आत्महत्याः कायरता की पराकाष्ठा

आत्महत्याः कायरता की पराकाष्ठा


पूज्य बापू जी के सत्संग-प्रवचन से

मृत्यु एक ईश्वरीय वरदान है, फिर भी यदि कोई आत्महत्या करता है तो वह महापाप है । परमात्मा ने हमें यह अमूल्य मानव चोला दिया है तो हमारा कर्तव्य है कि हम इसे साफ सुथरा रखें, इसे स्वस्थ-तन्दुरुस्त रखें । ऐसा नहीं कि मृत्यु जरूरी है तो अनाप-शनाप खाकर मौत को आमंत्रण दें, आत्महत्या करें । यद्यपि कपड़ा मैला होता है, गलता है, फटता है लेकिन उसे जानबूझकर फाड़ देना तो बेवकूफी है । ऐसे ही शरीर बूढ़ा होता है, बीमार होता है, मरता है – यह प्रकृति की व्यवस्था है, शरीर को जानबूझकर मौत के मुँह में धकेलना ठीक नहीं ।

कुछ विद्यार्थी जो परीक्षा में विफल हो जाते हैं, व्यापारी जो बाजार की मंदी की चपेट में आ जाते हैं उनमें से कमजोर मनवाले कई घबरा के अथवा चिंता-तनाव से घिर के आत्महत्या कर लेते हैं । ऐसे लोगों को चाहिए कि वे कभी नकारात्मक न सोचें, पलायनवादिता के या हलके विचार न करें । असफल हो जायें तब भी भागने के या आत्महत्या के विचार न करें, फिर से पुरुषार्थ करें तो अवश्य सफल होंगे ।

मनुष्य का जीवन कुदरत ने ऐसा लचीला बनाया है कि वह जितनी चाहते उतनी उन्नति कर सकता है । कठिन से कठिन परिस्थिति से जूझकर, दुःख-मुसीबतों और विघ्न बाधाओं के सिर पर पैर रखकर परम पद तक पहुँच सकता है । बस, उस योग्यता का पता चल जाय, उस योग्यता पर पूरा विश्वास हो जाय ।

भृकुटि बिलास सृष्टि लय होई । जिसके भौंह के इशारे मात्र से सृष्टि का प्रलय हो जाता है, ऐसा सर्वसमर्थ परब्रह्म परमात्मा तुम्हारा सखा होकर बैठा है और जरा सी मंदी आयी तो तुम फाँसी लगाकर मर गये, खेत-खली में जरा सी गड़बड़ हुई और तुम आत्महत्या करने लगे, क्या तुच्छ बुद्धि है ! धिक्कार है आत्महत्या करने वालों को ! ऐसे लोगों को हिजड़ा कहेंगे तो हिजड़े नाराज हो जायेंगे । बोलेंगेः ‘बाबा ! हम कहाँ आत्महत्या करते हैं ? हम तो चुनाव लड़कर राज्य भी कर लेते हैं । हमारा नाम ऐसे लोगों को क्यों देते हो ?’ ऐसे लोगों को गधा कह दें तो गधे भी नाराज हो जायेंगे । बोलेंगे- “बाबा ! हमने कहाँ आत्महत्या की ? हम तो डंडे सहते हैं, सर्दी-गर्मी सहते हैं, दुःख सहते हैं । खाने को मिला न मिला तो भी चुप्पी रखकर दूसरे दिन बोझा उठाते हैं, फिर भी हम कभी आत्महत्या नहीं करते ।’ आत्महत्यारे को कुत्ता बोलें तो कुत्ता बोलेगाः ‘हम भूख-प्यास फटकार सहते रहते हैं, डंडे पत्थर सहते हैं फिर भी आत्महत्या नहीं करते । हमें कहीं पूँछ दबानी पड़ती है, कहीं हिलानी पड़ती है लेकिन हम तो जी रहे हैं ।’ तो आत्महत्यारों को कुत्ता बोलोगे तो कुत्तों की बदनामी होगी । जो आत्महत्या करते हैं उनको गधा कहो, कुत्ता कहो, हिजड़ा कहो तो ये सब नाराज हो जायेंगे ।

