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दुःखी न होना तुम्हारे हाथ की बात है ! – पूज्य बापू जी


तुम निंदनीय काम न करो फिर भी अगर निंदा हो जाती है तो घबराने की क्या जरूरत है ? तुम अच्छे काम करो, प्रशंसा होती है तो जिसने करवाया उसको दे दो । बुरे काम हो गये तो प्रायश्चित्त करके रुको लेकिन जरा-जरा सी बात में थरथराओ मत । संसार है, कभी दुःख आयेगा, कभी सुख आयेगा, मान आयेगा, अपमान आयेगा, यश आयेगा, अपयश आयेगा । कभी बेटा कहना नहीं मानेगा, कभी पत्नी कहना नहीं मानेगी, कभी पति कहना मानेगा, कभी नहीं भी मानेगा । कभी पति की चलेगी, कभी पत्नी की चलेगी, कभी बेटे की चलेगी, कभी पड़ोसी की होगी, कभी उस पार्टी की होगी, कभी इस होगी – इसी का नाम तो दुनिया है ।

खूब पसीना बहाता जा, तान के चादर सोता जा ।

यह नाव तो हिलती जायेगी, तू हँसता जा या रोता जा ।।

ज्ञानियों के लिए सारा संसार तमाशा है । ‘लोग अन्याय करें तो क्या बड़ी बात है, मैं अपने-आपसे तो अन्याय नहीं करता हूँ ?’ – ये बातें तुमको सत्संग में मिलेंगी । चाहे तुम संत कबीर जी न हो पाओ, तब भी कुछ अंश में दुःख से बच पाओगे । ‘अरे, अल्लाह, भगवान साक्षी हैं । उसके मुँह में कीड़े पड़ें । मैंने ऐसा नहीं किया, वह झूठा आरोप लगा रहा है…. ।’ अरे, कबीर जी पर कलंक लगा तो तेरे पर जरा लग गया तो क्या परवाह है ! नानकदेव जी पर लगा तो तेरे पर किसी ने कुछ धब्बा लगा दिया तो चिंता मत कर, वह अंतर्यामी तो देखता है न ! हम अचल, हमारा चित्त अचल !

समता के साम्राज्य पर पहुँचे हुए नानक जी, कबीर जी, तुकाराम जी महाराज, नरसिंह मेहता जैसे संतों की लोग जब निंदा करते हैं तो वे उद्विग्न नहीं होते, शांत रहते हैं पर आम लोग तो निंदा होने पर परेशान हो जाते हैं, सफाई देने लग जाते हैं कि ‘भगवान की कसम हमने ऐसा नहीं किया, वैसा नहीं किया….।’

कोई चाहे कैसा भी व्यवहार करे, दुःखी होना-न-होना तुम्हारे हाथ की बात है, आसक्त होना-न-होना तुम्हारे हाथ की बात है । तुमने क्या किया ? जो अपने अधिकार की चीज है वह दूसरों को दे दी, बड़े दाता बन गये ! बाहर की चीजें नहीं दीं । अपने हृदय को कैसे रखना यह तुम्हारे अधिकार की बात है लेकिन यह अधिकार तुमने दूसरों को दे दियाः ‘फलाना आदमी ऐसा करे तो हमको सुख मिले, कोई निंदा न के तो हम सुखी रहें । यह ऐसा हो जाय, वह वैसा हो जाय तो हम सुखी हो जायें….।’ तुमने अपने हृदय को जर्मन खिलौना बना दिया, कोई जैसे चाबी घुमाये ऐसे घूमना शुरु कर देते हो । लोग वाहवाही कर सकते हैं लेकिन अहंकार करना-न-करना तुम्हारे हाथ की बात है । लोग निंदा कर सकते हैं लेकिन गुस्सा होना, भयभीत होना, चिढ़ना-न-चिढ़ना तुम्हारे हाथ की बात है । मान लो, तुम्हारी निंदा किसी गलत कारण से हो रही है और तुम उसमें बिलकुल शामिल नहीं हो तो लाखों-लाखों लोगों को समझाना तुम्हारे हाथ में नहीं है । पूरी दुनिया को चमड़े से ढकना तुम्हारे बस की बात नहीं है, अपने पैरों में जूते पहनकर काँटों से सुरक्षा कर लेना आसान है । ऐसे ही तुम महापुरुषों के जीवन से सीख लेकर समता में रहो । अपने से निंदनीय काम न हों, सावधान रहो, फिर भी निंदा होती है तो भगवान को धन्यवाद दो कि ‘वाह प्रभु ! तेरी बड़ी कृपा है ।’

