Monthly Archives: November 2009

गुरुतत्त्व – ब्रह्मलीन स्वामी शिवानंद जी


जिस प्रकार पिता या पितामह की सेवा करने ले पुत्र या पौत्र खुश होता है, इसी प्रकार गुरु की सेवा करने से मंत्र प्रसन्न होता है । गुरु, मंत्र एवं इष्टदेव में कोई भेद नहीं होता है । गुरु ही ईश्वर है । उनको केवल मानव ही नहीं मानना । जिस स्थान में गुरु निवास कर रहे हैं वह स्थान कैलास है । जिस घर में वे रहते हैं वह काशी या वाराणसी है । उनके पावन चरणों का पानी गंगा जी स्वयं है । उनके पावन मुख से उच्चारित मंत्र रक्षणकर्ता ब्रह्मा स्वयं ही है ।

गुरु की मूर्ति ध्यान का मूल है । गुरु के चरणकमल पूजा का मूल हैं । गुरु का वचन मंत्र का मूल है और गुरु की कृपा मोक्ष का मूल है ।

गुरु तीर्थस्थान हैं । गुरु अग्नि हैं । गुरु सूर्य हैं । गुरु समस्त जगत हैं । समस्त विश्व के तीर्थधाम गुरु के चरणकमलों में बस रहे हैं । ब्रह्मा, विष्णु, शिव, पार्वती, इन्द्र आदि सब देव और सब पवित्र नदियाँ शाश्वत काल से गुरु की देह में स्थित हैं । केवल शिव ही गुरु हैं ।

गुरु और इष्टदेव में कोई भेद नहीं है । जो साधना एवं योग के विभिन्न प्रकार सिखाते हैं, वे शिक्षागुरु हैं । सबमें सर्वोच्च गुरु वे हैं जिनसे इष्टदेव का मंत्र श्रवण किया जाता है और उसका अर्थ एवं रहस्य समझा जाता है । उनके द्वारा ही सिद्धि प्राप्त की जा सकती है ।

अगर गुरु प्रसन्न हों तो भगवान प्रसन्न होते हैं और गुरु नाराज हों तो भगवान नाराज होते हैं । गुरु इष्टदेवता के पितामह हैं ।

जो मन, वचन, कर्म से पवित्र हैं, इन्द्रियों पर जिनका संयम हैं, जिनको शास्त्रों का ज्ञान है, जो सत्यव्रती एवं प्रशांत हैं, जिनको ईश्वर साक्षात्कार हुआ है वे गुरु हैं ।

बुरे चरित्रवाला व्यक्ति गुरु नहीं हो सकता । शक्तिशाली शिष्यों को कभी शक्तिशाली गुरुओं की कमी नहीं रहती । शिष्य को गुरु में जितनी श्रद्धा होती है उतने फल की उसे प्राप्ति होती है । किसी आदमी के पास अगर यूनिर्वसिटी की उपलब्धियाँ हों तो इससे वह गुरु की कसौटी करने की योग्यता वाला नहीं बन जाता । गुरु के आध्यात्मिक ज्ञान की कसौटी करना, यह किसी भी मनुष्य के लिए मूर्खता एवं उद्दण्डता की पराकाष्ठा है । ऐसा व्यक्ति दुनियावी ज्ञान के मिथ्या-अभिमान से अंध बना हुआ है ।

आत्मानुभवी गुरुओं से लाभ लेना बुद्धिमानी है और उन पर दोषारोपण करना मति-गति की नीचता है ।

न देवा दण्डमादाय रक्षन्ति पशुपालवत् ।

यं तु रक्षितुमिच्छिन्ति बुद्ध्या संविभजन्ति तम् ।।

‘देवता लोग चरवाहों की तरह डण्डा लेकर पहरा नहीं देते । वे जिसकी रक्षा करना चाहते हैं, उसे उत्तम बुद्धि से युक्त कर देते हैं ।’ (विदुर नीतिः 3.40)

स्रोतः ऋषि प्रसाद, नवम्बर 2009, पृष्ठ संख्या 17 अंक 203

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ईश्वर दयालु है या न्यायकारी ?