मनुष्य विषय-विलास, शराब-कबाब और डिस्को करके पिशाच-सा जीवन जीकर मरने को नहीं आया है । आत्महत्या करनी भोगी और कायर मन की पहचान है । सत्कर्म, सदगुरुओं का सान्निध्य-सेवन और आत्मसाक्षात्कार करके मुक्त होना यह साधक, भक्त और योगी मन की पहचान है ।

नासमझ लोग क्या करते हैं ? जरा सा दुःख पड़ता है तो दुःख देने वाले पर लांछन लगाते हैं, परिस्थितियों को दोष देते हं अथवा अपने को पापी समझकर अपने को ही कोसते हैं । कुछ कायर तो आत्महत्या करने तक का सोच लेते हैं । कुछ पवित्र होंगे तो किन्हीं संत-महात्मा के पास जाकर दुःख से मुक्ति पाते हैं ।

जो गुरुओं के द्वार पर जाते हैं उनको कसौटियों से पार होने की कुंजियाँ सहज में ही मिल जाती हैं । इससे उनके दोनों हाथों में लड्डू होते हैं । एक तो संत-सान्निध्य से हृदय की तपन शांत होती है, समस्या का हल मिलता है, साथ ही साथ जीवन को नयी दिशा भी मिलती है ।

मानव को किसी भी परिस्थिति में आत्महत्या का विचार नहीं करना चाहिए तथा अपने मन को दुःखी होने से बचाना चाहिए । दुनिया में जो भी दुःख है वह अज्ञान का फल है, नासमझी का ही फल है । जहाँ-जहाँ दुःख है, वहाँ-वहाँ नासमझी है । बिना नासमझी के दुःख टिक नहीं सकता, हो नहीं सकता । शरीर की बीमारी को अपनी बीमारी मानते हैं यह बेवकूफी है । नश्वर सफलता को अपनी सफलता मानते हैं, नश्वर विफलता को अपनी विफलता मानते हैं, अपने-आपको शरीर मानते हैं और जो छूट जाने वाली हैं उन चीजों को मेरी मानते हैं । यह अज्ञान है कि नहीं है ? मरने के बाद भी  जो रहेगा उसको नहीं जानते और जो मन जाने वाला है उसको मैं मानते हैं । बेवकूफी है कि नहीं है ?

छोटे-मोटे नहीं, गेटे जैसे विद्वान भी कभी आत्महत्या का विचार कर लेते हैं परंतु डर के मारे कर नहीं पाते । कई विद्वान भी आत्महत्या कर लेते हैं क्योंकि वेदव्यास जी का ज्ञान नहीं है । नहीं तो एक कुत्ता जिसकी टाँग कटी है, पूँछ कटी है, शरीर में घाव पड़े हैं उसको कोई मारने जाय तो अपने जीवन की रक्षा के लिए सब प्रयत्न करेगा और आज का मानव आत्महत्या कर लेता है, कितनी बेवकूफी है ! यह बरसात के पतंगे हैं न, दीये में आते हैं और अंग जल जाते हैं, फरफराते हैं, फिर भी आप उनको मारने की कोशिश करो तो बचने के लिए वे भी छटपटायेंगे, वहाँ से भागेंगे ।

