अपनी डफली अपना राग

अपनी डफली अपना राग


(परम पूज्य बापू जी के सत्संग-प्रवचन से)

आत्मा के प्रमाद से जीव दुःख पाते हैं । आकाश में वन नहीं होता और चन्द्रमा के मंडल में ताप नहीं होता, वैसे ही आत्मा में देह या इन्द्रियाँ कभी नहीं हैं । सब जीव आत्मरूप हैं । वृक्ष में बीज का अस्तित्व छुपा हुआ है, ऐसे ही जीव में ईश्वर का और ईश्वर में जीव का अस्तित्व है फिर भी जीव दुःखी है, कारण कि जानता नहीं है । चित्त में आत्मा का अस्तित्व है और आत्मा में चित्त का, जैसे बीज में वृक्ष और वृक्ष में बीज । जैसे बालू से तेल नहीं निकल सकता, वन्ध्या स्त्री का बेटा संतति पैदा नहीं कर सकता, आकाश को बगल में बाँध नहीं सकता, ऐसे ही आत्मा के ज्ञान के सिवाय सारे बंधनों से कोई छूट नहीं सकता । आत्मा का ज्ञान हो जाय, उसमें टिक जाय तो फिर व्यवहार करे चाहे समाधि में रहे, उपदेश करे चाहे मौन रहे, अपने आत्मा में वह मस्त है । फिर राज्य भी कर सकते हैं और विश्रांति भी कर सकते हैं ।

रात्रि को एक हॉल में दस आदमी सो रहे हैं । जिसको जैसा-जैसा सपना आता है उसको उस वक्त वैसा-वैसा सच्चा लगता है । जाग्रत में भी जैसी जिसकी कल्पना होती है उसको वैसा ही सच्चा लगता है ।

कुछ लोग जंगल में घूमने गये । तीतर पक्षी बोल रहा था । जो सब्जी मंडी में धंधा करता था, उससे पूछा कि “तीतर क्या बोलता है ?”

वह बोलाः “धड़ाधड़-धड़ाधड़-धड़ाधड़….”

पहलवान बोलाः “नहीं-नहीं, यह बोलता है – दंड-बैठक, दंड-बैठक, दंड-बैठख….”

तीसरा जो भक्त था, बोलाः “यह बोलता है – सीताराम-सीताराम-सीताराम, राधेश्याम….”

चौथा जो तत्त्वज्ञ था, वो बोलाः “अरे नहीं, यह बोलता है – एक में सब, सब में एक । तू ही तू, तू ही तू ….”

जैसी अपनी-अपनी कल्पना थोप दी, वैसा दिखने लगा । ऐसे ही इस जगत में अपने-अपने फुरने पैदा होते हैं, वैसे-वैसे विचारों में जीव घटीयंत्र (अरहट) की नाईं भटकता रहता है । इस फुरने को मोड़कर जहाँ से फुरना उठता है उस परमात्मा में शांति पा ले अथवा फुरने को फुरना समझकर उसका साक्षी हो जाय तो मंगल हो जाय, कल्याण हो जाय !

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जनवरी 2009, पृष्ठ संख्या 14 अंक 193

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