संत श्री आसाराम जी बापू के सत्संग-प्रवचन से
संत कबीर से किसी ने पूछाः
“हम निर्गुण-निराकार परमात्मा को तो नहीं देख सकते, फिर भी देखे बिना न रह जायें ऐसा कोई उपाय बताइये।”
कबीर जी ने कहाः
अलख पुरुष की आरसी, साधु का ही देह।
लखा जो चाहे अलख को, इन्हीं में तू लख लेह।।
“परमात्मा को देखने के लिए ये चर्मचक्षु काम नहीं आते। फिर भी यदि तुम परमात्मा को देखना ही चाहते हो तो जिनके हृदय में परमात्माकार वृत्ति प्रकट हुई है, जिनके हृदय में समतारूपी परमात्मा प्रकट हुए हैं, जिनके हृदय में अद्वैतज्ञानरूपी परमात्मा प्रकट हुए हैं, ऐसे हृदय वाले किन्हीं महापुरुष को तुम देख सकते हो। उनको देखते ही तुम्हें परमात्मा की याद आ जायेगी। जिनके दिलों में ईश्वर निरावरण हुआ है, ऐसे संत-महापुरुषों को तुम देख सकते हो।”
साधु का ही देह एक ऐसा दर्पण है, जिसमें तुम उस अलख पुरुष परमात्मा के दर्शन कर सकते हो। अतः यदि अलख पुरुष को देखना चाहते हो तो ऐसे किन्हीं परमात्मा के प्यारे संतों के दर्शन करने चाहिए।
शुद्ध हृदय से, ईमानदारी से उन महापुरुषों का चिंतन करके हृदय को धन्यवाद से भरते जाओगे तो तुम्हारे हृदय में परमात्मा प्रकट होने में देर नहीं लगेगी। परमात्म-प्राप्ति इतनी सरल होने पर भी लोग उसका फायदा तो नहीं उठाते हैं, वरन् संतों के बाह्य व्यवहार को देखकर अपनी क्षुद्र मति से उन्हें तौलने लगते हैं और अपनी ही हानि कर बैठते हैं।
वशिष्ठ जी महाराज भी कहते हैं कि ‘शास्त्रकर्त्ता का और लक्षण न विचारना, पर शास्त्र की युक्ति विचार देखनी है। अज्ञानी जो कुछ मुझे कहते और हँसते हैं, सो मैं सब जानता हूँ, परंतु मेरा दया का स्वभाव है इससे मैं चाहता हूँ कि किसी प्रकार वे नरकरूप संसार से निकलें। इसी कारण मैं उपदेश करता हूँ।
जिनके श्रीचरणों में अयोध्या नरेश दशरथ शीश नवाकर अपने को सौभाग्यशाली मानते हैं और श्रीराम जिनके शिष्य हैं, ऐसे गुरुवर वशिष्ठजी के लिए भी कहने वालों ने क्या-क्या नहीं कहा ? अतः यदि कोई तुम्हारे लिए भी कुछ कह दे तो चिंता मत करना वरन् उसे धन्यवाद देना।
डॉ. राजेन्द्र प्रसाद भारत के प्रथम राष्ट्रपति बने। उस समय किसी विकृत मानसिकता वालों ने एक सस्ते अख़बार में उनके विषय में कुछ का कुछ छपवाना शुरु कर दिया कि ‘वे ऐसे हैं, वैसे हैं….।’ जो कुछ भी कचरा उसके मस्तिष्क से निकलता, उसे कलम द्वारा अख़बार में छपवाता और यदि कोई अख़बार न भी लेना चाहे तो उसे जबरदस्ती पकड़ाता, मुफ्त में बँटवाता।
डॉ. राजेन्द्र प्रसाद के किसी प्रशंसक ने उन्हें वह अख़बार दिखाया, राजेन्द्र प्रसाद ने उसे फाड़कर फेंक दिया। दूसरा कोई व्यक्ति भी वह अख़बार लेकर आया तो उन्होंने उसे भी कचरा पेटी में डाल दिया। वह निंदक कुप्रचार करता ही रहा। आखिर राजेन्द्र प्रसाद के कुछ मित्रों ने कहाः
