Yearly Archives: 2002

महत्त्वपूर्ण छः बातें


संत श्री आसारामजी बापू के सत्संग-प्रवचन से

कई लोग कहते हैं कि माला करते-करते नींद आने लगती है तो क्या करें ? सतत माला नहीं होती तो आप सेवा करें, सत्शास्त्र पढ़ें।  मन बहुआयामी है तो उसको बहुत प्रकार की युक्तियों से सम्भाल के चलाना चाहिए। कभी जप किया, कभी ध्यान किया, कभी स्मरण किया, कभी सेवा की इस प्रकार की सत्प्रवृत्तियों में मन को लगाये रखना चाहिए।

साधक यदि कुछ बातों को अपनाये तो साधना में बहुत जल्दी प्रगति कर सकता है।

पहली बात है – व्यर्थ की बातों में समय न गवाये। व्यर्थ की बातें करेंगे, सुनेंगे तो जगत की सत्यता दृढ़ होगी जिससे राग-द्वेष की वृद्धि होगी और राग-द्वेष से चित्त मलिन होगा। अतः राग-द्वेष से प्रेरित होकर कर्म न करें।

सेवाकार्य तो करें लेकिन राग-द्वेष से प्रेरित होकर नहीं, अपितु दूसरे को मान देकर, दूसरे को विश्वास में लेकर सेवाकार्य करने से सेवा भी अच्छी तरह से होती है और साधक की योग्यता भी निखरती है। भगवान श्रीरामचन्द्रजी औरों को मान देते और आप अमानी रहते थे। राग-द्वेष में शक्ति का व्यय न हो इसकी सावधानी रखते थे।

दूसरी बात है – अपना उद्देश्य ऊँचा रखें। भगवान शंकर के श्वसुर दक्ष प्रजापति को देवता लोग तक नमस्कार करते थे। ऋषि-मुनि भी उनकी प्रशंसा करते थे। सब लोकपालों में वे वरिष्ठ थे। एक बार देवताओं की सभा में दक्ष प्रजापति के जाने पर अन्य देवों ने खड़े होकर उनका सम्मान किया लेकिन शिवजी उठकर खड़े नहीं हुए तो दक्ष को बुरा लग गया कि दामाद होने पर भी शिवजी ने उनका सम्मान क्यों नहीं किया ?

इस बात से नाराज हो शिवजी को नीचा दिखाने के लिए दक्ष प्रजापति ने यज्ञ करवाया। यज्ञ में अन्य सब देवताओं के लिए आसन रखे गये लेकिन शिवजी के लिए कोई आसन न रखा गया। यज्ञ करना तो बढ़िया है लेकिन यज्ञ का उद्देश्य शिवजी को नीचा दिखाने का था तो उस यज्ञ का ध्वंस हुआ एवं दक्ष प्रजापति की गरदन कटी। बाद में शिवजी की कृपा से बकरे की गरदन उनको लगाई गयी।

अतः अपना उद्देश्य सदैव ऊँचा रखें।

तीसरी बात है – जो कार्य करें उसे कुशलता से पूर्ण करें। ऐसा नहीं कि कोई विघ्न आया और काम छोड़ दिया। यह कायरता नहीं होनी चाहिए। योगः कर्मसु कौशलम्। यही वही है जो कर्म से कुशलता लाये।

चौथी बात है – कर्म तो करें लेकिन कर्त्तापने का गर्व न आये और लापरवाही से कर्म बिगड़े नहीं, इसकी सावधानी रखें। सबके भीतर बहुत सारी ईश्वरीय संपदा है। उस संपदा को पाने के लिए सावधान रहना चाहिए, सतर्क रहना चाहिए।

पाँचवीं बात है – जीवन में केवल ईश्वर को महत्त्व दें। सबमें कुछ न कुछ गुण-दोष होते ही हैं। ज्यों-ज्यों साधक संसार को महत्त्व देगा त्यों-त्यों दोष बढ़ते जायेंगे और ज्यों-ज्यों ईश्वर को महत्त्व देगा त्यों-त्यों सदगुण बढ़ते जायेंगे।