(पूज्य बापू जी के सत्संग-प्रवचन से)

जो व्यक्ति दयालु होता है वह ठीक से न्याय नहीं कर सकता और जो न्यायप्रिय होता है वह दया नहीं कर सकता । तब कई बार मन में होता है कि भगवान दयालु हैं कि न्यायकारी ? अगर दयालु हैं तो पापी पर भी दया करके उसको माफ कर देना चाहिए । न्यायाधीश दया करेगा तो सजा नहीं देगा, वह तो दयावश बोलेगाः ‘छोड़ दो बेचारे को ।’ अगर भगवान न्यायकारी हैं और हमारे कर्मों का ही फल हमको देते हैं तो फिर हम उनकी भक्ति क्यों करें ? अगर भगवान दया नहीं कर सकते तो हम उनका भजन क्यों करें ? और भगवान यदि न्याय नहीं कर सकते तो अन्यायी हमारा क्या भला क्या करेगा ? अगर हमारा भला करेगा तो दूसरे का बुरा होगा । अगर सजा देते हैं तो वे दयालु नहीं हैं । तो बताओ भगवान दया करते हैं कि न्याय करते हैं ?

सच तो यह है कि भगवान दया भी करते हैं और न्याय भी करते हैं । यह कैसे हो सकता है ? जो दया करेगा वह न्याय में कहीं-न-कहीं छूटछाट लेगा । तो क्या भगवान छूटछाटवाले हैं ?

भगवान न्यायकारी हैं, ऐसा मानोगे तो कर्म सिद्धान्त वाले आपकी पीठ ठोकेंगे कि ठीक समझे-

करम प्रधान बिस्व करि राखा ।

जो जस करइ सो तस फलु चाखा ।। (श्रीरामचरित. अयो. कां. 298.2)

और दयाप्रियवाले पक्ष में बैठोगे तो भक्त आपकी पीठ ठोकेंगे ।

अपि चेदसी पापेभ्यः सर्वभ्यः पापकृत्तमः ।

सर्वं ज्ञानप्लवेनैव वृजिनं संतरिष्यसि ।।

‘यदि तू अन्य सब पापियों से भी अधिक पाप करने वाला है तो भी तू ज्ञानरूप नौका द्वारा निःसन्देह सम्पूर्ण पाप-समुद्र से भलीभाँति तर जायेगा ।’ (गीताः 4.36)

भाई देखो, एक कर्म-सिद्धान्त होता है, दूसरा भगवदीय सिद्धान्त होता है । जो पापकर्म करते हैं और पाप को पाप नहीं मानते, ऐसे लोगों के लिए भगवान न्यायकारी हैं । जो एकदम अड़ियल होते हैं, गलती को ढकने के लिए तर्क देते हैं उनको तो न जाने कितनी कँटीले वृक्षों की योनियों में, सुअर की, भैंसे की योनि में जा-जाकर डण्डे खाने पड़ेंगे, तब कहीं उनका कल्याण होगा । ऐसे लोगों के लिए भगवान न्यायकारी हैं, उनको दण्ड देकर उनका भला करते हैं । अपराधी व्यक्ति के साथ तो न्याय किया जाय, दण्ड दिया जाय ताकि वह अपराध से बचे । अपराधी पर दया करके छोड़ दोगे तो वह अपराध से नहीं बचेगा । इसीलिए अपराधी के साथ न्याय किया जाता है लेकिन जो पाप को पाप मानते हैं, गलती को गलती मानते हैं प्रायश्चित्त करके छटपटाते हैं और भगवान की शरण जाते हैं उन पर भगवान दया करते हैं । जैसे आपने बदपरहेजी की, गलती करने से बीमार हुए और वैद्य के पास गये तो वैद्य आपको सजा नहीं देता, आपका उपचार करके बीमारी मिटाकर आपको तंदुरुस्त कर देता है, ऐसे ही भगवान हमारी बुद्धि के, हमारे कर्मों के दोष मिटाकर हमें शुद्ध करते हैं यह भगवान की दया है ।

एक होते हैं अपराधी वृत्ति के व्यक्ति और दूसरे होते हैं रुग्ण वृत्ति के व्यक्ति । अपराधी के साथ न्याय किया जाता है और रुग्ण पर दया की जाती है क्योंकि जो रोगी है, लाचार है उसको सहानुभूति की जरूरत है ।

