सर्वार्थ-सिद्धि का मूलः सेवा

सर्वार्थ-सिद्धि का मूलः सेवा


इस कलियुग में श्री शिवानंद स्वामी की पुस्तक ‘गुरुभक्तियोग’ गुरुभक्ति बढ़ाने में बड़ी मददगार है । उसमें लिखा है कि ‘गुरुभक्तियोग एक सलामत योग है ।’ जिसे सलामत योग का फायदा उठाना है उसे ‘गुरुभक्तियोग पढ़ना चाहिए ।

हमेशा सजाग रहो । ‘मेरा कुछ नहीं है, मुझे कुछ नहीं चाहिए । जो है वह इष्ट का है, इष्ट के लिए है ।’ ऐसे भाव रखन वाले सेवक को स्वामी सहज में मिल जाते हैं । जैसे संदीपक गुरु की सेवा में लग गया तो भगवान नारायण के दर्शन बिन बुलाये हो गये ।

सेवा में माँग नहीं होती है, स्वार्थ नहीं होता है । सेवा हृदय से जुड़ी होती है । सेवा करने वाले में अपने अधिकार की परवाह नहीं होती है । प्रीति है, सेवा है तो अधिकार उसका दास है । जैसे सेठ की कोई सेवा करता है तो क्या उसे सेठ के बँगले में रहने को नहीं मिलता है ? गाड़ी में बैठने को नहीं मिलता है ? ऐसे ही सेठों का सेठ जो गुरुतत्त्व है अथवा भगवान है, उनकी प्रसन्नता के लिए, उनकी प्रीति के लिए जब सेवा की जाती है तो उस सेवा में स्वार्थ नहीं होता । सेवा करते-करते सेवक इतना बलवान हो जाता है कि सेवा का बदला वह कुछ नहीं चाहता है फिर भी उसे उसका फल मिले बिना नहीं रहता है । उसके चित्त की शांति, आनंद, विवेक सेवा में उसकी सफलता की निशानी है ।

सेवक का विवेक यही है कि सेवा करते समय जो भूल हुई वह दुबारा न हो, सावधान हो जाय । इससे तो उसकी कार्य करने की योग्यता और भी बढ़ जाती है । सेवा करते-करते सेवक स्वयं स्वामी बन जाता है, इन्द्रियों का, मन का, बुद्धि का स्वामी बन जाता है । अपने शरीर, मन, इन्द्रियों को ‘मैं’ मानने की गलती निकल जाती है । वह मन, इन्द्रियों और शरीर से पार हो जाता है, फिर चाहे व तोटकाचार्य जी हों, पूरणपोड़ा हों अथवा एकनाथ जी महाराज हों । प्रेम का आरंभ है निष्काम सेवा । प्रीति में कमी और लापरवाही के दुर्गुणवाला व्यक्ति कुत्ते से भी गया-बीता माना जाता है ।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जुलाई 2009, पृष्ठ संख्या 30 अंक 199

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