छठी बात है – साधक का व्यवहार पवित्र होना चाहिए, हृदय पवित्र होना चाहिए। लोगों के लिए उसका जीवन ही आदर्श बन जाये, ऐसा पवित्र उसका आचरण होना चाहिए।

इन छः बातों को अपने जीवन में अपनाकर साधक अपने लक्ष्य को पाने में अवश्य कामयाब हो सकता है। अतः लक्ष्य ऊँचा हो। मुख्य कार्य और अवान्तर कार्य भी उसके अनुरूप हों।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, फरवरी 2002, पृष्ठ संख्या 10, अंक 110

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परमात्म-प्राप्ति के सोपान


संत श्री आशाराम जी बापू के सत्संग-प्रवचन से

परमात्मा अच्छे हैं… दयालु हैं…. कृपालु हैं…. वास्तव में ऐसा कहनी भी अपनी बालबुद्धि का परिचय है। परमात्मा के विषय में जो लोग शेखी बघारते हैं, वे समझो, परमात्मा को गाली ही देते हैं, लेकिन ये तोतली भाषा की मीठी गालियाँ हैं, इनसे ईश्वर को मजा आता होगा।

जैसे, कोई अपने करोड़पति पिता को बोलेः “पिता जी ! आपके पास तो बहुत सारे रुपये हैं। आप तो तीन हजार रुपये के मालिक हैं।”

पिता भी कह देता हैः “हाँ, बेटा ! ठीक है।”

ऐसे ही लोग भगवान को कह देते हैं कि ‘भगवान ! आप तो त्रिलोकीनाथ हैं। आप तो चौदह भुवनों के स्वामी हैं।’

अरे ! क्या आपको पता है कि आपके शरीर में कितने जीवाणु (बैक्टीरिया) हैं ? नहीं, ऐसे ही सृष्टिकर्ता ईश्वर को भी पता नहीं है कि कितनी सृष्टियाँ हैं मेरे में।

यहाँ कोई संदेह कर सकता है कि ‘ईश्वर तो सर्वान्तर्यामी हैं फिर भी उनको पता नहीं ?’ जैसे आप अपने पूरे शरीर को जानते हो – पैर पर चींटी चले, नाक पर मच्छर काटे और कान पर मक्खी बैठे तो आपको एक साथ अनुभव होगा कि क्रमशः होगा ? एक साथ अनुभव होगा। आप सारे शरीर में सर्वव्यापी हो फिर भी शरीर में कितने जीवाणु (बैक्टीरिया) हैं आप गिनकर नहीं बता सकते। ऐसे ही ईश्वर में कितनी सृष्टियाँ हैं, वह ईश्वर को भी पता नहीं है। जब ईश्वर को ही पता नहीं तो आपको-हमको कैसे पता चलेगा ?

कई कोट पाताल के वासी।

कई कोट जतींदर जोगी।

कई कोट ब्रह्मरस भोगी।।

कई करोड़ ब्रह्मज्ञानी हो गये। भले इस लोक में ही या अन्य लोक में। वे ब्रह्मज्ञान की चर्चा करते-करते ब्रह्मरस का पान करते हैं।

ब्रह्म परमात्मा की चर्चा हो रही है, यह भी तो ब्रह्मरस है। बिना वस्तु, बिना व्यक्ति, बिना सुविधा के भी अंदर का रस आ रहा है – यह ब्रह्मरस है, परमात्म-रस है।

विषय विकारों का जो रस होता है, वह संसार में गिराता है।  ध्यान का रस है शांत रस, जो सामर्थ्य बढ़ाता है। भगवद् रस भाव को बढ़ाता है और तत्त्वज्ञान का रस नित्य एकरस रहता है। जीवनमुक्ति रस नित्य नवीन रस है। जिसने इस रस को पाया है उसका फिर पुनर्जन्म नहीं होता है।

