भक्ति व्यर्थ नहीं जाती

भक्ति व्यर्थ नहीं जाती


पूज्य बापू जी के सत्संग-प्रवचन से

व्यक्ति अगर दुष्ट विषय-विकारों के पीछे अगर जाता है तो दुरात्मा हो जाता है । सामान्य जीवन जीता है – थोड़ा संयम, थोड़ी फिसलाहट तो सामान्य आत्मा होता है लेकिन महान परमात्मा में विश्रांति पाकर भगवत्प्रीति, भगवद् ज्ञान से भर जाता है, निष्काम कर्म करता है तो वह महान आत्मा हो जाता है । भगवान कहते हैं –

महात्मानस्तु मां पार्थ दैवीं प्रकृतिमाश्रिताः ।

भजन्त्यनन्यमनसो ज्ञात्वा भूतादिमव्ययम् ।।

‘हे कुंतीपुत्र ! दैवी प्रकृति के आश्रित महात्माजन मुझको सब भूतों का सनातन कराण और नाशरहित अक्षरस्वरूप जानकर अनन्य मन से युक्त होकर निरंतर भजते हैं ।’ (गीताः 9.13)

जो दैवी प्रकृति का आश्रय लेते हैं, उनमें नित्य, चैतन्यस्वरूप परमात्मस्वभाव के संस्कार पड़ते हैं और किसी कारण वे हलकी योनि में चले गये तो भी उन संस्कारों का नाश नहीं होता । जैसे राजा भरत, जिनके नाम से इस देश का नाम भारत पड़ा, उन्होंने हिरण का चिंतन करते-करते शरीर का त्याग किया तो उन्हें हिरण की योनि में आना  पड़ा लेकिन वहाँ भी उनके पूर्वजन्म की भक्ति के संस्कार देखे गये । मैं उझानी (उ.प्र.) गया था, तब वहाँ एक कुत्ता देखा जो मंगलवार का व्रत रखता था ।

ममैवांशो जीवलोके जीवभूतः सनातनः (गीताः 15.7)

तो हिरण के शरीर में, कुत्ते के शरीर में भी कई फिसले हुए साधक देखे-सुने-पाये जाते हैं । पिछले जन्म का करोड़पति अभी जन्मजात करोड़पति हो जाय यह जरूरी नहीं है । पिछले जन्म का डॉक्टर अभी बिना पढ़े डॉक्टर नहीं हो सकता लेकिन पिछले जन्म का साधक अपनी साधना की ऊँचाइयों को जन्मजात छुआ हुआ मिलता है ।

अष्टावक्र जी माँ के गर्भ में से ही ब्रह्मज्ञान की बात कर रहे थे । अयोध्या की रानी साहिबा की ओर से वहाँ के कनक भवन मंदिर की सेवा में श्यामा नाम की घोड़ी रखी गयी थी । उसके जीवन में कैसी सूझबूझ ! घोड़ी बुढ़िया हो गयी थी इसलिए जब उसे मंदिर से निकालने का निर्णय लिया गया तो घोड़ी ने चारा और पानी छोड़ दिया । वह वहाँ से जाना नहीं चाहती थी । रानी साहिबा का आदेश मानकर अधिकारियों ने उसे भेजने की लिए बिल्टी (रसीद) निकलवायी । घोड़ी को रस्सियों से बाँधकर पशुवाहक डिब्बे में बिठा दिया गया लेकिन  घोड़ी के संकल्प ने क्या किया, कैसी व्यवस्था हो गयी कि गार्ड की भूल से ट्रेन में वह डिब्बा जोड़ा ही नहीं गया । घोड़ी फिर कनक भवन में लायी गयी । सब लोग दंग रह गये कि घोड़ी का संकल्प भी कैसी ईश्वरीय लीला करवा देता है !

मनुष्य शरीर में की हुई साधना हिरण के शरीर में, कुत्ते के शरीर में, घोड़े के शरीर में भी फलती है । अगर मनुष्य बुद्धियोग का आश्रय लेकर भगवत्परायण हो जाय, तब तो इसी जन्म में काम बन सकता है, और किसी गलती से अधूरा रह गया, किसी पाप से, किसी कारण से, हलके चिंतन से हलकी योनि में गये तब भी साधुताई का और संकल्पबल का प्रभाव इन घटनाओं से प्रत्यक्ष होता है । तो जितना हो सके छोटी-छोटी बातों में अपनी आदत बुरी न होने दो और भगवत्प्रसादजा मति के बल से भगवत्सुमिरन की, सुख-दुःख में सम रहने की, सेवा की ऊँची आदत डालो ।

