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अध्यात्मज्ञान का नित्य अभ्यास करें….


संत श्री आसाराम जी बापू के सत्संग-प्रवचन से

अध्यात्मज्ञाननित्यत्वं तत्त्वज्ञानार्थदर्शनम्।

एतज्ज्ञानमिति प्रोक्तमज्ञानं यदतोऽन्यथा।।

‘अध्यात्मज्ञान में नित्य स्थिति और तत्त्वज्ञान के अर्थरूप परमात्मा को ही देखना-यह सब ज्ञान है और जो इससे विपरीत है, वह अज्ञान है- ऐसा कहा है।’ भगवद्गीताः 13.11

संसार में जितने भी दुःख हैं, सब आत्मा के अज्ञान के कारण हैं, अध्यात्मज्ञान की कमी के कारण हैं। अध्यात्मज्ञान का आदर न करना ही सब दुःखों का मूल है। अतः जो सदा के लिए सब दुःख मिटाना चाहता है, उन्नति की पराकाष्ठा पर पहुँचना चाहता है और अपना मानव-जीवन सफल करना चाहता है उसे नित्य, निरंतर अध्यात्मज्ञान में निमग्न रहना चाहिए।

समर्थ रामदासजी ने कहा है- ‘भैंस के सींग पर राई का दाना जितनी देर ठहर जाय, उतनी देर भी मन अगर अध्यात्मज्ञान से रहित हो जाता है तो पतन होने की सम्भावना रहती है।’

भगवान कहते हैं- अध्यात्मज्ञाननित्यत्वं ……

अध्यात्मज्ञान और लौकिक ज्ञान में फर्क है। अध्यात्मज्ञान है अपने-आपका ज्ञान और लौकिक ज्ञान है इधर-उधर का ज्ञान। इधर-उधर का ज्ञान तो ढेर सारा है किन्तु अपने-आपके ज्ञान की कमी है, अपने-आपको पता नहीं है। शरीर के सभी अवयवों का ज्ञान डॉक्टरों को भले रखें, लोहे-लकड़ी, ईंट-चूने का ज्ञान भले इंजीनियर के पास हो, राजनीति का ज्ञान राजनेता भले रखें परन्तु जब तक अपने आपका ज्ञान नहीं है तब तक दुनियाभर का सब ज्ञान मिलने पर भी सच्चा सुख मिलना संभव नहीं, सच्चा जीवन जीना संभव नहीं।

अतः अध्यात्मज्ञान का नित्य अभ्यास करें। अध्यात्मज्ञान में नित्य, निरंतर रत रहें और सर्वत्र, सब की गहराई में जो सत्-चित्-आनंदस्वरूप परमात्मा है उसको देखने की सावधानी रखें। जैसे पंखा अलग है, टयूबलाइट अलग है, बल्ब अलग है, टी.वी. अलग है, फ्रिज अलग है, हीटर अलग है फिर भी तत्त्वरूप से सत्ता सबमें विद्युत की है, ऐसे ही गाय घोड़े आदि पशुओं में, पक्षियों में, मनुष्यों में, सबमें नेत्रों के द्वारा सुनने की सत्ता उस परमेश्वर की है, कानों के द्वारा सुनने की सत्ता उस परमेश्वर की है, नाक के द्वारा सूँघने की सत्ता भी उस सच्चिदानंद की है। उस सच्चिदानंदस्वरूप को सबमें देखने का नित्य अभ्यास करें। नित्य इस अध्यात्मज्ञान में स्थित रहें और तत्त्वज्ञान के अर्थरूप उस परमात्मा को सर्वत्र देखें। यही ज्ञान है, यही ज्ञान का सदुपयोग है और इसके विपरीत जो है वह अज्ञान है।