लोगों का भगवान उनका माना हुआ भगवान है क्योंकि लोगों को भगवत्स्वरूप का ज्ञान नहीं है।

जो भगवान सदा है, वह सर्वत्र भी है। जो सर्वत्र है, वह सबमें है। जो सबमें है वह हममें भी है। जो कभी है और कभी नहीं हैं, वे भगवान नहीं हो सकते। जो कहीं हैं और कहीं नहीं हैं, वे भगवान नहीं हो सकते हैं। भगवान के रूपविशेष हो सकते हैं।

परब्रह्म परमेश्वर तो सारे संसार में व्याप्त हैं। किसी व्यक्ति ने महात्मा से पूछाः “महाराज ! सर्वत्र भगवान हैं ?”

महात्माः “हाँ।”

व्यक्तिः “महाराज ! आप पक्का कहते हैं ?”

महात्माः “अरे, पक्का नहीं तो कच्चा है क्या ?”

व्यक्तिः “महाराज ! आपको मिले हैं ?”

महात्माः “हाँ।”

व्यक्तिः “आपको सर्वत्र दिखते हैं ?”

महात्माः “हाँ।”

व्यक्तिः “महाराज ! फिर हम लोगों को क्यों नहीं दिखते ?”

महात्माः “मुफ्त में सवाल का जवाब पूछेगा ? कुछ सेवा वगैरह भी कर, दूध तो पिला।”

वह व्यक्ति कटोरा भर कर दूध ले आया और बोलाः “लीजिये, महाराज !”

महाराज ने पूछाः “दूध में मक्खन होता है और दूध से ही घी निकलता है न ?”

व्यक्तिः “हाँ, महाराज !”

महात्माः “दूध में ही घी अथवा मक्खन व्याप्त है न ?”

व्यक्तिः “हाँ, महाराज !”

महाराज ने दूध में उँगली घुमाते हुए कहाः “झूठ बोलता है। कहाँ व्याप्त है ?”

व्यक्तिः “महाराज ! व्याप्त है लेकिन दिखता नहीं है। देखने के लिए पहले दूध को गरम करना पड़ेगा, फिर इसमें दही डालकर जमाना पड़ेगा, फिर इसे मथना पड़ेगा। उसके बाद मक्खन निकलेगा।”

महात्माः “बस, ऐसे ही परमेश्वर सर्वत्र है। पहले संयम आदि करके अपने हृदय को, अपने अंतःकरण को शुद्ध करो। फिर ध्यान करके इसमें परमात्मभाव को, ज्ञान को जमाओ। फिर आत्मविचार करके अनात्मा को छोड़ते जाओ और आत्मा को, ‘अहं ब्रह्मास्मि’ को समझते जाओ तो परमात्म-प्राप्तिरूपी मक्खन तैयार ! तब सर्वत्र व्याप्त परमेश्वर के दर्शन हो सकते हैं। दूध पीना नहीं था, केवल तुझे समझाना था। जा, दूध ले जा। जैसे दूध में मक्खन व्याप्त है, वैसे ही सर्वत्र परमेश्वर व्याप्त है।”

उस सर्वत्र व्याप्त परमेश्वर को जानने के लिए सोपान हैं-

पुराने संस्कारों के आकर्षणों को निकालना। मनुष्य को चाहिए कि अपने पुराने दोषों को निकालने का यत्न करे। पुरानी वासना के अनुसार जो मन बह रहा है उसको ईश्वर की ओर मोड़े।

गुणों का आदान करना। भगवान सर्वगुण-सम्पन्न हैं। किसी में बुद्धि की कुशलता है। किसी में बल की प्रधानता है। किसी में समता का गुण। किसी में सत्य का गुण है। किसी में स्मृति निखरी है। किसी में निर्भयता निखरी है। ये जो सारी निखारें हैं वे उस परब्रह्म परमात्मा की ही सत्ता की किरणें हैं।