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जुलाई 2009, पृष्ठ संख्या 16 अंक 199

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वास्तविक भगवान


(पूज्य बापू जी के सत्संग-प्रवचन से)

अपने शास्त्र, इष्टमंत्र और गुरु परम्परा – इन तीन चीजों से पूर्णता प्राप्त होती है । मनमाना कुछ किया और सफलता मिली तो व्यक्ति अहंकार में नष्ट हो जायेगा और विफलता मिली तो विषाद में जा गिरेगा । साधना ठीक है कि नहीं यह कैसे पता चलेगा ? यह आत्मानुभव है या कोई और अनुभव है – यह किसी से तो पूछना पड़ेगा ? मुझे देवी दिखती है, देवता दिखते हैं, भगवान दिखते हैं… अरे, तुम्हारी भावना के भगवान कब तुम्हारे साथ रहें और कब झगड़ा हो जाय कोई पता नहीं । कब तुम्हारी भावना के भगवान से तुमको अलग होना पड़े कोई पता नहीं । जय-विजय वैकुण्ठ से भी गिरे थे ।

एक व्यक्ति खूब पढ़े थे – बी.ए. बी. एड. किया, एम. ए. एम. एड. किया, पी. एच. डी. की, डी. लिट. किया । देखा कि नौकरी कर-करके जिंदगी पूरी हो रही है तो साधु बन गये । वृंदावन में आकर बाँकेबिहारी की भक्ति करते थे । नंदनंदन यशोदानंदन श्रीकृष्ण को बालक रूप में मानते थे । किसी गरीब का बालक मिल गया, बड़ा प्यारा लग रहा था । उसी बालक की कृष्ण के रूप में उपासना करने लगे । यशोदा माँ जैसे कृष्ण को उठातीं वैसे वे उस बालक को उठाते, नहलाते-धुलाते, खिलाते-पिलाते । साधु उस बालक में कृष्णबुद्धि करके सारा दिन  उसकी पूजा में बिताते थे । एक दो तीन साल के होते-होते उनके कृष्ण-कन्हैया सोलह साल के हो गये । वे ठाकुर जी युवराज श्री कृष्ण हो गये तब भी उनको बड़े लाड़-प्यार से पालते, पीताम्बर पहनाते, बंसी देते, आरती करते ।

एक दिन उनको सूझा कि मेरे प्रभु जी को प्रभुदत्त ब्रह्मचारी जी के पास ले जाऊँ । प्रभुदत्त भी खेले कि ‘चलो, आ जाओ चुनाव में, हम भी तुम्हारे सामने खड़े रहेंगे, फार्म भरेंगे, क्या हो जायेगा ? तुम्हारे से थोड़े मत (वोट) कम मिलेंगे लेकिन हमको भी दुनिया जानती है ।’ नेहरूजी के सामने खड़े रहकर उन्होंने पचपन हजार मत ले लिए । तो ऐसे विनोदी थे, खिलाड़ी थे । साधु अपने ठाकुर जी को उनके पास ले गये । प्रभुदत्त ब्रह्मचारी ने समझाया कि भावना के भगवान और वास्तविक भगवान में कुछ अंतर भी समझो । इस सोलह साल के छोरे को तुम भगवान मानते हो लेकिन सचमुच में भगवान श्रीकृष्ण थे तब भी अर्जुन का दुःख नहीं मिटा था । जब भगवान श्री कृष्ण ने भगवत्-तत्त्व का, सच्चिदानंद प्रभु तत्त्व का ज्ञान दिया और अर्जुन ने स्वीकार किया तभी दुःख मिटा । साधु बात मानने को तैयार नहीं हुआ, बोला ‘मेरे ये बाल-गोपाल अभी युवराज कृष्ण हैं, मेरे मुक्तिदाता है ।’

अब प्रभुदत्त ब्रह्मचारी खिलाड़ी ठहरे । उन्होंने सोलह वर्ष के कृष्ण-कन्हैया को थोड़ा दूर जंगल में घुमाने के बहाने ले जाकर प्रश्नोत्तर करते-करते, बातचीत करते-करते रँग दिया । किसी गरीब का लड़का था और ठाकुर जी होकर मजा ले रहा था । प्रभुदत्त ब्रह्मचारी के संग से भगवान का व्यवहार जरा बदला हुआ मिला तो वह साधु उस लड़के को बोलाः “ऐसा कैसे हो गया रे तू ?”