‘मैं और मेरा… तू और तेरा… यह अच्छा है… यह बुरा है… यह ब्राह्मण है… यह क्षत्रिय है… यह वैश्य है… यह शूद्र है….’ सबको भिन्न न मानकर इन सबकी गहराई में उस परमात्मा का ज्ञान रखना ही सार है, बाकी का सब व्यवहारिकता है। अध्यात्मज्ञान प्रगाढ़ होता है तो बुद्धि विशाल होती है और अल्प होता है तो बुद्धि संकीर्ण होती है। संकीर्ण मति में ही ‘मैं-मेरे… तू-तेरे…’ का भेद उत्पन्न होता है। जिसने ‘मेरे-तेरे’ के भेद को मिटाकर सर्वत्र एवं सदा स्थित सच्चिदानंदस्वरूप का ज्ञान प्राप्त कर लिया उसके लिए कौन अपना और कौन पराया ?

जो भगवान के पूर्ण भक्त हैं, जो तत्त्वज्ञान के अर्थरूप परमात्मा में नित्य रमण करते हैं वे महापुरुष ईश्वर के अभिन्नस्वरूप होते हैं। उनके हृदय में नित्य, निरंतर भगवद्स्मरण होता रहता है। उनके रोम-रोम से भगवद्भाव उभरता है। उनके चित्त में सच्चिदानंद परमात्मा के अनुभव की तरंगें निरंतर उभरती रहती हैं।

ऐसे महापुरुष बनने के लिए क्या करना चाहिए ?

श्री रामानुजाचार्य ने कुछ उपाय बताये हैं, जिनका आश्रय लेने से साधक सिद्ध बन सकता है। वे उपाय हैं।

विवेक- आत्मा अविनाशी है, जगत विनाशी है। देह हाड़-मांस का पिंजर है, आत्मा अमर है। शरीर के साथ आत्मा का कतई सम्बन्ध नहीं है और वह आत्मा ही परमात्मा है। इस प्रकार का तीव्र विवेक रखें।

विमुखता– जिन वस्तुओं, व्यसनों को ईश्वर-प्राप्ति के लिए त्याग दिया फिर उनकी ओर न देखें, उनसे विमुख हो जायें। घर का त्याग कर दिया तो फिर उस ओर मुड़-मुड़कर न देखें। व्यसन छोड़ दिये तो फिर दुबारा न करें। जैसे कोई वमन करता है तो वह पुनः उस वमन को चाटने नहीं जाता, ऐसे ही ईश्वर-प्राप्ति में जो विघ्न डालने वाले कर्म हैं उन्हें एक बार छोड़ दिया तो उन कर्मों को फिर दुबारा न करें।

अभ्यास– भगवान के नाम-जप का भगवान के ध्यान का, सत्संग में जो ज्ञान सुना है उसका नित्य, निरंतर अभ्यास करें।

कल्याण- जो अपना कल्याण चाहता है वह औरों का कल्याण करे। निष्काम भाव से औरों की सेवा करें।

भगवद्प्राप्तिजन्य क्रिया- जो कार्य तन से करें उनमें भी भगवद्प्राप्ति का भाव हो, जो विचार मन से करें उनमें भी भगवद्प्राप्ति का भाव हो और जो निश्चय बुद्धि से करें उन्हें भी भगवद्प्राप्ति के लिए करें।

अनवसाद- बहुत दुःखी न हों। कोई भी दुःखद घटना घट जाये तो उसे बार-बार याद करके दुःखी न हों।