“यह व्यक्ति आपके विरूद्ध इतना कुछ लिख रहा है और आप कुछ नहीं करते ! अब तो आप राष्ट्रपति हैं, आपके पास क्या नहीं है ? आप चाहें तो उसके विरुद्ध कोई भी कदम उठा सकते हैं। आप उसे कुछ कहें, कुछ तो समझायें। न समझे तो फटकारें, परंतु कुछ तो करें।”
डॉ. राजेन्द्र प्रसाद मुस्कराते हुए बोलेः “वह मेरी बराबरी का होता तो मैं उसे जवाब देता। जो विकृत मस्तिष्क वाले होते हैं, उनके शत्रुओं की कमी नहीं होती। कभी उसकी मति भी ऐसी हो जायेगी कि उसे दूसरा कोई शत्रु मिल जायेगा और वे आपस में ही लड़ मरेंगे। लोहे से लोहा कट जायेगा।”
उन लोगों ने फिर कहाः “परन्तु वह आपके लिए इतना सारा लिखता रहता है, आपको कुछ तो जवाब देना ही चाहिए।”
डॉ. राजेन्द्र प्रसादः “इसकी कोई जरूरत नहीं है।”
राजेन्द्र प्रसाद पर तो उस निंदक के कार्यों का कोई प्रभाव नहीं पड़ा, किन्तु उनके परिचित और मित्र परेशान हो उठे। अतः पुनः बोलेः
“हम आपके पास आते जाते रहते हैं और आपकी बदनामी हो रही है तो उसका प्रभाव हमारे संबंधों पर भी पड़ रहा है। हमें भी लोग जैसा चाहे सुना देते हैं, अतः आपको कुछ तो करना ही चाहिए।”
तब राजेन्द्र प्रसाद ने एक दृष्टांत देते हुए कहाः “एक हाथी जा रहा था। उसके पीछे कुत्ते भौंकने लगे परंतु हाथी अपनी ही मस्ती में चलता रहा। हाथी हाथी से टक्कर ले तो अलग बात है। यदि हाथी कुत्तों को समझाने या चुप कराने लगे तो इसका अर्थ यह होगा कि वह कुत्तों के साथ अपनी तुलना करने लगा है और अपनी महिमा भूल गया है ! हाथी की अपनी महिमा है।”
कबीर जी ने कहा हैः
हाथी चलत है अपनी चाल में,
कुतिया भूँके वा को भूँकन दे।
मन ! तू राम सुमिरकर, जग बकवा दे।।
अपनी महिमा में मस्त रहने वाले, संत महापुरुष पर लोगों की अच्छी बुरी बातों का कोई प्रभाव नहीं पड़ता। जो संतों का आदर-पूजन और सेवा करता है, वह अपना भाग्य बना लेता है तथा संतों के दैवी अनुभव में भी भागीदार हो जाता है। परंतु जो संतों की निंदा करता है, संतों को सताता है वह अपने भाग्य पर कुठाराघात करता है। संतों की नजर में तो कोई अच्छा-कोई बुरा, कोई काला-कोई गोरा, कोई माई-कोई भाई….. ऐसा नहीं होता। संतों की नज़र में तो केवल ‘एकमेवाद्वितियोऽहम्।’ होता है।
उनके प्रति जिसकी जैसी भावना, जैसी दृष्टि, जैसा प्रेम होता है, वैसा ही उसे हानि-लाभ होता है।
करनी आपो आपनी, के नेड़े के दूर।
अपने ही कर्मों से, अपने ही भावों से आप अपने-आपको सदगुरु और संतों के निकट अनुभव करते हो तथा अपने ही कर्मों और भावों से उनसे दूरी का अनुभव कराते हो। संतों के हृदय में तो कोई अपना या पराया नहीं होता। आजकल का, कलियुग का अल्प मति वाला मानव बुरी बातों को बहुत जल्दी स्वीकार कर लेता है, किंतु अच्छी बातों को स्वीकार नहीं करता। सच्चाई फैलानी हो तो जीवन पूरा हो जाता है पर कुछ गड़बड़ फैलानी हो तो फटाफट फैल जाती है। लोग तुरंत ही कुप्रचार के शिकार हो जाते हैं क्योंकि उनकी अल्पमति है। उनकी विचारशक्ति कुंठित हो गयी है।