लड़काः “अभी भगवान मानते थे और अभी ‘तू’ बोल रहे हो, शर्म नहीं आती ? मैं तो कृष्ण हूँ ।”

साधुः “अरे, तू काहे का कृष्ण है ?”

अब भक्त और भगवान में जरा तू-तू, मैं-मैं हो गयी । उस साधु ने कहाः “अच्छा ठाकुर जी ! मैं तुझे दिखाता हूँ ।”

वह उसको बातों में लगाके जंगल में ले गया और जमकर पिटाई की । आज तक भगवान ने मक्खन-मिश्री खायी, दुपट्टे पहने और मजा लिया था । जब धाऽड़-धाऽड़ करके पिटाई हुई तो वे भगवान कैसे भी करके जान छुड़ाकर भागे और रेलवे स्टेशन पर जा पहुँचे ।

प्रभुदत्त ब्रह्मचारी को पता चला । वे वहाँ पहुँच गये और उस लड़के से बोलेः “तुम्हारी उनकी नहीं बनती है तो मेरे यहाँ रहो । अब जाके झोंपड़ी में रहोगे और खेत-खली में तपोगे, काले बन जाओगे । ठाकुर जी जब थे तब थे, अब तुम ब्रह्मचारी होकर मेरे पास ही रह लो । भगवान को थोड़ा शास्त्रों का ज्ञान होना चाहिए । सर्वज्ञ हरि ! अपने सर्वज्ञ स्वभाव को भी जानो । ‘भागवत’ में आता है कि भगवान श्रीकृष्ण ने भी युधिष्ठिर महाराज के यज्ञ में साधुओं का सत्कार किया था, उनके चरण धोये थे, उनकी जूठी पत्तलें उठायी थीं ।”

सोलह वर्ष के भगवान को यह बात जँच गयी । वह लड़का प्रभुदत्त ब्रह्मचारी  के यहाँ जैसे आश्रम में साधक रहते हैं ऐसे रहा ।

यह प्राचीनकाल की कहानी नहीं है । इस युग की, नेहरू जी के जमाने की घटित घटना है । भगत होना अलग बात है, भावना अलग बात है लेकिन सत्य अलग बात है । वे कोई बुरे हैं ऐसी बात नहीं लेकिन वहीं के वहीं भावना के जगत में घूम रहे हैं । नामदेव जी भगवान के दर्शन करते थे, तब भी भगवान बोलेः ‘विसोबा खेचर के पास जाओ ।’ सती जी को शिवजी बोलते हैं कि वामदेव गुरु जी से दीक्षा लो और काली ने अपने पुजारी गदाधर को कहा कि तुम गुरु तोतापुरी जी से दीक्षा ले लो और गुरु तोतापुरी जी ने गदाधऱ पुजारी को रामकृष्ण परमहंस पद पर पहुँचाया । हम बचपन में शिवजी की उपासना करते थे और वही करते रहते तो हमें बहुत-बहुत तो शिवजी के जाग्रत में दर्शन हो जाते और शिवजी आकर वरदान, आशीर्वाद देकर अंतर्धान हो जाते पर मैं गुरु जी के चरणों में गया, डटा रहा तो मेरा उज्जवल अनुभव है । मेरा रब अब मेरे से दूर नहीं । अब मेरा प्रभु वरदान देकर अंतर्धान होने वाला नहीं, मेरे से बिछड़ने वाला नहीं, दूर नहीं, दुर्लभ नहीं ।

ईशकृपा बिन गुरु नहीं, गुरु बिना नहीं ज्ञान

ज्ञान बिना आत्मा नहीं, गावहिं वेद पुरान ।।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जुलाई 2009, पृष्ठ संख्या 14,15 अंक 199

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सर्वज्ञ होते हुए भी अनजान


(पूज्य बापू जी के सत्संग-प्रवचन से)

‘विष्णुसहस्रनाम’ के 64वें श्लोक में भगवान का एक नाम दिया गया है ‘अविज्ञाता‘ अर्थात् अनजान । भगवान सबके आत्मा बनकर बैठे हैं तो सब कुछ जानते हैं लेकिन बड़े अनजान भी हैं । कैसे ? इसकी व्याख्या करते हुए भक्तजन बोलते हैं कि ‘भक्तों के दोष देखने में भगवान अनजान हैं ।’