अनुहर्षात्- किसी भी सुखद घटना में हर्ष से फूलें नहीं।

जो साधक इन सात उपायों को अपनाता है वह सिद्धि को प्राप्त हो जाता है।

है तो सबके चित्त में अनन्त ब्रह्माण्डनायक परमात्म की सत्ता और शक्ति किन्तु बाहर का, ‘मेरे-तेरे’ का चिन्तन करके चित्त अध्यात्मज्ञान से रहित होकर अज्ञान में भटकने लगता है और स्थूल हो जाता है। जैसे, पानी वाष्प के रूप में होता है तो उसको रोकना मुश्किल होता है लेकिन शीतगृह (Cold Storage) में रखो तो बर्फ बन जाता है, फिर उसे हटाना भी भारी पड़ता है। ऐसे ही मानव है तो सच्चिदानंदस्वरूप आत्मा लेकिन मन, बुद्धि और इन्द्रियों में, फिर धीरे-धीरे शरीर की स्थूलता में आ गया तो वह लाचार हो गया। वह अगर शरीर में रहते हुए भी चित्त का परमात्मा के चिंतन मनन में लगाये, सात्त्विक आहार विहार करे, जप ध्यान करे तो मन-बुद्धि धीरे-धीरे सूक्ष्म होने लगती है और साधक परम सूक्ष्म परमात्मा को पाने में सफल हो सकता है।

…किन्तु इस सब साधनों में भी सातत्य चाहिए। ऐसा नहीं कि जप-ध्यान तो किया किन्तु जैसा-तैसा खा-पी लिया, जहाँ तहाँ स्पर्श कर लिया, जैसा तैसा बोल दिया। इससे साधनों के पालन से जो धारणाशक्ति बनती है वह बिखर जाती है। इसमें ज्यादा समय चला जाता है। अतः सातत्य चाहिए। जो साधक लगातार सात दिन तक मौन मंदिर में रहते हैं, उन्हें जो लाभ होता है उसे वे जिंदगी भर याद रखते हैं क्योंकि वहाँ कोई दुःखद, भोगों में भटकाने वाला वातावरण नहीं होता अपितु सुखद परमात्मप्रेम में प्रवेश करने वाला पावन प्रभुमय वातावरण होता है, जिससे साधक को दिव्य अनुभव होते हैं।

यह दिव्यता और आनंद आपके ही भीतर छुपा हुआ है। ज्यों-ज्यों चित्त सूक्ष्म होता जाता है, पवित्र होता जाता है, त्यों-त्यों दिव्यता उभरने लगती है, निर्मलता का एहसास होने लगता है और,

निर्मल मन जन सो मोहि पावा….

जिसका मन निर्मल है, भाव निर्मल है, कर्म निर्मल है, उद्देश्य निर्मल है वह परम निर्मलस्वरूप परमात्मा को पाने में भी सफल हो जाता है।

जगत के भोग भोगना यह मलिन उद्देश्य है और परमात्मसुख पाना यह निर्मल उद्देश्य है। जगत के ‘तेरे-मेरे’ के ज्ञान को दिमाग में भरना यह तुच्छ उद्देश्य है और अंतःकरण में परमात्मज्ञान को भरना यह निर्मल उद्देश्य है। जगत के भोगों की आकांक्षा करना यह मलिन उद्देश्य है और जगदीश्वर की प्राप्ति की आकांक्षा करना यह निर्मल उद्देश्य है।

जिसके जीवन में इस प्रकार का विवेक होता है वह थोड़े ही समय में परमात्मसुख, परमात्म-सामर्थ्य और परमानंद पाकर सब दुःखों और कर्मबन्धनों से सदा के लिए छूट जाता है।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, मार्च 2002, पृष्ठ संख्या 2-4, अंक 111

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हिन्दुत्व की बात करना साम्प्रदायिकता कैसे ?


हमारी आर्य संस्कृति एक दिव्य संस्कृति है। इसमें प्राणिमात्र के हित की भावना है। हिन्दुत्व को साम्प्रदायिक कहने वालों को यह समझ लेना चाहिए कि हिन्दुत्व अन्य मत पंथों की तरह मारकाट करके अपनी साम्राज्यवादी लिप्सा की पूर्ति हेतु किसी व्यक्ति विशेष द्वारा निर्मित नहीं है तथा अन्य तथाकथित शांतिस्थापक मतों की तरह हिन्दू धर्म ने यह कभी नहीं कहा कि जो हिन्दू नहीं है उसे देखते ही मार डालो और मंदिरों के अलावा सारे पूजास्थलों को नष्ट कर दो। जो हिन्दू बनेगा उसकी का उद्धार होगा दूसरे का नहीं। ऐसी बेहूदी बातें हिन्दू धर्म एवं समाज ने कभी भी स्वीकार नहीं की। फिर भी हिन्दुत्व की बात करने को साम्प्रदायिकता कहना कितना बड़ा पाप है !

