Monthly Archives: June 2009

तेषां सततयुक्तानां…. पूज्य बापू जी


भगवान श्री कृष्ण कहते हैं-

तेषां सततयुक्तानां भजतां प्रीतिपूर्वकम् ।

ददामि बुद्धियोगं तं येन मामुपयन्ति ते ।।

‘उन निरंतर मेरे ध्यान आदि में लगे हुए और प्रेमपूर्वक भजने वाले भक्तों को मैं वह तत्त्वज्ञानरूप योग देता हूँ, जिससे वे मुझको ही प्राप्त होते हैं ।’ (भगवद्गीताः 10.10)

सततयुक्तानां…. ‘सततयुक्त’ का अर्थ ऐसा नहीं कि आप सतत माला घुमाते रहो या मंदिर में बैठे रहो । हाँ, माला के समय घुमाओ, मंदिर के समय मंदिर में जाओ लेकिन फिर भी इन सबके साक्षी होते-होते, इस जगत के मिथ्यात्व को देखते-देखते जिससे सब हो रहा है उसमें सतत गोता लगाओ । रटने वाले लोग तो रटन करते-करते रटनस्वरूप हो जाते हैं लेकिन रटन में ही रुकना नहीं है, उससे भी आगे आत्मपद को समझना है, उसमें प्रीति और विश्रांति पानी है ।

एक बार संत तुलसीदास जी जंगल में शौच से निवृत्त होकर किसी कुएँ पर पानी लेने के लिए आये तो उनको उस कुएँ से चौपाइयाँ गाने की आवाज सुनायी पड़ी । गोस्वामी तुलसीदास चकित हो गये कि ‘मेरी चौपाइयाँ कुएँ के भीतर कौन गा रहा है ?’ तुलसीदास जी ने कहाः “मनुष्य हो, यक्ष हो, राक्षस हो, गंधर्व हो, किन्नर हो या प्रेत हो, व्यक्त हो या अव्यक्त हो, जो भी हो मुझे अवश्य उत्तर मिले कि चौपाई गाने वाले आप कौन हो ?”

आवाज आयी कि ‘हे मुनिशार्दूल ! हे तुलसीदास जी ! हम पाँच मित्र थे । हम राम-राम रटते थे लेकिन राम के सातत्य स्वरूप को नहीं जानते थे । आपकी चौपाइयाँ और दोहे भी आपस में गाते थे । घूमते-घामते इस जंगल में सैर करने आये । हमारा मित्र पानी भरने को इस कुएँ पर आया । पानी भरने का अभ्यास न होने के कारण उसके हाथ से रस्सी छूट गयी । रस्सी छूट गयी तो संतुलन भी बिगड़ गया और वह कुएँ में गिर पड़ा । उस मित्र को बचाने के प्रयास में दूसरा भी गिर पड़ा, तीसरा भी गिर पड़ा । चौथा भी गिरा तो पाँचवाँ ‘कौन सा मुँह दिखाऊँगा’ यह सोचकर जानबूझकर कूद पड़ा । हम अवगत होकर मरे हैं । हमें अब गर्भ नहीं मिल रहा है लेकिन पुराना चौपाइयों के रटन का सातत्य हैं, इसलिए हम रट रहे हैं । सातत्य के आधार को हमने नहीं जाना तुलसीदास जी ! अब हम पर कृपा हो जाय ।’

सततयुक्त‘ का अर्थ यह नहीं कि सतत कोई धुन लेकर चले । सतत कोई फोटो गले में बाँधकर चले तो भी सततयुक्त नहीं होता है क्योंकि जिस देह को फोटो बाँधा है वह देह छूट जायेगी । जिन आँखों से फोटो देखते हैं वे आँखें भी एक दिन राख में बदलकर मिट्टी में मिल जायेंगी । जिसकी सत्ता से तुम ‘मैं’ कह रहे हो, जिसकी सत्ता से तुम्हारा मन और बुद्धि स्फुरित हो रहे हैं और मन बुद्धि इन्द्रियों में आकर जगत का व्यवहार करते हैं उस सत्ता के अस्तित्व का तुम्हें अनुभव हो जाय, ऐसे विचार यदि तुम्हारे चित्त में घूमते रहें तो तुम सतत उसका अनुभव कर सकते हो । सतत का अर्थ है कि तुम अनन्यभाव से ब्रह्म में रहो ।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जून 2009, पृष्ठ संख्या 25 अंक 198

