सन् 1956 के आस-पास की घटना है । एक तहसीलदार थे । उनका गृहस्थ-जीवन बड़ा दुःखमय था क्योंकि उनकी धर्मपत्नी ठीक समय पर भोजन नहीं बना पाती थी, जिस कारण उन्हें कार्यालय पहुँचने में अकसर बहुत देर हो जाती थी । उन्होंने पत्नी को हर तरह से समझाया । कई बार कठोर व्यवहार भी किया, मारपीट भी की लेकिन पत्नी की गलती में सुधार होने के बजाय गलती बढ़ती ही गयी । वे इतने परेशान हो गये कि उनके मन में विचार आता, ‘यह घर छोड़कर चला जाऊँ या पत्नी को तलाक दे दूँ अथवा तो इसकी हत्या कर दूँ या खुद आत्महत्या कर लूँ ।’ उनकी मानसिक परेशानी चरम सीमा पर पहुँच गयी, घर श्मशान की तरह लगने लगा, नींद आना बंद हो गया, शारीरिक रोग सताने लगे ।
प्रभुकृपा
से एक बार वे किन्हीं संत के पास गये । भारी हृदय और बहते आँसूओं से उन्होंने अपनी
इस पारस्परिक समस्या को संतश्री के सामने रखा । संत करुणा बरसाते हुए हँसकर बोलेः “यह तो कोई समस्या ही
नहीं है, अभी हल कर देते हैं ! चलो, कल तुम्हारी
पत्नी यदि समय पर भोजन न बनाये तो तुम सुबह चुपचाप भूखेक पेट ही कार्यालय चले जाना
। सावधान ! न वाणी से, न आँखों से, न हाथों से, न पैरों से और न व्यवहार
से कुछ बोलना । मन व हृदय से भी कुछ मत बोलना, चुपचाप चले जाना, भूख लगे तो
कार्यालय में ही कुछ खा लेना । अभी तो ‘हरि ॐ शांति, हरि ॐ शांति…. ॐ उदारता….’ – ऐसा चिंतन करो । जो
समस्याओं को हर ले और अपने शांत स्वभाव को हमारे चित्त में भर दे, उसे
प्रीतिपूर्वक पुकारो । हरि ॐ शांति, हरि ॐ शांति…
बहुत गयी थोड़ी रही, व्याकुल मन मत होय ।
धीरज सबका मित्र है, करी कमाई मत खोय ।।
इस
चिंतन में चित्त को शांत और प्रसन्न रखना । तीन-चार दिन तक ऐसे ही करना ।”
तहसीलदार
ने पूछाः “महाराज ! वाणी से नहीं बोलूँगा
लेकिन आँख, हाथ, पैर, व्यवहार, हृदय व मन से न बोलने का क्या अर्थ है ?”
संत
ने उत्तर दियाः “मन से उसे बुरा मत समझना, मन से उस पर क्रोध मत करना,
वाणी से उसे डाँटना मत, आँख मत दिखाना, हाथों से मारना मत, पैर पटकते हुए क्रोधित
होकर मत जाना, व्यवहार से क्रोध का संकेत मत देना और हृदय में यह भाव रखना कि मुझे
जो दुःख हुआ, उसका कारण तो मेरी भूल है । इसमें पत्नी की लेशमात्र भी गलती नहीं
है, मैंने व्यर्थ ही उसे दुःख दिया, वह तो करुणा की पात्र है । प्रभु ! मुझे क्षमा करना, अब
आप ही उसे सँभालना ।”
संत
के मुख से इन वाक्यों के श्रवणमात्र से उनका दहकता हुआ हृदय कुछ शांत हुआ, मानों
जलते हुए घावों पर किसी ने चंदन लगा दिया हो । संयोग की बात, अगले दिन फिर पत्नी
ने समय पर भोजन नहीं बनाया । तहसीलदार संत के परामर्श का स्मरण किया । अंदर-बाहर
एकदम शांत रहकर चुपचाप कार्यालय के लिए रवाना हो गये ।
पत्नी
पर तत्काल प्रभाव पड़ा । हृदय में भाव आया, ‘आज वे चुपचाप चले गये,
कुछ नहीं बोले । दिन भर भूखे रहेंगे, भोजन बनाने का कार्य तो मेरा है । मैं अपना
कार्य समय पर नहीं कर पायी । मैं कैसी पत्नी हूँ, मैंने कितनी बार यह भूल की है ।’ पत्नी को भूल का
एहसास हुआ । पश्चाताप के आँसू बहने लगे, हृदय से ही उसने पतिदेव से क्षमा माँगी और
व्रत लिया कि ‘अब मैं ठीक समय पर भोजन बनाऊँगी ।’
पति
कार्यालय में बैठे हैं । पत्नी के हृदय की भाव-लहरियाँ तत्काल उनके हृदय तक पहुँच