नरसिंह मेहता गुजरात के प्रमुख संत हो गये। उनके लिए भी ईर्ष्यालु लोगों ने कई बार खूब अफवाहें फैलायी थीं। अफवाह फैलाने वाले, व्यर्थ के आरोप लगाने वाले, छापने-छपाने वाले किस नरक में पचते होंगे ? किस माता के गर्भ में लटकते होंगे ? वह हम और आप नहीं जानते, परंतु नरसिंह मेहता को तो आज भी हजारों-लाखों लोग जानते मानते हैं और उनका नाम बड़े-आदर व प्रेम से लेते हैं।
नरसिंह मेहता श्रीकृष्ण के परम भक्त थे। वे प्रभुपद गाते-गाते इतने भाव-विभोर हो उठते थे कि अपने-आपको ही भूल जाते थे ! नरसिंह मेहता जब नरसिंहपना छोड़ देते तो श्रीकृष्ण अपना कृष्णपना कैसे रख सकते थे ? जब पुत्र अपना पुत्रपना भूल कर प्रेम से पिता के साथ बातें करने लगता है तो पिता भी पिताभाव कैसे रख सकता है ? पिता भी पुत्र के साथ तोतली भाषा में बोलने लग जाता है।
नरसिंह मेहता श्रीकृष्ण का चिंतन करते-करते इतने तन्मय हो जाते थे कि जो लोग उनके दर्शन करने आते, वे भी धन्य हो उठते ! कृतार्थ हो उठते ! वे लोग भी उनके साथ नाचने और झूमने लग जाते, कृष्ण-कन्हैया के भाव में आ जाते।
ऐसे नरसिंह मेहता के विषय में भी जब व्यर्थ के आरोप लगे, अफवाहें फैलने लगीं, तब कुछ भक्तों की मति भी कुप्रचार के कारण डाँवाडोल हो गयी और कुछ लोग तो कुप्रचार के शिकार हो कर वहाँ से खिसक भी गये।। निंदक कहने लगे कि ‘यदि नरसिंह मेहता में सच्चाई हो तो साबित करके दिखायें।’ परंतु नरसिंह मेहता के लिए फैलायी गयी अफवाहें हर बार गलत ही साबित हुईं। उनकी दृढ़ भक्ति के कारण चमत्कार होते तो चमत्कार के प्रेमी उनके पास एकत्रित होते रहते। वे चमत्कार के भक्त थे, नरसिंह मेहता के भक्त नहीं थे।
ऐसा कई संतों के साथ होता है। जब तक सब ठीक लगता है, वाहवाही होती है, तब लोग संतों के साथ होते हैं। परंतु जब दुरात्मा लोग संगठित होकर गड़बड़ पैदा कर देते हैं तो वे लोग खिसक जाते हैं। ऐसे लोग सुविधा और वाहवाही के भक्त होते है, संत के भक्त नहीं होते।
संत का भक्त तो वही है जो चाहे कैसी भी विपरीत परिस्थिति आये, पर अपना भक्तिभाव नहीं छोड़ता। सुविधा के भक्त तो कब उलझ जायें, कब भाग जायें, पता नहीं परंतु जो निःस्वार्थ भक्त होता है वह अडिग रहता है, कभी फरियाद नहीं करता और दुर्बुद्धि निंदकों के चक्कर में नहीं आता। सच्चे भक्त तो संत के दर्शन, सत्संग और उनकी महिमा का गुणगान करते-करते कभी थकते ही नहीं। परंतु संत का संतत्व न सबसे भी परे है। किसी की निंदा अथवा विरोध से उनकी कोई हानि नहीं होती और किसी के द्वारा प्रशंसा करने से उन्हें कोई लाभ नहीं होता।
सच्चे संतों का आदर-पूजन जिनसे सहन नहीं होता, ऐसे ईर्ष्यालु लोगों ने ही पूरी ताकत से संतों का कुप्रचार किया है। संतों के व्यवहार को पाखंड कहकर उन्होंने ही धर्म के प्रचार का ठेका लिया है। ऐसे धर्म का ठेका लेकर, धर्म की जय बुलवाने वालों को पता ही नहीं है कि वे क्या कर रहे हैं ?