जीवनदाता ने जीवन दिया है तो अपनी तरफ से उसको बचाने का सब प्रयत्न करना चाहिए । जो आत्महत्या करते हैं उनको कई वर्षों तक शरीर नहीं मिलता और भटकते रहते हैं । जो आत्महत्या करके मर गया, उसको कंधा देने वाले को भी हानि होती है, दुःख उठाना पड़ता है । ‘पाराशर स्मृति’ व ‘कौटिल्य अर्थशास्त्र’ में तो यहाँ तक लिखा गया है कि जिसने आत्महत्या की उसने प्रकृति की, ईश्वर की दी हुई शरीर रूपी सौगात से खिलवाड़ किया है, उसका अपमान किया है, उस अभागे को कंधा मत दो । किसी गंदगी उठाने वाले को बोलो कि उसका शव रस्सी से बाँधकर मार्ग से घसीटता हुआ ले जाय, ताकि उसको देखकर दूसरा ऐसी बेवकूफी न करे ।

आप सत्य का, ईश्वर का आश्रय लीजिये और परिस्थितियों के प्रभाव से बचिये । जो लोग परिस्थितियों को सत्य मानते हैं वे उनसे घबराकर कभी आत्महत्या की बात भी सोचते करते हैं, यह बहुत बड़ा अपराध है ।

मैंने सूरत में सत्संग किया (दिसम्बर 2008 में) तब आर्थिक मंदी की चपेट में आये रत्न-कलाकारों को संदेश दिया कि जो मुसीबत में आकर आत्महत्या करने का विचार करते हैं उन्हें चाहिए कि अपनी दैन्य अवस्था का, लाचारी का तो पता चल गया, अब भगवान के सामर्थ्य का थोड़ा चिंतन करो और कमरा बंद करके भगवान को आर्त भाव से प्रार्थना करो, आँसू बहाओः ‘भगवान ! मैं कुटुम्ब का पालन नहीं कर सकता हूँ और आप सर्वसमर्थ हो…’ ऐसी प्रार्थना करते-करते भगवान को दंडवत प्रणाम करके लेट जाओ, भगवान के गले पड़ जाओ । अपनी तरफ से पुरुषार्थ में कमी न करो लेकिन जब आत्महत्या करने की नौबत आ रही है तो अहं का विसर्जन करो । उसी समय नहीं तो एकाध दिन में रास्ता निकल आयेगा ।

रात अँधियारी हो, काली घटायें छायी हों ।

मंजिल तेरी दूर हो, हर तरफ से मजबूर हों ।।

फिर क्या करोगे ?

अच्युतानन्त गोविन्द नामोच्चारणभेषजात् ।

नश्यन्ति सकला रोगाः सत्यं सत्यं वदाम्यहम् ।।

‘हे अच्युत ! हे अनंत ! हे गोविन्द ! – इस नामोच्चारणरूप औषध से तमाम रोग नष्ट हो जाते हैं, यह मैं सत्य कहता हूँ…. सत्य कहता हूँ ।’

आत्महत्या यह मानस रोग है । मन की कायरता की पराकाष्ठा होती है तभी आदमी आत्महत्या का विचार करता है तो उस समय भगवान को पुकारो ।

‘स्कंद पुराण’ के काशी खंड पूर्वार्द्ध (12.12,13) में आता हैः ‘आत्महत्यारे घोर नरकों में जाते हैं और हजारों नरक-यातनाएँ भोगकर फिर देहाती सूअरों की योनि में जन्म लेते हैं । इसलिए समझकर मनुष्य को कभी भूलकर भी आत्महत्या नहीं करनी चाहिए । आत्महत्यारों का न तो इस लोक में और न परलोक में ही कल्याण होता है ।’

‘पाराशर स्मृति (4.1,2)’ के अनुसार ‘आत्महत्या करने वाला मनुष्य 60 हजार वर्षों तक अंधतामिस्र नरक में निवास करता है ।’

मीडिया को समाज की यह सेवा करनी चाहिए कि जो आत्महत्या करते हैं उनकी तस्वीर देकर नीचे ऐसे कड़क शब्द लिखने चाहिए कि पढ़ने वाले कभी आत्महत्या का विचार न करें ।

जहाँ भी आत्महत्याएँ होती हों वहाँ इस सत्संग का जरा प्रचार होना चाहिए ।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, अप्रैल 2009, पृष्ठ संख्या 18-20 अंक 196

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