कर्मबंधन नहीं लगता है। ऐसा मुक्तात्मा पुरुष संसार में रहते हुए भी संसार से न्यारा होता है।
धनभागी वे भी हैं जिन्हें महापुरुषों का सत्संग प्राप्त होता है, ईश्वरप्राप्ति में रूचि होती है। उनके समस्त तीर्थों, यज्ञों, तपों और पुण्यों का फल फलित हुआ है।
स्रोतः ऋषि प्रसाद, अगस्त 2002, पृष्ठ संख्या 2,3 अंकः 116
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युधिष्ठिर का प्रश्न


युधिष्ठिर ने पितामह भीष्म से पूछाः “कोई मनुष्य नीतिशास्त्र का अध्ययन करके भी नीतिज्ञ नहीं देखा जाता और कोई नीति से अनभिज्ञ होने पर भी मंत्री के पद पर पहुँच जाता है, इसका क्या कारण है ? कभी-कभी विद्वान और मूर्ख दोनों की एक सी स्थिति होती है। खोटी बुद्धि वाले मनुष्य धनवान हो जाते हैं और अच्छी बुद्धि रखने वाले विद्वान को फूटी कौड़ी भी नसीब नहीं होती।”
भीष्म जी बोलेः “बीज बोये बिना अंकुर नहीं पैदा होता। मनीषी पुरुषों का कहना है कि मनुष्य दान देने से उपभोग की सामग्री पाता है। बड़े बूढ़ों की सेवा करने से उसको उत्तम बुद्धि प्राप्त होती है और अहिंसा-धर्म के पालन से वह दीर्घजीवी होता है। इसलिए मनुष्य को चाहिए कि स्वयं दान दे, दूसरों से याचना न करे, धर्मनिष्ठ पुरुषों की पूजा करे, मीठे वचन बोले, सबका भला करे, शान्तभाव से रहे और किसी भी प्राणी की हिंसा न करे।
युधिष्ठिर ! डाँस, कीड़े और चींटी आदि जीवों को उन-उन योनियों में उत्पन्न करके सुख-दुःख की प्राप्ति कराने में उनका अपना किया हुआ कर्म ही कारण है, यह सोचकर अपनी बुद्धि को स्थिर करो और सत्कर्म में लग जाओ।
मनुष्य जो शुभ तथा अशुभ कर्म करता है और दूसरों से कराता है, उन दोनों प्रकार के कर्मों में से शुभ कर्म का अनुष्ठान करके तो उसे प्रसन्न होना चाहिए और अशुभ कर्म हो जाने पर उससे किसी अच्छे फल की आशा नहीं रखनी चाहिए। जब धर्म का फल देखकर मनुष्य की बुद्धि में धर्म की श्रेष्ठता का निश्चय हो जाता है, तभी उसका धर्म के प्रति विश्वास बढ़ता है और तभी उसका मन धर्म में लगता है। जब तक धर्म में बुद्धि दृढ़ नहीं होती, तब तक कोई उसके फल पर विश्वास नहीं करता है।
प्राणियों की बुद्धिमत्ता की यही पहचान है कि वे धर्म के फल में विश्वास करके उसके आचरण में लग जायें। जिसे कर्तव्य और अकर्तव्य दोनों का ज्ञान है, उस पुरुष को एकाग्रचित्त होकर धर्म का आचरण करना चाहिए। जो अतुल ऐश्वर्य के स्वामी हैं, वे यह सोचकर कि कहीं रजोगुणी होकर हम पुनः जन्म-मृत्यु के चक्कर में न पड़ जायें, धर्म का अनुष्ठान करते हैं और इस प्रकार अपने ही प्रयत्न से आत्मा को महत् पद की प्राप्ति कराते हैं।
काल किसी तरह धर्म को अधर्म नहीं बना सकता अर्थात् धर्म करने वाले को दुःख नहीं देता, इसलिए धर्मात्मा पुरुष को विशुद्ध आत्मा ही समझना चाहिए। धर्म का स्वरूप प्रज्वलित अग्नि के समान तेजस्वी है। काल उसकी सब ओर से रक्षा करता है। अतः अधर्म में इतनी शक्ति नहीं है कि वह धर्म को छू भी सके। विशुद्धि और पाप के स्पर्श के अभाव – ये दोनों धर्म के कार्य हैं। धर्म विजय की प्राप्ति कराने वाला और तीनों लोकों में प्रकाश फैलाने वाला है।
अतः मंगल चाहने वाले, भविष्य उज्जवल चाहने वालों को प्रयत्नपूर्वक दान, संयम, सुमिरन, जीवों पर दया, सत्संग आदि धर्म-कार्यों में लगे रहना चाहिए। उनका शुभ फल परिपाक होने पर अवश्य मिलता है।
स्रोतः ऋषि प्रसाद, अगस्त 2002, पृष्ठ संख्या 13,14 अंक 116
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