Monthly Archives: July 2009

शिक्षा और दीक्षा


शिक्षा मानव-जीवन में सौंदर्य प्रदान करती है, कारण कि शिक्षित व्यक्ति की माँग समाजो सदैव रहती है । इस दृष्टि से शिक्षा एक प्रकार का सामर्थ्य है । यद्यपि सामर्थ्य सभी को स्वभाव से प्रिय है पर उसका दुरुपयोग मंगलकारी नहीं है । अतः शिक्षा के साथ-साथ दीक्षा अत्यंत आवश्यक है । शिक्षा का सदुपयोग दीक्षा से ही सम्भव है । दीक्षित मानव की प्रत्येक चेष्टा लक्ष्य की प्राप्ति के लिए ही होती है । शिक्षा अर्थात् ज्ञान, विज्ञान एवं कलाओं के द्वारा जो शक्ति प्राप्त हुई है, उसका दुरुपयोग न हो इसलिए शिक्षित मानव का दीक्षित होना अनिवार्य है ।

मानव-जीवन कामना और माँग का पुँज है । कामना मानव को पराधीनता, जड़ता एवं अभाव की ओर गतिशील करती है और माँग स्वाधीनता, चिन्मयता एवं पूर्णता की ओर अग्रसर करती है । माँग की पूर्ति एवं कामनाओं की निवृत्ति में ही मानव-जीवन की पूर्णता है । मानवमात्र का लक्षय एक है । इस कारण दीक्षा भी एक है । दीक्षा के दो मुख्य अंग हैं – दायित्व और माँग । प्राकृतिक नियमानुसार दायित्व पूरा करने का अविचल निर्णय तथा माँग-पूर्ति में अविचल आस्था रखना दीक्षा है । यह दीक्षा प्रत्येक वर्ग, समाज, देश, मत, सम्प्रदाय, मजहब आदि के मानव के लिए समानरूप से आवश्यक है । इस दीक्षा के बिना कोई भी मानव मानव नहीं हो सकता और मानव हुए बिना जीवन अपने लिए, जगत के लिए और उसके जो सर्व का आधार तथा प्रकाशक है, उपयोगी नहीं हो सकता ।

शिक्षा सामर्थ्य है और दीक्षा प्रकाश । सामर्थ्य का उपयोग अंधकार में करना अपने विनाश का आह्वान करना है । शिक्षा का प्रभाव शरीर, इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि पर होता है और दीक्षा का प्रभाव अपने पर होता है अर्थात् कर्ता पर होता है करण पर नहीं । करण कर्ता के अधीन कार्य करते हैं । अतः शिक्षा का उपयोग दीक्षा के अधीन होना चाहिए । किसी भी मानव को यह अभीष्ट नहीं है कि सबल उसका विनाश करें, अतः बल का दुरुपयोग न करने का व्रत कर्तव्य-पथ की दीक्षा है ।

यद्यपि शिक्षा बड़े ही महत्त्व की वस्तु है पर दीक्षित न होना भारी भूल है । दीक्षित हुए बिना शिक्षा के द्वारा घोर अनर्थ भी हो जाते हैं । अशिक्षित मानव से उतनी क्षति हो ही नहीं सकती, जितनी दीक्षारहित शिक्षित से होती है । शिक्षित मानव का समाज में बहुत बड़ा स्थान है, कारण कि उसके सहयोग की माँ समाज को सदैव रहती है । इस दृष्टि से शिक्षित का दीक्षित होना अत्यंत आवश्यक है ।

दीक्षा के बिना माँग अर्थात् लक्षय क्या है और उसकी प्राप्ति के लिए दायित्व क्या है, इसका विकल्परहित निर्णय संभव नहीं है, जिसके बिना सर्वतोमुखी विकास सम्भव नहीं है । दीक्षा का बाह्य रूप भले ही भिन्न-भिन्न प्रकार का प्रतीत हो किंतु उसका आंतरिक स्वरूप तो कर्तव्यपरायणता, असंगता एवं शरणागति में ही निहित है । इतना ही नहीं, कर्तव्य की पूर्णता में शरणागति स्वतः आ जाती है । कर्तव्यपरायणता के बिना स्वार्थभाव का, असंगता के बिना जड़ता का और शरणागति के बिना सीमित अहंभाव का सर्वांश में नाश नहीं होता । स्वार्थभाव ने ही मानव को सेवा से, जड़ता ने मानव को चिन्मय जीवन से एवं सीमित अहंभाव ने प्रेम से विमुख किया है । स्वार्थभाव, जड़ता एवं सीमित अहंभाव का नाश दीक्षा में ही निहित है ।