गयीं । उनके हृदय में भाव आया, ‘मैं कैसा पति हूँ, एक
मामूली सी भूल के लिए मैं सदा अपनी जीवनसंगिनी का अपमान करता हूँ । मैंने उसे कभी
प्रेम से नहीं समझाया । अगर मैं प्रेम से समझाता तो क्या वह भूल करती ? प्रेम से तो पशु भी
वश में हो जाते हैं ।’ पति को अपनी भूल का एहसास हुआ । पश्चाताप की अग्नि
में उनके दोष, खिन्नता जल गयी । कार्यालय में बैठे-बैठे ही उन्होंने मन-ही-मन
पत्नी से क्षमा माँग ली और व्रत लिया, ‘अब मैं ऐसी भूल कभी
नहीं करूँगा । आज घर पहुँचते ही सबसे पहले उससे क्षमायाचना करुँगा । फिर उसकी पसंद
का भोजन उसे बनाकर उसे खिलाऊँगा, अपनी पसंद के भोजन के लिए पत्नी को कभी नहीं
कहूँगा ।’
पति
के हृदय की भाव-लहरियाँ पत्नी के हृदय तक पहुँचीं । विचार आया, ‘मेरे पति मेरे सर्वस्व
हैं । वे भूखे हैं । आज उनके आते ही मैं उनके चरणों में गिर कर क्षमा माँगूगी,
उनके लिए भोजन बनाकर तैयार रखूँगी । उन्हें प्रेम से भोजन कराऊँगी । आज से मैं
उन्हीं की पसंद का भोजन बनाया करूँगी । अब से पति की पसंद ही मेरी पसंद होगी ।
शाम
हो गयी, पति के घर आने का समय हो गया । पत्नी ने भोजन तैयार कर लिया । पति की
प्रतीक्षा कर रही है, मन प्रेम व प्रसन्नता से भरा है । ज्यों ही पति ने दरवाजा
खटखटाया, पत्नी ने खोला । तत्काल चरणों में गिर पड़ी, भरे कंठ से आवाज निकलीः “क्षमा कीजिये ।” लेकिन पति भी पूरे
सावधान थे । चरणों में गिरने से पहले ही पत्नी को उठा लिया, हृदय प्रेम से भर गया,
धीमा स्वर निकलाः मैंने तुम्हें सच्चा प्रेम नहीं दिया, दुःख दिया, अपमान किया ।
मुझे माफ करना ।” दोनों हृदयों में पवित्र प्रेम, आँखों में
प्रेमाश्रु, शरीर पुलकित… सारा वातावरण प्रेम से परिपूर्ण हो गया । जीवन में आज
पहली बार दोनों ने प्रेम से भोजन किया ।
तहसीलदार
ने बताया कि उस दिन के बाद पत्नी से वह भूल कभी नहीं हुई । बहुत बार ऐसा भी हुआ कि
मन में आया, ‘आज अमुक-अमुक सब्जियाँ बननी चाहिए ।’ पत्नी को नहीं बताया लेकिन भोजन करने बैठे तो वे सारी
सब्जियाँ थाली में थीं । पत्नि को पति के हृदय के भावों का बिना बताये पता चल जाता
। यह है सच्ची क्षमा का विलक्षण सुपरिणाम !
क्षमा
आपको सच्ची शांति प्रदान करती है । शांति व सुख का आधार सांसारिक व्यक्ति और
वस्तुएँ नहीं हैं क्योंकि संसार के व्यक्तियों व वस्तुओं के संयोग से आपको जो लौकिक
सुख मिलता है वह उन व्यक्तियों व वस्तुओं के बिछुड़ने पर समाप्त होकर भयंकर दुःख व
अशांति में बदल जाता है । शांति तो मिलती है सेवा, त्याग, प्रेम, विश्वास, क्षमा व
विवेक के आदर से । जिसके जीवन में ये सब अलौकिक तत्त्व हैं, उसका विवेक जगता है,
वैराग्य जगता है । ‘दुःख और सुख मन की वृत्ति है, राग-द्वेष बुद्धि में
है । दोनों को जानने वाला मैं कौन हूँ ?’ – सद्गुरु की कृपा से
इसकी खोज कर आत्मा-परमात्मा की एकता का अनुपम अनुभव करके वह जीवनमुक्त हो जाता है
। जो आनंद भगवान ब्रह्मा, विष्णु और महेश को प्राप्त है, उसी आत्मा के आनंद को वह
भक्त पा लेता है । विवेक से मनुष्य जब इतनी ऊँचाई को छू सकता है । तो नाहक
परेशानी, पाप और विकारों में पतित जीवन क्यों गुजारना !
स्रोतः
ऋषि प्रसाद, जुलाई 2009, पृष्ठ संख्या 28,29 अंक 199
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