महात्मा विदुर राजा धृतराष्ट्र से बोलेः राजन ! एको धर्मः परं श्रेयः । ‘एकमात्र धर्म ही परम कल्याणकारी है ।’ भगवती श्रुति की आज्ञा हैः धर्मं चर, धर्मान्न प्रमदितव्यम् ।’ धर्म करो, धर्मकार्य में प्रमाद नहीं करना चाहिए ।’
वेदों में जिन कर्मों का विधान किया गया है वे धर्म हैं और जिनका निषेध किया है वे अधर्म हैं । वेद स्वयं भगवान के स्वरूप हैं । वे उनके स्वाभाविक श्वास-प्रश्वास हैं । वेद, स्मृति, सत्पुरुषों का आचरण और अपने आत्मा की प्रसन्नता – ये चार धर्म के परिचायक हैं ।
इस लोक में जो मनुष्य जिस प्रकार का और जितना अधर्म या धर्म करता है, वह परलोक में उसका उतना और वैसा ही फल भोगता है ।
धनाद्धर्मस्ततः सुखम् ।
धन से धर्म और धर्म से सुख होता है ।’
धर्मानुसरण में ही शक्ति और मुक्ति निहित है । शास्त्रों में यज्ञ, अध्ययन, दान, तप, सत्य, क्षमा, दया और अलोभ – ये धर्म के आठ प्रकार के मार्ग बताये गये हैं ।
धर्म के आश्रय से ही ऋषियों ने संसार-समुद्र को पार किया है । धर्म पर ही संपूर्ण लोक टिके हुए हैं । धर्म से ही देवताओं की उन्नति हुई है और धर्म में ही अर्थ की भी स्थिति है ।
धर्ममेवानुवर्तस्व न धर्माद् विद्यते परम् ।
हे राजन ! तुम धर्म का पालन करो । धर्म से बढ़कर दूसरी कोई वस्तु नहीं है । सज्जन पुरुषों द्वारा किये हुए धर्माचरण को करने वाले राजा की राज्यभूमि धन-धान्य से पूर्ण होकर समृद्धि को प्राप्त होती है और उसके ऐश्वर्य को बढ़ाती है । जो राजा धर्म को छोड़कर अधर्म को अपनाता है, उसकी राज्यभूमि आग पर रखे हुए चमड़े की भाँति संकुचित हो जाती है । इसलिए –
धर्मेण राज्यं विन्देत धर्मेण परिपालयेत् ।
धर्ममूलां श्रियं प्राप्य न जहाति न हीयते ।।
‘धर्म से ही राज्य प्राप्त करें और धर्म से ही उसकी रक्षा करें क्योंकि धर्ममूलक राज्यलक्ष्मी को पाकर न तो राजा उसे छोड़ता है और न वह राजा को छोड़ती है ।’
दृष्टांत कथा
‘महाभारत के वन पर्व में आता है कि धर्मराज युधिष्ठिर से द्रौपदी कहती हैः “हे कुंतीनंदन ! आपका राज्य व जीवन दोनों धर्म के लिए ही हैं । आप मेरे सहित भीमसेन, अर्जुन और नकुल-सहदेव को भी त्याग देंगे पर धर्म का त्याग नहीं करेंगे । मैंने आर्यों के मुँह से सुना है कि यदि धर्म की रक्षा की जाय तो वह धर्मरक्षक राजा की भी रक्षा करता है किंतु मुझे मालूम होता है कि वह आपकी रक्षा नहीं कर रहा है । जो आर्यशास्त्रों की आज्ञा का उल्लंघन व धर्म की हानि करने वाला, क्रर तथा लोभी है उस धृतराष्ट्र-पुत्र दुर्योधन को धन देकर विधाता क्या फल पाता है ?”