शिक्षा मानव को उपयोगी बनाती है और दीक्षा सभी के ऋण से मुक्त करती है । ऋण से मुक्त हुए बिना शांति, स्वाधीनता तथा प्रेम के साम्राज्यों में प्रवेश नहीं होता, जो वास्तविक जीवन है ।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जुलाई 2009, पृष्ठ संख्या 4,7 अंक 199

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सबसे बड़ी बात – पूज्य बापू जी


जब मुसीबत पड़ती है तब आपके अचेतन मन में क्या होता है ? यह जरा देखना यार ! जब मार पड़ती है तब ‘हाय !….’ निकलती है कि ‘हरि !….’ निकलता है, ‘डॉक्टर साहब !… इंजेक्शन….’ निकलता है कि ‘शिवोऽहम्… सब मिथ्या है’ यह निकलता है या इससे अलग कुछ निकलता है । यदि कचरा निकलता है तो जल्दी से बुहार कर सरिता में बहा देना क्योंकि सरिता में बाढ़ आयी है, बह जायेगा । किसका चिंतन निकलता है ? आकृति में विकृति दिखती है कि आकृति में सत्यस्वरूप दिखता है ? आकृति में निराकार दिखता है या निराकार में आकृति दिखती है ? यह आप अपने अंदर गहरा चिंतन करना । गायत्री का जप करते हैं तो संसार का कुछ माँगने के लिए करते हैं कि उससे माँगते हैं – धियो यो नः प्रचोदयात् । हमारी बुद्धि पवित्र हो । पवित्र बुद्धि में ही परमात्म-साक्षात्कार की क्षमता है ।

गायत्री जपना या न जपना कोई बड़ी बात नहीं । धनवान होना या निर्धन होना बड़ी बात नहीं लाला ! लाखों निर्धन भटकते है और हजारों-लाखों धनवान भी भटकते हैं । मंदिरों में जाना या फिल्मों में जाना कोई बड़ी बात नहीं । दूसरों के दुःख में आँसू बहाना और ‘हाय-हाय !….’ करके रोना कोई बड़ी बात नहीं । दूसरों को सुखी देखकर ईर्ष्या करना या दूसरों को सुखी देखकर सुखी हो जाना कोई बड़ी बात नहीं । देवता होकर स्वर्ण के  विमान में घूमना या नरक में पापियों के साथ यातना सहना भी बड़ी बात नहीं । महाराज ! स्वर्ग में अमृतपान भी कोई बड़ी बात नहीं है । अमेरिका जाना और लौटकर आना या वहीं ग्रीनकार्ड लेकर बैठ जाना भी कोई बड़ी बात नहीं है ।

जहाँ में उसने बड़ी बात कर ली ।

जिसने अपने-आपसे मुलाकात कर ली ।।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जुलाई 2009, पृष्ठ संख्या 3 अंक 199

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दुर्जन की करुणा बुरी, भलो साँईं को त्रास-पूज्य बापू जी


वसिष्ठ जी बोलते हैं- “हे राम जी ! यदि असाधु का संग साधुपुरुष भी करता है तो साधु भी असाधु होने लगता है और यदि साधुओं का संग असाधु कर ले तो असाधु भी साधु होने लगता है ।

जो परम साध्य साध रहे हैं वे ‘साधु’ हैं और जो अस्थिर संसार के पीछे समय लगा रहे हैं वे ‘असाधु’ हैं । असाधु पुरुषों का अधिक समय हम संग करते हैं तो हमको भी लगता है कि ‘अपने को भी इतना तो करना ही चाहिए, थोड़ा तो कर लेना चाहिए, यहाँ मकान बना लेना चाहिए, यहाँ से इतना ऐसा कर लेना चाहिए, यह मौका नहीं छोड़ना चाहिए । 2-5 घंटे काम किया तो रोज के 100 रूपये मिलते हैं, ले लेने चाहिए ।’ अरे, रोज के लाख रूपये भी तुम्हारे काम के नहीं हैं ।