जब कबीर जी आये तब पंडों ने कहाः “हम धर्म की जय कर रहे हैं।” जब सुकरात आये तब राजा और अन्य लोगों ने कहाः “हम धर्म की जय कर रहे हैं।” जब नानक जी आये तब विरोधियों ने उपद्रव कियाः “नानक जी को शहर से बाहर निकाल दिया जाय, क्योंकि वे पाखंड कर रहे हैं। धर्म की जय तो हम कर रहे हैं।”
अनादिकाल से यही होता आया है। भले कितनी ही मुसीबतें आयीं, कितनी ही प्रतिकूलताएँ आयीं, सच्चे भक्तों-श्रद्धालुओं ने संतों की शरण नहीं छोड़ी। कबीर जी के साथ सलूका-मलूका, नानक जी के साथ बाला-मरदाना ऐसे ही श्रद्धालु शिष्य थे, जिनके नाम इतिहास में अमर हो गये।
धन्य है ऐसे शिष्यों को कि जो अलख पुरुष की आरसी के समान ब्रह्मवेत्ता संतों को श्रद्धा-भक्ति से निहारते हैं और उनके साथ अंत तक निभा पाते हैं। वे धनभागी हैं जो निंदा अथवा कुप्रचार के शिकार होकर अपनी शांति का घात नहीं करते। उन्हीं के लिए यह कथन फलित होता हैः
अलख पुरुष की आरसी, साधु का ही देह।
लखा जो चाहे अलख को, इन्हीं में तू लख लेह।।
स्रोतः ऋषि प्रसाद, सितम्बर 2002, पृष्ठ संख्या 8-10, अंक 117
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Yearly Archives: 2002
सनातन धर्म की महिमा
संत श्री आसाराम जी बापू के सत्संग-प्रवचन से
सनातन धर्म की स्थापना किसी साधु-संत, जती-जोगी या तपस्वी ने की, ऐसी बात नहीं है। यहाँ तक कि भगवान श्रीराम, श्रीकृष्ण या अन्य अवतारों ने भी सनातन धर्म की स्थापना नहीं की बल्कि श्रीराम और श्रीकृष्ण जैसी विभूतियाँ सनातन धर्म में प्रकट हुईं। सनातन धर्म तो उनके पूर्व भी था।
वशिष्ठजी महाराज ने बताया कि इस तरह का यज्ञ करो और उसमें श्रृंगी ऋषि को आमंत्रित करो क्योंकि वे बड़े संयमी हैं। यज्ञ में आहुति देने वाले जितने अधिक संयमी-सदाचारी होते हैं, यज्ञ उतना ही प्रभावशाली होता है। श्रृंगी ऋषि को लाना बड़ा कठिन कार्य था। बड़े यत्न से उन्हें लाया गया। उनके द्वारा यज्ञ सम्पन्न हुआ, यज्ञपुरुष खीर का कटोरा लेकर प्रकट हुए। वह दैवी प्रसाद माँ कौशल्या, कैकेयी और सुमित्रा ने लिया। उसी से भगवान श्री राम, लक्ष्मण, भरत और शत्रुघ्न का प्राकट्य हुआ। सनातन धर्म श्रीराम के पहले था तभी तो यह व्यवस्था हुई।
432000 वर्ष बीतते हैं तब कलियुग, 864000 वर्ष बीतते हैं तब द्वापरयुग, 1296000 वर्ष तब त्रेतायुग और 1728000 वर्ष बीतते हैं तब सतयुग पूरा होता है। इस प्रकार कुल मिलाकर 4320000 वर्ष बीतते हैं तब एक चतुर्युगी मानी जाती है। ऐसी 71 चतुर्युगियाँ बीतती हैं तब एक मन्वंतर और ऐसे 14 मन्वंतर बीतते हैं तब एक कल्प होता है। अर्थात् 194 चतुर्युगियाँ बीतती हैं तब एक कल्प यानी ब्रह्माजी का एक दिन होता है। ऐसे ब्रह्मा जी अभी 50 वर्ष पूरे करके 51वें वर्ष के प्रथम दिन के दूसरे प्रहर में हैं। अर्थात् सातवाँ मन्वंतर, अट्ठाईसवीं चतुर्युगी, कलियुग का प्रथम चरण चल रहा है। कलियुग के भी 5228 वर्ष बीत चुके हैं।
जैसे दिव्य इतिहास हमने सनातन धर्म में देखा, वैसा और किसी संस्कृति अथवा धर्म में आज तक नहीं देखा-सुना।
सनातन धर्म और वेद अपौरुषेय है अर्थात् उनका प्राकट्य किसी पुरुष के द्वारा नहीं हुआ है।