हिन्दुत्व एक व्यवस्था है मानव में महामानव और महामानव में महेश्वर को प्रगट करने की। यह द्विपादपशु सदृश उच्छृंखल व्यक्ति को देवता बनाने वाली एक महान परम्परा है। ‘सर्वे भवन्तु सुखिनः’ का उद्घोष केवल इसी संस्कृति के द्वारा किया गया है…..

विश्व की सबसे प्राचीन सभ्यता भारत में ही मिली है। संसार का सबसे पुराना इतिहास भी यहीं पर उपलब्ध है। हमारे ऋषियों ने उच्छृंखल यूरोपियों के जंगली पूर्वजों को मनुष्यत्व एवं सामाजिक परिवेश प्रदान किया, इस बात के लाखों ऐतिहासिक प्रमाण आज भी उपलब्ध हैं।

यूनान के प्राचीन इतिहास का दावा है कि भारतवासी वहाँ जाकर बसे तथा वहाँ उन्होंने विद्या का खूब प्रचार किया। यूनान के विश्वप्रसिद्ध दर्शनशास्त्र का मूल भारतीय वेदान्त दर्शन ही है।

यूनान के प्रसिद्ध विद्वान एरियन ने लिखा हैः ‘जो लोग भारत से आकर यहाँ बसे थे, वे कैसे थे ? वे देवताओं के वंशज थे, उनके पास विपुल सोना था। वे रेशम के दुशाले ओढ़ते थे और बहुमूल्य रत्नों के हार पहनते थे।’

एरियन भारतीयों के ज्ञान, चरित्र एवं उज्ज्वल-तेजस्वी जीवन के कारण उन्हें देवताओं के वंशज कहता है। यहाँ पर उसने भारतीयों के आध्यात्मिक एवं भौतिक विकास को स्पष्ट किया है।

विश्व का आदिग्रंथ ‘ऋग्वेद’ हमारे ऋषियों की ही देन है। संसार की जिस अनादिकालीन व्यवस्था को आज के बुद्धिहीन लोग संप्रदाय की दृष्टि से देखते हैं, उसी व्यवस्था से अध्यात्म का उदय हुआ है। विशुद्ध अध्यात्म विद्या के द्वारा भगवद्प्राप्ति का मार्ग इसी ने बताया जबकि यूरोप और अरब में धर्म के नाम पर हिंसा, लूट, बलात्कार जैसे पाशविक कृत्यों को ही बढ़ावा मिला, यह बात उनके इतिहास एवं धर्मग्रंथों से स्पष्ट हो जाती है।

सैमुअल जानसन के अनुसारः ‘हिन्दू लोग धार्मिक, प्रसन्नचित्त, न्यायप्रिय, सत्यभाषी, दयालु, कृतज्ञ, ईश्वरभक्त तथा भावनाशील होते हैं। ये विशेषताएँ उन्हें सांस्कृतिक विरासत के रूप में मिली हैं।’