अपने चित्त में गुणनिधि परमेश्वर हैं। उनका जो गुण अपने में निखरा है, उस गुण को निखारते-निखारते गुण के मूल (परमेश्वर) को धन्यवाद देना चाहिए, उन्हीमें विश्रांति पानी चाहिए। जैसे श्रीकृष्णावतार में प्रेम-गुण का निखार है, श्रीरामावतार में सत्य-गुण का विशेष निखार है, कपिलावतार में आत्मज्ञान का विशेष निखार है तथा नृसिंहावतार और परशुराम अवतार में बल के गुण का निखार है।

ऐसे ही अपने जीवन में भी किसी न किसी गुण का निखार होता ही है। किसी में श्रद्धा के गुण का निखार है, किसी में समता का निखार है तो किसी के जीवन में एक दूसरे में सुलह कराने का, शांति स्थापित करने के गुण का निखार है। श्रद्धा, शांति, प्रेम, समता, निर्भयता आदि जो भी सदगुण हैं वे सारे सदगुण सत्यस्वरूप ईश्वर के ही हैं।

अपने जीवन में भी कोई न कोई विशेष गुण आपको मिलेगा। जो कुछ विशेषता है वह उस सच्चिदानंद की विशेष किरण है। सब लोगों की विशेषता अपने में न भरो तो कोई बात नहीं लेकिन अपनी विशेषता को निखारते-निखारते आप उस गहराई में शांत हो सकते हो, जहाँ से वह विशेषता आती है। जैसे सूर्य की भिन्न-भिन्न किरणें सूर्य के ही आधार से दिखती हैं, वैसे ही समस्त गुणों का आधार है परमात्मा। उस गुणनिधान परमात्मा में ही विश्रांति मिले ऐसा प्रयास करना चाहिए एवं दूसरों की विशेषताओं का आदर करना चाहिए। जो दूसरों की विशेषताओं का आदर करना चाहिए। जो दूसरों की विशेषताओं का आदर नहीं करता उसमें मत्सर दोष आ जाता है। मात्सर्यवाला पुरुष दूसरे के गुणों को नहीं देख सकता है।

परमात्मा को जानने का तीसरा सोपान है-आत्मचिंतन करना। गुण-दोषमयी दृष्टि एवं पाप-पुण्य का मिश्रण लेकर मनुष्य शरीर बना है। उन पाप-पुण्यों के प्रभावों को मिटाने के लिए आत्मचिंतन करें।

आत्मचिंतन का मतलब क्या है ? जैसे यह पुष्पों की माला है तो ‘यह माला है, मैं माला नहीं हूँ। माला मुझे दिखती है तो मुझसे अलग है।’ ऐसे ही ‘यह हाथ है, मैं हाथ नहीं हूँ…. यह शरीर, मैं शरीर नहीं….. मैं मन नहीं…. मैं इन्द्रियाँ नहीं…’ इस प्रकार नहीं, नहीं करते-करते मन शांत हो जायेगा। शून्यमना हो जायेगा। ऐसी निःसंकल्प अवस्था आत्मचिंतन से प्राप्त होती है। आरम्भ में यह निःसंकल्प अवस्था भले एक सेकेण्ड के लिए हो फिर बढ़ाते-बढ़ाते दो सेकेण्ड की हो जायेगी। ऐसा करते-करते मन यदि भागने लगे तो ॐ का दीर्घ उच्चारण करें, ‘ॐ नमो भगवते वासुदेवाय’ का जप करें अथवा श्वासोच्छ्वास की गिनती करने लगें या विशाल आकाश की ओर दृष्टि करके वृत्ति व्यापक करने से मन निःसंकल्प नारायण के सुख में स्थित होने लगेगा।

इन तीन सोपानों को पार करके मनुष्य सर्वत्र व्याप्त परमात्मा का दीदार करने में सफल हो सकता है।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, फरवरी 2002, पृष्ठ संख्या 2-5, अंक 110

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तीर्थ कैसे बने ?