माँ अति उद्दण्ड बच्चे को दण्ड देती है, यह माँ की कृपा है और दूसरा बच्चा जो स्नेह का पात्र है उस पर दया करती है, उसे खिलाती-पिलाती है, दुलार करती है । माँ तो दोनों का मंगल चाहती है । ऐसे ही भगवान माताओं की माता और पिताओं के पिता हैं, भगवान हमारा मंगल ही चाहते हैं । भगवान न्याय भी करते हैं और दया भी करते हैं । भगवान न्यायाकारी हैं यह एक पक्ष हो गया और दयालु हैं यह दूसरा पक्ष हो गया लेकिन वास्तव में भगवान प्राणिमात्र के परम सुहृद हैं । भगवान के वचन हैं-

सुहृदं सर्वभूतानां ज्ञात्वा मां शान्तिमृच्छति ।

‘मेरा भक्त मुझको सम्पूर्ण भूत-प्राणियों का सुहृद अर्थात् स्वार्थरहित दयालु और प्रेमी, ऐसा तत्त्व से जानकर शांति को प्राप्त होता है ।’ (गीताः 5.29)

यह अपनी कमजोरी है कि न चाहने पर भी काम-विकार में गिर जाते हैं, न चाहने पर भी क्रोध आ जाता है, न चाहने प भी लोभ में फँस जेत हैं और पुरानी आदतों में फिसल जाते हैं । यदि वे आदतें खटकती हैं तो आप भगवान को पुकारोः ‘हे अच्युत ! हे गोविन्द ! हे अनन्त ! माधव !….’ वे आपकी मदद करेंगे क्योंकि भगवान दयालु हैं । भगवान का नाम और सत्संग ये दो साधन हैं, ये आपके ऊपर दया की वृष्टि करा देंगे । यदि वे आदतें आपको नहीं खटकती हैं और आप भगवान को मानते ही नहीं हैं तो न्यायकारी भगवान का दण्डचक्र घूमेगा । दण्ड आकर  पाप का फल भुगताकर चला जायेगा, दया आकर पुण्य का फल देकर चली जायेगी लेकिन भगवान उतने ही नहीं हैं, भगवान प्राणिमात्र के परम सुहृद हैं ।

एक बात खास याद रखना कि भगवान ने आपको खुशामदखोर बनने के लिए धरती पर जन्म नहीं दिया है । यह वहम घुस गया है कि हम जरा भगवान की पूजा करें, खुशामद करें तो भगवान खुश होंगे, जैसे अफसर की, नेता की खुशामद करके लोग अपना काम बनाते हैं । इस प्रकार की मानसिकता बहुत तुच्छ है । भगवान आपको दास बनाकर, खुशामद कराके आपका भला करने वालों में से नहीं हैं । भगवान ने आपको खुशामदखोरी के लिए पैदा नहीं किया है, आपको अपने स्वरूप का अमृत देने के लिए पैदा किया है । भगवान ने आपको अपना दोस्त बनाने के लिए पैदा किया है ।

तस्माद्योगी भवार्जुन । (गीताः 6.46)

‘इसलिए तू योगी हो’ अर्थात् मेरे से योग कर, मेरे से मिल । गुलाम को मिलाया जाता है क्या ? नहीं…. अपने से सजातीय को मिलाया जाता है । (जीव और ईश्वर की जाति एक है ।)

ईस्वर अंस जीव अबिनासी । चेतन अमल सहज सुख रासी ।।

अतः भगवान सुहृद भी हैं । जो अपनी गलती को ढूँढता है, स्वीकारता है और निकालने का प्रयास करता है, उस पर भगवान की दया होती है । जो अपने अपराध को मानता है, पश्चाताप करता है और प्रायश्चित्त के लिए छटपटाता है उस पर भी भगवान दया करते हैं । जो अपने अपराध को अपराध नहीं मानता, भूल को भूल नहीं मानता, उसके लिए भगवान न्यायकारी हो जाते हैं । गलतियाँ करोगे तो भगवान हृदय की धड़कनें बढ़ा देंगे । अगर प्रायश्चित्त करोगे और मार्गदर्शन माँगोगे तो निर्भयता मिलेगी । अतः भगवान दयालु भी हैं, न्यायप्रिय भी हैं और परम सुहृद भी हैं ।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, नवम्बर 2009, पृष्ठ संख्या 5,6 अंक 203