अनेक पाश्चात्य विद्वानों ने भी भारतीय संस्कृति और भारतीय दर्शन की महिमा का खुले दिल से गान किया है।
पादरी लैंडविटर (थियोसोफिकल सोसायटी के मान्य संत) ने कहा है- “भारतीय संस्कृति का अध्ययन करने से पूर्व आंतरिक संतोष नहीं मिला था। ईसाई और इस्लाम मत में श्रद्धा तो दिखी, पर विवेक की तुष्टि नहीं हुई। पाश्चात्य दर्शन में विवेक मिला, पर संवेदनाओं की प्यास न बुझी। भारतीय दर्शन में दोनों का योग है, यह वास्तव में योगी है।
जर्मनी के प्रसिद्ध दार्शनिक शोपेनहावर ने कहा है- “विश्व के संपूर्ण साहित्यिक भण्डार में से किसी ग्रंथ का अध्ययन मानव-विकास के लिए इतना उपयोगी और ऊँचा उठाने वाला नहीं है जितना कि उपनिषदों की विचारधारा का अवगाहन। इस सागर में डुबकी लगाने से मुझे शांति मिली है तथा मृत्यु के समय भी शांति मिलेगी।”
दाराशिकोह (औरंगजेब के बड़े भाई) उपनिषदों का अध्ययन करते थे। एक दिन वे मस्ती में झूम रहे थे। उनकी भतीजी ने पूछाः “चचा जान ! आप नशा तो करते नहीं हैं, फिर ऐसे मस्त कैसे हो रहे हैं ?”
दाराशिकोहः “बेटी ! यह मस्ती नशे की नहीं, दिव्य ज्ञान की है। उपनिषदों को पढ़ने के बाद मुझे अनुभव हो रहा है कि आत्मज्ञान की मस्ती कितनी गहरी होती है !”
फ्रांस के इतिहास-लेखक विक्टर कजीन ने कहा है- “परमेश्वर का वास्तविक ज्ञान प्राचीन हिन्दू रखते थे, इस बात से कभी इन्कार नहीं हो सकता है। उनका दर्शनशास्त्र (तत्त्वज्ञान), उनके विचार इतने उत्कृष्ट, इतने उच्च, इतने यथार्थ और सच्चे हैं कि यूरोपीये लेखों से उनकी तुलना करना ऐसा प्रतीत होता है कि जैसे ठीक मध्याह्नकालीन सूर्य के पूर्ण प्रकाश में स्वर्ग से चुरायी हुई प्रोमीथीयन आग (Promethean fire) का झुटपुटा उजाला !
जब हम ध्यानपूर्वक पूर्वीय, विशेष करके भारतवर्षीय काव्य और दर्शनशास्त्र की पुस्तकें पढ़ते हैं, जिनका विस्तार और प्रचार अभी-अभी यूरोप में होने लगा है, तब हमें उनसे बहुत सी सच्चाइयाँ मिलती हैं और वे सच्चाइयाँ ऐसी हैं कि यूरोपीय दर्शन के निष्कर्ष उनकी तुलना में बिल्कुल हेच (तुच्छ) ठहरते हैं। यूरोपीय बुद्धि की अपंगता और भारतीय दर्शन की गंभीरता ऐसी महान है कि हमें पूर्व (भारत) के दर्शनशास्त्र के सामने मजबूरन घुटने टेकने पड़ते हैं।”
पाश्चात्य दार्शनिक श्लेगल ने लिखा है- “हिन्दू विचार के मुकाबले में यूरोपीय दर्शनशास्त्र की सर्वोच्च डींगें ऐसी प्रतीत होती हैं जैसे विराट पुरुष के सामने एक बावन अंगुल का बौना !”
वेदान्त दर्शन के विषय में श्लेगल का कहना है- “मनुष्य का दिव्य स्वरूप उसे निरंतर इसलिए समझाया और चित्त में धारण कराया जाता है कि इससे मनुष्य अपने स्वरूप की ओर लौटने के लिए परिश्रम की पराकाष्ठा करे, इस जीवन-प्रयास में अपने को सजीव प्रोत्साहित करे तथा अपने को इस विचार में प्रवृत्त करे कि प्रत्येक व्यापार, उद्यम का एकमात्र मुख्य उद्देश्य अपने निजस्वरूप (आत्मा) से पुनः मिलाप और योग प्राप्त करना है।”
स्रोतः ऋषि प्रसाद, अगस्त 2002, पृष्ठ संख्या 9,10 अंक 116
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शम ही परम आनंद है…..