संत श्री आसाराम जी बापू के सत्संग-प्रवचन से

तीर्थ कैसे बने ? भगवान या भगवान के प्यारों के निवास के कारण ही तीर्थ बने हैं। जहाँ भगवान या भगवान के प्यारे संत निवास करते हैं वह भूमि तीर्थ हो जाती है।

राजा विक्रमादित्य से पूर्व अयोध्या के तीर्थ का पता नहीं था। राजा विक्रमादित्य युद्ध करके लौट रहे थे तब किसी योगी ने उन्हें बतायाः ‘यह इलाका भगवान श्रीराम के पदचिन्हों का है। विक्रमादित्य ! तुम धर्मात्मा हो, तनिक शांत होकर यहाँ बैठो। जहाँ-जहाँ तुम्हें स्फुरणा हो, वहीं-वहीं भगवान का प्रागट्य स्थल, भगवान का लीलास्थल, भगवान की पाठशाला आदि मिलेगी।’

तब विक्रमादित्य ने खोजा कि कौन सी जगह पर श्रीराम जी अवतरित हुए, किन स्थलों पर लीलाएँ की। उसके बाद अयोध्या के तीर्थ का निर्माण हुआ।

चैतन्य महाप्रभु के पहले वृन्दावन के तीर्थ का लोगों को विशेष पता नहीं था। गौरांग ने अपने शिष्यों सनातन एवं रूप गोसाईं को वहाँ भेजा। उनका हृदय शुद्ध था। उनके हृदय में जहाँ-जहाँ स्फुरण हुआ कि ‘यहाँ भगवान ने चीरहरण किया था, यहाँ मिट्टी खायी थी, यहाँ ऊखल-बंधन हुआ था, यहाँ रास हुआ था…।’ वहीं-वहीं उन तीर्थों की स्थापना हुई।

वल्लभाचार्य जी बताते हैं कि वृंदावन परसोली ग्राम के करीब था। उनका कहना भी सही है एवं चैतन्य महाप्रभु के शिष्यों का कहना भी सही है क्योंकि किसी युग में वृंदावन परसोली गाँव में था और इस युग का वृंदावन अभी जहाँ कहा गया है, वहाँ है।

आद्यशंकराचार्यजी से पहले बद्रीनाथ जी की मूर्ति का पता नहीं था। पंडितों ने उनसे प्रार्थना की तब शंकराचार्य जी ने नारद कुण्ड में गोता मारकर बद्रीनाथ जी की मूर्ति निकाली। तब बद्रीनाथजी के तीर्थ की स्थापना हुई।

जितने भी तीर्थ हैं वे सब उन्हीं महापुरुषों के तप से, प्रेरणा से बने हैं, जिन्होंने आत्मतीर्थ में गोता मारा है। इसीलिए जैनधर्म उन्हें तीर्थंकर कहता है।

आप भी अपने घर में एकाध कमरे को तीर्थ बना दें। जहाँ हरि का चिंतन होता है, जहाँ  परमात्मा का जप ध्यान होता है वह भूमि तीर्थ बन जाती है। जो हृदय हरि का चिंतन करता है वह हृदय तीर्थ हो जाता है। ऐसा तीर्थरूपी हृदय वाला साधक जिस घर में, जिस कमरे में ध्यान-भजन करता है, वह घर, वह कमरा भी तीर्थत्व को  प्राप्त हो जाता है। अतः मैं भी आपको यही शुभकामना एवं सत्प्रेरणा देना चाहता हूँ कि आप भी संतों की सीख मानकर अपने हृदयों तीर्थ बना दीजिये।