तो हम पामर लोगों के संग में आते हैं इसीलिए अपने-आपको धोखा देते हैं । जब आप गहराई जाओगे, तब आपको पता चलेगा कि हमने 25 साल ऐसे ही गँवा दिये, 40 साल ऐसे ही गँवा दिये…। आपको जब साक्षात्कार होगा तो पीछे के जीवन पर आपको आश्चर्य होगा, ग्लानि होगी कि ‘कितना खजाना मेरे पास था और मैंने कौड़ियों को गिनने और रखने में ही अपना जीवन बर्बाद कर दिया । हाय ! मैंने वह किया जो अंधा भी न करे ।’ राजा जनक जैसा व्यक्ति आश्चर्य से भर जाता हैः ‘अहो, गुरु आश्चर्य ! परम आश्चर्य !’ वह सम्राट था, जैसा-तैसा व्यक्ति तो नहीं था जो उसको छोटी-छोटी बात पर आश्चर्य हो जाय । जनक बोलते हैं- ‘अहो, मैं इतना समय मोह में व्यतीत कर रहा था !’ जिस समय आपको अपना खजाना मिलता है न, उस समय आप खूब आश्चर्यमय हो जाते हैं । आश्चर्यमय हो जाना इसी का नाम ‘समाधि’ है ।

निज स्वरूप का ज्ञान दृढ़ाया

ढाई दिवस होश न आया ।।

होश कैसे आयेगा ? क्या थे ? शक्करवाले सेठ…. यह, वह… और अब क्या हैं ! इतने दिन क्या झख मार रहे थे ? हाय-रे-हाय ! जैसे नितांत अँधेरे में से आदमी एकदम प्रकाश में आ जाय तो उसकी आँखें बंद हो जाती हैं, ऐसे ही परम प्रकाश परमात्मा का जब साक्षात्कार होता है तो लगता है कि ‘हाय-रे-हाय ! हम क्या कर रहे थे और अपने को चतुर मान रहे थे ।’ हम जब दुकान पर थे तो अपने को बेवकूफ थोड़े ही मान रहे थे ! अभी दुकान में हो, डॉक्टर हो, कोई वकील है, कोई नेता है, कोई कुछ है तो अपने बारे में ऐसा थोड़े ही मानते हो कि हम मूर्खता कर रहे हैं । मान रहे हो कि हम ठीक कर रहे हैं । बिल्कुल सच्चाई का, परिश्रम का, ईमानदारी का पैसा लेकर अपन लोगों की थोड़ी सेवा कर रहे हैं । हम बहुत अच्छा कर रहे हैं ।’ जब परमात्मा का साक्षात्कार होगा तब पता चलेगा कि ये बेवकूफी के दिन थे । महापुरुष अपनी उस महिमा को जानते हैं, ईश्वर की उस गरिमा को जानते हैं इसीलिए हमारे परम हितैषी होते हैं और जब हम नादानी करते हैं तो हम पर थोड़ा-बहुत खीझ भी जाते हैं । खीझ जाते हैं उस समय लगता है हमको ताने मार रहे हैं लेकिन ये कोई दुश्मनी के ताने नहीं, परम कल्याण के ताने हैं, परम कृपा के ताने हैं और ऐसे ताने यदि तुमको ताने लगते हैं तो उनको धन्यवाद ! नारद जी भी डाँटकर, ताने मारकर सामान्य लोगों का, राजा-महाराजाओं का कल्याण करते थे । कबीर जी ने भी ऐसे ताने लोगों को मारे तो लोग ऊब जाते थे । तब कबीर जी को साखी बनानी पड़ी होगीः

दुर्जन की करुणा बुरी, भलो साँईं को त्रास । हम तुम्हें त्रास भी दें, तुम्हें डाँटें, तुम पर अपना गुरुपद का वीटो पावर भी चला दें फिर भी तुम भूलक भी हमारा दामन  मत छोड़ना क्योंकि –

दुर्जन की करुणा बुरी, भला साँईं को त्रास ।

सूरज जब गर्मी करे, तब बरसन की आस ।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जुलाई 2009, पृष्ठ संख्या 2,3 अंक 199

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