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तर्क से नहीं होता तत्त्वज्ञान


(समर्थ स्वामी-रामदासजी महाराज की वाणी)

सत्य खोजते-खोजते प्राप्त हो जाता है । हे मन ! बोध होते-होते होता है । ज्ञान होता है परंतु यह सब केवल श्री सद्गुरु की प्राप्ति और सहवास प्राप्त होने से और सद्गुरु-स्वरूप में व्यक्त, सदेह, सगुण परमात्मा की कृपा और उनका अनुराग प्राप्त करने से ही हो सकता है । अतः सद्गुरु के सत्संग का लाभ लेकर ब्रह्म-निश्चय को प्राप्त करो ।

संतोष की प्राप्ति पिण्ड-ब्रह्माण्ड के ज्ञान से नहीं होती । तत्त्व का ज्ञान बौद्धिक तर्क और अनुमान तथा ज्ञान से नहीं होता, कर्म में संलग्न रहने से, यज्ञ करने से तथा शरीर द्वारा विषयों के भोग को त्याग करने से नहीं होता । वह संतोष और समाधान तथा वह शांति तो श्री सद्गुरु जी की कृपादृष्टि और उनकी प्रीति से ही प्राप्त होती है ।

‘तत्त्वमसि’ महावाक्य, वेदांत-तत्त्व, वेदांत में आया हुआ पंचीकरण सिद्धांत – ये सब संकेत हैं, और  जो वाणी से परे स्थित उस परब्रह्म की और श्री सद्गुरु द्वारा किये गये हैं । इन संकेतों का आधार लेकर सद्गुरु की सहायता से सत्शिष्य को अपने अंतःकरण में ब्रह्मसाक्षात्कार उसी प्रकार करना होता है, जिस प्रकार आकाश में द्वितीया का चंद्रमा शाखा का संकेत देकर दिखाने वाले संकेत के आधार पर व्यक्ति को शाखा को छोड़ चंद्रमा को स्वयं ही देखना होता है और न दिखने पर चंद्रमा दिखने तथा दिखाने वाले व्यक्ति से बार-बार पूछना होता है और अंत में चंद्रमा को साक्षात् देखना होता है ।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जून 2009, पृष्ठ संख्या 13 अंक 198

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दीक्षा से सुधरती है जीवन-दशा


(पूज्य बापू जी के सत्संग-प्रवचन से)

उस मनुष्य का जीवन बेकार है जिसके जीवन में किन्हीं ब्रह्मनिष्ठ सद्गुरु की दीक्षा नहीं है । दीक्षारहित जीवन विधवा के श्रृंगार जैसा है । बाहर की शिक्षा तुम भले पाओ किंतु उस शिक्षा को वैदिक दीक्षा की लगाम देना जरूरी है । दीक्षाविहीन मनुष्य का जीवन तो बर्बाद होता ही है, उसके संपर्क में आने वालों का भी जीवन बर्बाद होने लगता है…. खाया-पिया, दुःखी-सुखी हुए और अमर तत्त्व को जाने बिना मर गये ।

दीक्षा के बिना सांसारिक आवागमन से मनुष्य की मुक्ति नहीं हो सकती । यदि कोई अंधा व्यक्ति अकेला सड़क पर दौड़ रहा है तो वह दौड़ तो सकता है किंतु दुर्घटना का होना निश्चित है । गुरु के बिना इस संसार की असारता का रहस्य-विषयक ज्ञान नहीं हो सकता और ज्ञान के बिना जीव की मुक्ति नहीं हो सकती, जैसे दिशाविहीन नौका गहन समुद्र में कभी तट को प्राप्त नहीं कर सकती । धन, मान या पद से कोई गुरु से दीक्षा प्राप्त नहीं कर सकता । दीक्षा तो श्रद्धावान, सौम्य गुणवाले, विनीत शिष्य ही प्राप्त कर सकते हैं । धन का, सत्ता का अहंकार तथा काम, क्रोध, लोभ, मोह आदि सब विकार श्रद्धारूपी रसायन में पिघल जाते हैं ।

