Yearly Archives: 2009

पृथ्वी का देव व स्वर्ग का देव


(पूज्य बापू जी के सत्संग-प्रवचन से)

एक होता है पृथ्वी का देव, दूसरा होता है स्वर्ग का देव । मनुष्य तपस्या और पुण्य करके स्वर्ग का देव बनता है, फिर वैभव, सुख और अप्सरा आदि का नाच-गान आदि भोग भोगकर उसके पुण्य का क्षय होता है । जो कष्ट सहता है, तपस्या करता है, जप करता है नियम करता है, सदगुरु को रिझाता है और सद्गुरु-तत्त्व को पाने का यत्न करता है, भोग के लिए स्वर्ग के लिए कर्म नहीं करता लेकिन कर्म के लिए कर्म करता है और कर्म का फल भगवान को, सद्गुरु को अर्पित कर देता है वह पृथ्वी का देव है । स्वर्ग का देव अप्सराओं का सुख भोगके पुण्य-नाश करता है और पृथ्वी का देव तपस्या करके पाप-नाश करके अपने सुखस्वभाव में जग जाता है ।

      स्रोतः ऋषि प्रसाद, जून 2009, पृष्ठ संख्या 13 अंक 198

ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ

तेषां सततयुक्तानां…. पूज्य बापू जी


भगवान श्री कृष्ण कहते हैं-

तेषां सततयुक्तानां भजतां प्रीतिपूर्वकम् ।

ददामि बुद्धियोगं तं येन मामुपयन्ति ते ।।

‘उन निरंतर मेरे ध्यान आदि में लगे हुए और प्रेमपूर्वक भजने वाले भक्तों को मैं वह तत्त्वज्ञानरूप योग देता हूँ, जिससे वे मुझको ही प्राप्त होते हैं ।’ (भगवद्गीताः 10.10)

सततयुक्तानां…. ‘सततयुक्त’ का अर्थ ऐसा नहीं कि आप सतत माला घुमाते रहो या मंदिर में बैठे रहो । हाँ, माला के समय घुमाओ, मंदिर के समय मंदिर में जाओ लेकिन फिर भी इन सबके साक्षी होते-होते, इस जगत के मिथ्यात्व को देखते-देखते जिससे सब हो रहा है उसमें सतत गोता लगाओ । रटने वाले लोग तो रटन करते-करते रटनस्वरूप हो जाते हैं लेकिन रटन में ही रुकना नहीं है, उससे भी आगे आत्मपद को समझना है, उसमें प्रीति और विश्रांति पानी है ।

एक बार संत तुलसीदास जी जंगल में शौच से निवृत्त होकर किसी कुएँ पर पानी लेने के लिए आये तो उनको उस कुएँ से चौपाइयाँ गाने की आवाज सुनायी पड़ी । गोस्वामी तुलसीदास चकित हो गये कि ‘मेरी चौपाइयाँ कुएँ के भीतर कौन गा रहा है ?’ तुलसीदास जी ने कहाः “मनुष्य हो, यक्ष हो, राक्षस हो, गंधर्व हो, किन्नर हो या प्रेत हो, व्यक्त हो या अव्यक्त हो, जो भी हो मुझे अवश्य उत्तर मिले कि चौपाई गाने वाले आप कौन हो ?”

आवाज आयी कि ‘हे मुनिशार्दूल ! हे तुलसीदास जी ! हम पाँच मित्र थे । हम राम-राम रटते थे लेकिन राम के सातत्य स्वरूप को नहीं जानते थे । आपकी चौपाइयाँ और दोहे भी आपस में गाते थे । घूमते-घामते इस जंगल में सैर करने आये । हमारा मित्र पानी भरने को इस कुएँ पर आया । पानी भरने का अभ्यास न होने के कारण उसके हाथ से रस्सी छूट गयी । रस्सी छूट गयी तो संतुलन भी बिगड़ गया और वह कुएँ में गिर पड़ा । उस मित्र को बचाने के प्रयास में दूसरा भी गिर पड़ा, तीसरा भी गिर पड़ा । चौथा भी गिरा तो पाँचवाँ ‘कौन सा मुँह दिखाऊँगा’ यह सोचकर जानबूझकर कूद पड़ा । हम अवगत होकर मरे हैं । हमें अब गर्भ नहीं मिल रहा है लेकिन पुराना चौपाइयों के रटन का सातत्य हैं, इसलिए हम रट रहे हैं । सातत्य के आधार को हमने नहीं जाना तुलसीदास जी ! अब हम पर कृपा हो जाय ।’