एक बार वैष्णवों और शैवों में झगड़ा हो गया। शैवों ने कहाः ‘भगवान शंकर कैलासपति हैं और यहाँ से कैलास जाया जाता है। इसीलिए इस जगह का नाम है – हरद्वार, हर+द्वार अर्थात् महादेव का द्वार।

वैष्णवों ने कहाः पागल हुए हो ? भगवान बद्रीनाथ के मंदिर में जाना हो तो यहाँ से जाया जाता है। इसलिए इस जगह का नाम है – हरिद्वार, हरि+द्वार अर्थात् विष्णु का द्वार।’

शैवः ‘चुप करो। हरिद्वार मत कहो, हरद्वार कहो।’

कभी-कभी भक्तों में अड़ियल दुनियादार भी घुस जाते हैं। किसी ने शैवों को भड़काया और किसी ने वैष्णवों को भड़काया। दोनों में झगड़ा हो गया। आखिर मुकद्दमा चला कि सरकार निर्णय करे कि ‘हरिद्वार’ है कि ‘हरद्वार’ है ?

लोगों को हुआ कि पता नहीं ब्रिटिश सरकार हिन्दू धर्म के तीर्थ के लिए क्या निर्णय करेगी ?

कई पेशियाँ पड़ीं। आखिर में अंग्रेज न्यायाधीश ने निर्णय दियाः ‘हरिद्वार भी नहीं और हरद्वार भी नहीं। यहाँ हिन्दू लोग अपने माता-पिता की हड्डियाँ डालते हैं इसलिए इसका नाम ‘हड्डीद्वार’ होगा।

यह नाम और निर्णय सरकारी फाइलों में धरा रह गया, सड़ रहा है। पक्षपाती अंग्रेज न्यायाधीश का काला मुँह करके यह आदेश फाइल में ही धरा रह गया। अभी भी लोग ‘हड्डीद्वार’ नहीं हरिद्वार या हरद्वार की कहते हैं।

कुछ बाह्यतीर्थ हैं, कुछ आभ्यांतर तीर्थ हैं। जैसे गंगाजी, यमुनाजी, गोदावरी जी आदि के तट पर स्थित जो तीर्थ हैं वे धरती के उन स्थानों पर हैं, जहाँ विशेष चैतन्य के प्रभाव के परमाणु हैं। जैसे, शरीर में कुछ अंग मलिन होते हैं और कुछ अंग उत्तम होते हैं। नीचे के अंगों पर या पैर पर हाथ लग जाये तो हाथ धोना चाहिए लेकिन ललाट पर उँगली लग गयी तो हाथ धोने की जरूरत नहीं पड़ती है। ऐसे ही पृथ्वीरूपी शरीर पर कुछ विशेष चैतन्य के प्रभाव के परमाणु हैं वे बाह्यतीर्थ कहलाते हैं।

आत्मज्ञानरूपी रस और आत्ममाधुर्यरूपी भाव में जो नहाते हैं वे तीर्थों को तीर्थत्व देने वाले होते हैं।

तीर्थीकुर्वन्ति तीर्थानि सच्छास्त्रीकुर्वन्ति शास्त्राणि।

जिन्होंने मन इन्द्रियों पर अनुशासन करके आत्मिक यात्रा की और अंदर का वैदिक अनुभव प्राप्त करके जो कुछ कहा, वही शास्त्र बन गये।

अयोध्या मथुरा माया काशी कांची ह्यवंतिका।

पुरी द्वारावती चैव सप्तैता मोक्षदायिकाः।।

इन सात स्थानों की भूमि में वे विशेष परमाणु हैं। इसीलिए वहाँ जाने वालों को थोड़ा सा ही जप तप करने से आनंद और शांति की प्राप्ति होती है। ऐसे ही जहाँ जप-तप ध्यान भजन होता है और आत्मतीर्थ में नहाये हुए कोई महापुरुष मिलते हैं तो ऐसे स्थल अंतर के तीर्थ हैं, आभ्यांतर तीर्थ हैं।