युधिष्ठिर बोलेः “सुशोभने ! मैं धर्म का फल पाने के लोभ से धर्म का आचरण नहीं करता अपितु साधु पुरुषों के आचार-व्यवहार को देखकर शास्त्रीय मर्यादा का उल्लंघन न करके स्वभाव से ही मेरा मन धर्मपालन में लगा है । जो मनुष्य कुछ पाने की इच्छा से धर्म का व्यापार करता है वह धर्मवादी पुरुषों की दृष्टि में हीन और निंदनीय है ।
कृष्णे ! सर्वज्ञ और सर्वद्रष्टा महर्षियों द्वारा प्रतिपादित तथा शिष्ट पुरुषों द्वारा आचरित पुरातन धर्म पर शंका नहीं करनी चाहिए । जो धर्म के प्रति संदेह करता है, उसकी शुद्धि के लिए कोई प्रायश्चित्त नहीं है ।
साध्वी द्रौपदी ! यदि धर्मपरायण पुरुषों द्वारा पालित धर्म निष्फल होता तो संपूर्ण जगत असीम अंधकार में निमग्न हो जाता । कृष्णे ! यहाँ धर्म का फल देने वाले ईश्वर अवश्य हैं, यह बात जानकर ही उन ऋषि आदिकों ने धर्म का आचरण किया है । धर्म ही सनातन श्रेय (श्रेष्ठ, मंगलमय) है । धर्म निष्फल नहीं होता ।
धर्म का फल तुरंत दिखायी न दो तो इस कारण धर्म एवं देवताओं पर शंका नहीं करनी चाहिए । दोषदृष्टि न रखते हुए यत्नपूर्वक यज्ञ और दान करते रहना चाहिए । कर्मों का फल यहाँ अवश्य प्राप्त होता है, यह धर्मशास्त्र का विधान है । इसलिए कृष्णे ! यह सब कुछ सत्य है, ऐसा निश्चय करके तुम्हारा धर्मविषयक संदेह कुहरे की भाँति नष्ट हो जाना चाहिए ।
कल्याणी ! जो सदा धर्म के विषय में पूर्ण निश्चय रखने वाला है और सब प्रकार की आशंकाएँ छोड़कर धर्म की ही शरण लेता है, वह परलोक में अक्षय, अनंत सुख का भागी होता है अर्थात् परमात्मा को प्राप्त हो जाता है । इसीलिए मनस्विनी ! समस्त प्राणियों का भरण-पोषण करने वाले ईश्वर पर आक्षेप बिल्कुल न करो । कृष्णे ! जिनके कृपाप्रसाद से उनके प्रति भक्तिभाव रखने वाला मरणधर्मा मनुष्य अमरत्व को प्राप्त हो जाता है, उन परम देव परमेश्वर की तुमको किसी प्रकार अवहेलना नहीं करनी चाहिए ।”
इस प्रकार जो मनुष्य धर्म-अनुसार आचरण करता है व सब प्रकार के लाभों में धर्मलाभ को ही सर्वोपरि समझता है, वह चिरकाल तक सुख का उपभोग करता है ।
धर्मो हि विश्वस्य जगतः प्रतिष्ठा ।
‘धर्म से ही संपूर्ण जगत की प्रतिष्ठा है ।’
अतः कामना, भय व लोभ से तथा इस जीवन के लिए भी कभी धर्म का त्याग न करें । धर्म नित्य है, सुख-दुःख अनित्य हैं । आप अनित्य को छोड़कर नित्य धर्मस्वरूप उस परमेश्वर में स्थित होइये, वही अखण्ड, एकरस आनंद का आश्रय है ।
इतिहास साक्षी है अधर्म का आचरण करने वाला दुर्योधन बाहर से समृद्ध था, सुखी लगता था पर उसका और उसका साथ देने वालों का अंत क्या हुआ ?
पांडव अकिंचन, अभावग्रस्त दिखते थे फिर भी शांत, सौम्य व प्रसन्न रहते थे । अंत में उनको भोग और मोक्ष, मधुमय मुक्ति प्राप्त हुई । अधर्म की, बाहर की क्षणिक चमक-दमक देखकर कभी भी संसार की आसक्ति हटाने वाला व अपनी आंतरिक शांति, संतोष, प्रभुप्रीति देने वाला धर्म नहीं छोड़ना चाहिए ।
स्रोतः ऋषि प्रसाद, अगस्त 2009, पृष्ठ संख्या 26 अंक 200
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