यह श्रद्धरूपी रसायन चिंता, भय को अलविदा कर देता है और परमात्मा-रस से भरा दीवाना बना देता है । नश्वर शरीर से संबंधित अपनी हीनता भी याद नहीं रहती और अपना अहंकार भी याद नहीं रहता अपितु श्रद्धालु दीक्षा पाकर अपनी शाश्वतता की तरफ उन्मुख होने लगता है । इसलिए जीवन में दीक्षा, श्रद्धा और सत्संग की अनिवार्य आवश्यकता है ।

मंत्रदीक्षा देने वाले गुरु तीन प्रकार के होते हैं । एक होते हैं बाजारू गुरु, जो मंत्रदीक्षा का धंधा लेकर चल पड़ते हैं ।

कन्या-मन्या कुर्र… तू मेरा चेला मैं तेरा गुर्र…।

दर्क्षिणा धर्र… तू चाहे तर्र चाहे मर्र….।।

अला बाँधूँ, बला बाँधँ….. भूत बाँधूँ, प्रेत बाँधूँ…

डाकिनी बाँधूँ, शाकिनी बाँधूँ….

इस प्रकार के लोग मनचले होते हैं । खुद तो बीड़ी पीना, क्या-क्या गलत कर्म करना और साथ में दूसरों को मंत्र दीक्षा देना ! अरे, मंत्रदीक्षा कोई मजाक की बात है ! इसमें तो बड़ी जिम्मेदारी होती है, अपनी तपस्या का अंख देना होता है । बाजारू लोग यह बात नहीं जानते । विवेकानंद जी ने ऐसे लोगों की अच्छी तरह से खिंचाई की ।

दूसरे होते हैं संप्रदाय-विशेष के गुरु, जो अपने-अपने सम्प्रदाय का मंत्र देते हैं । कोई रामानंदी संप्रदाय के हैहं तो ‘सीताराम-सीताराम’ मंत्र देंगे, वैष्णव संप्रदाय के हैं तो भगवान विष्णु का मंत्र देंगे, शैव संप्रदाय के हैं तो ‘ॐ नमः शिवाय’ देंगे । कोई मुल्ला-मौलवी हैं तो ‘अल्लाहो अकबर…..’ इस प्रकार सिखायेगा अपने संप्रदाय, परम्परा के अनुसार । कोई विरले-विरले होते हैं लोकसंत, जो वैदिक परम्परा के अनुसार मंत्र देते हैं । उनका अपना कोई अलग संप्रदाय नहीं होता, वे तो जिसका जिससे भला होता हो वही मंत्र उसको देते हैं ।

भगवान गणपति की परम्परा वाले गणपति जी का मंत्र देंगे, अच्छा है, गायत्री की परम्परा वाले सबको गायत्री मंत्र देंगे, ठीक है, अच्छा है, यह भी वैदिक परम्परा है, हमारा इससे विरोध नहीं है, ठीक है । उन बाजारू गुरुओं से तो ये बहुत अच्छे हैं लेकिन इनसे भी बढ़कर एक विलक्षण गुरु होते हैं नारद जी जैसे, कबीर जी जैसे, नानकजी जैसे, जगद्गुरु आद्य शंकराचार्य जी जैसे, भगवत्पाद लीलाशाह जी बापू जैसे, जो सामने वाले का जल्दी-से-जल्दी हित हो इस प्रकार की मंत्रदीक्षा और मंत्र जपने की रीति बताते हैं । हम भी दीक्षा देते समय किस विधि से जप करने पर कौन सा लाभ होता है आदि सब बता देते हैं । दीक्षित साधक एक बार ध्यान योग शिविर में आ जाते हैं न, तो सारी बातें उनको हस्तामलकवत् (हाथ पर रखे आँवले की तरह प्रत्यक्ष) हो जाती हैं, प्रत्यक्ष एहसास हो जाता है । फिर उनको लगता है कि ‘इतने साल हम कहाँ झख मार रहे थे !’ ऐसे-ऐसे खजाने खुलने लगते हैं दीक्षा के बाद, सारे रहस्य खुलने लगते हैं ।