भक्तों ने जो व्याख्या की है हम उसका विरोध नहीं करते, उनको धन्यवाद देते हैं लेकिन मेरी व्याख्या भी उसमें जोड़ दो कि ‘भक्त का, मनुष्य का, प्राणियों का अहित करने में भगवान अनजान हैं । जैसे माँ बच्चे का अहित नहीं कर सकती, ऐसे ही भगवान हमारा अहित नहीं कर सकते ।’

भक्त के दोष देखने में भगवान अनजान रहेंगे तो उसके दोष निकालेंगे कैसे ? वह निर्दोष कैसे बनेगा ? किसी का अमंगल करने का ज्ञान भगवान में नहीं है, दण्ड देंगे तो भी मंगल के लिए । जैसे माँ चपत लगायेगी तो भी मंगल के लिए और मिठाई खिलायेगी तो भी मंगल के लिए ।

भगवान को उलाहना दिया करो, उनसे छेड़खानी कर लिया करो कि ‘महाराज ! हम चाहे अज्ञानी हैं, अनजान हैं लेकिन आप भी अनजान हैं । हमारा अहित करने में आप अनजान हैं । है क्या ताकत आपमें हमारा अहित करने की, बोलो ?’ ऐसे आप भगवान को भी चुनौति (चैलेंज) दिया करो । भगवान वहाँ हार जायेंगे । जैसे – एक बच्चे ने माँ को चुनौती दी कि “माँ ! तू हमारा अमंगल नहीं कर सकती । हिम्मत है तो कर के दिखा ।” तो माँ बोलीः “इधर आ दिखाती हूँ !” बच्चा बोलाः “कुछ भी हो माँ ! तू अमंगल नहीं कर सकती ।” माँ बोलीः “अरे नटखट ! इधर आ तेरे को दिखाती हूँ ।” ऐसा करके कान पकड़कर धीरे से तमाचा लगाया । बोलीः “देख, मैंने तेरे को ठीक कर दिया न !” बच्चा बोलाः “हाँ, अहंकार से हम बेठीक हो गये थे, आपने तमाचा मारकर ठीक ही तो किया माँ ! अमंगल तो नहीं किया ! मैया रे मैया… प्रभु रे प्रभु…. हा हा हा….!”

ऐसे ही ठाकुर जी जो भी करेगे हमारे हित के लिए ही करेंगे । भगवान किसी का अमंगल नहीं कर सकते । जैसे – हम हमारे शरीर के किसी अंग का अमंगल नहीं करेंगे, चाहे उसको कटवा दें फिर भी अमंगल नहीं करेंगे, भलाई के लिए थोड़ा हिस्सा कटवायेंगे । भगवान कहते हैं-

सुहृदं सर्वभूतानां ज्ञात्वा मां शान्तिमृच्छति ।

‘मेरा भक्त मुझको सम्पूर्ण भूत-प्राणियों का सुहृद अर्थात् स्वार्थरहित दयालु और प्रेमी, ऐसा तत्त्व से जानकर शांति को प्राप्त होता है ।’ (गीताः 5.29)

एक बार नारायण बापू (पूज्य बापू जी के मित्र संत) किसी बात पर आ गये तो मैं खूब हँसा । उन्होंने थोड़ा दम मारा तो मैं और हँसा । बोलेः “क्यों हँसते हो ?” मैं बोलाः “तुम्हारी ताकत नहीं है…!” महाराज पहुँचे हुए थे, अदृश्य होने की सिद्धियाँ थी उनके पास और जो भी संकल्प करते थे सफल होता था, यह भी मैं जानता था । नल गुफा में हमारे साथ रहते थे । सिद्धपुरुष थे लेकिन उनको मैंने दम मार दिया । मैंने कहाः “आपकी ताकत नहीं है….!” तो मेरी ओर देखने लगे । वे जानते थे कि मैं उनकी ताकत को जानता हूँ । मैंने कहाः “आप अहित कर ही नहीं सकते ।” फिर हँसने लगे । ऐसे आप भी कभी-कभी भगवान को चुनौती दिया करो कि ‘महाराज ! आप हमारा अमंगल करने में अनजान हैं, आपकी ताकत नहीं कि हमारा बुरा कर सको ।

साधु ते होई न कारज हानी । (श्री रामचरित. सुं.कां. 5.2)

आपके साधु भी हमारे कार्य की हानि नहीं कर सकते तो आप क्या कर सकते हो ? आप तो संतों के संत हैं । प्रभु ! आप हमारा अहित कैसे कर सकते हो ?’

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जुलाई 2009, पृष्ठ संख्या 12,13 अंक 199

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