यही तो है वह आदर्श जीवनशैली जिसने समस्त संसार को सभ्य बनाया और आज भी विलक्षण आत्ममहिमा की ओर दृष्टि, जीते जी जीवनमुक्ति, शरीर बदलने व जीवन बदलने पर भी अबदल आत्मा की प्राप्ति तथा ऊँचे शाश्वत मूल्यों को बनाये रखने की व्यवस्था इसमें विराजमान है। यदि हिन्दू समाज में कहीं पर इन गुणों का अभाव भी है तो उसका एकमात्र कारण है धर्मनिरपेक्षता के भूत का कुप्रभाव। जब इस आदर्श सभ्यता को साम्प्रदायिकता का नाम दिया जाने लगा तथा कमजोर मन-बुद्धिवाले लोग इससे सहमत होने लगे तभी इन आदर्शों की हिन्दू समाज में कमी होने लगी और पश्चिमी पशुता ने अपने पैर जमा लिये। यह एक ऐतिहासिक सत्य है कि अन्य किसी भी मत-पंथ के अस्त होने से विश्वमानव की इतनी दुर्गति नहीं हुई जितनी हिन्दू धर्म की आदर्श जीवन-पद्धति को छोड़ देने से हुई।

मोहम्मद साहब से 156 वर्ष पूर्व हुए अरब के जिर्रहम बिन्तोई नामक प्रसिद्ध कवि की एक कविता इस बात का ऐतिहासिक प्रमाण है। भारतीय इतिहास के अनुसार भारत के सम्राट विक्रमादित्य ने सम्पूर्ण अरब को जीतकर अपने साम्राज्य में मिलाया था। सम्राट विक्रमादित्य के शासन से पूर्व और उसके बाद की स्थिति का वर्णन हम वहाँ के विख्यात कवि की रचना में ही देखें तो अच्छा है। अरबी भाषा में लिखी उस कविता का अर्थ इस प्रकार हैः

‘वे अत्यन्त भाग्यशाली लोग हैं जो सम्राट विक्रमादित्य के शासनकाल में जन्मे। अपनी प्रजा के कल्याण में रत वह एक कर्तव्यनिष्ठ, दयालु एवं नेक राजा था। किन्तु उस समय खुदा को भूले हुए हम लोग (अरबवासी) इन्द्रिय विषय-वासनाओं में डूबे हुए थे, षड्यंत्र और अत्याचार करना खूब प्रचलित था। हमारे देश को अज्ञान के अंधकार ने घेर रखा था। ….अपने ही अज्ञान के कारण हम शांतिपूर्ण और व्यवस्थित जीवन से भटक गये थे। किन्तु शिक्षा का वर्त्तमान ऊषाकाल एवं सुखद सूर्यप्रकाश उस नेक चरित्र सम्राट विक्रम की कृपालुता का परिणाम है। उसका दयामय जीवन विदेशी होने पर भी हमारी उपेक्षा नहीं कर पाया। उसने अपना पवित्र धर्म हम लोगों में फैलाया (धर्म का प्रचार किया धर्मान्तरण नहीं)। उसने अपने देश से विद्वान लोग भेजे जिनकी प्रतिमा सूर्य के प्रकाश सदृश हमारे देश में चमकी। उन विद्वान और दूरद्रष्टा लोगों की दयालुता एवं कृपा से हम फिर एक बार खुदा के अस्तित्व को अनुभव करने लगे और सत्य के मार्ग पर चलने लगे। वे हमें शिक्षा देने के लिए महाराज विक्रमादित्य के आदेश पर ही यहाँ आये थे।’

(संदर्भः भारतीय इतिहास की भयंकर भूलें, पी.एन.ओक)

सम्राट विक्रमादित्य के शासन ने अरब की कायापलट कर दी, हिंसा, षड्यंत्र एवं अत्याचारों की धरा पर स्वर्ग लाकर रख दिया परंतु अरब से आये मुगल शासकों ने भारत में काम किया ? अँग्रेजों ने भारत में आकर यहाँ की जनता के साथ कैसा व्यवहार किया ? यदि पत्थरदिल व्यक्ति भी उस इतिहास को पढ़े तो वह भी पीड़ा से तड़प उठेगा।

बस, यही तो अंतर है हिन्दुत्व तथा अन्य सम्प्रदायों में। इतना बड़ा अंतर होने पर भी हिन्दुत्व को अन्य सम्प्रदायों के साथ रखा जाना बहुत बड़ी मूर्खता है।

