अनर्थों का मूलः आलस्य

अनर्थों का मूलः आलस्य


आलस्य मानव की उन्नति में रिपु (शत्रु) है । भले कामों में अथवा कर्तव्य कर्मों में जी चुराने का नाम आलस्य है । आलस्य ऐसा भारी दोष है कि इससे मनुष्य अपना वर्तमान और भविष्य घोर दुःखान्धकार से ही भरा हुआ पाता है । आलस्य के कारण ही मनुष्य बड़े-बड़े लाभ के अवसरों को, अच्छे-अच्छे उन्नति के साधनों को व्यर्थ में ही खो देता है और फिर अपने भाग्य को कोसते हुए मरता है । कर्तव्य से जी चुराना ही आलस्य है ।

शारीरिक स्वस्थता, मानसिक शक्ति, बौद्धिक विकास और ज्ञान-प्रकाश प्राप्त करने का साधन प्रत्येक मनुष्य को सुलभ है, किंतु जो आलसी वह वह दुर्भाग्यवश उन महान लाभों से वंचित रहते हुए पशुवत जीवन काटता रहता है ।

आलस्य के कारण ही मनुष्य अभी का कार्य आगे कर लेने के लिए टालता रहता है । प्रातःकाल का काम दिन चढ़ने पर करता है, मध्याह्न का कार्य दिन ढलने पर आरम्भ करता है ।

इस प्रकार दिन का कार्य पूरा न होकर रात्रि में बोझ की तरह भार बनकर मन के ऊपर लदा रहता है । पूर्ण विश्राम की नींद भी सपनों की भरमार से नहीं आ पाती । आलस्यवश ही आज का काम कल के लिए, इस महीने का काम दूसरे महीने के लिए, इस वर्ष का काम दूसरे वर्ष के लिए टलते-टलते जीवन का कार्य इस जीवन में पूरा नहीं होता । इसके परिणामस्वरूप मनुष्य शांतिपूर्वक मर भी नहीं पाता ।

प्रायः मनुष्य आलस्य को विश्राम समझने की भूल किया करता है । कभी वह छोटे या बड़े काम समय और शक्ति के रहते हुए भी आगे के लिए टालता है । आलस्य का ही भुलावा है ।

जो लोग अधिक देर तक सोने के अभ्यासी हो गये हैं उनका चित्त कर्तव्य-कर्मों में सावधान नहीं रहता, उसमें दक्षता नहीं पायी जाती । मनोयोग की कमी और विस्मृति दोष अधिक रहता है । अधिन नींद से आलसी प्रकृति में अधिकाधिक निद्रा का प्रभाव दृढ़ रहता है, ऐसी नींद विश्रामदायी न होकर दुःस्वप्नों से थकाने वाली होती है ओ। जो लोग जागने के समय सोते हैं वे ही सोने के समय जागकर अस्वस्थ होते हैं । जो लोग परिश्रमी नहीं हैं, जो दिन में अपने शरीर और बुद्धि का कार्य-संलग्नता में उपयोग नहीं करते, वे भी एक तरह से निद्रित अवस्था में समय खोने वाले जीव हैं ।

आलस्य तमाम अभावों और कष्टों का मूल है । कुछ विद्यार्थी प्रातःकाल उठने में आलस्य करनके के कारण ही विद्योपार्जन में निर्बल रहते हैं, साथ ही प्रातःकालीन स्वस्थ, शक्तिप्रद वायु तथा सूर्योदय की तमाम प्राणतत्त्व-प्रदायिनी किरणों के अनुपम लाभ से भी वंचित रहते हैं । जिस ऊषाकाल में अचेतन प्रकृति भी जागती जैसी दिखती है, उस समय सचेतन मानव सोता रहे तो यह उसकी मूर्खता है ।

संसार के बड़े-बड़े वैज्ञानिकों, यथार्थदर्शी बुद्धिमान एवं ज्ञानियों तथा बड़े-बड़े कर्मयोगियों से कोई भी पूछकर जान सकता है कि वे आलस्य का त्याग प्रातःकाल से ही आरम्भ कर रात्रि के सोने के समय तक किस प्रकार करते हुए अपने-अपने लक्ष्य-पथ में अग्रसर हुए । एक व्यापारी कभी-कभी आलस्य के कारण ही बड़े-बड़े लाभ के सौदे को हाथ से निकल जाते देखता है और फिर भाग्य को कोसता है । एक सेवक या सिपाही आलस्य के कारण ही उन्नति के अवसरों को खो देता है और सदा के लिए स्वामी की निगाहों में गिर जाता है । आलस्य के कारण ही एक व्यक्ति बहुत आवश्यक कार्यस्थल पर पहुँचने के लिए ज्यों ही स्टेशन पर कुछ मिनट देर से पहुँचता है कि गाड़ी छूटती हुई दिखती है, फिर पश्चाताप की वेदना से दुःखी होता है ।

जिस प्रकार लोहे को उसका जंग खाता है उसी प्रकार शरीर के लिए आलस्य हानिप्रद होता है, अतएव आलस्य छोड़ने के लिए अधिक परिश्रम करके उद्यत रहना चाहिए ।

आलस्यवश ही पुत्र माता-पिता की सेवा का सौभाग्य खो देता है, पत्नी पतिसेवारूपी पुण्य को खो देती है । आलस्य के कारण संतान रोगी और निर्बल होती है ।

बुद्धिमान और सौभाग्यशाली वही है जो विद्योपार्जन में आलस्य न करे । बड़ों के तथा दीन-दुःखियों के आतिथ्य और रोगी की सेवा-सहायता से आलस्य न करे । जिस वस्तु की अभी आवश्यकता है उसे लाने और लायी हुई वस्तु को यथास्थान पहुँचाने में भी आलस्य न करे । शुभ प्रतिज्ञा करे एवं जो प्रतिज्ञा कर ली है उसको पूरा करने में आलस्य न करे । अपनी दैनिक, शारीरिक, मानसिक शुद्धि क्रियाओं में आलस्य न करे । आलस्य बहुत ही अनर्थकारी रोग है । आलस्य के त्याग में भी आलस्य नहीं करना चाहिए ।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, नवम्बर 2009, पृष्ठ संख्या 24,25 अंक 203

ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *