Yearly Archives: 2009

गौरव भक्ति


(पूज्य बापू जी के सत्संग-प्रवचन से)

भगवान की भक्ति मुख्यतः दो तरह की होती है – गौरव भक्ति और संबंध भक्ति । वैसे भक्ति के कई अवांतर प्रकार हैं ।

हम पृथ्वी पर चलते हैं, दौड़ते हैं, कितना बढ़िया दौड़ते हैं लेकिन पृथ्वी नहीं होती तो कहाँ दौड़ते ? और पृथ्वी क्या हमारी बनायी हुई है ? उस ईश्वर ने बनायी है । तो पृथ्वी उसकी है लेकिन दौड़ने की शक्ति क्या हमारी अपनी है ? यह उसी की महिमा है ।

पृथ्वी होने पर भी पैर नहीं देता तो हम कैसे दौड़ते ? और पैर होते हुए भी बल नहीं देता तो हम कैसे दौड़ते ? अन्न उसका, मन उसका और शरीर उसका ! दौड़ते हैं तो भी उसी का गौरव है । वाह ! प्रभु वाह ! यह तेरा गौरव है । बोलते हैं तो उसी का गौरव है, खाते हैं तो उसी का गौरव है और सोते हैं तो नींद क्या हमने बनायी ?’ तूने दी प्रभुजी ! माँ के शरीर में दूध तूने बनाया…. जहाँ तहाँ भगवान का गौरव याद आ जाय !

काली-कलूटी भैंस हरी-हरी घास खाये और दूध बनाये सफेद, क्या तेरा गौरव है ! कीड़ी में तेरी चेतना छोटी और हाथी में बड़ी दिखती है । महावत में अक्ल-होशियारी दिखती है । वाह प्रभु ! क्या तेरा गौरव है !

कीड़ी में तू नानो लागे, हाथी में तू मोटो ज्यों ।

बन महावत ने माथे बैठो, हाँकनवालो तू को तू ।

ऐसा खेल रच्यो मेरे दाता, जहाँ देखूँ वहाँ तू को तू ।।

यह भगवान की गौरवमयी भक्ति है । गौरवमयी गाथा गाते-गाते, भगवान का गौरव गाते-गाते आपका हृदय भगवन्मय हो जायेगा, रसमय हो जायेगा ।

देखो न, बेटा कितना प्यारा लगता है, आहा ! पर इस प्यारे को बनाया किसने और प्यारे को आँख द्वाररा देखने की सत्ता कहाँ से आयी ? प्यारा लगता है तो इस अंतःकरण में चेतना कहाँ से आयी ? वाह प्रभु तेरा गौरव ! वाह प्यारे तेरी लीला !… देखा है फूल को पर याद करो भगवान का गौरव । बापू दिखें पर बापू में जो बापू बैठा है, वाह मेरे प्यारे ! गुरु बनकर कैसा ज्ञान दे रहा है । वाह मेरे प्रभु ! शिष्य बनकर कितनी भीड़ की है, आहाहा ! वाह प्रभु तेरा गौरव ! इस प्रकार भगवदाकार वृत्ति हो जायेगी । किसी ने अच्छी बात कही तो व्यक्ति के अंदर अच्छाई के सद्गुण की गहराई में तू है, तो भगवान की तरफ नज़र जायेगी । गहराई में तू है, तो भगवान कि तरफ नज़र जायेगी । जहाँ-तहाँ भगवान के गौरव को देखना यह है गौरव भक्ति । भगवान हमारे हैं और उनकी कैसी लीला है ! तो गौरव भक्ति से आपका अंतःकरण अहोभाव से भर जायेगा ।

भगवान के प्रति दास्य भाव, सखा भाव, अमुक भाव रखना यह संबंध भक्ति है । संबंध भक्ति आपके हृदय को, चित्त को, वृत्ति को, आपकी मति को राग से, द्वेष से हटा देगी, चिंता से, भय से, खिन्नता से हटा देगी और भगवद्रस से भर देगी ।

हरड़ लगे न फिटकरी और रंग चोखा आवे ।

संसार का मजा लेने में तो कितनी मेहनत करनी पड़ती है । आलू लाओ, बेसन लाओ और आलू-बड़ा बनाओ… ऐसा करो, ऐसा करो फिर खाओ तब जीभ को रस आया । बोलेः ‘आहा ! आलू-बड़ा खाया !’ पर थोड़ा ज्यादा खाया और पचा नहीं तो ? करते हैं- ओऽ… ओऽ…।’

यह खाने का रस आया पर उसमें भी रसो वै सः वैश्वानरो । यह चैतन्य की चेतना न हो तो ? इतनी मजूरी की पर रस तो ज्ञानस्वरूप तेरा ही गौरव है मेरे प्यारे ! मेरे कन्हैया !

एक बार योगी गोरखनाथ जी जंगल में से कहीं जा रहे थे । एक गडरिये ने कहाः “बाबा ! कहाँ जा रहे हैं ? धूप में, आओ जरा छाँव में बैठो ।”

उस गरीब गडरिये ने प्रेम से रोटी खिलायी और बोलाः “तनिक यहाँ आराम करो बाबा !”

जब गोरखनाथ जी आराम करके जाने लगे तो गडरिया बोलाः “बाबा ! मेरा कुछ करो । मैं अनपढ़, मूर्ख हूँ । मेरी भक्ति कैसे बढ़ेगी, मुक्ति कैसे होगी ?”

“मुक्ति चाहिए क्या ?…. भक्ति चाहिए ?”

“हाँ बाबा !”

“देखो, संयम से शक्ति आती है, प्रीति से भक्ति आती है और ज्ञान से मुक्ति मिलती है । शक्ति, भक्ति और मुक्ति… अब तीनों में से एक को भी पकड़ लो तो बाकी दो आ जायेंगी । चादर का कोई भी एक कोना पकड़ लो तो शेष तीनों अपने-आप हाथ में आ जायेंगे ।”

“बाबा ! मैं तो कालो अक्षर भैंस बराबर जाणूँ, न पढ़ो हूँ न पढ़ूँगो । क्या मेरी मुक्ति हो सकती है ?”

गौरखनाथ जी कहाः “हाँ, आराम से । तू ये बकरियाँ और भेड़ें चराता है न ! ये हरी-हरी, पीली-पीली घास खाती हैं और सफेद-सफेद दूध देती हैं न ?”

किसान बोलाः “हाँ ।”

“कहते रहना – वाह प्रभु ! तेरी लीला अपरंपार है । भेड़ों के ये प्यारे-प्यारे बच्चे, उनकी नन्हीं-नन्हीं आँखें, उनमें तू देखने की सत्ता देता है । कैसे तू घास में से बच्चे और दूध बना देता है ! वाह प्रभु तेरी महिमा !”

इस प्रकार गौरखनाथ जी ने उसे गौरव भक्ति का उपदेश दे दिया । अरे बाबा ! उसको तो ऐसा रंग लगा कि हर समय ‘वाह प्रभु तेरी महिमा !’ जहाँ-तहाँ प्रभु की महिमा देखे । जलाशय में जाय तो मछलियाँ नाच रही, दौड़ रही हैं… सोचे, ‘क्या महिमा है ! क्या तेरी लीला है ! वाह प्रभु तेरी लीला ! वाह प्रभु तेरी महिमा !’ उस जमाने में पान-मसाला तो था नहीं और न प्रदूषण था । दूध और रोटी खाता, कूड़-कपट से दूर रहता । थोड़े ही दिनों में उसका अंतःकरण शुद्ध हो गया और शुद्ध अंतःकरण में सामने वाले की मनोदशा का पता चलने लगता है । हर जीव में यह शक्ति छुपी है ।

एक राजा को सपना आया कि अपना खजाना भर ले । उसने मंत्री से पूछा तो मंत्री ने कहाः “यह अल्लाह-ताला ने सपना नहीं दिया है, आपकी शैतानवृत्ति का काम है ।” तो मंत्री पर गुस्सा करके राजा ने उसे राज्य से निकाल दिया । मंत्री भटकता-भटकता इसी गडरिये के पास पहुँचा ।

गडरिया बोलाः “राजा ने लात मारकर तुम्हें निकाल दिया है लेकिन उस राजा (ईश्वर) की दुनिया तो सभी के लिए है । राजा ने खजाना भरने की बात की थी और तुमने कहा था कि ‘यह भगवान नहीं कहते या अल्लाह नहीं कहते, आपकी शैतानवृत्ति है’ तो सच्ची बात उसको अच्छी नहीं लगी ।”

मंत्री बोलाः “पर तुम्हें कैसे पता चला ?”

“तुममें, हममें, सबमें, जो है वह तो एक है । वाह प्रभु तेरी लीला !”

गोरखनाथ जी ने बता दी है गौरव भक्ति…’ – ये शब्द उसके पास नहीं थे लेकिन भगवान के गौरव को बार-बार याद करने से उसका अपना अहं भगवान में विलीन हो गया था ।

मंत्री दंग रह गया और गौरव भक्ति से गौरवान्वित गडरिये की सिद्धाई का आश्चर्यजनक वृत्तांत भाव-भंगिमा सहित राजा को सविस्तार सुनाया । राजा बड़ा प्रभावित हुआ और उस गडरिये से मिलने के लिए गया ।

राजा को ज्यों-ज्यों उस संत, सज्जन गड़रिये का सत्संग और सान्निध्य मिलता गया, त्यों-त्यों उसको सहज में ईश्वरीय सुख, अल्लाही सुख की झलक मिलने लगी ।

यह गौरव भक्ति का मार्ग भी एक सरल मार्ग है । तुम बनाते-खाते, लेते-देते भगवान के गौरव का बखान करो अथवा तो भगवान के साथ हमारा संबंध है यह पक्का कर लो, उसकी स्मृति बनाओ और उसमें शांत होओ । गौरव गाओ, शांत होओ । शरीर तो मर जायेगा फिर भी आत्मा का संबंध परमात्मा से है । इस प्रकार की स्मृति से भगवान बुद्धियोग देते हैं । भगवान के साथ संबंध भक्ति करो, गौरव भक्ति करो तो आपकी स्मृति में भक्तियोग बढ़ेगा ।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जुलाई 2009, पृष्ठ संख्या 18-20 अंक 199

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बिना मृत्यु के पुनर्जन्म !


एक चोर ने राजा के महल में चोरी की । सिपाहियों को पता चला तो उन्होंने उसके पदचिह्नों का पीछा किया । पीछा करते-करते वे नगर से बाहर आ गये । पास में एक गाँव था । उन्होंने चोर के पदचिह्न गाँव की ओर जाते देखे । गाँव में जाकर उन्होंने देखा कि एक जगह संत सत्संग कर रहे हैं, और बहुत से लोग बैठकर सुन रहे हैं । चोर के पदचिह्न उसी ओर जा रहे थे । सिपाहियों को संदेह हुआ कि चोर भी सत्संग में लोगों के बीच बैठा होगा । वे वहीं खड़े रहकर उसका इंतजार करने लगे ।

सत्संग में संत कह रहे थे – जो मनुष्य सच्चे हृदय से भगवान की शरण चला जाता है, भगवान उसके सम्पूर्ण पापों को माफ कर देते हैं । ‘गीता’ में भगवान ने कहा हैः

सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज ।

अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः ।।

‘सम्पूर्ण धर्मों को अर्थात् सम्पूर्ण कर्तव्यकर्मों को मुझमें त्यागकर तू केवल एक मुझ सर्वशक्तिमान सर्वाधार परमेश्वर की ही शरण में आ जा । मैं तुझे सम्पूर्ण पापों से मुक्त कर दूँगा, तू शोक मत कर ।’ (18.66)

वाल्मीकि रामायण (6.18.33) में आता हैः

सकृदेव प्रपन्नाय तवास्मीति च याचते ।

अभयं सर्वभूतेभ्यो ददाम्येतद् व्रतं मम ।।

‘जो एक बार भी मेरी शरण में आकर मैं तुम्हारा हूँ’ ऐसा कहकर रक्षा की याचना करता है, उसे मैं सम्पूर्ण प्राणियों से अभय कर देता हूँ – यह मेरा व्रत है ।’

इसकी व्याख्या करते हुए संत श्री ने कहाः जो भगवान का हो गया, उसका मानों दूसरा जन्म हो गया । अब वह पापी नहीं रहा, साधु हो गया ।

अपि चेत्सुदुराचारो भजते मामनन्यभाक् ।

साधुरेव स मन्तव्यः सम्यग्व्यवसितो हि सः ।।

‘अगर कोई दुराचारी से दुराचारी भी अनन्य भक्त होकर मेरा भजन करता है तो उसको साधु ही मानना चाहिए । कारण कि उसने बहुत अच्छी तरह से निश्चय कर लिया है कि परमेश्वर के भजन के समान अन्य कुछ भी नहीं है ।’ (गीताः 9.30)

चोर वहीं बैठा सुन रहा था । उस पर सत्संग की बातों का बहुत असर पड़ा । उसने वहीं बैठे-बैठे यह दृढ़ निश्चय कर लिया कि ‘अभी से मैं भगवान की शरण लेता हूँ, अब मैं कभी चोरी नहीं करूँगा । मैं भगवान का हो गया ।’ सत्संग समाप्त हुआ । लोग उठकर बाहर जाने लगे । बाहर राजा के सिपाही चोर के पदचिह्नों की तलाश में थे । चोर बाहर निकला तो सिपाहियों ने उसके पदचिह्नों को पहचान लिया और उसको पकड़के राजा के सामने पेश किया ।

राजा ने चोर से पूछाः “इस महल में तुम्हीं ने चोरी की है न ? सच-सच बताओ, तुमने चुराया हुआ धन कहाँ रखा है ?”

चोर ने दृढ़तापूर्वक कहाः “महाराज  ! इस जन्म में मैंने कोई चोरी नहीं की ।”

सिपाही बोलाः “महाराज ! यह झूठ बोलता है । हम उसके पदचिह्नों को पहचानते हैं । इसके पदचिह्न चोर के पदचिह्न से मिलते हैं, इससे साफ सिद्ध होता है कि चोरी इसी ने की है ।”

राजा ने चोर की परीक्षा लेने की आज्ञा दी, जिससे पता चले कि वह झूठा है या सच्चा ।

चोर के हाथ पर पीपल के ढाई पत्ते रखकर उसको कच्चे सूत से बाँध दिया गया । फिर उसके ऊपर गर्म करके लाल किया हुआ लोहा रखा परंतु उसका हाथ जलना तो दूर रहा, पत्ते और सूत भी नहीं जला । लोह नीचे जमीन पर रखा तो वह जगह काली हो गयी । राजा ने सोचा कि ‘वास्तव में इसने चोरी नहीं की, यह निर्दोष ह ।’

अब राजा सिपाहियों पर बहुत नाराज हुआ कि “तुम लोगों ने एक निर्दोष पुरुष पर चोरी का आरोप लगाया है । तुम लोगों को दण्ड दिया जायेगा ।” यह सुनकर चोर बोलाः “नहीं महाराज ! आप इनको दण्ड न दें । इनका कोई दोष नहीं है । चोरी मैंने ही की थी ।”

राजा ने सोचा कि ‘यह साधुपुरुष है, इसलिए सिपाहियों को दण्ड से बचाने के लिए चोरी का दोष अपने सिर पर ले रहा है ।’

राजा बोलाः “तुम इन पर दया करके इनको बचाने के लिए ऐसा कह रहे हो पर मैं इन्हें दण्ड अवश्य दूँगा ।”

चोर बोलाः “महाराज ! मैं झूठ नहीं बोल रहा हूँ, चोरी मैंने ही की थी । अगर आपको विश्वास न हो तो अपने आदमियों को मेरे साथ भेजो । मैंने चोरी का धन जंगल में जहाँ छिपा रखा है, वहाँ से लाकर दिखा दूँगा ।”

राजा ने अपने आदमियों को चोर के साथ भेजा । चोर उनको वहाँ ले गया, जहाँ उसने धन छिपा कर रखा था और वहाँ से धन लाकर राजा के सामने रख दिया । यह देखकर राजा को बड़ा आश्चर्य हुआ ।

राजा बोलाः “अगर तुमने ही चोरी की थी तो परीक्षा करने पर तुम्हारा हाथ क्यों नहीं जला ? तुम्हारा हाथ भी नहीं जला और तुमने चोरी का धन भी लाकर दे दिया, यह बात हमारी समझ में नहीं आ रही है । ठीक-ठीक बताओ, बात क्या है ?”

चोर बोलाः “महाराज ! मैंने चोरी करने के बाद धन जंगल में छिपा दिया और गाँव में चला गया । वहाँ एक जगह सत्संग हो रहा था । मैं वहाँ जाकर लोगों के बीच बैठ गया । सत्संग में मैंने सुना कि ‘जो भगवान की शरण लेकर पुनः पाप न करने का निश्चय कर लेता है, उसको भगवान सब पापों से मुक्त कर देते हैं । उसका नया जन्म हो जाता है ।’ इस बात का मुझ पर असर पड़ा और मैंने दृढ़ निश्चय कर लिया कि ‘अब मैं कभी चोरी नहीं करूँगा । अब मैं भगवान का हो गया ।’ इसलिए तब से मेरा नया जन्म हो गया । इस जन्म में मैंने कोई चोरी नहीं की, इसलिए मेरा हाथ नहीं जला । आपके महल में मैंने जो चोरी की थी, वह तो पिछले जन्म में की थी ।”

कैसा दिव्य प्रभाव है सत्संग का ! मात्र कुछ क्षण के सत्संग ने चोर का जीवन ही पलट दिया । उसे सही समझ देकर पुण्यात्मा, धर्मात्मा बना दिया । चोर सत्संग-वचनों में दृढ़ निष्ठा से कठोर परीक्षा में भी सफल हो गया और उसका जीवन बदल गया । राजा प्रभावित हुआ, प्रजा से भी सम्मानित हुआ और प्रभु के रास्ते चलकर प्रभुकृपा से परम पद को भी पा लिया । सत्संग पापी-से-पापी व्यक्ति को भी पुण्यात्मा बना देता है । जीवन में सत्संग नहीं होगा तो आदमी कुसंग जरूर करेगा । कुसंगी व्यक्ति कुकर्म कर अपने को पतन के गर्त में गिरा देता है लेकिन सत्संग व्यक्ति को तार देता है, महान बना देता है । ऐसी महान ताकत है सत्संग में !

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जुलाई 2009, पृष्ठ संख्या 26,27 अंक 199

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परिप्रश्नेन


प्रश्नः पूज्य बापू जी ! मैंने ‘वासुदेव सर्वम्’ इस मंत्र को आत्मसात करने का लक्ष्य बनाया था । भले लोगों में तो वासुदेव का दर्शन संभव लगता है परंतु बुरे लोगों में, बुरी वस्तुओं में नहीं लगता तो इस हेतु क्या किया जाय ?

पूज्य बापू जीः गुरुजी वासुदेव स्वरूप हैं, श्रीकृष्ण, गायें आदि वासुदेवस्वरूप हैं – इस प्रकार की भावना तो बन सकती है परंतु जो हमारे सामने ही बदमाशी कर रहा हो उसको वासुदेव कैसे मानें ? कोई बदमाशी कर रहा है, तुम्हे ठग रहा है तो सावधान तो रहो लेकिन उसमें भी वासुदेव के स्वरूप की ही भावना करो । जैसे भगवान श्रीकृष्ण मक्खनचोरी की लीला करते थे, तब प्रभावती नामक गोपी सावधान तो रहती थी लेकिन श्रीकृष्ण को देखकर आनंदित भी होती थी कि ‘वासुदेव कैसी अठखेलियाँ कर रहा है !’ ऐसे ही यदि कोई क्रूर आदमी हो तो समझो कि ‘वासुदेव नृसिंह अवतार की लीला कर रहे हैं’ और कोई युक्ति लड़ाने वाला हो तो समझ लो कि ‘वासुदेव श्रीकृष्ण की लीला कर रहे हैं ।’ कोई एकदम गुस्सेबाज हो तो समझना, ‘वासुदेव शिव के रूप में लीला कर रहे हैं ।’ अच्छे-बुरे, सबमें वासुदेव ही लीला कर रहे हैं, इस प्रकार का भाव बना लो ।

वास्तव में तो सब वासुदेव ही हैं, भला-बुरा तो ऊपर-ऊपर से दिखता है । जैसे वास्तव में पानी है परंतु बोलते हैं कि गंदी तरंगों में पानी की भावना कैसे करें ? नाली में गंगाजल की भावना कैसे करें ? अरे, नाली का वाष्पीभूत पानी फिर गंगाजल बन जाता है और वही गंगाजल नाली में आ जाता है । ऐसे ही वासुदेव अनेक रूपों में दिखते रहते हैं ।

प्रश्नः पूज्य बापूजी ! हमारा लक्ष्य ईश्वरप्राप्ति है परंतु व्यवहार में हम यह भूल जाते हैं और भटक जाते हैं । कृप्या व्यवहार में भी अपने लक्ष्य को सदैव याद रखने की युक्ति बतायें ।

पूज्य बापू जीः कटहल की सब्जी बनाने के लिए जब उसे काटते हैं, तब पहले हाथ में तेल लगा लेते हैं ताकि उसका दूध चिपके नहीं । नहीं तो वह हाथ से उतरता नहीं है । ऐसे ही पहले भगवद्भक्ति, भगवत्पुकार, भगवज्जप, भगवद्ध्यान आदि की चिकनाहट हृदय में रगड़कर फिर संसार का व्यवहार करोगे तो संसार भी नहीं चिपकेगा और तुम्हारा काम भी हो जायेगा ।

प्रश्नः गुरुवर ! आत्मचिंतन कैसे करें ?

पूज्य बापू जीः जो लोग आत्मचिंतन नहीं करते वे सुख-दुःख में डूबकर खप जाते हैं लेकिन आत्मचिंतन करने वाले साधक तो दोनों का मजा लेते हैं । आत्मचिंतन अर्थात् जहाँ से अपना ‘मैं’ उठता है, जो सत्-चित्-आनंदस्वरूप है, जो दुःख को देखता है और सुख को जानता है वह कौन है ? ऐसा चिंतन ।

‘हानि और लाभ आ-आकर चले जाते हैं परंतु मैं कौन हूँ ? ॐॐ….’ ऐसा करके शांत हो जाओ तो भीतर से उत्तर भी आयेगा और अनुभव भी होगा कि ‘मैं इनको देखने वाला द्रष्टा, साक्षी, असंग हूँ ।’

‘विचार चन्द्रोदय, विचारसागर, श्री योगवासिष्ठ महारामायण’ इत्यादि आत्मचिंतन के ग्रंथों का अध्ययन अथवा जिनको ईश्वर की प्राप्ति हो गयी है, उन्होंने ईश्वर तथा आत्मदेव के विषय में जो कहा है वह आश्रम की ‘श्री नारायण स्तुति’ पुस्तक में संकलित किया है, उसे पढ़ते-पढ़ते शांत हो जाओ, हो गया आत्मचिंतन !

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जुलाई 2009, पृष्ठ संख्या 24 अंक 199

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