सततयुक्त‘ का अर्थ यह नहीं कि सतत कोई धुन लेकर चले । सतत कोई फोटो गले में बाँधकर चले तो भी सततयुक्त नहीं होता है क्योंकि जिस देह को फोटो बाँधा है वह देह छूट जायेगी । जिन आँखों से फोटो देखते हैं वे आँखें भी एक दिन राख में बदलकर मिट्टी में मिल जायेंगी । जिसकी सत्ता से तुम ‘मैं’ कह रहे हो, जिसकी सत्ता से तुम्हारा मन और बुद्धि स्फुरित हो रहे हैं और मन बुद्धि इन्द्रियों में आकर जगत का व्यवहार करते हैं उस सत्ता के अस्तित्व का तुम्हें अनुभव हो जाय, ऐसे विचार यदि तुम्हारे चित्त में घूमते रहें तो तुम सतत उसका अनुभव कर सकते हो । सतत का अर्थ है कि तुम अनन्यभाव से ब्रह्म में रहो ।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जून 2009, पृष्ठ संख्या 25 अंक 198

ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ

तर्क से नहीं होता तत्त्वज्ञान


(समर्थ स्वामी-रामदासजी महाराज की वाणी)

सत्य खोजते-खोजते प्राप्त हो जाता है । हे मन ! बोध होते-होते होता है । ज्ञान होता है परंतु यह सब केवल श्री सद्गुरु की प्राप्ति और सहवास प्राप्त होने से और सद्गुरु-स्वरूप में व्यक्त, सदेह, सगुण परमात्मा की कृपा और उनका अनुराग प्राप्त करने से ही हो सकता है । अतः सद्गुरु के सत्संग का लाभ लेकर ब्रह्म-निश्चय को प्राप्त करो ।

संतोष की प्राप्ति पिण्ड-ब्रह्माण्ड के ज्ञान से नहीं होती । तत्त्व का ज्ञान बौद्धिक तर्क और अनुमान तथा ज्ञान से नहीं होता, कर्म में संलग्न रहने से, यज्ञ करने से तथा शरीर द्वारा विषयों के भोग को त्याग करने से नहीं होता । वह संतोष और समाधान तथा वह शांति तो श्री सद्गुरु जी की कृपादृष्टि और उनकी प्रीति से ही प्राप्त होती है ।

‘तत्त्वमसि’ महावाक्य, वेदांत-तत्त्व, वेदांत में आया हुआ पंचीकरण सिद्धांत – ये सब संकेत हैं, और  जो वाणी से परे स्थित उस परब्रह्म की और श्री सद्गुरु द्वारा किये गये हैं । इन संकेतों का आधार लेकर सद्गुरु की सहायता से सत्शिष्य को अपने अंतःकरण में ब्रह्मसाक्षात्कार उसी प्रकार करना होता है, जिस प्रकार आकाश में द्वितीया का चंद्रमा शाखा का संकेत देकर दिखाने वाले संकेत के आधार पर व्यक्ति को शाखा को छोड़ चंद्रमा को स्वयं ही देखना होता है और न दिखने पर चंद्रमा दिखने तथा दिखाने वाले व्यक्ति से बार-बार पूछना होता है और अंत में चंद्रमा को साक्षात् देखना होता है ।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जून 2009, पृष्ठ संख्या 13 अंक 198

ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