भारतीय संस्कृति के प्रति विश्वभर के महान विद्वान की अगाध श्रद्धा अकारण नहीं रही है। इस संस्कृति की उस आदर्श आचार संहिता ने समस्त वसुधा को आध्यात्मिक एवं भौतिक उन्नति से पूर्ण किया, जिसे हिन्दुत्व के नाम से जाना  जाता है।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, फरवरी 2002, पृष्ठ संख्या 25,26 अंक 110

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सम्राट अशोक की सेवापरायणता


संत श्री आशाराम जी बापू के सत्संग प्रवचन से

सम्राट अशोक के राज्य में अकाल पड़ा। सम्राट ने राज्य में कई सदाव्रत खुलवा दिये ताकि प्रजा में जिनकी आर्थिक स्थिति ठीक न हो वे अपने लिए निःशुल्क सीधा-सामान ले जायें।

एक दिन सदाव्रत में लंबी कतार पूरी होने पर शरीर से दुर्बल एवं वृद्ध व्यक्ति आया। सदाव्रतवालों ने कहाः “अब हम सदाव्रत बंद कर रहे हैं। कल आना।”

इतने में एक युवक ने आकर कहाः “लंबी कतार में खड़े रहने की शक्ति न होने से यह वृद्ध छाया में दूर बैठा था। तुम इसको सीधा-सामान दे दो तो अच्छा होगा।”

युवक की प्रभावशाली वाणी सुनकर सदाव्रतवालों ने उस वृद्ध को सीधा-सामान दे दिया। पाँच-दस सेर जितना आटा, दाल, चावल आदि सामान की गठरी बाँधकर वह वृद्ध कैसे ले जाता ? उस युवक ने गठरी बाँधी और अपने सिर पर रख ली एवं वृद्ध के साथ चलने लगा।

दोनों कुछ आगे बढ़े होंगे कि इतने में सामने से सेना की एक टुकड़ी आयी। टुकड़ी के नायक ने घोड़े से उतरकर वृद्ध के साथ चल रहे युवक का अभिवादन किया। यह देखकर वृद्ध चौंक उठा और सोचने लगा कि ‘यह युवक कौन है ?’ युवक ने टुकड़ी के नायक को संकेत से अपना परिचय देने के लिए मना कर दिया।

वह वृद्ध भी अनुभवसम्पन्न था, जमाने का खाया हुआ था। वह समझ गया कि मेरे साथ जो युवक है वह कोई साधारण आदमी नहीं है। अतः उसने स्वयं ही युवक से परिचय पूछाः

“युवक तुम कौन हो ?”

युवकः “आप  वृद्ध हैं और मैं युवक हूँ। आपका शरीर दुर्बल है और मेरे शरीर में बल है। मुझे सेवा का अवसर मिला है। उसका लाभ उठा रहा हूँ। बस, इतना ही परिचय काफी है।”

लेकिन वह वृद्ध भला कैसे चुप रहता ? उस युवक को एकटक देखते-देखते उसने युवक का हाथ पकड़ लिया और अधिकारपूर्वक वाणी में कहाः “तुम और कोई नहीं वरन् इस देश के सम्राट अशोक हो न !” सम्राट अशोक ने हाँ भर दी।

जो निष्काम कर्म करते हैं और यश नहीं चाहते, यश-कीर्ति तो उनके इर्द-गिर्द ही मँडराती रहती है। इसलिए सेवा, विनम्रता, दया और करुणा जैसे सदगुणों को अपनाकर अपना जीवन तो उन्नत करना ही चाहिए एवं औरों के लिए भी आपका जीवन पथ-प्रदर्शक बन सके – ऐसा प्रयास करना चाहिए।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, फरवरी 2002, पृष्ठ संख्या 17, अंक 110

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