कुछ स्थावर तीर्थ होते हैं, कुछ जंगम तीर्थ होते हैं। जैसे, गंगा, यमुना ये स्थावर तीर्थ हैं। ऐसे पुरुष जो आत्मगंगा, आत्मतीर्थ में नहाते हैं जंगम तीर्थ हैं, चलते फिरते तीर्थ हैं।

कुछ लोग मानते हैं कि ‘चलो, कुंभ में गये, नहाये पुण्य हुआ… तीर्थ में गये, बढ़िया हो गया….’ यह सब ठीक है। लेकिन यदि आत्मतीर्थ में नहीं आये तो इन तीर्थों के आस-पास रहने  वालों के हाल जरा देख लो। तीर्थ में जाना पुण्यकर्म तो है लेकिन जो आत्मतीर्थ में नहीं नहाते हैं, उन्हें शास्त्र सावधान करते हैं। शास्त्र कहते हैं-

ज्ञानो अमृतो न तृप्तस्य कृतकृतश्च योगिनाः।

नैवस्ति किंचित् कर्त्तव्यस्ति चेतसा तत्परितः।।

‘जो पुरुष ज्ञानरूपी अमृत से तृप्त हैं और कृतकृत्य हैं उन्हें किंचित भी कर्त्तव्य नहीं है। यदि वे अपने में कर्त्तव्य मानते हैं तो वे तत्त्ववेत्ता नहीं हैं।’

इदं तीर्थं इदं तीर्थम् भ्राम्येति तामसाजनाः।

आत्मतीर्थम् न जानन्ति कथं मोक्ष जितयेः।।

‘कपिल गीता’ का यह श्लोक एकदम ऊँचा, तात्त्विक ज्ञान की तरफ संकेत करने  वाला है। ‘इस तीर्थ में चलो, उस तीर्थ में चलो….’ ऐसा तामसी और राजसी सुख में उलझे हुए ल ग ही बोलते हैं। इन तीर्थों में, आत्मतीर्थ में आने के लिए ही जाया जाता है।

कभी जाये केदार कभी जाये मक्के।

आत्मतीर्थ में नहीं आया तो खा ले दर-दर के धक्के।।

इदं तीर्थं इदं तीर्थं…. ‘यह तीर्थ है, वह तीर्थ है’ – ऐसा करके अज्ञानी जीव घूमते-फिरते रहते हैं क्योंकि वे आत्मतीर्थ को नहीं जानते हैं।

जिस पुरुष की अपने आत्मा में ही प्रीति है और जो अपने आत्मा में ही तृप्त हैं, संतुष्ट हैं, उनके लिए कोई कर्त्तव्य नहीं है।

लोग मृत्यु के समय काशी जाना पसंद करते हैं लेकिन आत्मतीर्थ में पहुँचे हुए कबीरजी ने कहाः

“ऐसा कहा जाता है कि मगहर में मरने वाला सुअर बनता। क्या उस स्थान का इतना प्रभाव है कि वह मेरे आत्मा-परमात्मा के आत्यंतिक सुख, आत्मज्ञान को छीन लेगा ? नहीं छीन सकता।”

कबीर जी मरने के लिए मगहर में गये। कबीर जी जैसा दृढ़ बोध जिनको हो जाता है वे ही तृप्त रहते हैं। बाकी के लोग तो कहते हैं- ‘मुझे तीर्थ में ले जाओ, मुझे गंगाजल पिलाओ।’ ऐसा कहना ठीक है, उचित है, लेकिन जिनको ब्रह्मज्ञान हो गया है वे गंगाजल पीयें यह कोई जरूरी नहीं है। वे तो जिस जल को छू दें, वही गंगाजल है और जहाँ चरण रख दें वहीं तीर्थ हैं। आत्मतीर्थ की ऐसी दिव्य महिमा है।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, फरवरी 2002, पृष्ठ संख्या 15,16 अंक 110

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