करह गाँव (ग्वालियर) की एक घटित घटना है । वहाँ एक प्रसिद्ध महाराज थे – श्री बाबा जी, उनके पास एक कुत्ता था, जिसकी पूँछ कटी हुई थी । महाराज उसे बड़ा भक्त कहा करते थे । बड़ा भगत सुबह-शाम दूसरे साधुओँ के समान महाराज के चरणों में दण्डवत् प्रणाम करता था । महाराज के पास कोई किसान भक्त रोज दूध और रोटी लाता था । महाराज खुद तो रोटी मिर्च-मसाले आदि के साथ खा लेते थे और दूध बड़ा भक्त को दे देते । ऐसा कई महीनों तक चला । दूध लाने वाला आखिर एक दिन बोल पड़ा कि “महाराज जी ! मैं इस कुत्ते के लिए दूध नहीं लाता हूँ, आपके लिए लाता हूँ ।”

महाराज जी बोलेः “कोई बात नहीं, यह भी कोई साधारण नहीं है । बड़ा भगत ने पिया तो क्या हुआ, समझो हमने ही पीया ।”

भक्त बोलाः “आप नहीं पीते तो दूसरे साधुओं को क्यों नहीं देते ?”

बड़ा भगत यह सुन रहा था । दूसरे दिन वह भक्त दूध-रोटी लाया तो श्री बाबा जी ने रोज की तरह रोटियाँ अपने लिए रख लीं और बड़ा भगत के सामने दूध रख दिया । बड़ा भगत वहाँ से उठकर चला गया । महाराज जी पीछे-पीछे दूध लेकर घूमे लेकिन बड़ा भगत ने दूध नहीं पीया तो नहीं पीया । एक दिन, दो दिन, तीन दिन, चार दिन हुए और दूध लाने वाले के घर में अशांति चालू हो गयी । बिना किसी कारण के उसकी भैंस मर गयी । दो चार दिन और हुए तो दूसरी भैंस मर गयी व घर में उपद्रव होने लगे । वह किसान आया, हाथाजोड़ी करता हुआ बोला, “बाबा ! जब से बड़ा भगत रूठ गये तब से मेरा भाग्य रूठ गया । मेरे कुटुम्ब में बड़े उपद्रव होने लगे । जैसे किसी संत को सताने से कुदरत का कोप हो जाता है, ऐसे ही आपके बड़ा भगत की अवहेलना करने से मैं बहुत परेशान, बहुत दुःखी हो गया हूँ ।

श्री बाबा जी ने कहाः “भाई ! अब मैं क्या करूँ ? तू बड़ा भगत का अपराधी है, उसी से क्षमा माँग ।”

वह  किसान दूसरे दिन दूध लाया और बड़ा भगत के सामने हाथ जोड़कर बोलाः “भक्तराज ! आप भगवान के भक्त के भक्त हो । मेरे अवगुण को न देखो, कृपा करो । मैंने अपनी नासमझी से आपका अपमान किया, जिससे मेरे घर में उपद्रव हो गये, झगड़ा-अशांति हो गयी और कुछ भी अच्छा नहीं लग रहा है । मेरी एक भैंस मरी, दूसरी मरी…. मैं तो ऐसे मारा जाऊँगा । आखिर मैं संतों का दास हूँ, बड़ा भगत ! आपका आशीर्वाद चाहता हूँ ।”

बड़ा भगत ने आँख उठाकर देखा और फिर सकुर-सकुर दूध पीने लगा । तब से उस किसान के कुटुम्ब में फिर से खुशहाली छाने लगी ।

दिन बीते, रातें बीतीं, समय बीता । एक दिन बड़ा भगत श्रीबाबा के पास आया और प्रेमपूर्वक कटी पूँछ हिलाकर धरती पर लोटने लगा, मानो अब विदाई चाहता हो । महाराज जी ने कहाः “तू जाना चाहता है ? अच्छा जा ।”

आश्रम के बाहर जाकर बड़ा भगत भूमि पर लेट गया । सूर्य भगवान की ओर देखते हुए उसने शरीर छोड़ दिया । महाराज जी ने बड़ा भगत के शरीर को समाधि दी और उसके लिए भण्डारा भी कराया ।

भक्त किसी भी योनि में जाय, उसके अंतःकरण में दयामय प्रभु की भक्ति के संस्कार मौजूद रहते हैं । भगवान की प्रकृति वहाँ उसकी रक्षा करती है । नीच योनि में भी भगवान की भक्ति रक्षा करती है । तो जो लोग सत्संग सुनते हैं और अंतःकरण में भगवदीय संस्कार डालते हैं, वे बड़ी ऊँची कमाई करते हैं । अपनी मेहनत-मजूरी से करोड़पति होना कंगाल के लिए कठिन है लेकिन करोड़पति की गोद गया तो उसी दिन करोड़पति हो गया । ऐसे ही सत्संग में आना मतलब भगवान की गोद जाना है । भगवत्-जनों का दर्शन-सत्संग व्यर्थ नहीं जाता । भगवान का चिंतन, भगवान की भक्ति व्यर्थ नहीं जाती ।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, मई 2009, पृष्ठ संख्या 12 अंक 197

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