संत श्री आसाराम जी बापू के सत्संग-प्रवचन से
श्री वशिष्ठजी महाराज कहते हैं-
“हे राम जी, शम ही परम आनंद, परम पद और शिवपद है। जिस पुरुष ने शम को पाया है सो संसार-समुद्र से पार हुआ है। उसके शत्रु भी मित्र हो जाते हैं। हे राम जी ! जैसे चंद्र उदय होता है तब अमृत की किरणें फूटती हैं और शीतलता होती है, वैसे ही जिसके हृदय में शमरूपी चंद्रमा उदय होता है, उसके सब पाप मिट जाते हैं और वह परम शांतिमान हो जाता है।
शम देवतारूपी अमृत के समान कोई अमृत नहीं है। शम से परम शोभा की प्राप्ति होती है। जैसे पूर्णमासी के चंद्रमा की कांति परम उज्जवल होती है, वैसे ही शम को पाकर जीव की कांति उज्जवल होती है।
जिस पुरुष को शम की प्राप्ति हुई है वह वंदना करने योग्य और पूजने योग्य हो जाता है।”
जिसका शम सिद्ध हो गया अर्थात् जिसने मन को शांत करने की कला पा ली, वह वंदना करने योग्य और पूजने योग्य है। तुकाराम जी महाराज की वंदना की जाती है, एकनाथ जी महाराज का आदर का होता है, ज्ञानेश्वर महाराज का दर्शन करने के लिए लोग कतार में खड़े रहते हैं क्योंकि ये सब शमवान पुरुष हैं।
मन को शांत करने का नाम शम है, इंद्रियों पर नियंत्रण पाने का नाम दम है, भगवान के रास्ते चलते कठिनाइयाँ सहने का नाम तितिक्षा है, भगवान में आस्था रखने का नाम श्रद्धा है, बुद्धि को सब प्रकार से ब्रह्म में ही सदा स्थिर रखना समाधान है तथा भगवान के रास्ते में विघ्न डालने वाले व्यसन और बुराइयों को त्यागने का नाम उपरति है। ईश्वर के रास्ते जाने के लिए जो दुर्गुण छोड़ दिये और फिर उनमें नहीं पड़े तो यह उपरति हो गयी। जिसके हृदय में छः गुण आ जाते हैं उसके हृदय में आत्मशांति आने लगती है और वह परम पद को पाने में सफल हो जाता है।
इसी आत्मशांति को पाने के लिए प्राचीन काल में बड़े-बड़े राजे-महाराजे राजपाट को छोड़कर, सिर में खाक डालकर, हाथ में कटोरा लेकर भिक्षा माँगना स्वीकार करते थे। महापुरुषों की कृपा पाने के लिए राजे-महाराजे उनके आश्रम में बर्तन भाँडे माँजते थे, झाड़ू-बुहारी करते थे…. आत्मशांति ऐसी ऊँची चीज है।
जिन महापुरुषों के सम्पर्क से आत्मधन मिलता है, जिनसे आत्मशांति मिलती है, जो शमवान पुरुष हैं, उन महापुरुषों की भली प्रकार सेवा करनी चाहिए। उन महापुरुषों के आशीर्वाद हमारे हजारों जन्मों के पाप-ताप मिटाते हैं और लाखों-लाखों संस्कारों को निवृत्त करके भगवद्भक्ति का अंकुर उभारते हैं, हममें भगवत्प्राप्ति की प्यास जगाते हैं।
वशिष्ठजी महाराज कहते हैं- “हे राम जी ! जैसा आनंद शमवान को होता है, वैसा अमृत पीने वाले को भी नहीं होता।”
जो आनंद और शांति शमवान को होती है, वैसा आनंद और शांति अमृतपान करने वाले देवताओं के पास भी नहीं होती। कैसी महिमा है शमवान पुरुष की !
स्रोतः ऋषि प्रसाद, अगस्त 2002, पृष्ठ संख्या 6, अंक 116
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