तो आप जहाँ हैं वहीं से आपको यात्रा करनी होगी । जैसे आप दिल्ली में हैं तो यात्रा मुम्बई से थोड़े ही प्रारम्भ करेंगे, दिल्ली से ही प्रारम्भ करनी पड़ेगी, ऐसे ही आपका मन और प्राण कौन-से केन्द्र में ज्यादा रहते हैं उस प्रकार के मंत्र की आपकी पसंदगी होती तो आपके जीवन में परिवर्तन जल्दी होगा । इसीलिए लोकसंत, सद्गुरु सभी को एक प्रकार का मंत्र नहीं देते । वे विद्यार्थियों को सारस्वत्य मंत्र, स्वास्थ्य-अर्थियों को स्वास्थ्य मंत्र, मुक्ति अर्थियों को प्रणव (ॐ) युक्त मंत्र अथवा प्रणव – इस तरह अलग-अलग मंत्र देते हैं, जिनसे उनका  विकास जल्दी होता है ।

मंत्रदीक्षा देते समय हम ऐसे-ऐसे प्रयोग और प्राणायाम सिखा देते हैं, जिससे साधकों की बुद्धि का नाड़ी-जाल शुद्ध हो जाता है, बुद्धि में चमत्कारिक परिवर्तन होने लगते हैं । फिर लोग बोलते हैं कि ‘बापू जी ने चमत्कार कर दिया ।’ वास्तव में चमत्कार का खजाना पड़ा था, मैंने कुंजी दिखा दी और आपके जीवन में फायदे होने लगे । फिर मंत्रजप की और रीति भी बताता हूँ जिससे श्वासों का नियंत्रण होने से अकाल मृत्यु टल जाती है, आयुष्य लम्बा होने में मदद मिलती है और मन एकाग्र करने में बड़ी आसानी हो जाती है । श्वास (प्राण) तो हमारे पूरे शरीर में जाता है तो भगवदीय रस, भगवदीय ऊर्जा, भगवदीय आभा भी पैदा होने लगती है । जैसे जब आप किसी की निंदा सुनते हैं या करते हैं तो एक प्रकार के हानिकारक रसायन आपके शरीर में पैदा होते हैं, वैसे ही जब आप भगवान को प्रेम करते हुए भगवान का नाम लेते हैं तो सत्त्वमय, सुखमय, अमृतमय रसायन पैदा होते हैं, इसीलिए जीवन में परिवर्तन हो जाता है । ‘मैंने दीक्षा ली और यह परिवर्तन हो गया, वह हो गया….।’ इन चमत्कारों का रहस्य यह है कि आपके खजानों की चाबी भी मैं जानता हूँ और ताला भी मैं जानता हूँ । दीक्षा देते समय वह चाबी दे देता हूँ तो चमत्कार होता है ।

तो जो वैदिक दीक्षा लेकर भक्ति करते हैं उनकी भक्ति क्लेशनाशिनी हो जाती है । वे मनमुखी नहीं गुरुमुखी होते हैं । उनकी आधी साधना वैदिक दीक्षा लेने मात्र से पूरी हो जाती है और फिर बताये गये नियम के अनुसार थोड़े दिन की साधना से उनका जीवन जीवनदाता के ज्ञान-ध्यान से, रस से रसमय हो जाता है । वे जीते-जी मुक्ति के अधिकारी हो जाते हैं और मुक्ति पा लेते हैं ।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जून 2009, पृष्ठ संख्या 14,15 अंक 198

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