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भोगों में चार दोष – पूज्य बापू जी


भोगों में चार दोष हैं । एक तो भोग सदा उपलब्ध नहीं रहते हैं । दूसरा उनको भोगने की रूचि भी सतत नहीं रहती है । तीसरा वे नष्ट हो जाते हैं और चौथा भोक्ता क्षीण होने लगता है । आदमी जितना अधिक भोग भोगेगा उतना बेचैन रहेगा, अशांत रहेगा, बिखरा हुआ रहेगा और उतना ही वह सहनशक्ति और सूझबूझ का धनी नहीं रहेगा तथा जितना कम भोग भोगेगा उतना वह शांत रहेगा, उतनी उसमें सहनशक्ति होगी ।

भोक्ता जितना ज्यादा भोगी होगा उतना वह बिखर जाता है, इसीलिए विलासी आदमी को, भोगी आदमी को, चंचल आदमी को जल्दी चिढ़ आती है । स्वभाव को हमेशा मधुर रखो एवं प्रसन्न रहो । चिढ़, शोक, चिंता को मत आने दो । जिंदगी के 65 साल में से 28-30 साल गुजर गये, बाकी 35-37 साल भी गुजर जायेंगे, ऐसा सोचके निश्चिंत होओ । निश्चिंत रहने से सूझबूझ अच्छी रहती है । ज्यादा चिंता ठीक नहीं । क्या करना, क्या नहीं करना – इसका चिंतन करना चाहिए, लेकिन चिंतन करके फिर आप थोड़े चिंतन से फारिग (मुक्त) हो जायें । चिंतन चिंता न बन जाय – सावधानी रखें, नहीं तो उसमें आप खो जावेंगे । चिंतन में खो मत जायें, नहीं तो भोक्ता क्षीण हो जायेगा ।

भोग भोगने चाहिए, मना नहीं है । मजे से खाओ, खूब चबा-चबाकर खाओ, रस लेते हुए खाओ लेकिन इतना खाओ कि ठीक से पचे, शरीर भारी न लगे, एसिडिटी (अम्लपित्त) न हो और आपको भविष्य में उससे रोग न हों । तो भोक्ता क्षीण न हो जाय – भोक्ता का स्वास्थ्य बना रहे, भोक्ता की अक्ल-सूझबूझ ठीक रहे ऐसा भोजन करो ।

देखो ऐसा, जिसे देखने से विकार उत्पन्न न हों, जिसे देखने से शक्तियाँ कम-से-कम क्षीण हों । आप जितना ज्यादा देखते हैं उतनी आँखों से आपकी रश्मियाँ क्षीण होती हैं । लोग फुटबाल मैच देखने जाते हैं, क्रिकेट मैच देखने जाते हैं… सब पूछो तो क्रिकेट खेलने वाले जो खिलाड़ी हैं वे दर्शक को सुख नहीं देते । स्वयं उन बेचारों के पास ही सुख नहीं है तो वे दर्शकों को सुख थोड़े ही देंगे ! खिलाड़ी खेलते हैं और आपके अंदर खेल की वासना छुपी है, मौका नहीं है खेलने का । आप सुबह मैच देखने आते हैं तब तरोताजा होते हैं और जब आप खेल देखने में तन्मय हो जाते हैं तब आपकी जो आभा, ऊर्जा या जीवनशक्ति की रश्मियाँ हैं वे नेत्रों से पसार होती हैं । जब नेत्रों से आपकी जीवनीशक्ति की रश्मियाँ क्षीण होने लगती हैं तब आपको सुख मिलता है । आप अधिक समय देखोगे तो थक जाओगे, ऊब जाओगे और दूसरा दिन आप नींद के लिए अथवा आराम के लिए खर्च करोगे ।

तो भोगों में चार दोष होते हैं-

1. वे भोक्ता को क्षीण करते हैं ।

2. सदा उपलब्ध नहीं रहते हैं ।

3. मन की उनके प्रति रूचि सदा नहीं रहती ।

4. वे नष्ट हो जाते हैं ।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, नवम्बर 2009, पृष्ठ संख्या 16 अंक 203

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